*नामस्मरण* किसी भी ढंग से करने पर भी नाम जपने वाले की योग्य दिशा में ही प्रगति होगी। अतः नाम जपना कभी नहीं छोड़ना चाहिए।भगवत नामस्मरण के लिये कोई भी शारिरिक बन्धन नहीं है। यही तो नामस्मरण की महत्ता और श्रेष्ठता है। मनुष्य को जीवन की किसी भी अवस्था में भगवान का स्मरण निरंतर रखने के लिये एकमेव साधन है-
*नामस्मरण* । चित्त की एकाग्रता के लिए ही
*नामस्मरण* की आवश्यकता है। चित्त की एकाग्रता बहुत ऊँची अवस्था है। चित्त चंचल होता है, उसे कहीं-न-कहीं स्थिर करना पड़ता है, इसलिए उसे नामस्मरण में व्यस्त रखना चाहिए।एकाग्रता के बिना नामस्मरण करना व्यर्थ है और *नामस्मरण* के बिना एकाग्रता हो नहीं पाती।
*नामस्मरण* करते समय हजार तरह के विचार मन में आते हैं। इन विचारों को रोकने के लिये उपाय है उनका पीछा न करना। यदि विचार मनमें आ ही गए तो उनके विस्तार को प्रयत्नपूर्वक रोकना चाहिए अर्थात मनोराज न करना। विचार जैसे आएँगे वैसे चले भी जाएँगे।उधर ध्यान ही न दिया जाए
नामस्मरण केवल भगवान की प्राप्ति के लिए करेंगे तो ही भगवान के प्रति एकाग्रता निर्माण होगी। एकाग्रचित्त होने का मतलब है विलीन या निमग्न होना। नमक पानी में डालने पर उसमें विलीन हो जाता है,वह पानी में गल जाता है; ठीक उसी प्रकार *नामस्मरण* में एकाग्र होना चाहिए।
*नामस्मरण* के साथ रूप का ध्यान आवश्यक है। वस्तुतः नाम और रूप दोनों भिन्न हैं ही नहीं, किन्तु नाम रूप के पहले भी होता है और बाद में भी रहता है। नाम रूप को व्याप्त करके रहता है।
*नामस्मरण* के प्रति प्रेम या रूचि निर्माण नहीं होती इसका मतलब ही है कि नामस्मरण में हमारी निष्ठा कम है,श्रद्धा कम है। इन सब बातों के लिये एक ही उपाय है - जैसा बनेगा वैसे नामस्मरण करने का दृढ निश्चय करना। *परिस्थिति अच्छी होगी, तब नामस्मरण करेंगे* कहने वाला नामस्मरण कभी करेगा ही नहीं।
*नामस्मरण* प्रधान ध्येय होता है। नामस्मरण करते समय अनायास रूप का भी ध्यान रहा तो अच्छा ही है। किन्तु यदि रूप का ध्यान न रहा तो भी नामस्मरण करते समय रूप का स्मरण सूक्ष्म मात्रा में होता ही है। इसलिए रूप का साक्षात्कार हो या न हो ,नामस्मरण करना बन्द नहीं करना चाहिए। स्मरण प्रपत्ति में बाधक नहीं होता है।
*नामस्मरण* में रमने से अन्तःकरण की शुद्धता होगी और अन्तःकरण की शुध्दता होने पर भगवान के प्रति प्रेम निर्माण होगा। केवल शुष्क नामस्मरण करनेकी अपेक्षा विचार और विवेकपूर्वक नामस्मरण के कारण निर्माण होनेवाला *प्रेम* आवश्यक है। सत्यतः नामस्मरण में ही उसका प्रेम निश्चित होता है।
मन अति चंचल है,गीताचार्य ने कहा है। यह विचार के साम्राज्य में चला जाता हैं। हमें सजग होकर वापस स्मरण के साथ बिना किसी क्लेश के जोड़ना पड़ेगा। स्मरण प्रारंभमें जोर-जोर से हो,तो धीरे-धीरे जिव्हा को उच्चारण की आदत पड़ेगी,फिर मन और साँसों में अपने-आप श्रीगुरु कृपा से नाम सदा के लिये बस जाएगा। दास को ज्यादा मालूम नहीं!
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