!!...श्री राधे...!!
"राधा-कृष्ण की अभिन्नता तथा राधा प्रेम की विशुद्धता"
‘राग’ की स्थिति में श्रीकृष्ण को प्राप्त करने की सम्भावना होने पर असीम और भयंकर-से-भयंकर दुःख में भी सुख की प्रतीति होती है।
तीव्र प्रेम पिपासा के कारण इष्ट वस्तु में होने वाली परमाविष्टता का नाम ही ‘राग’ है। इसी राग की परिपक्क्ता होने पर ‘अनुराग’ होता है।
अनुराग में श्रीकृष्ण का स्वरूप प्रतिक्षण नया-नया दिखायी देता है। जितना ही देखा-सुना जाता है, उतना ही अनुराग बढ़ता है और जितना अनुराग बढ़ता है, उतनी ही रूप की नव-नवरूपता बढ़ती चली जाती है।
श्यामसुन्दर में नित्य नव-सौन्दर्य का दर्शन करने वाली एक गोपी दूसरी नयी गोपी से कहती है—
सखी री! यह अनुभव की बात।
प्रतिपल दीखत नित नव सुंदर, नित नव मधुर लखात।।
छिन छिन बढ़त रूप गुन माधुरि, छिन छिन नूतन रंग।
छिन छिन नित नव आनँद धारा, छिन छिन नई उमंग।।
नित नव अलकनि की छबि निरखत अलि-कुल नित नव लाजै।
नित नव सुकुमारता मनोहर अंग अंग प्रति राजै।।
नित नव अंग सुगंध मधुर अति मनहिं मत्त करि डारत।
नित नव दृष्टि सुधामयि जन के ताप असेष निवारत।।
नित नव अरुनाई अधरनि की नित नूतन मुसुक्यान।
नित नूतन रस-सुधा-प्रबाहिनि मधु मुरली की तान।।
नित नूतन तारुन्य, ललित लावन्य नित्य नव बिकसै।
निव नव आभा बिबिध बरन की पिय के तनु तें निकसै।।
कछुवै होत न बासी कबहूँ, नित नूतन रस बरसत।
देखत देखत जनम सिरान्यो, तऊ नैन नित तरसत।।
क्रमशः
- नित्य लीलालीन पूज्य भाईजी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी "श्री राधा माधव चिन्तन"
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