Sunday, 31 July 2016

शरणागत ही वास्तविक वेदना और उत्कंठा को जीवन्त करता है

शरणागत ही वास्तविक वेदना और उत्कंठा को जीवन्त करता है ।
जिसे केवल भगवत् चरण आश्रय हो वहीँ बार-बार भगवत् चरण अनुराग की भीक्षा चाहता है ।
जो सब भूल जाना चाहता हो वह सब भूल ही जाता है ।
जो पुकारना चाहे वह उनके आगोश में ही उन्हें पुकारता है ।
जिसे केवल प्रियतम से रस हो वही बार बार अन्य रस का त्याग चाहता है ।
जिसके पाप हर लिये गए हो वही स्वयं को स्पष्ट पापी भी मानता है ।
जिसे परम् का रस लग गया हो वही अणु मात्र अनुभूति करता हुआ सरलता से दैन्य में रहता है ।
जिसे सर्व रस सार युगल रस प्राप्त हो वहीँ अकिंचनत्व के भाव को सजीव कर पाता है ।
जहाँ वास्तव में निर्गुणता हो वहां गुण होने पर भी स्व दोष से हृदय छलनी होता रहता है और स्वदोष दर्शन होने से प्राप्त दिव्य रस हरि की कृपा स्पष्ट दिखती है , प्राप्त रस में जब स्व को हेतु देखा जावें वह प्रेम अवस्था नहीँ , अपनी अयोग्यता और हरि की करुणा के दर्शन से हृदय से नेत्र तक गीलापन सा बना रहें ।
पुकारने वाले को वह प्राप्त ही है , प्राप्त अवस्था में ही सच्ची पुकार उठती है , वह प्राप्त है पर भाव में विरह होने से सच्ची पुकार सुलगती है ।
पुकार उठी क्योंकि पुकार की महिमा का प्रेमी ही रस ले सकता है और जगत को दे सकता है ।
प्रेमी प्रचारक नहीँ होता परन्तु सहज प्रेममयी अभिव्यक्तियां ही दिव्य को प्रकट कर सकती है ।
प्रेमी को भय रहता है , प्रेम बिन वह कुछ नही अतः नित्य भगवत्-संग वृद्धि उसकी आतुरता रहती है । और नित्य ही स्वभाव में अभाव अनुभूत होता है ।
प्रेमी का संसार भगवान ही है , अतः वह इस जगत में होकर भी खोया रहता है और व्याकुल रहता है , भगवान के संग को पाने का लोभ भी उसे ही होगा जिसे जगत् का संग न हो और जिसे जगत का संग नही वही भगवत् संग स्वतः ही हो जाता है ।
खोता भी वहीँ है , जिसे कुछ प्राप्त तो हुआ हो । अतः प्रेमी भगवान के खो जाने के भय को कभी-कभी विचार कर तड़प जाता है जबकि भगवान तब भी संग है , विचार मात्र से वह व्याकुल होता है ।
भगवत् विमुख जगत स्व को रस देने में ही सार समझता है , जो अपना सुख खोजता हो वह प्रेमी कभी नही होगा , प्रेमी सुख का त्याग निर्विकल्प कर सकता है और भगवत् विरही ही प्राण रहित जीवन का अर्थ भलीभाँति जानता है , तब प्राण और भगवान दो नहीँ रहते ।
भगवान प्राप्त न हो तब तक उनके संग न होने का कोई अर्थ समझ नही आता और जिसे उनका स्वाद लग गया हो वह और किसी स्वाद से कभी तृप्त नही हो सकता ।
प्रेमी को भगवत् संग की अनुभूति के अतिरिक्त कुछ नही चाहिये , वह अनुभूति अगर भगवत् सन्मुख न होने पर भी मिलने लगे तो तब भी भगवत् संग ही है ।
भगवान नित्य संगी है , कभी विरह होता ही नहीँ परन्तु प्रेमी में स्व में अभाव और दीन-हीनता दर्शन होने से विरह जाग उठता है , भगवान का स्वरूप जितना प्रगट होगा प्रेमी उतना पिघलता जायेगा । दीनता का उदय भी भगवत् स्पर्श से ही होगा , जितना भगवान छु गए उतनी दीनता ।
अहंकारी या हठी के सन्मुख भगवत् रस-गुण लिखित शास्त्र में पढ़कर या सुनकर भी भीतर नही उतरता और प्रेमी को शास्त्र का भान न होने पर भी भगवान का दिव्य यथार्थ स्वरूप नित्य बढ़ता हुआ ही मिलता है ।

और एक बात वास्तविक भगवत्प्रेमी कभी स्वप्न में भी नहीँ चाहेगा कि जगत मुझे स्वीकार करें , वह सदा यहीं चाहेगा कि भगवान को कभी न भूलूँ और उनके सुख के लिये ही जीवन के सब रस हो , जीवन में सुख हो और भगवान को उससे रस न मिलता हो तो वही प्रेमी के लिये विष है । सत्यजीत तृषित ।

ईश्वर पर विश्वास

ईश्वर पर विश्वास

जंगल मे एक गर्भवती हिरणी थी, जिसका प्रसव होने को ही था, उसने एक तेज धार वाली नदी के किनारे घनी झाड़ियों और घास के पास एक जगह देखी जो उसे प्रसव हेतु सुरक्षित स्थान लगा ।
अचानक उसे प्रसव पीड़ा शुरू होने लगी, लगभग उसी समय आसमान मे काले काले बादल छा गए और घनघोर बिजली कड़कने लगी जिससे जंगल मे आग भड़क उठी, वो घबरा गयी उसने अपनी दायीं ओर देखा, लेकिन ये क्या वहां एक बहेलिया उसकी ओर तीर का निशाना लगाये हुए था, उसकी बायीं ओर भी एक शेर उस पर घात लगाये हुए उसकी ओर बढ़ रहा था अब वो हिरणी क्या करे ?
वो तो प्रसव पीड़ा से गुजर रही है,
अब क्या होगा ?
क्या वो सुरक्षित रह सकेगी ?
क्या वो अपने बच्चे को जन्म दे सकेगी ?
क्या वो नवजात सुरक्षित रहेगा ?
या सब कुछ जंगल की आग मे जल जायेगा ?
अगर इनसे बच भी गयी तो क्या वो बहेलिये के तीर से बच पायेगी ?
या क्या वो उस खूंखार शेर के पंजों की मार से दर्दनाक मौत मारी जाएगी ?
जो उसकी और बढ़ रहा है,
उसके एक और जंगल की आग, दूसरी और तेज धार वाली बहती नदी, और सामने उत्पन्न सभी संकट, अब वो क्या करे ?
लेकिन फिर उसने अपना ध्यान अपने नव आगंतुक को जन्म देने की ओर केन्द्रित कर दिया ।
फिर जो हुआ वो आश्चर्य जनक था !
कड़कड़ाती बिजली की चमक से शिकारी की आँखों के सामने अँधेरा छा गया, और उसके हाथो से तीर चल गया और सीधे भूखे शेर को जा लगा, बादलो से तेज वर्षा होने लगी और जंगल की आग धीरे धीरे बुझ गयी ।
इसी बीच हिरणी ने एक स्वस्थ शावक को जन्म दिया ।
ऐसा हमारी जिन्दगी मे भी होता है, जब हम चारो और से समस्याओं से घिर जाते है, नकारात्मक विचार हमारे दिमाग को जकड़ लेते है, कोई संभावना दिखाई नहीं देती, हमें कोई एक उपाय करना होता है;
उस समय कुछ विचार बहुत ही नकारात्मक होते है, जो हमें चिंता ग्रस्त कर कुछ सोचने समझने लायक नहीं छोड़ते, ऐसे मे हमें उस हिरणी से ये शिक्षा मिलती है की हमें अपनी प्राथमिकता की और देखना चाहिए, जिस प्रकार हिरणी ने सभी नकारात्मक परिस्तिथियाँ उत्पन्न होने पर भी अपनी प्राथमिकता "प्रसव "पर ध्यान केन्द्रित किया, जो उसकी पहली प्राथमिकता थी ।
बाकी तो मौत या जिन्दगी कुछ भी उसके हाथ मे था ही नहीं, और उसकी कोई भी क्रिया या प्रतिक्रिया उसकी और गर्भस्थ बच्चे की जान ले सकती थी, उसी प्रकार हमें भी अपनी प्राथमिकता की और ही ध्यान देना चाहिए .
हम अपने आप से सवाल करें,
हमारा उद्देश्य क्या है, हमारा फोकस क्या है ?
हमारा विश्वास, हमारी आशा कहाँ है,
ऐसे ही मझधार मे फंसने पर हमें अपने ईश्वर को याद करना चाहिए;
उस पर विश्वास करना चाहिए जो की हमारे ह्रदय मे ही बसा हुआ है,
जो हमारा सच्चा रखवाला और साथी है ।

Thursday, 21 July 2016

तस्मै श्रीगुरवे नमः , स्तोत्र ।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशालाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥३॥

स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं येन कृत्स्नं चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥४॥

चिद्रूपेण परिव्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥५॥

सर्वश्रुतिशिरोरत्नसमुद्भासितमूर्तये ।
वेदान्ताम्बूजसूर्याय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥६॥

चैतन्यः शाश्वतः शान्तो व्योमातीतोनिरञ्जनः ।
बिन्दूनादकलातीतस्तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥७॥

ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्वमालाविभूषितः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥८॥

अनेकजन्मसम्प्राप्तकर्मेन्धनविदाहिने ।
आत्मञ्जानाग्निदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥९॥

शोषणं भवसिन्धोश्च प्रापणं सारसम्पदः ।
यस्य पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१०॥

न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥११॥

मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१२॥

गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् ।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१३॥

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुंतं नमामि ॥१४॥

गुरु पूर्णिमा की हार्दिक हार्दिक शुभकामनायें !

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गणेशपञ्चरत्नम् -मुदाकरात्तमोदकं

गणेशपञ्चरत्नम् -मुदाकरात्तमोदकं

मुदाकरात्तमोदकं सदा विमुक्तिसाधकं
कलाधरावतंसकं विलासिलोकरक्षकम् ।
अनायकैकनायकं विनाशितेभदैत्यकं
नताशुभाशुनाशकं नमामि तं विनायकम् ॥१॥

नतेतरातिभीकरं नवोदितार्कभास्वरं
नमत्सुरारिनिर्जरं नताधिकापदुद्धरम् ।
सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं
महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम् ॥२॥

समस्तलोकशंकरं निरस्तदैत्यकुञ्जरं
दरेतरोदरं वरं वरेभवक्त्रमक्षरम् ।
कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरं यशस्करं
मनस्करं नमस्कृतां नमस्करोमि भास्वरम् ॥३॥

अकिंचनार्तिमार्जनं चिरन्तनोक्तिभाजनं
पुरारिपूर्वनन्दनं सुरारिगर्वचर्वणम् ।
प्रपञ्चनाशभीषणं धनंजयादिभूषणम्
कपोलदानवारणं भजे पुराणवारणम् ॥४॥

नितान्तकान्तदन्तकान्तिमन्तकान्तकात्मजं
अचिन्त्यरूपमन्तहीनमन्तरायकृन्तनम् ।
हृदन्तरे निरन्तरं वसन्तमेव योगिनां
तमेकदन्तमेव तं विचिन्तयामि सन्ततम् ॥५॥

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टिप्पणी :- हर आरती,भजन, स्तोत्रं आदि के पीछे एक अनुलग्नक जुड़ा होता है, जो मूल रचियता का नहीं होता। वह माहत्मय होता है।👇�👇�

महागणेशपञ्चरत्नमादरेण योऽन्वहं
प्रजल्पति प्रभातके हृदि स्मरन् गणेश्वरम् ।
अरोगतामदोषतां सुसाहितीं सुपुत्रतां
समाहितायुरष्टभूतिमभ्युपैति सोऽचिरात् ॥

Wednesday, 20 July 2016

शिव तत्व 1

श्री करपात्री जी महाराज श्री द्वारा वर्णित शिव तत्व पर हम समय समय पर आंशिक बात करेंगे ।
गुरुतत्व और शिव तत्व में गहन एकता है , जैसे नारायण का शेष रूप होना , गुण रूप होना । हरि के स्व शक्ति संग विलास न होने पर हर तत्व रहता है , ई कार रूपी शक्ति के विसर्ग से वह ही शिव है । या कहे हर में ईश्वरी का प्रादुर्भाव हो रस-विलासमय होना हरि होगा । अतः आज का दिन शुभ है , गुरू - हरि - और शिव में अभिन्नता जान आज से प्रारम्भ कर रहा हूँ यह लेख , जब - जब समय उपलब्ध हुआ और सम्भव हुआ वैसे ही अगली कड़ी प्रेक्षित करने के भाव से ... सत्यजीत तृषित ।

श्री शिवतत्व


शिव वही तत्व है जो समस्त प्राणियों के विश्राम का स्थान है। ‘शीड् स्वप्ने’ धातु से ‘शिव’ शब्द की सिद्धि है। ‘शेरते प्राणिनो यत्र स शिवः’’- अनन्त पाप-तापों से उद्विग्न होकर विश्राम के लिये प्राणी जहाँ श्यन करें, बस उसी सर्वाधिष्ठान, सर्वाश्रय को शिव कहा जाता है। वैसे तो-

‘‘शान्तं शिवं चतुर्थमद्वैत मन्यन्ते।’’
इत्यादि श्रुतियों के अनुसार जाग्रत, स्वप्न, सुपुप्ति तीनो अवस्थासे रहित, सर्वदृश्यविवर्जित, स्वप्रकाश, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म ही शिवतत्व है, फिर भी वही परमतत्व अपनी दिव्यशक्यिों से युक्त होकर अनन्तब्रह्माण्डों का उतपादन, पालन एवं संहार करते हुए ब्रह्मा, विष्णु शिव आदि संज्ञाओं को धारण करते हैं। यद्यपि कहीं ब्रह्मा जीव भी कहा जाता है, ‘‘सोऽविभेत् एकाकी न रेमे जाया से स्यादथ कर्म कुर्वीय’’ इत्यादि श्रुतियों के अनुसार भय, अरमण आदि युक्त होने से हिरण्यगर्भ एव विराट् को जीव ही कहा गया है, तथापि वह एक-एक ब्रह्माण्ड के उत्पादक मुख्य ब्रह्मादि के साथ तादात्म्यभिमानी जीव ब्रह्मा कहा जाता है। वास्तव में तो जैसे किसान ही क्षेत्र में बीज को वोकर अंकरादि रूप में उत्पादक होता है, वही सिंचनादि द्वारा पालक और अन्त में वही काटने वाला होता है, वैसे ही एक ही अनन्त-अचिन्त्य-शक्तिसम्पन्न भगवान विश्व के उत्पादक , पालक और संहारक होते हैं।

‘‘सर्वभूतेषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।’’
भगवान का कहना है कि समस्त भूतों में जितनी भी मूर्तियाँ उत्पन्न होती है, उन सबकी महद् (प्रकृति) योनि (माता) है और बीज प्रदान करने-वाला पिता मैं हूँ। ‘‘पिताऽहमस्य जगतः’’ - मैं ही समस्त जगत् का पिता उत्पादक- हूँ। क्रमश ...

शिव तत्व भाग 2 करपात्री जी

शिवतत्व 2

भगवान का कहना है कि समस्त भूतों में जितनी भी मूर्तियाँ उत्पन्न होती है, उन सबकी महद् (प्रकृति) योनि (माता) है और बीज प्रदान करने-वाला पिता मैं हूँ। ‘‘पिताऽहमस्य जगतः’’ - मैं ही समस्त जगत् का पिता उत्पादक- हूँ।

‘‘मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारति।।’’
अर्थात प्रकृतिरूप योनि में जब मैं गर्भाधान करता हूँ, तब उससे समस्त विश्व की उत्पत्ति होती है।
इस तरह ब्रह्माण्डोत्पादक ब्रह्मा भी परमेश्वर ही है, अतएव- ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसवि-शान्ति’’ इस श्रुति से जो ब्रह्म का लक्षण कहा गया है, उससे विश्व के उत्पादक, पालक एवं संहारक को परमेश्वर समझना चाहिये। यदि तीनो पृथक्-पृथक् हों तब तो कोई भी परमेश्वर नहीं सिद्ध हो सकेगा। क्योंकि निरतिशय ऐश्वर्य और सार्वज्ञ-गुण-सम्पन्न को परमेश्वर कहा जाता है। यदि यह तीनों ही सर्वशक्तिसम्पन्न परमेश्वर हैं, तो यह प्रश्न होगा कि यह तीनों मिलकर सलाह से कार्य करते हैं या स्वतन्त्रता से अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार? यदि सलाह से ही करते हैं यह माना जाय, तबतो इनमें परमेश्वर कोई भी न हुआ। किन्तु, इन तीनों की पर्षद या पंचायत ही परमेश्वर है, क्योंकि अकेले कोई भी कोई कार्य करने में स्वतन्त्र नहीं है। यदि तीनो की इच्छा समान ही होती है और तीनों की इच्छानुसार ही उनकी शक्तियाँ कार्य में प्रवृत होती है तब भी तीन का मानना ही व्यर्थ है। फिर तो एक से भी वह सब कार्य सम्पन्न ही हो सकता है।

यदि द्वितीय पक्ष स्वीकार किया जाय अर्थात् स्वतनत्रता से भी तीनों कार्य कर सकते हैं, तब भी इनमें कोई भी परमेश्वर नहीं सिद्ध होगा, क्योंकि स्वतन्त्रता से यदि इच्छा उत्पन्न होगी, तो संभव है कि जिस समय एक को जगत्पालन की रुचि हुई, उसी समय दूसरे को संहार की रुचि उत्पन्न हो। अब यहाँ जिसकी इच्छा सफल होगी, उसी का निरंकुश ऐश्वर्य समझा जायगा। जिसका मनोरथ भग्न हुआ, उसकी ईश्वरता औपचारिक ही रहेगी। एक विषय में विरुद्ध दो प्रकार की इच्छाओं का सफल होना असंभव ही है। इस तरह अनेक ईश्वर का होना किसी के भी मत में कथमपि संभव नहीं, अतः एकेश्वरवाद ही सबको मानना पड़ता है। इसीलिये महानुभावों ने एक ही में अवस्था-भेद से उत्पादकत्व, पालकत्व और संहारकत्व माना है।

‘‘निःश्वसितमस्य वेदा वीक्षितमेतस्य पंचभूतानि।
स्मितमेतस्य चराचरमस्य च सुप्तं महाप्रलयः।।’’
भगवान के निःश्वास से ही वेदों का प्रादुर्भाव हो जाता है। वीक्षण (देखने) से आकाशादि अपंचीकृत पंच महाभूत की सृष्टि होती है। स्मित (मन्दहास, मुस्कुराहट) से भौतिक अनन्तब्रह्मसाण्ड बन जाते हैं और सुप्ति से ही निखिल ब्रह्माण्ड का प्रलय हो जाता है। क्रमशः ...

Tuesday, 19 July 2016

राधा और धारा

राधा वह है जो धारा नहीं , परन्तु राधा तो प्रेम सार की मूर्त भावना है , प्रेम धारा क्यों नहीं ?
प्रेम राधा क्यों ?
अर्थात् धारा सदा प्रेम के विपरीत ही रही है , धारणाओं से उठने पर ही राधा होती है । जीव का मूल तत्व प्रेम है , और माया के प्रभाव से वह धाराओ में बहता है , जबकि उसे आत्म रूप को सत्य जान भौतिक निर्वहन और सम्बन्ध हेतु नहीं प्रेम मय होकर निष्काम भाव से निर्मल प्रवाह से अन्तः मुखी होना चाहिये । इस तरह वह प्रेम पथ पर होगा धारा नही राधा पथ पथ पर । बाहर चेतना का धारावह होना माया है और उसी समूल सम्पूर्ण चेतना का अन्तःकरण में ईश्वरोन्मुखी होना राधा ।
धारणाओं से प्रेम की सिद्धि नहीं होती , उन्हें तोड़ने से भी नही होती , तोड़ने से तो कई नव धाराओं का संचार होने लगता है । धारणाओं से उठ कर ही प्रेम पथ जागृत होता है । किसी वस्तु का भोग सहज है , वस्तु को नष्ट करना भी सहज है ,उस वस्तु का त्याग ही असहज है । अतः धारणाओं का त्याग असहज है । और वहीँ मनुष्य को अन्तः मुखी करेगा । धारणा तो संसार को सत्य सिद्ध करेगी । स्वयं को देह से जोड़ देगी । आत्मा रूपी जीवात्मा का पथ राधा है , ना कि दैहिक पशुत्व का पथ । जब तक देह ही सत्य लगें , मैं देह हूँ यह लगें , संसार सत्य लगेगा , जीव का मूल पथ प्रेम है और वह नश्वर जगत में उलझ गया है क्यों ? वह जुड़ना चाहता है जगत से , लोगों से , इच्छाओ से ... छुटना नहीं चाहता । जगत ही जगतपति हो जावें तब राधा राधा हो ।।। राधा प्रेम की पूर्णतम स्थिति है , जीव को माया ने पकड़ा नहीं वह स्वेच्छा से माया मुखी अतः माया को पकड़े है ।

***

राधाकृष्ण मिलित तनु -
यह युगल तत्व है , दृश्य अदृश्य सृष्टि का सार युगलतत्व है । जो युगल है वही चैतन्य है । युगल स्वयं मिलित तनु मय अवस्था में पूर्ण चैतन्य है । श्रेष्ठ और लघु दीर्घ नही । चैतन्य  युगल है , युगल चैतन्य । हाँ युगल की मिलित तनु अवस्था रस सार को इस तरह रसास्वादन हेतु अवतरण ले कर पीना यह सहज  अवस्था नही , इसमें भगवान चैतन्य को कितना धीर और थिर बाह्य भीतर कम्पन स्पंदन से गुजरना हुआ होगा । उनकी भावना में वह युगल की मिलित अवस्था में नित्य बह रहे है ।

Sunday, 17 July 2016

भगवान के माधुर्य का अर्थ है

भगवान के माधुर्य का अर्थ है

भगवान के माधुर्य का अर्थ है - नित्य पूर्ण ऐश्वर्यमय भगवान का गूढ़तम नर-विग्रह और उनकी दिव्यानन्दमयी नरलीला। इस लीला में अशेष सौन्दर्य, लालित्य, चारुता, मधुरता और वैदग्ध्यादि गुणों का वह अतुलनीय विलक्षण समूह होता है, जो समस्त चराचर जगत - चतुर्दश-भुवन के साथ ही स्वयं सर्वाकर्षक भगवान श्रीकृष्ण के चित्त को भी आकर्षित करता है। उन नराकृति परब्रह्म के नर-विग्रह के असमोर्ध्व सौन्दर्य, माधुर्य, वैचित्र्य और वैदग्ध्यादि गुणों का वर्णन करते हुए उनमें चार प्रकार की विशेष माधुरी का नित्य वर्तमान रहना बतलाया गया है। वे हैं - रूपमाधुरी, वेणुमाधुरी, प्रेममाधुरी और लीलामाधुरी। यही माधुर्य-चतुष्टय श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण की विशेषता है।
स्वयं लीला-विस्तार करके इस माधुर्य-स्वरूप का विस्तार करना ही प्रेमी भक्तों के मन में श्रीकृष्ण के आविर्भाव का एकमात्र मुख्य कारण है। इस लीला में भगवान गोपवेश, वेणु-कर, नवकिशोर नटवररूप में लीलायमान रहते हैं। यही मधुरलीला-तत्त्व है। भगवान के स्वयंरूप अवतार में इसकी प्रधानता होने के कारण ही वे कंस से कारागार में ऐश्वर्यमय चतुर्भुज देवरूप में प्रकट होकर तुरंत ही द्विभुज बालरूप में बदल गये और वसुदेव को प्रेरित करके मधुर लीलानन्द का रसास्वादन करने-कराने मधुर व्रज में पधार गये।
श्रीकृष्ण-माधुर्य के पूर्णतम प्रकाश का क्षेत्र एकमात्र व्रज ही है। वहाँ ऐश्वर्य सर्वथा छिपा रहता है। कहीं प्रकट होता है तो माधुर्य की सेवा के लिये ही। व्रज में ही विशुद्ध ममतायुक्त, किंतु स्वसुखवान्छा-विहीन प्रेम-माधुर्य की सरिता बहती है। भगवान के तीन रूप हैं - ब्रह्म, परमात्मा और भगवान। ब्रह्म निश्चय ही आनन्दस्वरूप है, पर ब्रह्म में शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं है। अन्तर्यामी परमात्मा में चिच्छक्ति का आंशिक विकास है, अतएव ह्लादिनी शक्ति का भी अस्तित्व अभिव्यक्त है; पर वह बहुत सूक्ष्म परिणाम में ही है। ऐश्वर्य-प्रधान भगवान में शान्त भक्त को माधुर्य की कुछ अनुभूति होती है, पर वह भगवदैश्वर्यज्ञान को छिपा नहीं सकती। व्रज के गोपीवल्लभ भगवान श्रीकृष्ण में पूर्ण माधुर्य का प्रकाश है। इसी से यहाँ पूर्णतम माधुर्यास्वादन में ऐश्वर्यादि का अनुभव सम्पूर्ण रूप से तिरोहित रहता है। यही विशुद्ध प्रेम है।

श्रुति कहती है -
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
भगवत्-स्वरूप-तत्त्व नित्य, एक और परिपूर्णतम है। उसमें जीव तथा जड पदार्थों की भाँति न खण्डता है, न अपूर्णता है, न परस्पर पृथक्ता या प्रतियोगिता ही है। तथापि अखिलरसामृतमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण माधुर्य के प्रकाश की विशेषता के कारण व्रज में पूर्णतम रसिकशेखर हैं।  --- भाई जी ।।।
भाग 2 ---

शक्तिरैश्वर्यमाधुर्यकृपातेजोमुखा गुणाः।
शक्तेर्व्यक्तिस्तथाव्यक्तिस्तारतम्यस्य कारणम्।।
‘ऐश्वर्य, माधुर्य, कृपा, तेज आदि गुणों को शक्ति कहते हैं। शक्ति की न्यूनाधिक अभिव्यक्ति ही तारतम्य में कारण है।’
इस व्रजधाम में भी प्रेम के तारतम्य के अनुसार माधुर्य के अनुभव में भी तारतम्य रहता है। दास्य-रस के प्रेम की अपेक्षा सख्य-रस के प्रेम में, सख्य-रस की अपेक्षा वात्सल्य-रस के प्रेम में और वात्सल्य-रस की अपेक्षा भी गोपांगनाओं के माधुर्यानुभव में उत्तरोत्तर विशेष उतकर्ष है। गोपांगनाओं में भी महाभावस्वरूपा श्रीराधा का प्रेम तथा उनका माधुर्यानुभव सर्वापेक्षा अधिक और सर्वथा अतुलनीय है।
यहाँ भगवान नित्यनवकिशोररूप से श्रीगोपांगनाओं के परम मधुर दिव्यरस का आस्वादन करते हैं। श्रीगोपांगनाओं का प्रेम सर्वथा निरुपाधिक, निरावरण और विशुद्ध है। उसमें ऐश्वर्यज्ञान, धर्माधर्मज्ञान, भावोत्पादन के लिये रूप-गुणादि की अपेक्षा, स्वसुख का अनुसंधान - यहाँ तक कि रमण-रमणीबोध की भी अपेक्षा नहीं है। यह रमण-रमणीबोध मधुर रस मात्र का या कान्ताभाव का जीवन-स्वरूप है। इसके बिना उस जीवन में कोई सार ही नही समझा जाता। परंतु श्रीराधामुख्या गोपांगनाओं के विशुद्ध प्रेम में इसकी भी कोई अपेक्षा या सार्थकता नहीं है। महाभाग्यवती, श्रीकृष्णप्रिया परम सती गोपांगनाएँ नित्य विशुद्ध प्रेम-सुधा-रस के उमड़े हुए सागर के प्लावन में सर्वथा निमग्न हैं। वे एकमात्र प्रियतम-सुख के अतिरिक्त सर्व-विस्मृत हैं। उनकी सम्पूर्ण गति-विधि, सारी चेष्टा-क्रिया एकमात्र श्रीकृष्णसुखमय अनुराग की ही अभिव्यक्ति है। श्रीराधा इन सबकी मूल उत्स-स्वरूपा प्रेम-पराकाष्ठा महाभावमयीहैं। इस महाभाव के साथ रसराज का - श्रीराधा के साथ श्रीमाधव का नित्य परमोज्ज्वल रसोल्लास ही व्रज की अमूल्य तथा अतुल परमार्थ-निधि है।

इस व्रज में भी ‘हतारि-गति-दायक’ भगवान की असुर-वध-लीला होती है। परंतु उस लीला का प्रभाव व्रजवासी प्रेमियों के मन पर ऐश्वर्य की छाया नहीं ला सकता। वे उसमें अपने प्रिय श्रीकृष्ण के किसी ऐश्वर्य का अनुभव नहीं करते, बल्कि उससे श्रीकृष्ण के प्रति उनका सहज प्यार-दुलार और भी बढ़ता है।
आज इस परम माधर्यावतार का मंगल दिवस है। जिन लोगों को पंचम पुरुषार्थ भग्वत्प्रेम की प्राप्ति की इच्छा हो, उन्हें भगवान के इस मधुर स्वरूप की उपासना करनी चाहिये।
व्रज के बाद भगवान की ऐश्वर्यलीला का क्रमशः विशेष प्रकाश होता है और मथुरा-द्वारका में असुरोद्धार लीला चलती है। वहाँ भी माधुर्य छिपे-छिपे अपना प्रभाव अक्षुण्ण रखता है। इसी से रणांगण में कही हुई भगवान की गीता में भी माधुर्य की प्रत्यक्ष ज्योत्स्ना दिखायी देती है-

प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।
सारी मथुरालीला और द्वारकालीला में यत्र-तत्र माधुर्य के बड़े विलक्षण दर्शन होते हैं, पर साथ ही वहाँ निष्काम भाव की महत्ता के साथ भगवान अपने आदर्श चरित्र के द्वारा लोकसंग्रह की लीला प्रधान रूप से करते हैं। इस लीला में स्वयं-भगवान के साथ कहीं-कहीं उन्हीं में रहकर लीला करने वाले ऐश्वर्यस्वरूपों की प्रधानता होती है।
यहाँ भगवान निरीह प्रजा को दुराचारी राजाओं से छुटकारा दिलाते हैं - कंस, शिशुपाल, जरासंध, शाल्व, नरकासुर, बाणासुर आदि असंख्य असुरभावापन्न राजाओं का दमन करते हैं, पर स्वयं कहीं भी राज्य ग्रहण न करके निष्काम भाव का प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित करते हैं।

जब तक संसार में धर्मभीरु, श्रद्धासम्पन्न, भगवद्विश्वासी, भोगों में अनासक्त, सर्वभूतहिताकाङ्क्षी, सदाचारपरायण, असंग्रही मनुष्यों की संख्या अधिक रहती है, जब तक मनुष्य में कर्तव्यपरायणता और त्यागवृत्ति की प्रधानता रहती है, तब तक सुख-शान्ति रहती है। मानव की जीवन यात्रा अपने परम लक्ष्य भगवान की ओर चलती है। क्रमशः ... ...