मैं कौन हूँ ?
क्या जीवन भर इसका उत्तर बदलता नहीं रहा ।
मुझे क्या चाहिये ?
क्या यह उत्तर भी बदलता नही रहा ..
मेरा कौन कौन है ?
क्या यह भी बदलता नही रहा ...
काश किसी जीवन मैं केवल प्रियतम की ही वस्तु होती , उनके रस साम्रज्य में कोई माटी की मटकी ही होती ।
काश मेरी सभी अपूर्णता से निकली अपूर्ण इच्छायें कभी पूर्ण की इच्छा कर जाती , मुझे उत्तर मिल जाता कि मुझे क्या चाहिये , मेरी अपूर्णता का अंत तो पूर्ण में समावेश होने पर ही है ।
काश युगों से मेरे सम्बन्ध बदलते हुये अनुभूत होते , किसी योनी में मैं कोई कीड़ा था तब उस प्रजाति में अपना सम्बन्ध देखता था , और आज उसी प्रजाति से भयभीत हो उठता हूँ । वास्तव में मुझे बोध हो जाता प्रारम्भ से मेरे पृथक अस्तित्व तक मेरा अपना कौन है , जो कभी बदला नहीं , जलचर - नभचर - कृमि होने पर भी कौन मेरे जीवन के हेतु का निवर्हन करता रहा ,अब तक किसने सम्भाला , किसके भीतर मेरे पशुत्व को भेद अमृत्व हेतु यह देव दुर्लभ योनि की भावना जगी , और इस दुर्लभ योनि के दुरपयोग से मैंने किसे कष्ट दिया , कौन है जिसे मेरा हित मुझसे भी अधिक सदा प्रिय रहा ? कौन है सच में मेरा , किसका सदा से मैं हूँ , कौन है जो स्वप्न में भी संग है , कौन है जिसके भरोसे मुझे यह विश्वास रहता है स्वप्न में मेरी श्वांस यथावत् रहेगी , कोई तो है संग जो मेरे अंदर बाहर कभी फैलता है और कभी सिकुड़ कर मुझे छु लेना चाहता है ?
... मानव तू कब तक नव नव पहचान को अपनी कहेगा , तेरी एक ही पहचान है , तू किसी की छाया है , किसकी बस वही तो तेरी पहचान है । भृमित न रह , जो अपना है उसे मान लें , उसे ही जान लें , उसे ही स्वीकार कर लें , क्योंकि तेरा उसे भूलने पर भी वह तुझे नही भूलता ... क्या तेरे संसार में कोई है जिसे तू भूल जाएं और वो तुझे ना भूले ।
एक प्यास जगा बावरे , तेरी सब प्यास पूरी हो सकती है , इसलिये तू झूठी नहीं सच्ची प्यास जगा , भले अब भी युग लग जाए तेरे उस संग मिलन में बस तू उसके लिये बावरां हो जा ... एक बार में मिल सकें इतनी सस्ती चीज़ नही वो , वो बेशकीमती है और तेरा वही है , जब तक तू है वह नही अतः तेरी पृथक पहचान को स्वीकार ना कर , उसकी ही पहचान तेरी पहचान है । तू समुद्र की तरंग है , पर समुद्र के बाहर तू कुछ नही , संसार एक तरंग है किसी समुद्र की और वही समुद्र तेरा अपना है । यह तरंग नही तेरी , यह उठेगी और गिरेगी , पर जिसमें तू डूबा है वह कौन है , अखिल ब्रह्माण्ड उस परम् के गर्भ में है , जिसे तू ब्रह्माण्ड कहता है वह उसके रोम कूप भर है , फिर तेरा पृथक अस्तित्व स्वीकार कर वह तुझसे प्रेम करें यह उसकी करुणा है , अंग के सड़ जाने पर तू बहिष्कार कर देता है , अपने रोम कूप से तो तू कभी सम्बन्ध रखा ही नही होगा, देख जिसके रोम रोम में नव सृष्टि हो वह तेरे को जानता है और मानता है , तेरी लघुता और उसकी विभुता का मिलन नहीं अतः वह अपनी विभुता त्याग तेरी लघुता का भी विकास करता है , और देता है एक महतत्व जो तेरी प्यास बन तुझे पुनः उसमें ही निहित कर दें ।
उससे पृथक तेरी पहचान तेरा अंत है मानव , तूने अपने को खो दिया -- सत्यजीत तृषित ।
No comments:
Post a Comment