Monday, 10 June 2019

प्रेम का अधिकारी - वियोगी हरि

*प्रेम का अधिकारी*

*प्रेम योग -वियोगी हरि*

प्रेम का असली अधिकारी करोड़ों में कहीं एक मिलता है। दर्द का मर्म किसी कस कीले दिलवाले के ही आगे खोला जाता है। जो स्वयं ही प्रेमी नहीं, वह प्रेम का भेद कैसे समझ सकेगा? कबीर साहब इस बेदर्दी दुनिया के रंग ढंग से ऊबकर अपने मन से कहते हैं कि अपनी राम कहानी किसे जाकर सुनायें, अपना रोना किसके आगे रोया जाय? दर्द तो कोई जानेगा नहीं, उलटे सब हँसेंगे-

कह कबीर, दुख कासों कहिए, कोई दरद न जानै।।
इससे अपनी मीठी मनोव्यथा मन में ही छिपा रखनी चाहिए। अनाधिकारियों के आगे अपना दुख रोने से लाभ ही क्या? व्यथा को बाँट लेने वाला तो कोई है नहीं, सुनकर लोग उलटे अठलायँगे। रहीम का यह सरस सोरठा किस सहृदय की आँखों से दो बूँद आँसू न गिरा देगा-

मन ही रहिए गोय, ‘रहिमन’ या मन की व्यथा।
बाँटि न लैहै कोय, सुनि अठिलैंहैं लोग सब।।

कहो, किसे प्रेम का अधिकारी समझें! किसे अपनी प्रेम गाथा सुनायें। क्या कहा कि किसी पंडित या ज्ञानी को अपनी व्यथा कथा क्यों नहीं सुना देते, क्या  ज्ञानी भी तुम्हारी प्रेम वेदना सुनने का अधिकारी नहीं है? नहीं, वह प्रेम प्रीत का अधिकारी नहीं है। वह विद्याभिमानी ज्ञानी प्रेम कथा को क्या समझेगा-
अँधे आगे नाचते, कला अकारथ जाय।
शास्त्रों के मनोमुग्धकारी मार्ग में वह नेत्रवान् हुआ करे, परंतु प्रेमपंथ में तो नेत्र विहीन ही है। अँधे के आगे नाचने से कोई लाभ तो फिर किसी नियम निरत योगी को ढूँढ़ लाओ। तुम्हें तो किसी श्रोता से ही प्रयोजन है न? वह जरूर तुम्हारे दिल की बात समझ लेगा। और तुम्हारी अंतर्व्यथा पर सहानुभूति भी प्रकट कर देगा। प्रेम का तो उसे अवश्य अधिकारी होना चाहिए। नहीं, भाई! नेमी और प्रेमी में पृथिवी आकाश का अंतर है। वह प्रेम का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता। इससे-

कोऊ कहूँ भूलि जिन कहियो नेमीसों यह ज्ञानी।
कैसे मिदै तासु उर अंतर ज्यों पाथर में पानी।।- बख्शी हंसराज

नियम बेचारा तो यम नियम की ही बातें सुनना चाहेगा। प्रेमव्यथा की यह अकथनीय कथा तो आदि से अंत तक नियम नियंत्रण से परे है। बेचारा सुनते सुनते थक जायेगा। उसका मन ही न लगेगा। बड़ी लंबी चौड़ी कहानी है। दूसरे, इसका कहना भी महान् कठिन है। यह तो अंतस्तल की कथा है, जिगर की कहानी है। जिसे पढ़ना हो, कलेजा चीरकर पढ़ ले। पर ऐसा प्रेमाधिकारी तो उस प्रेम प्यारे को छोड़ दूसरा कोई नजर आता नहीं-

मेरी ये प्रेम व्यथा लिखिबेको गनेस मिलैं तो उन्हीतें लिखावौ।
व्यास के शिष्य कहाँ मिलै मोहिं, जिन्हें अपनी बिरतान्त सुनावौं।।
राम मिलैं तौ प्रनाम करौं, कवि ‘तोष’ बियोगकथा सरसावौं।
पै इक साँवरे मीत बिना यह काहि करेजो निकारि दिखावौ।।

यों तो इस जगत् में ‘प्रेमी’ उपाधि धारी सैकड़ों सहस्रों महापुरुष मिलेंगे, पर उनमें भुक्त भोगी प्रेमाधिकारी तो कदाचित् ही कहीं कोई एकाध देख पड़े। तालाब में मछली भी रहती है और मेढक भी रहता है। दोनों ही जलचरर है, जल के जीव हैं। पर नीर के प्रेम की अधिकारिणी एक मछली ही है। अब कहो जल वियोग की व्यथा सुनने या समझने का सच्चा अधिकार मेढक को है या मीन को?
जिन नहिं समुझय्यौ प्रेम यह, तिनसों कौन अलाप?

दादुर हू जल में रहै, जानै मीन मिलाप।।- ध्रुवदास
इस मतलबी दुनिया में मेढक जैसे नामधारी प्रेमी तो पग पग पर मिल जाएंगे, पर मीन की जाति का प्रेमाधिकारी शायद ही कहीं कोई मिले। बख्शी हंसराज ने ‘सनेह सागर’ में क्या अच्छा कहा है-

चाहनहारे सुख संपत्ति के जग में मिलत धनेरे।
कोऊ एक मिलत कहुँ प्रेमी, नगर बगर सब हेरे।।

परम प्रेमी आनन्दघन ने अपनी करुणा कलापिनी कविता के अधिकारी की जो व्याख्या की है, प्रायः वही प्रेमाधिकारी की भी परिभाषा है। जिसके हृदय और नेत्रों में एक प्रेम की पीर, लगन की एक मीठी सी कसक या हूक उठा करती है, वही अनुरागी आनन्द घन की कविता या किसी प्रेमी की प्रेम कहानी सुनने और समझने का सच्चा अधिकारी है-

प्रेम सदा अति ऊँचो लहै, सुकहै इहि भाँति की बात छकी।
सुनिकै सबके मन लालच दौरै, पै बोरे लखैं सब बुद्धि चकी।।
जग की कविताई के धोखें रहैं, ह्याँ प्रवीननि की मति जाति जकी।
समुझै कविता ‘घन आनंद की’ हिय आँखिन नेह की पीर तकी।।

इस अधिकार का पाना कितना कठिन है, कैसा दुर्लभ है, इसे कौन कह सकता है। प्रेमी होना चाहे कुछ आसान भी हो, पर प्रेम का अधिकारी होना तो एकदम मुश्किल है। बड़ी टेढ़ी खीर है। सिंहिनी का दूध दुह लेना चाहे कुछ सुगम भी हो, पर प्रेम का अधिकार प्राप्त कर लेना तो महान् कठिन है।
हमारी मनोव्यथा सुनने समझने का अधिकारी तो वही हो सकता है, जिसे अपना शरीर दे दिया है, मन सौंप दिया है और जिसके हृदय को अपना निवास स्थान बना लिया है अथवा जिसे अपने दिल में बसा लिया है। उससे अपना क्या भेद छिपा रह सकता है। ऐसे प्रेमी को अपने रामकहानी सुनाते सचमुच बड़ा आनन्द आता है, क्योंकि वही उसके सुनने समझने का सच्चा अधिकारी है। रहीम ने कहा है-

जेहि ‘रहीम’ तन मन दियौ, कियौ हिये बिच भौन।
तासों सुख दुख कहन की रही बात अब कौन?

ज्ञानी अथवा सिद्ध प्रेमाधिकारी नहीं हो सकता, किन्तु प्रेमाधिकारी निस्संदेह ज्ञानी और सिद्ध की अवस्था को अनायास पहुँच जाता है। जो प्रेम की कहानी सुन और समझ सकता है, वही तो ज्ञानी और सिद्ध है-

कहै प्रेम कैबरनि कहानी। जो बूझै सो सिद्ध गियानी।।  - जायसी

*वियोगी हरि*

लेखक एक दिव्य रसिक हुये है । उनका नाम ना हटावें । श्रीहरि को अपने प्रेमियों के नाम स्मरण से आह्लाद होता है ।

1 comment:

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