Sunday, 17 July 2016

धर्म के अंग

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1. सत्य - सत्य ही परमात्मा है ।सत्य और परमात्मा भिन्न नहीँ हैँ । जहाँ सत्य है वहीँ परमात्मा है । जो असत्य बोलता है ,उसके पुण्यो का क्षय होता है ।सत्य का आश्रय लेकर नर नारायण के समीप जा सकता है । जो मितभाषी है वह सत्यवादी हो सकता है ।
2. तप - दुःख सहकर परमात्मा की आराधना करना ही तप है ।दुःख सहता हुआ प्रभु का भजन करे वही श्रेष्ठ है । जीभ जो माँगे वह सब कुछ उसे देते मत रहो । कुछ सहन करना भी सीखे ।इन्द्रियो का स्वामी आत्मा है । इन्द्रिय जो कुछ माँगे उसे देने पर आत्मा उसका गुलाम बन जायेगा । उपवास करने से पाप भस्मीभूत होते है । भगवान के लिए कष्ट सहना , दुःख सहना ही तप है । वाणी मेँ भी संयम होना चाहिए ।
3. पवित्रता - कलियुग मेँ तो बाहर से सब पवित्र लगते हैँ किन्तु अन्दर से सभी मलिन हो गये हैँ ।वस्त्रो का दाग तो मिट जाता है किन्तु हृदय की कालिमा कभी नहीँ मिट सकती । जीवात्मा सब कुछ छोड देता है किन्तु मन को नहीँ ।पूर्वजन्म का शरीर नहीँ रहता किन्तु मन तो रहता ही है ।लोग वस्त्र , अन्नादि की देखभाल तो खूब करते हैँ किन्तु साथ जाने वाले मन की देखभाल नहीँ कर पाते जो मृत्यु के बाद भी साथ जाने वाला है । मृत्यु के बाद साथ जाने वाले मन को पवित्र रखेँ ।
4. दया - प्राणी मात्र के प्रति सहानुभूति रखना दया कहा जाता है । श्रुति कहती है कि जो केवल अपने लिए अन्न पकाता है वह अन्न नही पाप खाता है ।अपने साथ ही  अतिथि , बालक , गाय , आदि के लिए भी भोजन का प्रबन्ध करना चाहिए ।

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