Saturday, 28 October 2017

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

-> धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे <-
...... यह शरीर ही क्षेत्र है , जहाँ धर्म और अधर्म का युद्ध होता है । प्रत्येक के मन मे और घर मेँ महाभारत चल रहा है ।
.... सदवृत्तियोँ एव असदवृत्तियो का युद्ध ही महाभारत है ...,
.., जीव धृतराष्ट्र है ( जिसकी आँख नही वह धृतराष्ट्र नही) जिसकी आँख मेँ काम है वह अन्धा धृतराष्ट्र है ।
.....  को अन्धः यो विषयानुरागी ....
,,, अर्थात् अन्धा कौन ?  जो विषयानुरागी है वह .....
...,दुःख रुप कौरव अनेक बार धर्म को मारने जाते हैँ ।   युधिष्ठिर और दुर्योधन रोज लडते है।  .... प्रभु भजन हेतु ठाकुर जी 4 बजे जगाते हैँ ...
....    धर्मराज कहते है उठो और सत्कर्म करो
....किन्तु दुर्योधन आकर कहता है कि  पिछले प्रहर की मीठी नीँद आ रही है । सबेरे उठने की क्या जरुरत है ?
  ...,  तू अभी आराम कर .., तेरा क्या बिगडता है ?
...  धर्म और अधर्म इसी तरह अनादिकाल से लडते आ रहे है ।
.,.. दुष्ट विचार रुपी दुर्योधन मनुष्य को उठने नहीँ देता ।
., निँद्रा और निँदा पर जो विजय प्राप्त कर लेता है वही भक्ति कर सकता है ...,
.,. दुर्योधन अधर्म है । युधिष्ठिर धर्म  का स्वरुप है ...
.,.....  धर्म धर्मराज की तरह  प्रभु के पास ले जाता है किन्तु अधर्म दुर्योधन की भाँति मनुष्य को संसार की ओर ले जाता है और इसका विनाश करता है ।
  धर्म ईश्वर की शरण मे जाय तो धर्म की विजय एवं अधर्म का विनाश होता है ।

नर

नर --> जो काम
क्रोधादि दुर्गुणोँ को
जीतकर भोगो मेँ
वैराग्यवान और
उपरत होकर
सच्चिदानन्दघन
परमात्मा को प्राप्त कर
ले वही सच्चा नर है । नर
शब्द ऐसे ही मनुष्य
का बाचक है आकार मे चाहे
वह स्त्री हो या पुरुष ।
अज्ञान से मोहित
जो मनुष्य आसक्तिवश
नाशवान रमणीय
विषयो के प्रलोभन मे
फँसकर
परमात्मा को भूलकर काम
क्रोधादि परायण होकर
पशुओ और
पिशाचो की भाँति आहार
निद्रा , मैथुन , और कलह मेँ
ही प्रवृत्त रहता है उसे
नर
नहीँ कहा जा सकता बल्कि
तो पशु से
भी गया बीता "साक्षात
पशुः पुच्छ विषाण हीनः "
बिना सीँग और पूछ
वाला अशोभन
निकम्मा और जगत के लिए
दुःखदायी एक जन्तु विशेष
है ।।

गोवर्धन लीला

गोवर्धन लीला ¤¤****
¤¤****¤¤****
गो का अर्थ है ज्ञान और भक्ति । ज्ञान और भक्ति को बृद्धिगत करने वाली लीला ही गोवर्धन लीला है । ज्ञान और भक्ति के बढ़ने से देहाध्यास नष्ट होता है जीव को रासलीला मेँ प्रवेश मिलता है ।।
ज्ञान और भक्ति को बढ़ाने हेतु क्या जाय ? घर छोड़ना पड़ेगा। गोप गोपियोँ ने घर छोड़कर गिरिराज पर वास किया था । हमारा घर भोगभूमि होने के कारण राग - द्वेष , अहंभाव - तिरस्कार , वासना आदि हमेँ घेरे रहते हैँ। घर मेँ विषमता होती है और पाप भी , भोग भूमि मेँ भक्ति कैसे बढ़ जायेगी । सात्विक भूमि मे ही भक्ति बढ़ सकती है ।
गृहस्थ का घर विविध वासनाओँ के सूक्ष्म परमाणु से भरा हुआ होता है । ऐसा वातावरण भक्ति मेँ बाधक है ऐसे वातावरण मेँ रहकर न तो भक्ति बढ़ाई जा सकती है और न ज्ञान । अतः एकाध मास किसी नीरव पवित्र स्थल पर जाकर , किसी पवित्र नदी के तट पर वास करके भक्ति और ज्ञान की आराधना श्रेयस्कर है ।
प्रवृत्ति छोड़ना तो अशक्य है किन्तु उसे कम करके निवृत्ति बढ़ायी जा सकती है ।
गो का अर्थ इन्द्रिय भी है । इन्द्रियोँ का संवर्धन त्याग से होता है , भोग से नहीँ । भोग से इन्द्रियाँ क्षीण होती हैँ । भोगमार्ग से हटाकर उन्हेँ भक्तिमार्ग मे लेँ जाना चाहिए । किन्तु उस समय इन्द्रादि देव वासना की बरसात कर देते हैँ । मनुष्य की भक्ति उनसे देखी नहीँ जाती । प्रवृत्तिमार्ग छोड़कर निवृत्ति की ओर बढ़ते समय विषय वासना की बरसात बाधा करने आ जाती है । इन्द्रियोँ का देव इन्द्र प्रभु भजन करने जा रहे जीव को सताता है । वह सोचता है कि उसके सिर पर पाँव रख कर उसको कुचल कर जीव आगे बढ़ जायेगा ।
अतः ध्यान , सत्कर्म , भक्ति आदि मेँ जीव की अपेक्षा देव अधिक बाधक हैँ । जीव सतत् ध्यान करे तो स्वर्ग के देवोँ से भी श्रेष्ठ हो जाता है । इसलिए जब भी इन्द्र भक्तिमार्ग मेँ विघ्न डाले तब गोवर्धन नाथ का आश्रय लेना चाहिए ।
गोवर्धन लीला मेँ पूज्य और पूजक एक हो जाते हैँ । जब तक पूज्य एवं पूजक एक न होँ तब तक आनन्द नहीँ आता । पूजा करने वाले श्रीकृष्ण ने गिरिराज पर आरोहण किया यह तो अद्वैत का प्रथम सोपान है , गोवर्धन लीला ज्ञान और भक्ति को बढ़ाती है। जब ईश्वर के व्यापक स्वरुप का अनुभव हो पाता है , तभी ज्ञान और भक्ति बढ़ती है । ईश्वर जगत मेँ व्याप्त है और सारा जगत ईश्वर मेँ समाहित है ।
वासना वेग को हटाने के लिए श्रीकृष्ण का आश्रय लेना चाहिए।
भगवान ने हाथ की सबसे छोटी उँगली पर गोवर्धन पर्वत धारण किया था यह उँगली सत्वगुण का प्रतीक है । इन्द्रियो की वासना वर्षा के समय सत्वगुण का आश्रय लेना चाहिए । दुःख मे विपत्ति मेँ मात्र प्रभू का आश्रय लेना चाहिए ।
भक्ताभिलाषी चरितानुसारी दुग्धादि चौर्येण यशोविसारी ।
कुमारतानन्दित घोषनारी मम प्रभूः श्री गिरिराजधारी ।।
वृन्दावने गोधनवृन्दचारा मम प्रभूः श्री गिरिराजधारी ।।
स्वान्तःसुखाय
********
श्रीहरिशरणम
********

ऊँ शब्द मेँ तीन अक्षर

तीन अक्षरोँ का महत्व >>>
ऊँ शब्द मेँ तीन अक्षर हैँ --
< ओ, उ तथा म् ।>
1 ." ओ " अक्षर के उच्चारण से ओज (शक्ति ) की वृद्धि होती है क्योँकि उच्चारण करते समय मूलबन्ध (गुदा मार्ग को सिकोड़ना ) लगता है . जिससे विर्य का उर्ध्वरेता (शक्ति के रुप मेँ परिवर्तन ) स्वयं होता रहता है । लंबे समय के अभ्यास से मूलाधार चक्र प्रवाहित होता है ।
2 . " उ " अक्षर के उच्चारण से उदर शक्ति का विकास , उड्डयान बंध के (पेट को अंदर सिकोड़ना ) के लगने से होता है , जिससे उदर( पेट) सम्बन्धी बीमारी धीरे धीरे स्वतः समाप्त हो जाते हैँ । कुछ समय अभ्यास से मणिपूरक चक्र प्रवाहित होता है ।
3 . " म् " अक्षर के उच्चारण से मस्तिष्क की शक्तियोँ का विकास होता है क्योँकि उस समय मस्तिष्क मेँ भौरे की गुनगुनाहट सुनायी देती है जिसे भ्रामरी प्राणायाम कहते है जिसके कारण मस्तिष्क मेँ एक विशेष प्रकार की तरंग (वेव्स) उत्पन्न होती है जिससे मस्तिष्क मेँ जमेँ विकार बाहर ही निकलते हैँ बल्कि शून्य पड़े अवयव(अंग) भी कार्य करने लगते हैँ । फलस्वरुप मस्तिष्क की स्मरण शक्ति बढ़ने लगती है ।'म' के उच्चारण से सहस्रार चक्र प्रभावित होता है ।
जब मूलाधार,मणिपूरकतथा सहस्रार चक्र "ऊँ" शब्द के कई बार के उच्चारण से एक साथ प्रवाहित होते हैँ तो कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जिससे उपरोक्त सभी उपलब्धियाँ स्वतः प्राप्त होने लगती हैँ ।

संसार में चार प्रकार के भक्त हैं --जिज्ञासु, आर्त, अथार्थी और ज्ञानी

संसार में चार प्रकार के भक्त हैं:---------
जिज्ञासु, आर्त, अथार्थी और ज्ञानी |
जिज्ञासु---- ब्रह्म की रचना एवं इसके संचालन के रहस्य को जाना कहते हैं | राम-नाम के अभ्यास से इनका आंतरिक विकास हो जाता है जिसके द्वारा इनको ब्रह्म के रहस्य की जानकारी हो जाती है | वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण जगत की जानकारी हासिल करके ब्रह्म के प्रपंच यानी माया के खेल को समझ लेते हैं | इस ज्ञान के कारण ये संसार से विरक्त हो जाते हैं और ब्रह्म से इनका अनुराग पैदा हो जाता है | वे संसार के बीच रहते हुए भी अनुपम सुख का अनुभव करते हैं |
आर्त---- वे हैं जो सांसारिक विपत्ति से पीड़ित या घबराकर राम- नाम के भजन में लगते हैं | उन पर भी परमात्मा की कृपा होती है और उनकी दुःख और पीड़ा ख़त्म हो जाती है |
अर्थार्थी------ वो हैं जो अपनी किसी मनोकामना पूर्ण करने के लिए प्रभु की भक्ति करते हैं | राम-नाम के अभ्यास से उनकी ,मनोकामना पूरी हो जाती है पर वो फिर भी चौरासी के कैदी ही रहते हैं | इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है | ये तो अंधे कुएं के सामान है, एक पूरी हो तो दस खडी हो जाती हैं |
ज्ञानी---- वो हैं जिनके अन्दर संसार की कोई कामना नहीं होती है | वे सच्चे परमार्थी ज्ञान की प्राप्ति करके मोक्ष पाना चाहते हैं | ऐसे भक्तजन भी राम-नाम के अभ्यास से गूढ़ परमार्थी ज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष की प्राप्ति कर लेते हैं | चारों प्रकार के भक्तों को राम-नाम के अभ्यास द्वारा मनवांछित फल प्राप्त हो जाता है |
तुलसीदास जी समझाते हैं कि इन सब भक्तों में ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष प्रिय होते हैं, क्योंकि उनके अन्दर कोई सांसारिक कामना नहीं होती | वे भक्ति द्वारा अपने परमपिता का ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं | इसी लिए प्रभु के प्यारे होते हैं | जो भक्त सभी सांसारिक कामनाओं को छोड़ कर केवल प्रेम और भक्ति के वश में होकर राम-नाम का अभ्यास करता है, उसका मछली रूपी मन मानों राम-नाम रूपी अमृत-कुंद में निवास करता है | आत्मा शरीर के आवरणों मन के बन्धनों से मुक्त होकर राम-नाम रूपी मानसरोवर में प्रवेश करती है |
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी | बिरती बिरंची प्रपंच बियोगी ||
ब्रह्मसुखहिं अनुभवहिं अनूपा | अकथ अनामय नाम न रूपा ||
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ | नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ ||
साधक नाम जपहिं लाएँ | होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ ||
जपहिं नाम जन आरत भारी | मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ||
राम भगत जग चारि प्रकारा | सुकृति चारिउ अनघ उतारा ||
चहु चतुर कहूँ नाम अधारा | ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ||
चहुँ जग चहुँ श्रुति नाम प्रभाउ | कलि बिसेषी नहीं आन उपाउ ||
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीं |
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्ह्हूँ किए मन मीन ||

श्रीकृष्ण का विवाह

श्रीकृष्ण का विवाह
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समुद्र  भीष्मक  है , उसकी पुत्री है लक्ष्मी -- स्वर्ण लक्ष्मी  रुक्मिणी । उसका  भाई विष है --रुक्मी । वह रुक्मिणी एवं रुक्मिणीबल्लभ श्रीकृष्ण के सम्बन्ध मे बाधक है । अतःरुक्मिणी -श्रीकृष्ण का विवाह  तीन प्रकार से हुआ ----प्रथम प्रेम सन्देश  के द्वारा  गान्धर्व विवाह । द्वितीय  अपहरण  के द्वारा  राक्षस विवाह । तृतीय  विधि  -विधान पूर्वक  शास्त्रीय विवाह । सारे प्रतिबन्ध मिटाकर श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी को स्वीकार  किया  ।
वैप्णवी शक्ति " लक्ष्मी"  रुक्मिणी है , सौरी शक्ति  "सावित्री "सत्यभामा है ,ब्राह्मी  शक्ति  जाम्बवती है ।इस प्रकार तीनो शक्तियों के वास्तविक  अन्तर्यामी  स्वामी  श्रीकृष्ण ही है ।
कालिन्दी आत्मबोध स्वरुपा है ,मित्रविन्दा तपस्यारुपा हैं ,नाग्नजिती एवं  सत्या योगरुपा हैं , लक्ष्मणा भक्तिरुपा है । ये पाँचो विद्या की पाँच वृत्तियाँ है ।अविद्या की  निवृत्ति के लिए इनकी आवश्यकता  होती  है ।इनके स्वामी  भी श्रीकृष्ण ही है ।आध्यात्मिक मन और आधिदैविक चन्द्रमा ,इन दोनों की भी सोलह -सोलह कलाएँ है ।षोडश सहस्र पत्नियां आधिभौतिक हैं ।श्रीकृष्ण के बिना इनकी कोईअन्य गति नही है । एक-एक कला के सहस्र-सहस्र अंश हैं ।अतः इनकी संख्या सोलह हजार कही गयी है ।यहाँ  सोलह हजार संख्या केवल उपलक्षण मात्र है ,क्योंकि  संसार  में जितनी वस्तुएं हैं(भौतिक )और जितनी वृत्तियाँ है(आध्यात्मिक ) और उनके जितने देवता  हैं(आधिदैविक )सबके परमपति भगवान श्रीकृष्ण ही हैं । अतः जो सर्वेश्वर है,मायापति है,उसके लिए सोलह सहस्र पत्नियों का पति कहना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।।

Monday, 23 October 2017

दक्षिणा

सत्कर्म करते समय क्यों दी जाती है दक्षिणा ?

महालक्ष्मी का कलावतार हैं ‘दक्षिणा’

देवी ‘दक्षिणा’ महालक्ष्मीजी के दाहिने कन्धे (अंश) से प्रकट हुई हैं इसलिए दक्षिणा कहलाती हैं। ये कमला (लक्ष्मी) की कलावतार व भगवान विष्णु की शक्तिस्वरूपा हैं। दक्षिणा को शुभा, शुद्धिदा, शुद्धिरूपा व सुशीला–इन नामों से भी जाना जाता है। ये उपासक को सभी यज्ञों, सत्कर्मों का फल प्रदान करती हैं।

गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण और दक्षिणा का सम्बन्ध

गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय सुशीला नाम की एक गोपी थी जो विद्या, रूप, गुण व आचार में लक्ष्मी के समान थी। वह श्रीराधा की प्रधान सखी थी। भगवान श्रीकृष्ण का उससे विशेष स्नेह था। श्रीराधाजी को यह बात पसन्द न थी और उन्होंने भगवान की लीला को समझे बिना ही सुशीला को गोलोक से बाहर कर दिया।
गोलोक से च्युत हो जाने पर सुशीला कठिन तप करने लगी और उस कठिन तप के प्रभाव से वे विष्णुप्रिया महालक्ष्मी के शरीर में प्रवेश कर गयीं। भगवान की लीला से देवताओं को यज्ञ का फल मिलना बंद हो गया। घबराए हुए सभी देवता ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु का ध्यान किया। भगवान विष्णु ने अपनी प्रिया महालक्ष्मी के विग्रह से एक अलौकिक देवी ‘मर्त्यलक्ष्मी’ को प्रकट कर उसको दक्षिणा’ नाम दिया और ब्रह्माजी को सौंप दिया।

यज्ञपुरुष, दक्षिणा और फल

ब्रह्माजी ने यज्ञपुरुष के साथ दक्षिणा का विवाह कर दिया। देवी दक्षिणा के ‘फल’ नाम का पुत्र हुआ। इस प्रकार भगवान यज्ञ अपनी पत्नी दक्षिणा व पुत्र फल से सम्पन्न होने पर कर्मों का फल प्रदान करने लगे। इससे देवताओं को यज्ञ का फल मिलने लगा। इसीलिए शास्त्रों में दक्षिणा के बिना यज्ञ करने का निषेध है। दक्षिणा की कृपा के बिना प्राणियों के सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश व अन्य देवता भी दक्षिणाहीन कर्मों का फल देने में असमर्थ रहते हैं।

दक्षिणाहीन कर्म हो जाता है निष्फल

बिना दक्षिणा के किया गया सत्कर्म राजा बलि के पेट में चला जाता है। पूर्वकाल में राजा बलि ने तीन पग भूमि के रूप में त्रिलोकी का अपना राज्य जब भगवान वामन को दान कर दिया तब भगवान वामन ने बलि के भोजन (आहार) के लिए दक्षिणाहीन कर्म उसे अर्पण कर दिया। श्रद्धाहीन व्यक्तियों द्वारा श्राद्ध में दी गयी वस्तु को भी बलि भोजन रूप में ग्रहण करते
कर्म की समाप्ति पर तुरन्त देनी चाहिए दक्षिणा

मनुष्य को सत्कर्म करने के बाद तुरन्त दक्षिणा देनी चाहिए तभी कर्म का तत्काल फल प्राप्त होता है। यदि जानबूझकर या अज्ञान से धार्मिक कार्य समाप्त हो जाने पर ब्राह्मण को दक्षिणा नहीं दी जाती, तो दक्षिणा की संख्या बढ़ती जाती है, साथ ही सारा कर्म भी निष्फल हो जाता है। संकल्प की हुई दक्षिणा न देने से (ब्राह्मण के अधिकार का धन रखने से) मनुष्य रोगी व दरिद्र हो जाता है व उससे लक्ष्मी, देवता व पितर तीनों ही रुष्ट हो जाते हैं।

शास्त्रों में दक्षिणा के बहुत ही अनूठे उदाहरण देखने को मिलते हैं |

भगवान श्रीकृष्ण ने मृत गुरुपुत्र को वापिस जीवित लाकर दी गुरुदक्षिणा

श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाईयों ने गुरु सान्दीपनि के आश्रम में रहकर 64 दिनों के अल्पसमय में सम्पूर्ण शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा पूरी करने के पश्चात श्रीकृष्ण और बलराम ने गुरु सान्दीपनि से गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की। अगस्त्यमुनि की तरह अनेक विद्याओं के समुद्र को एक ही सांस में सोख लेने की श्रीकृष्ण की अद्भुत शक्ति देखकर गुरुजी भी ताड़ गए और उन्होंने कसकर गुरु दक्षिणा मांगने का विचार किया। ऋषि ने अपनी पत्नी को कुछ मांगने को कहा। गुरुपत्नी ने श्रीकृष्ण से गुरुदक्षिणा के रूप में अकालमृत्यु को प्राप्त हुए अपने पुत्र को वापिस ला देने की बात कही।

सारी सृष्टि के रचयिता विष्णुरूपी भगवान श्रीकृष्ण अपनी गुरुमाता के दुःख को कैसे देख सकते थे? उन्होंने गुरुपुत्र को पुनर्जीवन का वरदान दिया। दोनों भाई प्रभासक्षेत्र में गये। उन्हें पता चला कि शंखासुर नामक राक्षस गुरुपुत्र को ले गया है, जो समुद्र के नीचे पवित्र शंख में रहता है, जिसे ‘पांचजन्य’ कहते हैं। दोनों भाइयों ने राक्षस का वध कर ‘पांचजन्य’ में चारों ओर ऋषिपुत्र को खोजा। ऋषिपुत्र को उसमें न पाकर वे शंख लेकर यम के पास पहुँचे और उसे बजाने लगे।
यम ने दोनों भ्राताओं की पूजा करते हुए कहा–’हे सर्वव्यापी भगवान, अपनी लीला के कारण आप मानवस्वरूप में हैं। मैं आप दोनों के लिए क्या कर सकता हूँ?’

श्रीकृष्ण ने यमराज से कहा–’मेरे गुरुपुत्र को मुझे सौंप दीजिये, जो अपने कर्मों के कारण यहाँ लाया गया था।’ इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने गुरु को उनका जीवित पुत्र सौंपा और अपनी गुरुदक्षिणा पूर्ण की।

एकलव्य की द्रोणाचार्य को अनूठी गुरुदक्षिणा

गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा मांगा। दाहिने हाथ का अंगूठा न रहे तो बाण चलाया ही कैसे जा सकता है? एकलव्य की वर्षों की अभिलाषा, परिश्रम व अभ्यास–सब व्यर्थ हुआ जा रहा था, किंतु एकलव्य के मुख पर खेद की एक रेखा तक नहीं आयी। उस वीर गुरुभक्त बालक ने बायें हाथ में छुरा लिया और तुरंत अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरुदेव के सामने धर दिया।
भरे कण्ठ से द्रोणाचार्य ने कहा–’पुत्र! सृष्टि में धनुर्विद्या के अनेकों महान ज्ञाता हुए हैं और होंगे, किंतु मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे इस भव्य त्याग और गुरुभक्ति का यश सदा अमर रहेगा।’

प्राचीन भारत में गुरु और शिष्य का ऐसा पवित्र और समर्पित रिश्ता था।

Wednesday, 18 October 2017

रूप चतुर्दशी , कृपाशंकर जी

>>>>> आज का दिन ज्ञान के प्रकाश से जगमगाने का दिन है .....
आज रूप चतुर्दशी है जिसे नर्क चतुर्दशी व छोटी दीपावली भी कहते हैं| आज के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था| इस युद्ध में उनके साथ उनकी पत्नी सत्यभामा भी थी| कुछ समय के लिए जब भगवान श्रीकृष्ण मूर्छित हो गए, उस समय  सत्यभामा ने अपने दिव्यास्त्रों के साथ नरकासुर से युद्ध किया|
इस दिन के बारे में एक कथा पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा रंतिदेव के बारे भी है|
बंगाल में यह दिन काली चौदस के नाम से जाना जाता है|
एक कथा के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण करके देवताओं को राजा बलि के आतंक से मुक्ति दिलाई थी| भगवान ने राजा बलि से वामन अवतार के रूप में तीन पैर जितनी जमीन दान के रूप में मांगकर उसका अंत किया था| राजा बलि के बहुत ज्ञानी होने के कारण भगवान विष्णु ने उसे साल में एक दिन याद किये जाने का वरदान दिया था| अतः नरक चतुर्दशी ज्ञान के प्रकाश से जगमगाने का दिन माना जाता है|
इस दिन हनुमान जी की भी विशेष पूजा उनके भक्त करते हैं|
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आज रूप निखारने का दिन है| आज रूप चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पूर्व शरीर पर तेल व उबटन लगा कर एक बाल्टी में जल भरकर उसमें अपामार्ग के पौधे का टुकड़ा डाल कर उस जल से स्नान करने का महत्त्व है| अपामार्ग का पौधा न मिले तो एक बहुत ही कड़वा फल रखते हैं| सूर्योदय से पूर्व स्नान करते समय स्नानागार में एक दीपक भी जलाने की प्रथा रही है|
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आज के दिन तेल उबटन लगाकर सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से देह रूपवान हो जायेगी| रूप चौदस का दिन बहुत ही शुभ दिन है अतः प्रसन्न रहकर भक्तिभाव से अपने इष्ट की उपासना करें|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Thursday, 12 October 2017

श्रीयुगल स्वरूप की उपासना , भाई जी

श्रीभाई जी द्वारा
श्रीयुगल स्वरूप की उपासना

(क) प्रश्न-कुछ लोग कहते हैं कि भगवान की उपासना उनकी शक्ति-सहित करनी चाहिये और कुछ लोग कहते हैं कि अकेले भगवान की उपासना करनी चाहिये। इन दोनों में कौन-सी बात ठीक है?
उत्तर- भगवान और भगवान की शक्ति दो अलग-अलग वस्तु नहीं हैं। जैसे अग्नि और उसकी दाहिकाशक्ति एक ही वस्तु हैं‚ उसी प्रकार भगवान और उनकी शक्ति है। दाहिकाशक्ति है‚ इसीलिये वह अग्नि है; नहीं तो उसका व्यक्त अग्नित्व ही नहीं रहता और अग्नि न हो तो दाहिकाशक्ति का कोई आधार नहीं रहता। अतएव दोनों मिलकर ही एक अग्नि बने हैं या अग्नि के ही ये दो नाम हैं। इसी प्रकार भगवान और भगवान की शक्ति सर्वथा अभिन्न हैं‚ इनमें भेद मानना ही पाप है। इस दृष्टि से जो भगवान की उपासना करता है‚ वो उनकी शक्ति की उपासना करता ही है और जो शक्ति का उपासक है‚ वह भगवान की उपासना करने को बाध्य है; अतएव एक की उपासना में दोनों की उपासना आप ही हो जाती है। परंतु उपासक यदि चाहें तो विग्रह के रूप में दोनों की अलग-अलग मूर्तियों में भी उपासना कर सकते हैं। इतना याद रखना चाहिये कि लक्ष्मी-नारायण‚ गौरी-शंकर‚ राधा-कृष्ण‚ सीता-राम आदि सब एक ही हैं; इनमें अपनी-अपनी रुचि और भावना के अनुसार किसी भी युगल रूप की उपासना हो सकती है। यहाँ इतना अवश्य कह देना चाहिये कि युगल रूप की उपासना विशेष अधिकारी को ही करनी चाहिये। नहीं तो‚ उसमें अनर्थ होने का डर है। जगज्जननी लक्ष्मी‚ उमा‚ राधा या सीता के स्वरूप में कहीं पाप भावना हो गयी तो सारी उपासना नष्ट होकर उलटा विपरीत फल हो सकता है; और जो लोग वैराग्यवान् नहीं हैं‚ उनके द्वारा स्त्री रूप की उपासना में मन में विकार होने का डर है ही; क्योंकि ऐसे लोग भगवान की दिव्य स्वरूपा शक्ति के तत्त्व को न जानकर अपने अज्ञान से इन्हें प्राकृत स्त्री ही समझ लेते हैं और प्राकृत स्त्री रूप का आरोप करके विषयासक्ति के कारण विकार के वश हो जाते हैं। भगवान की रासलीला देखने वाले मनुष्य ने तथा श्रीराधाजी का ध्यान करने वाले एक दूसरे मित्र ने अपनी ऐसी दुर्घटनाएँ सुनायी थीं; इससे यह पता चलता है कि दिव्य अनन्तसौन्दर्य-सुधामयी इन स्वरूपा शक्तियों के साथ भगवान की उपासना करने वाले सच्चे अधिकारी बिरले ही होते हैं।

(ख) प्रश्न- श्रीराधा‚ सीता‚ उमा आदि भगवान की स्वरूपा-शक्तियों की उपासना के अधिकारी में कौन-कौन-सी बातें होनी चाहिये?
उत्तर-

पहली बात तो यही है कि उसे काम विजयी होना चाहिये। कामी पुरुष दिव्य स्वरूपा शक्तियों की उपासना का अधिकारी कदापि नहीं है।
दम्भ‚ द्रोह‚ द्वेष‚ काम‚ लोभ और विषयासक्ति के त्याग से ही इस प्रेम मार्ग की साधना आरम्भ होती है। जिन पुरुषों में दम्भादि छः दोष हैं और जो विषयों में आसक्त हैं अर्थात जिनका मन सुन्दर रूप‚ बढ़िया स्वादिष्ट पदार्थ‚ मनोहर गन्ध‚ कोमल स्पर्श और सुरीले गायन पर रीझा रहता है‚ वे इस मार्ग पर नहीं चल सकते। त्यागी-विरागी महज्जन ही इस प्रेम पथ के पथिक हो सकते हैं; क्योंकि इस उपासना में दिव्य प्रेमराज्य में प्रवेश करना पड़ता है और वहाँ बिना गोपी-भाव को प्राप्त किये किसी का प्रवेश हो नहीं सकता। एंव गोपी-भाव की प्राप्ति विषयासक्त पुरुष को कदापि होनी सम्भव नहीं। जो विषय-लोलुप भी हैं और अपने को श्रीराधाकृष्ण का प्रेमी बतलाते हैं‚ वे या तो स्वयं धोखे में हैं अथवा जान या अनजान में जगत को धोखा देना चाहते हैं।
उपर्युक्त छः दोषों से बचकर और विषयासक्ति को त्याग कर निम्नलिखित रूप में मुख्य साधना करनी चाहिये-

अपने को श्रीराधाजी की अनुचरियों में एक तुच्छ अनुचरी मानना।
श्रीराधाजी की सेविकाओं की सेवा में ही अपना परम कल्याण समझना।
सदा यही भावना करते रहना कि मैं भगवान की प्रियतमा श्रीराधिकाजी की दासियों की दासी बना रहॅूं और श्रीराधा कृष्ण के मिलन-साधन के लिये विशेष रूप से यत्न कर सकॅूं।
यह बहुत ही रहस्य का विषय है। इसलिये इस विषय पर विशेष रूप से लिखना अनुचित है। इस मार्ग पर पैर रखना आग पर खेलना है। जो बिना इसका रहस्य समझे इस पथ में प्रवेश करना चाहता है‚ वह गिर जाता है। जिसके हृदय में तनिक-सा काम-विकार हो‚ उसे इस मार्ग से डरकर सदा अलग ही रहना चाहिये। अवश्य ही जो अधिकारी साधक हैं‚ उन्हें इस मार्ग में जो अतुल दिव्य आनन्द है‚ उसकी प्राप्ति होती है। श्रीराधिकाजी की सेविकाओं की सेवा में सफल होने पर स्वंय श्रीराधिकाजी की सेवा का अधिकार मिलता है और श्रीराधिका जी की सेवा ही युगलस्वरूप की कृपा प्राप्त करने प्रधान उपाय है। जो ऐसा नहीं कर सकते‚ उन्हें युगलस्वरूप की प्राप्ति बहुत ही कठिन है।

(झ) प्रश्न- क्या इस स्वरूप का साक्षात्कार भी हो सकता है? हो सकता है तो किस उपाय से?

उत्तर- अवश्य ही हो सकता है। जब युगलसरकार कृपा करके अपने दुर्लभ दर्शन देना चाहें तभी दर्शन हो सकते हैं। उनकी कृपा ही उनके साक्षात्कार का उपाय है।

प्रश्न- क्या साक्षात्कार में भगवान की मुरलीध्वनि, नूपुरध्वनि सुनायी दे सकती है? क्या उनके श्रीअंग की मधुर दिव्य गन्ध और उनके दिव्य चिन्मय चरणों का स्पर्श प्राप्त हो सकता है?

उत्तर- दर्शन होन पर उनकी कृपा से सभी कुछ हो सकता है। परंतु एक बात याद रखनी चाहिये कि ये सब बातें ध्यान में भी हो सकती हैं। जैसे स्वप्न में देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना सब कुछ होता है परंतु वस्तुतः वहाँ अपने से भिन्न कोई वस्तु नहीं होती, सब मन की ही कल्पना होती है, उसी प्रकार ध्यान काल में भी मनोनिर्मित विग्रह का स्पर्श, मुरलीध्वनि या नूपुरध्वनि का श्रवण, मधुर गन्ध का ग्रहण हो सकता है। उसमें और साक्षात्कार में बड़ा अन्तर है; परंतु इस अन्तर का पता साक्षात्कार होन पर ही लगता है, पहले नहीं। ध्यान होना भी बड़े ही सौभाग्य का विषय है।