Monday, 10 June 2019

व्रज-भूमि

व्रज-भूमि
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श्रीव्रजराज-किशोर के प्रेम में विभोर भावुकों को सर्वस्व श्रीव्रजतत्त्व, अपार, महामहिम, वैभवशाली तथा प्रकृति-प्राकृत प्रपंचातीत है।

साक्षात श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द वृन्दावनचन्द्र के ध्वज-व्रजांकुशादियुक्त, परमपावन, योगीन्द्र-मुनीन्द्र-ब्रह्मरुद्रेन्द्रादिवन्द्य पादारविन्द से अंकित व्रजतत्त्व के सम्बन्ध से भूमि ने अपने को परम सौभाग्यशालिनी समझा है।

अहो! जिसके कृपा-कटाक्ष की प्रतीक्षा ब्रह्मेन्द्रादि देवाधिदेव भी करते रहते हैं, वह वैकुण्ठाधिष्ठात्री सर्वसेव्या महालक्ष्मी ही जहाँ सेविका बनकर रहने के लिये लालायित है, उस सवोच्च-विराजमान व्रजभूमि के अद्भुत वैभव का कौन वर्णन कर सकता है?

परमाराध्यचरण श्रीव्रजदेवियों ने वृन्दावन-नवयुवराज नन्दनन्दन के प्रादुर्भाव से व्रज की सर्वाधिक विजय बतलायी है-

“जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।”

लोक और वेद से अतीत दिव्य-प्रेमवती व्रजयुवतीजन वहाँ प्राणपण से अपने प्राणनाथ प्रियतम परप्रेमास्पद के अन्वेषण में प्रेमोन्माद से उन्मत्त होकर इधर-उधर डोल रही हैं।

लोक तथा वेद में यह प्रसिद्ध ही है कि

‘आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति’
अर्थात संसारभर की समस्त वस्तुएँ स्वात्म-सम्बन्ध से ही प्रेमास्पद होती हैं।

स्वदेह, स्वपुत्र, स्वकलत्र एवं गेह-ग्राम-नगर-राष्ट्र यहाँ तक कि इष्ट देवता भी स्वात्म-सम्बन्धी ही प्रिय होते हैं।

परमात्मा के स्वरूपान्तरों में भी वैसा प्रेम नहीं होता, जैसा स्वात्म-सम्बन्धी इष्टदेव में होता है।

जब शर्करादि मधुर पदार्थों के सम्बन्ध से अमधुर चूर्णादि भी मधुर प्रतीत होते हैं तब शर्करादि स्वयं निरतिशय माधुर्य से सम्पन्न हो- यह बात जैसे निर्विवाद सिद्ध है, वैसे ही जिस स्वात्मतत्त्व के सम्बन्ध से अनात्मा भी प्रेमास्पद होता है, वह स्वात्मतत्त्व स्वयं निरतिशय निरुपाधिक प्रेम का आस्पद है- यह बात भी निर्विवाद सिद्ध है।

परन्तु, ये व्रजसीमन्तिनियाँ तो अपने जीवनधन अशेषशेखर नटनागर के लिये ही अपने स्वात्मा से भी प्रेम करती हैं।

उनका भाव है कि “हे दयित! हे चपल! आपके सुख के लिये ही हम इन प्राणों को धारण करती हैं। हृदयेश्वर! यदि यह देह, प्राण, आत्मादि आपके उपयोग में न आयें तो ये किस काम के?

हम लोग तो आपके लिये ही इन सौन्दर्य-माधुर्य-सौगन्ध्य-सौकुमार्य आदि गुणों की रक्षा करती हैं।
हे प्राणवल्लभ! नन्दलाल! समस्त सौख्यजात तथा तच्छेषी आत्मा- ये सभी आपके लोकोत्तर मनोहन मन्दहास-माधुर्य-सुधासिन्धु पर न्योछावर हैं। किंवा, पादारविन्दगत नखमणि-ज्योत्स्ना पर राई-नोन के समान वारने योग्य हैं।”

धन्य है वह मंगलमय व्रजधाम जो ऐसी व्रजराजकुमार-प्रेयसी व्रजदेवियों के पादपद्म से समलंकृत हैं; जहाँ नयनाभिराम घनश्याम मनमोहन की मोहिनी मुरली का की मधुर ध्वनि से त्रिलोकी के चराचर चकित हो रहे हैं; जहाँ श्रीकृष्णचन्द्र-मुखपंकज-निर्गत वेणुगीत-पीयूष से पाषाण द्रवीभूत होकर बह चले तथा प्रेमार्त होकर कलिन्द-नन्दिनी महेन्द्र-नीलमणि के सदृश घनीभूत हो गयी; जहाँ गौएँ छविधाम घनश्याम के परम कमनीय माधुर्य का अनिमीलित नयनपुटों से अधैर्य के साथ पान कर रही हैं और श्रोत्रपुटों से वेणुगीत पीयूष का आस्वादन कर रही हैं; जहाँ प्रेमविभोर वत्सवृन्द सुतवत्सला जननी के प्रेमप्रसृत स्तन्यामृत-पान के लिये प्रवृत्त हुए, परन्तु वंशी-निनाद-मन्त्र से मुग्ध हो गये और उनके मुख से दुग्ध बाहर गिरने लगा, अन्दर ले जाने की क्रिया को वे भूल गये; जहाँ के मृग-विहंग भी विविध प्रकार के उपचारों से प्रियतम की प्रसन्नता के लये व्यग्र हैं।

जिस परमपावन धाम में तरुलता-गुल्मादि भी वेणुछिद्र-निर्गत शब्द-ब्रह्मरूप में परिणत भगवदीय अधरसुधा का पान कर कुड्मलपुष्प-स्तबकादिरूप रोमांचोद्गम छद्म से तथा मधुधारारूप हर्षाश्रुविमोक से, अपने दुरन्त भाव का व्यक्तीकरण कर रहे हैं; जिस धाम में प्रेमातिशय से प्रभु पादपपद्माकिंत व्रजभूमिगत ब्रह्मादिवन्द्यरज के स्पर्श के लिये आज भी समस्त तरुलताएँ विनम्र हो रही हैं; अथवा मनमोहन के दिये हुए निर्भर प्रेम के भास से ही विनम्र हो रही हैं; जिस व्रज की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक परमाणु, बलात्कार से जीवन-धन की स्मृति उत्पन्न कर प्रियतम के सम्मिलन की उत्कण्ठा को उत्तेजित करते हैं।

जिस व्रज में निवास करने वाले सौभाग्यशाली महापुरुषधौरेयों के ऋणी अनन्तकोटि-ब्रह्माण्ड-नायक को भी होना पड़ा, उस व्रज का महत्त्व किन शब्दों में, किस लेखनी द्वारा व्यक्त किया जाय?

सत्यलोकपति ब्रह्मा ने कहा कि “हे नाथ! आप इन लोकोत्तर-सौभाग्यशाली व्रजवासियों को क्या देकर उनसे उऋण होंगे?”

इस बात को सोचता हुआ मेरा मन निश्चय करने में असमर्थ हो व्यामोह को प्राप्त होता है।

प्रभु ने कहा-“ब्रह्मन्! मैं अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डनायक हूँ। मेरे पास दिव्यातिदिव्य अनन्त वस्तुएँ हैं जिन्हें देकर मैं इनके ऋण से उन्मुक्त हो सकता हूँ।

फिर तुम्हें ऐसा व्यामोह क्यों?”

इस पर ब्रह्मा ने कहा- “प्रभो! इन अनन्तानन्त दिव्य वस्तुओं के प्रदान से आप इन घोष-निवासियों से उऋण हीं हो सकते। क्योंकि, अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डान्तर्गत सब दिव्यातिदिव्य तत्त्व तो केवल सुख के अभिव्यंजक होने से ही उपादेय हो सकते हैं, पर उन अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डगत व्यक्त सौख्यबिन्दु के परम-उद्गम-स्थल अचिन्त्यानन्तसौख्यसिन्धु आप ही हैं।

फिर, भला जिनके प्रांगण में साक्षात् अनन्त परमानन्द-सुधासिन्धु ही कन्दर्पकामित परम-कमनीय कान्तिमय मूर्तिमान धूलिधूसरित होरक विहरण करें और रसिकेन्द्रवर्ग नन्दप्रांगण में जिस अप्रमेय सबाह्याभ्यन्तर तत्त्व को उलूखल-निबद्ध दारुयंत्रवत् व्रजसीमन्तिनी-वर्गविधेय बतलाते हैं, उन्हें तुषार-बिन्दु-स्थानीय सौख्याभिव्यंजक वस्तु के प्रदान से आप कैसे प्रसन्न कर सकते हैं?

जैसे कृतसंज्ञक चतुरंग द्यूत के विजित होने पर त्र्यङ्क-द्वîक-एकांक द्यूत भी उसके अन्तर्भूत हो जाते हैं, किंवा सर्वतः संप्लुतोदकस्थानीय महासमुद्र को प्राप्त कर लेने पर वापी-कूप-तड़ागादिगत जल की अपेक्षा नहीं रह जाती, वैसे ही सौख्यसुधानिधि सर्वफलात्मास्वरूप प्रभु के स्वायत्त होने पर फल्गु फलों की अपेक्षा कौन विवेकी कर सकता है?

अतः हे गोपालचूड़ामणे! आप व्रजनिवासी वर्ग के ऋण से कैसे उन्मुक्त हो सकते हैं?”

चतुर-चूड़ामणि व्रजवन नवयुवराज बोलेः-“ब्रह्मन्, तब तो मैं स्वात्मसमर्पण द्वारा इनके ऋण से उऋण हो जाऊँगा। जब मैं ही सर्व फलात्मा हूँ तो मैं इनको स्वात्म-समर्पण से भी प्रसन्न कर सकता हूँ।”

ब्रह्माजी ने कहा- “नाथ! वह स्वात्म-सपर्पण तो आपने सर्वफल-समर्हणीय श्रीचरणों की जिघांसा से विषलिप्त-स्तन्यपान कराने वाली द्वेषवती उस पूतना के लिये भी किया है।

आप यदि यह कहें कि कुल-कुटुम्ब समेत व्रजवासियों को स्वात्म-समर्पण कर उऋण हो सकूँगा तो भी ठीक नहीं, क्योंकि पूतना का भी कोई कुल-कुटुम्ब आपकी प्राप्ति से वंचित नहीं रहा। भला जब आपका स्वात्म-समर्पण इतना सस्ता है कि बालघ्नी पूतना को भी आपने स्वात्म प्रादन कर दिया, तब जो धराधन-धाम-सुहृत्-प्रिय तनय तथा आत्मा को भी आपके पादारविन्द-माधुर्य पर न्योछावर करने वाले व्रजवासी जन हैं, उनसे आप स्वात्म-समर्पण मात्र से कैसे उऋण हो सकते हैं?

यद्यपि कहा जा सकता है कि बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ स्वात्म-समर्पण उनके लिये पर्याप्त है, परन्तु विज्ञजनों की दृष्टि में व्रजधाम-निवासियों की पदवी योगीन्द्र-मुनीन्द्रों को भी दुर्लभ है; क्योंकि यम नियम प्राणायाम प्रत्याहारादि द्वारा बाह्य-विषयों से मन को संयत कर योगीन्द्र अनुक्षण जिस तत्त्व के अनुसन्धान का प्रयत्न करते हैं उसी तत्त्व में इन व्रजनिवासियों की स्वारसिकी प्रीति है।

राग यद्यपि प्राणियों के निःसीम स्वात्मसौख्य का अपहरण करने वाला होने के कारण शत्रुवत परिहार्य है, परन्तु, परम-सौभाग्यशाली इन घोष निवासियों का राग तो प्रियतम-परम-प्रेमास्पद आपके मंगलमय स्वरूप में ही है।मोह भी प्राणियों की स्वाभाविकी स्वतन्त्रता का अपहरण करने वाला होने से साक्षात श्रृंखलारूप है; परन्तु इनका तो मोह भी आपमें ही है।

अतः इनके तो रागमोहादि दूषण भी भूषणरूप हैं। कारण, भगवत्तत्त्व-व्यतिरिक्त प्रापंचिक पदार्थविषयक ही रागादि त्याज्य हैं।

भगवद्विषयक रागादि की प्रेप्सा तो प्रत्येक प्रेक्षावान को ही होती है। कथंचित वैराग्य से भी विराग हो सकता है, पर प्रेममय भगवान से नहीं। तात्पर्य यह कि सर्वविषयक राग-त्याग से यद्विषयक राग की उत्कट प्रेप्सा सम्पादन की जाती है, तद्विषयक उत्कट-राग-सम्पन्न इन घोष निवासियों के माहात्म्य की एक कला की भी बराबरी कौन कर सकता है?”

“एषां घोषनिवासिनामुत भवान् किं देव रातेति न-
श्चेतो विश्वफलात् फलं त्वदपरं कुत्राप्ययन्मुह्यति।
सद्वेषादिव पूतनापि सकुला त्वामेव देवाऽऽपिता,
यद्धामार्थसुहृत्प्रियाप्ततनयप्राणाशयास्त्वत्कृते।।
तावद्रागादयः स्तेनास्तावत्कारागृहं गृहम्।
तावान्मोहोंऽघ्रिनिगडो यावत्कृष्ण न ते जनाः।।”

“प्रभो! अनन्तकोटि-ब्रह्माण्ड-नायक स्वयं आप जिनके ऋणी हैं, उन घोष निवासियों की महिमा का कौन वर्णन करे। सत्यलोकाधिपति जगत्पितामह श्रीब्रह्मा जी भी व्रज के रजःस्पर्शलाभार्थ व्रजवृन्दाटवी के तृण-गुल्मादि के रूप में जन्म लेने के सौभाग्य की अभिलाषा रखते हैं। उनको आशा है कि यहाँ के तृण-गुल्मादि होने से भी व्रजवासियों के चरण रज का अभिषेक उन्हें प्राप्त होगा।

उस व्रज के अन्तर्गत भगवान की अनेक लीला-भूमि हैं, जो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र-विषयिणी प्रीति का उद्दीपन करने वाली हैं।

यमुना-पुलिन, गोवर्धनाद्रि, गह्वरवन, कदम्बखण्डियाँ, नन्दग्राम, बरसाना, उद्धवक्यार, चरणाद्रि आदि ऐसे-ऐसे मनोहर स्थान हैं जहाँ के परमाणु-परमाणु में श्रीकृष्ण-प्रीति का संचार करने की अद्भुत शक्ति देखी जाती है। व्रज्र-सदृश कठोर चित्त भी वहाँ हठात् द्रवीभूत हो जाता है।”

श्रीवृन्दावन-धाम तो व्रजभूमि का सर्वस्व है। श्रीव्रजभक्तों की पद-पंकज-रज के संस्पर्श-लोभ से,

“नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनः”

के अनुसार, साक्षात श्रीकृष्ण से भी अन्यून महाभागवत उद्धव भी वृन्दावन धाम के तृण-गुल्मादि होने की स्पृहा प्रकट करते हैं।“

आसामहो चरणरेणजुषामहं स्यां,
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।”

श्रीमत्प्रबोधानन्द सरस्वती प्रभूति महानुभाव तो वृन्दावन धाम बहिर्भूत अनन्त चिन्तामणियों की ही नहीं वरंच श्रीहरि की भी उपेक्षा करने की सलाह देते हैं-

“मिलन्तु चिन्तामणिकोटिकोटयः,
स्वयं हरिर्द्वारमुपैतु सत्त्वरः।।”

“विपिन-राज सीमा के बाहर हरिहूँ को न निहारौ” आदि।

वेदान्तवेद्य परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन परब्रह्म निरतिशय होने के कारण, तारतम्यविहीन होने पर भी वृन्दावन धाम में जैसा मधुर अनुभूयमान होता है वैसा और स्थलों में नहीं।

अत: भावुकों ने-

“व्रजे वने निकुंजे च श्रैष्ठ्यमत्रोत्तरोत्तरम्।”

के अनुसार द्वारकास्थ, मथुरास्थ श्रीकृष्ण-व्यतिरिक्त श्रीकृष्ण में भी व्रजस्थ-वृन्दावनस्थ-निकुंजस्थ भेद से तारतम्य स्वीकृत किया है।

अभिप्राय यह है कि जैसे एक ही प्रकार का स्वाति-बिन्दु स्थलवैचित्र्य से विचित्र परिणाम वाला होता है, शुक्तिका में पड़कर मोती के रूप से, बाँस में वंशलोचनरूप से, गोकर्ण में गोरोचनरूप से, गजकर्ण में गजमुक्तारूप से परिणत होता है, वैसे ही वेदान्तवेद्य तत्त्व एकरूप होता हुआ भी अभिव्यंजक स्थल की स्वच्छता के तारतम्य से, अभिव्यक्ति-तारतम्य होने से, तारतम्योपेत होता है।

जैसे सूर्यतत्त्व की अभिव्यक्ति काष्ट-कुड्य आदि अस्वच्छ पदार्थों पर वैसी नहीं होती, जैसी निर्मल जल, काँच आदि पर होती है, वैसे ही राजस-तामस स्थलों में ब्रह्मतत्त्व की अभिव्यक्ति वैसी नहीं हो सकती, जैसी निर्मल विशुद्ध स्थलों में।यह निर्मलता जैसे पार्थिव-प्रपंच में स्पष्ट अनुभयमान है, वैसे ही त्रिगुणात्मक प्रपंच में गुण-विमर्द-वैचित्र्य से क्वचित् प्रत्यक्षानुमान द्वारा, क्वचित् आगम तथा श्रुतार्थापत्ति द्वारा तारतम्योपेत होकर ज्ञात होती है।

इसीलिये किसी स्थल में जाने से वहाँ अकस्मात चित्तप्रसाद और किसी स्थल में चित्तक्षोभ आदि चिह्नों द्वारा भी स्थल-वैचित्र्य की अनुभूति होती है।

व्रजवन-निकुंजों में क्रमशः एक की अपेक्षा दूसरे में वैचित्र्य है। अत: वहाँ पूर्ण-पूर्णतर-पूर्णतमरूप से एक ही श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का प्राकट्य होता है।

तीर्थों की यह विशेषता प्रत्यक्ष है कि जिस तीर्थ में जितनी अद्भुत सात्त्विकता एवं शक्ति है, वहाँ उतनी ही सरलता से प्रभु की विशेषता की अनुभूति होती है।

परन्तु जैसे कामिनी का रूप कामुकों पर ही प्रभावकारी होता है और सर्व-व्याघ्रादि दर्शन से अधिक उद्वेग भीरु को ही होता है, वैसे ही सात्त्विक तथा भगवत्परायण को तीर्थगत विलक्षण शक्तियाँ प्रभावान्वित करती हैं। यद्यपि वैसे कुछ न कुछ प्रभाव तो सभी तरह से पुरुषों पर होता है, तथापि वह व्यक्त नहीं होता। परन्तु श्रुतार्थापत्ति द्वारा तीर्थों में शक्ति-वैलक्षण्य अवश्य ज्ञात है।

भावुकों ने व्रजतत्त्व को हिततम वेदवेद्य प्रेमतत्त्व का स्वरूप अर्थात शरीर ही माना है।

प्रेमतत्त्व के व्रजधाम-स्वरूप देह में श्रीव्रजनवयुवतिजन इन्द्रियरूपिणी हैं।

मनःस्वरूप रसिकेन्द्रवर्गमूर्धन्यमणि श्रीव्रजराज-किशोर हैं तथा प्राणरूपा-प्रज्ञा के स्थान में श्रीव्रजनवयुवति-कदम्ब-मुकुटमणि कीर्तिकुमारी श्रीराधा हैं। यहाँ-

“इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।”

इस श्रुति के अनुसार जैसे देह इन्द्रियों के, इन्द्रियाँ मन के और मन प्राणरूपा प्रज्ञा के परतन्त्र होता है, (यहाँ पर “यो वै प्राणः सा प्रज्ञा” इस श्रुति वाक्य के अनुसार क्रिया-शक्ति-प्रधान प्राण और ज्ञानशक्ति-प्रधान प्रज्ञा का ऐक्य विवक्षित है) एवं पूर्व का उत्तरोत्तर में ही सम्मिलन होने से तद्रूपता ही होती है, उसी तरह व्रज श्रीकृष्ण प्रेयसी व्रजांगनाओं से विभूषित तथा उन्हीं के अधीन है।

व्रजवनिताजन का जीवन श्रीवृजेन्द्र कुमार हैं तथा श्रीकृष्ण-हृदय की अधीश्वरी प्राणाधिका राधिका हैं और वह केवल प्रेमसुधा-जलनिधि में ही पर्यवसित होती हैं।प्रेममय व्रज प्रेमोद्वेक में व्रजांगनारूप ही हो जाता है और व्रजांगनाएँ

‘असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिकाः’,

‘कृष्णोऽहं पश्यत गतिम्’ इत्यादि वचनों के अनुसार,

श्रीकृष्ण-भावरस-भरिता होकर नन्दनन्दनस्वरूपा हो जाती हैं।

रसिकशिरोमणि श्रीकृष्ण प्रेमोन्माद में निजप्रेयसी श्रीवृषभानुनन्दिनी-स्वरूप हो जाते हैं तथा श्री राधिका प्रेमस्वरूप में ही साक्षात अपने प्रियतम के साथ निमग्न होती हैं।

इस प्रकार साक्षात वेदान्तवेद्य परम-रसात्मक-सुधाजलनिधि के ही दिव्यविकास-प्रेममय तत्त्व उसी में पर्यवसित होते हैं। इसी तरह अनाद्यनन्त रससागर में रसमय प्रिया-प्रियतम और उनके परिकर की रसमयी लीला का धाम अप्राकृत श्रीव्रज भी रसमय ही है।

यद्यपि व्रज में माधुर्यशक्ति का प्राधान्य है, तथापि क्वचित् ऐश्वर्यशक्ति का भी विकास होता ही है। क्योंकि माधुर्यशक्ति का ही अधिक आदर होने पर भी, ऐश्वर्य-शक्ति मूर्तिमती होकर प्रभु की सेवा करने के सुअवसर की प्रतीक्षा करती रहती है।

प्रभु भी उसका अत्यन्त तिरस्कार नहीं करते हैं। इसी से मृद्भक्षण आदि लीलाओं में मुखान्तर्गत ब्रह्माण्ड-प्रदर्शन आदि ऐश्वर्यशक्ति के कार्य देखे जाते हैं।

अतः विशुद्ध माधुर्य-भाव का प्राकट्य श्रीवृन्दावन धाम में ही माना जाता है।भावुकों का कहना है कि अनन्तकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत सौख्यबिन्दुओं का परम उद्गम स्थान जो अनन्त सौख्यसुधासिन्धु है, उसका मन्थन करने पर सार से भी सारभूत नवनीत-स्थानीय जो तत्त्व हो, उसका भी पुनः सहस्रधा-कोटिधा मन्थन करने पर जो परम दिव्य-तत्त्व निःसृत हो वही वृन्दावनधाम का स्वरूप है।

कारणरूप जो अक्षर-ब्रह्म है, वही व्यापी वैकुण्ठ वृन्दावन है।

कार्य-कारणातीत वेदान्त के परम-तात्पर्य के विषयीभूत परमतत्त्व श्रीकृष्ण के प्राकट्य का स्थल कारणात्मा अक्षर ही है।

“पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं  दिवि”,

“विष्टभयाहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्”

इत्यादि श्रुतिस्मृति के अनुसार माया विशिष्ट कारण ब्रह्म एकपाद है। उसके ऊपर त्रिपाद्विभूति अमृत है।

जो महानुभाव वेदान्त-वेद्य, कार्य-कारणातीत परमतत्त्व को ही वृन्दावन मानते हैं, उनके सिद्धान्त में वहाँ का निवासी कृष्ण-तत्त्व अवैदिक ही होगा। इतना ही कहना पर्याप्त है, क्योंकि एक ही में आश्रयाश्रयित्व असम्भव है।

“अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितम्।”

इस उक्ति के अनुसार भी अनन्तसंज्ञक अव्याकृत ही भगवान का आसन है।

उन्हीं का नाम शेष भी है।

“शिष्यतेअवशिष्यते इति शेषः”

अर्थात जो अवशिष्ट रहे वही शेष कहा जाता है।

कार्य के प्रलयानन्तर कारण ही शेष रहता है।

उसका कोई कारणान्तर नहीं है जिसमें उसका प्रलय हो। कारण सप्रपंच है। निष्प्रपंच ब्रह्म का वही निवास स्थल है।

“ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहम्”

इस भगवदुक्ति के अनुसार सगुण कारण-ब्रह्म की, एकपादस्थानीय की प्रतिष्ठा

“त्रिपादूर्ध्वमुदैत्” ऊर्ध्व अर्थात कार्य-कारणानन्तर्भूत ब्रह्म परमात्मा ही है।

किन्हीं महानुभावों के सिद्धान्त में यह प्रकट वृन्दावन ही अक्षर ब्रह्मव्यापी वैकुण्ठ है। परन्तु उसका वह स्वरूप अभावितान्तःकरण पुरुष को उपलब्ध नहीं होता है।

अद्वैतसिद्धान्त में समस्त प्रपंच ही ब्रह्मस्वरूप है परन्तु शास्त्राचार्योपदेशजन्य संस्कारों से संस्कृतान्तःकरण  पुरुषधौरेय को ही वह उपलब्ध होता है।

इसीलिये अद्वैतसिद्धान्त-परिनिष्ठित प्रबोधानन्द सरस्वती तदनुसार ही श्रीवृन्दावन को सच्चिदानन्दमय बतलाते हुए लिखते हैं-

“यत्र प्रविष्टः सकलोऽपि जन्तुः आनन्दसच्चिद्‌घनतामुपैति।”

“जिस वृन्दावन-धाम में प्रविष्ट होते ही कीट-पतंगादि भी आनन्द सच्चिद्‌घनस्वरूप हो जाते हैं”, परन्तु तादृशी प्रतीति तब तक नहीं होती जब तक प्राकृत-संसर्ग का बिल्कुल अभाव नहीं होता।

यद्यपि जीव स्वभाव से ही

“चेतन अमल सहज सुखराशी” है,

परन्तु आविद्यक अनात्म संसर्ग से अनेकानेक अनर्थ-परिप्लुत प्रतिभासित होते हैं।

अविद्या का विद्या द्वारा अपनयन होने पर उनका स्वाभाविक स्वरूप व्यक्त होता है। अत: कुछ लोग कहते हैं कि भगवान की अभिव्यक्ति का स्थल ही वृन्दावन है।

भगवदाकार से आकारित वृत्ति पर भगवत्तत्त्व का प्राकट्य होता है उसे भी वृन्दावन कहते हैं।

इस तरह साभास अव्याकृत एवं साभास चरमावृत्ति को भी वृन्दावन कहते हैं। इसीलिये जो महानुभाव वृन्दावन के उपासक होते हुए भी प्रसिद्ध वृन्दावन में प्रारब्धवश नहीं रह पाते, वे भी व्यापी वैकुण्ठ, कारण-तत्त्व-स्वरूप ब्रह्म के व्यापक होने से, तत्त्वस्वरूप वृन्दावन का प्राकट्य शक्ति-बल से कहीं भी रहकर सम्पादन करते हैं।

भावुकों की दृष्टि में नित्य-निकुंज श्रीवृन्दावन से भी अन्तरंग समझा जाता है। नित्य-निकुंज में वृषभानुनन्दिनीस्वरूप महाभाव-परिवेष्टित श्रृंगार-स्वरूप श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द नित्य ही रसाक्रान्त रहते हैं। यहाँ प्रिया-प्रियतम का सार्वदिक् सर्वांगीण सम्प्रयोग का भान भी सर्वदा ही रहता है।

जैसे कि सन्निपातज्वर से आक्रान्त पुरुष जिस समय शीतल मधुर जल का पान करता है ठीक उसी समय से पूर्ण तीव्र पिपासा का भी अनुभव करता है, वैसे ही नित्य निकुंज-धाम में जिस समय प्रिया-प्रियतम पारस्परिक परिरम्भण-जन्य रस में निमग्न होते हैं, उसी काल में तीव्रातितीव्र वियोग-जन्य ताप का भी अनुभव करते हैं।

सारस-पत्नी लक्ष्मणा केवल सम्प्रयोग-जन्य रस का ही अनुभव करती है और चक्रवाकी विप्रयोग-जन्य तीव्रताप के अनन्तर सहृदय-हृदय-वेद्य सम्प्रयोग-जन्य अनुपम रस का आस्वादन करती है, परन्तु वह भी विप्रयोग-काल में सम्प्रयोग-जन्य रसास्वादन से वंचित रहती है।

किन्तु नित्य-निकुंज में श्रीनिकुंजेश्वरी को अपने प्रियतम परमप्रेमास्पद श्रीव्रजराज किशोर के साथ सारस-पत्नी लक्ष्मणा की अपेक्षा शतकोटि-गुणित दिव्य सम्प्रयोग-जन्य रस की अनुभूति होती है और साथ ही चक्रवाकी की अपेक्षा शतकोटि-गुणित अधिक विप्रयोग-जन्य तीव्रताप के अनुभव के अनंतर पुनः दिव्य रस की भी अनुभूति होती है।

ऐसे ही विषय में भावुकों ने कहा है-

“मिलेह रहैं मानों कबहुँ मिले ना।”

जैसे भावुकों के भावना-राज्य वाले शून्य निकुंज में ही प्रियतम संकेतित समय में पधारते हैं, किसी अन्य के सान्निध्य में नहीं, वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी भगवान से व्यतिरिक्त जो सब दृश्य पदार्थ हैं उनके संसर्ग से शून्य निर्वृत्तिक और निर्मल अन्तःकरण में ही ‘तत्पदार्थ’ का प्राकट्य’ का प्राकट्य होता है।

जैसे सर्व-व्यापारों से रहित होकर पूर्ण प्रतीक्षा ही प्रियतम के संगम का असाधारण हेतु है, वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी पूर्ण प्रतीक्षा अर्थात कायिकी, मानसी आदि सर्व चेष्टाओं के निरोध होने पर ही ‘त्वं पदार्थ’ को ‘तत्पदार्थ’ का संगम प्राप्त होता है। सर्व दृश्य-संसर्गशून्य निर्वृत्तिक निर्मल अन्तःकरण निकुंज में पूर्ण प्रतीक्षा-परायण व्रजांगना-भावापन्न ‘त्वं पदार्थ’ श्रीकृष्णस्वरूप ‘तत्पदार्थ’ के साथ यथेष्ट तादात्म्य सम्बन्ध प्राप्त करता है। यही संक्षेप में व्रजधाम तत्त्व तथा उसका रहस्य है।

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