Thursday, 12 October 2017

श्रीयुगल स्वरूप की उपासना , भाई जी

श्रीभाई जी द्वारा
श्रीयुगल स्वरूप की उपासना

(क) प्रश्न-कुछ लोग कहते हैं कि भगवान की उपासना उनकी शक्ति-सहित करनी चाहिये और कुछ लोग कहते हैं कि अकेले भगवान की उपासना करनी चाहिये। इन दोनों में कौन-सी बात ठीक है?
उत्तर- भगवान और भगवान की शक्ति दो अलग-अलग वस्तु नहीं हैं। जैसे अग्नि और उसकी दाहिकाशक्ति एक ही वस्तु हैं‚ उसी प्रकार भगवान और उनकी शक्ति है। दाहिकाशक्ति है‚ इसीलिये वह अग्नि है; नहीं तो उसका व्यक्त अग्नित्व ही नहीं रहता और अग्नि न हो तो दाहिकाशक्ति का कोई आधार नहीं रहता। अतएव दोनों मिलकर ही एक अग्नि बने हैं या अग्नि के ही ये दो नाम हैं। इसी प्रकार भगवान और भगवान की शक्ति सर्वथा अभिन्न हैं‚ इनमें भेद मानना ही पाप है। इस दृष्टि से जो भगवान की उपासना करता है‚ वो उनकी शक्ति की उपासना करता ही है और जो शक्ति का उपासक है‚ वह भगवान की उपासना करने को बाध्य है; अतएव एक की उपासना में दोनों की उपासना आप ही हो जाती है। परंतु उपासक यदि चाहें तो विग्रह के रूप में दोनों की अलग-अलग मूर्तियों में भी उपासना कर सकते हैं। इतना याद रखना चाहिये कि लक्ष्मी-नारायण‚ गौरी-शंकर‚ राधा-कृष्ण‚ सीता-राम आदि सब एक ही हैं; इनमें अपनी-अपनी रुचि और भावना के अनुसार किसी भी युगल रूप की उपासना हो सकती है। यहाँ इतना अवश्य कह देना चाहिये कि युगल रूप की उपासना विशेष अधिकारी को ही करनी चाहिये। नहीं तो‚ उसमें अनर्थ होने का डर है। जगज्जननी लक्ष्मी‚ उमा‚ राधा या सीता के स्वरूप में कहीं पाप भावना हो गयी तो सारी उपासना नष्ट होकर उलटा विपरीत फल हो सकता है; और जो लोग वैराग्यवान् नहीं हैं‚ उनके द्वारा स्त्री रूप की उपासना में मन में विकार होने का डर है ही; क्योंकि ऐसे लोग भगवान की दिव्य स्वरूपा शक्ति के तत्त्व को न जानकर अपने अज्ञान से इन्हें प्राकृत स्त्री ही समझ लेते हैं और प्राकृत स्त्री रूप का आरोप करके विषयासक्ति के कारण विकार के वश हो जाते हैं। भगवान की रासलीला देखने वाले मनुष्य ने तथा श्रीराधाजी का ध्यान करने वाले एक दूसरे मित्र ने अपनी ऐसी दुर्घटनाएँ सुनायी थीं; इससे यह पता चलता है कि दिव्य अनन्तसौन्दर्य-सुधामयी इन स्वरूपा शक्तियों के साथ भगवान की उपासना करने वाले सच्चे अधिकारी बिरले ही होते हैं।

(ख) प्रश्न- श्रीराधा‚ सीता‚ उमा आदि भगवान की स्वरूपा-शक्तियों की उपासना के अधिकारी में कौन-कौन-सी बातें होनी चाहिये?
उत्तर-

पहली बात तो यही है कि उसे काम विजयी होना चाहिये। कामी पुरुष दिव्य स्वरूपा शक्तियों की उपासना का अधिकारी कदापि नहीं है।
दम्भ‚ द्रोह‚ द्वेष‚ काम‚ लोभ और विषयासक्ति के त्याग से ही इस प्रेम मार्ग की साधना आरम्भ होती है। जिन पुरुषों में दम्भादि छः दोष हैं और जो विषयों में आसक्त हैं अर्थात जिनका मन सुन्दर रूप‚ बढ़िया स्वादिष्ट पदार्थ‚ मनोहर गन्ध‚ कोमल स्पर्श और सुरीले गायन पर रीझा रहता है‚ वे इस मार्ग पर नहीं चल सकते। त्यागी-विरागी महज्जन ही इस प्रेम पथ के पथिक हो सकते हैं; क्योंकि इस उपासना में दिव्य प्रेमराज्य में प्रवेश करना पड़ता है और वहाँ बिना गोपी-भाव को प्राप्त किये किसी का प्रवेश हो नहीं सकता। एंव गोपी-भाव की प्राप्ति विषयासक्त पुरुष को कदापि होनी सम्भव नहीं। जो विषय-लोलुप भी हैं और अपने को श्रीराधाकृष्ण का प्रेमी बतलाते हैं‚ वे या तो स्वयं धोखे में हैं अथवा जान या अनजान में जगत को धोखा देना चाहते हैं।
उपर्युक्त छः दोषों से बचकर और विषयासक्ति को त्याग कर निम्नलिखित रूप में मुख्य साधना करनी चाहिये-

अपने को श्रीराधाजी की अनुचरियों में एक तुच्छ अनुचरी मानना।
श्रीराधाजी की सेविकाओं की सेवा में ही अपना परम कल्याण समझना।
सदा यही भावना करते रहना कि मैं भगवान की प्रियतमा श्रीराधिकाजी की दासियों की दासी बना रहॅूं और श्रीराधा कृष्ण के मिलन-साधन के लिये विशेष रूप से यत्न कर सकॅूं।
यह बहुत ही रहस्य का विषय है। इसलिये इस विषय पर विशेष रूप से लिखना अनुचित है। इस मार्ग पर पैर रखना आग पर खेलना है। जो बिना इसका रहस्य समझे इस पथ में प्रवेश करना चाहता है‚ वह गिर जाता है। जिसके हृदय में तनिक-सा काम-विकार हो‚ उसे इस मार्ग से डरकर सदा अलग ही रहना चाहिये। अवश्य ही जो अधिकारी साधक हैं‚ उन्हें इस मार्ग में जो अतुल दिव्य आनन्द है‚ उसकी प्राप्ति होती है। श्रीराधिकाजी की सेविकाओं की सेवा में सफल होने पर स्वंय श्रीराधिकाजी की सेवा का अधिकार मिलता है और श्रीराधिका जी की सेवा ही युगलस्वरूप की कृपा प्राप्त करने प्रधान उपाय है। जो ऐसा नहीं कर सकते‚ उन्हें युगलस्वरूप की प्राप्ति बहुत ही कठिन है।

(झ) प्रश्न- क्या इस स्वरूप का साक्षात्कार भी हो सकता है? हो सकता है तो किस उपाय से?

उत्तर- अवश्य ही हो सकता है। जब युगलसरकार कृपा करके अपने दुर्लभ दर्शन देना चाहें तभी दर्शन हो सकते हैं। उनकी कृपा ही उनके साक्षात्कार का उपाय है।

प्रश्न- क्या साक्षात्कार में भगवान की मुरलीध्वनि, नूपुरध्वनि सुनायी दे सकती है? क्या उनके श्रीअंग की मधुर दिव्य गन्ध और उनके दिव्य चिन्मय चरणों का स्पर्श प्राप्त हो सकता है?

उत्तर- दर्शन होन पर उनकी कृपा से सभी कुछ हो सकता है। परंतु एक बात याद रखनी चाहिये कि ये सब बातें ध्यान में भी हो सकती हैं। जैसे स्वप्न में देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना सब कुछ होता है परंतु वस्तुतः वहाँ अपने से भिन्न कोई वस्तु नहीं होती, सब मन की ही कल्पना होती है, उसी प्रकार ध्यान काल में भी मनोनिर्मित विग्रह का स्पर्श, मुरलीध्वनि या नूपुरध्वनि का श्रवण, मधुर गन्ध का ग्रहण हो सकता है। उसमें और साक्षात्कार में बड़ा अन्तर है; परंतु इस अन्तर का पता साक्षात्कार होन पर ही लगता है, पहले नहीं। ध्यान होना भी बड़े ही सौभाग्य का विषय है।

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