Tuesday, 12 July 2016

अभिव्यक्तियां भी प्राणमय होती है , तृषित

अभिव्यक्तियां भी प्राणमय होती है , उनमें अनुभूतियाँ बिखरती है , और अनुभवमय अपनी बोलती अभिव्यक्ति से अपनी अनुभूति को सत्य जानता है ।
ईश्वर के विलास से विस्तार होता यह विस्तार अभिव्यक्ति है , उनकी रचना है । जब यह चित्र सजीव भाव देते तब अपनी ही रचना प्रेम का उपहार होने से कभी स्व से अधिक रचनाकार को प्रिय हो जाती है । यह रचनाकार का अहम नहीं , रचनाकार ने स्वयं को व्यक्त करने के प्रयास किये पर वह अव्यक्त ही रह जाता , फिर रचना में उसका वही तत्व उतरता जो उसकी रूह में छिपा , अतः कभी कभी रचनाकार स्वयं की रचना संग पूर्ण होते है क्योंकि यही वह भाव था जो व्यक्त नही हो सकता था , जिसे बहुत खोजा था यह उस अनुभूति की छाया है - उस अव्यक्त आह्लाद का उन्माद जो व्यक्त हो गया ... वह है अभिव्यक्ति । किसी सच्चे रचनाकार को पूछा जाये आप और आपकी रचना में किसी एक चुनाव में हम किसे चुने तब कोई भी रचनाकार अपनी रचना को ही आगे कर कहेगा , न भी कहे तो भीतर चाहेगा । रचना केवल आकृति या शब्द समूह है , कल्पना परन्तु उसमें कुछ ऐसा अव्यक्त निहित रस बह गया जिसके लिये सजीव स्वयं निर्जीव और निर्जीव में सजीव अनुभूत हो उठता है , और इस भावना से वह रचना फिर निर्जीव नहीं एक प्राणमय होती है । कोई रचनाकार अपनी रचना को निर्जीव नहीं कहेगा , जबकि तत्वतः वह सजीव है नहीं उसमें जो सजीव है वह रचनाकार का अव्यक्त रस जो स्वतः रसमय रचनाकाल में बह गया ।

ईश्वर संग भी ऐसा ही है , वह रसमय अतः रचनाकार स्व रस आलोढन में . ... ! उसे स्वयं में जो खींचता वह उनकी आह्लादिनी शक्ति यानी अनुभूति उसी आह्लादिनी के रस को जीने में जो कुछ प्रकाश और रस बिखरा - महका वही ईश्वर की रचना । उनका व्यक्त प्रेम , अपने ही अव्यक्त प्रेम रस आलोढ़न में , चूँकि जैसे ईश्वर आह्लादिनी को व्यक्त नही कर सकते जीव भी अनुभूति को कह कर भी कभी नही कह सकता , बल्कि वह गहरा जाती है । यही रस वितरण प्रणाली होती है परस्पर परिपूरक भावना से ... ... सत्यजीत तृषित ।।।
श्यामसुंदर का वेणु वाद उनके साकार रूप अभिव्यक्त होने पर भी उनका आंतरिक रस है जो "अव्यक्त" है ! नाद ब्रह्म है वेणु , नाद से ही संगीत के स्वर बिखरे है और वह नाद उनकी निज अनुभूति की बाह्य अभिव्यक्ति है , पूर्ण रस अनुभूति व्यक्त हो नही सकती । अनुभूति जब बहेगी अभिव्यक्ति हो जायेगी ।
सत्यजीत तृषित

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