Wednesday, 12 June 2019

चतुर्विधा भजन्ते

चतुर्विधा भजन्ते
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भगवद्भक्त चार प्रकार के होते हैं--------

एक तो........
----------- आप्तकाम, आत्माराम, परमनिष्काम,तत्त्वविद् ब्रह्मनिष्ठ, परमात्मरहस्यज्ञ ज्ञानी, जिसको ऐन्द्र तथा ब्राह्मपद पर्यन्त के सम्पूर्ण वैभवों की रंचमात्र भी चाह नहीं होती।
वे योगीन्द्र, मुनीन्द्र, अमलात्मा, परमात्मा बिना किसी प्रयोजन के सर्वैश्वर्यपूर्ण, मधुरतम लीला-बिहारी भगवान के अव्यावृत भजन में लगे रहते हैं। यद्यपि वे पूर्णकाम, आत्माराम, परब्रह्म में परिनिष्ठत हैं, भजन करने की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है, तथापि वे ब्रह्मानन्द का अनुभव करने वाले मुनिजन, दिव्य, शुद्ध, नित्य, चिन्मय भगवत्स्वरूप के सामने आते ही क्षुब्ध हो उठते हैं और उनके मरे हुए मन भी जीवित होकर इस स्वरूप की एक-एक वस्तु पर मुग्ध हो जाते हैं।

जिन इन्द्रियों के विकाररूप रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श से मुमुक्षु-अवस्था में ही चित्त उपरत हो जाता है और भजन करना उनका स्वभाव ही बन जाता है।
कमलनयन, घनश्याम के विधुविनिन्दक वदनारविन्द पर अतिमृदुल मन्द मुस्कान एवं उनके अति मनोहर नयनयुगल के कमनीय कृपाकटाक्ष एवं इसी प्रकार प्रभु के अन्याय श्रीअंगों का अवलोकन कर, दृश्य नामरूपात्मक प्रपंचों से अन्यमनस्क चित्त योगीन्द्र, मुनीन्द्र भी लट्टू हो जाते हैं।
एक बार दिव्य वैकुण्ठ लोक में श्रीमहाविष्णु के समीप नित्य आत्मनिष्ठ सनकादि ऋषि पधारे। ज्यों ही वे भगवान के सामने पहुँचे और उनके स्वरूप को देखा कि मुग्ध हो गये। भगवान की सुन्दरता देखते-देखते उनके नेत्र किसी प्रकार तृप्त ही न होते थे।

भगवान के सौन्दर्य ने ही उन्हें मुग्ध किया हो सो नहीं, प्रणाम करते समय कमल-नयन श्रीहरि के पादपद्मपराग से मिली हुई तुलसी मंजरी का सुगन्ध वायु के द्वारा नासिका मार्ग से ज्यों ही मुनियों के अन्तर में पहुँचा कि उनका मन क्षुब्ध हो गया, उस सुगन्ध की ओर खिंच गया, उस पर मोहित हो गया और आनन्द से उनके रोमांच हो आया-

“तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्दकिंजल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः।।”

यही दशा श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्र का स्वरूप देखकर श्रीजनक की हुई थी-

“मूरति मधुर मनोहर देखी।
भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेखी।।”

किसी प्रकार अपने को विवेक, धैर्य से सँभाला, परन्तु पूछे बिना न रहा गया।
श्रीविश्वामित्र के चरणों में प्रणाम किया और फिर गद्गद वाणी से पूछने लगे-

“कहहु नाथ सुन्दर दोउ बालक, मुनिकुलतिलक कि नृपकुलपालक।
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा, उभय वेष धरि की सोइ आवा।।
सहज विरागरूप मन मोरा, थकित होत जिमि चन्द्र चकोरा।
ताते प्रभु पूछउँ सति भाऊ, कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ।।
इन्हहिं बिलोकत अति अनुरागा, बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।”

और भी देखिये, विवाह के समय जो दशा हुई-

“क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति साँवरी।
करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भाँवरी।।”
इत्यादि।

सारांश यह है कि भजन करना उनका स्वभाव ही बन जाता है। वे चाहते हैं कि कुछ समय भजन न करें, किन्तु उनके रोकने पर भी उनका मन प्रभु की नखमणि-चन्द्रिका का चिन्तन करने लगता है, प्रभु के त्रिभुवनपावन, मंगलमय नाम का उच्चारण करने लगता है।

एक गोपांगना  लीलाबिहारी, त्रिभुवन-कमनीय, योगीजनदुर्लभ, देवेदेवप्रत्याशित, ऋषि-महर्षि-महापुरुष-चित्ताकर्षक, निखिल सौन्दर्य-माधुर्य-रयामृतसारभूत, आनन्दकन्द व्रजेन्द्रनन्दन, मदनमोहन कृष्णचन्द्र के विरहजन्य तीव्र ताप से तापित होकर जमीन पर बेहोश पड़ी थी और एक दूसरी सखी उनके मुख पर गुलाब जल के छीटे दे-देकर धीरे-धीरे पंखा झल रही थी।इतने ही में एक तीसरी सखी आयी और जनमनहारी, बाँकेबिहारी, राधारमण, बाधाहरण, नन्दनन्दन की चर्चा करने लगी।
त्यों ही दूसरी बोली- “हे सखी! उनकी चर्चा इस समय न छेड़। यदि अपनी प्रियसखी को इस समय विश्राम लेने देना चाहती है, तो उनकी चर्चा भूलकर भी मत चला। कोई और चर्चा चलाकर माधव को इस समय भुला दे।” कैसी विचित्र दशा है?
कोई तो इस आधि-व्याधिपूर्ण, शोकतापसंकुल, जन्म-मृत्यु-संकीर्ण, आर्तनाद के उद्भवस्थान, मृत्यु के लीला क्षेत्र, पापविद्ध संसार का विस्मरण कर भगवद्रस का आस्वादन करना अथवा प्रभु का स्मरण करना चाहते हैं, पर ऐसा होता नहीं। और ये महाभागा गोपांगनाएँ  नन्दनन्दन का किसी तरह विस्मरण करना चाहती हैं, पर ऐसा होता नहीं। इसी तरह ज्ञानी भी कई तरह विस्मरण करना चाहती हैं, पर ऐसा होता नहीं। इसी तरह ज्ञानी भी कई तरह के होते हैं।

एक तो जड़भरत के समान जंगलों में उन्मत्त, प्रेमविभोर होकर इधर-उधर फिरने वाले। लोकसंग्रही भी आत्माराम, आप्तकाम होते हैं, परन्तु भगवान की प्रेरणा से धर्म संस्थापन में लगे रहते हैं।
व्यास परमज्ञानी होते हुए भी पुराणों के निर्माण में, शंकराचार्य परमज्ञानी होते हुए भी बौद्धों के खण्डन में लगे रहते थे।
लोकसंग्रही के सामने कठिनाइयाँ भी आती हैं, क्योंकि संसार कुत्ते की पूँछ के समान हैं। कुत्ते की पूँछ को कितना ही घी, तेल लगाकर बाँस की नली में डालकर सीधा रखो, किन्तु ज्यों ही बाँस की नली से निकली, त्यों ही फिर टेढ़ी की टेढ़ी।
इसलिये ऐसे ज्ञानियों को पदे-पदे भगवान का सहारा लेना पड़ता है।

दूसरे प्रकार के भक्त होते हैं-......... जिज्ञासु-पूर्णविरक्त-
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“रमा बिलास राम अनुरागी।
तजत बमन इव नर बड़भागी।।”

जैसे उत्तमोत्तम पदार्थों को खाकर वमन कर दें, तो उस ओर देखने तक को जी नहीं चाहता, ठीक वैसे ही इन जिज्ञासुओं के ऐन्द्र, माहेन्द्र एवं ब्राह्मपद पर्यन्त के समस्त वैभव विषवत्, वमनवत् प्रतीत होते हैं।
वे वेदाध्ययन आदि करते हैं, किन्तु भगवान का भजन करते हुए। जो लोग ऐसा नहीं करते, वे उसी चील के समान हैं, जो उड़ती तो आकाश में है पर दृष्टि रहती है उसकी नीचे।
ये लोग भी उड़ते तो शास्त्रों पर हैं, पर दृष्टि रहती है संसार पर, लक्ष्य रहता है क्षुद्र वैषयिक सुखों की प्राप्ति करना।
अस्तु, जो लोग विवेक और ज्ञान के साथ भगवत्प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करते, उनके लिये ग्रन्थ ग्रन्थि का ही काम करते हैं।
ऐसे लोग भगवत्साक्षात्कार नहीं कर सकते।

तीसरे प्रकार के भक्त हैं ..........
-----------------------------आर्त्त-गजेन्द्र, द्रौपदी  की तरह पीड़ित, सताये गये।

चौथे भक्त हैं..........
----------------- अर्थार्थी- विभीषण की तरह। जिस समय विभीषण सर्व-सौन्दर्याधार, अखण्डानन्दभण्डार, परमसमुज्ज्वल, अतिसुन्दर, चिरमधुर रसमय भगवान के पास आया, उस समय कहता है कि-

“नाथ उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभुपदप्रीति सरिता सो बही।”

फिर तत्क्षण कहता है कि-
“अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु कृपा करि शिवमन-भावनी।”

इनमें एक भक्त ऐसे होते हैं, जो ज्ञान भी प्राप्त करना चाहते हैं, धन भी प्राप्त करना चाहते हैं और विपत्ति-निवारण भी करना चाहते हैं।

यद्यपि ज्ञान प्राप्त करने, धन प्राप्त करने और विपत्ति-निवारण करने का साधन उनके पास है, तथापि वे भगवान का भजन नहीं छोड़ते।

जो अस्त्रबल, बाहुबल, बौद्धबल के घमण्ड में आकर भगवान को भूल जाते हैं, उनका मनोरथ मरुभूमि की नदियों की तरह बीच ही में सूख जाता है, सिद्धिसाफल्य मिलना तो दूर रहा।

इसलिये अर्जुन  जिस समय कृष्णचन्द्र की पटरानियों को लेकर लौट रहे थे, उस समय आभीरों ने उनको बाँस के खण्डों से पीट-पीटकर पटरानियों को छीन लिया। वही शक्तिमान अर्जुन, वही सेना, वही नन्दिघोष रथ और वही गाण्डीव धनुष, किन्तु एक श्रीकृष्ण के बिना उनके सारे साधन बेकार हो गये।
अस्तु, कोई कितना ही शक्ति सम्पन्न क्यों न हो, भगवच्चरणों का सहारा लेते हुए ही उसे चलना चाहिये।

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो चाहते तो सब कुछ हैं, पर साधन एक भी नहीं। ऐसे लोगों को भी निराश न होना चाहिये।
शास्त्रों ने उनको भी आश्वासन दे रखा है---

“सुने री मैंने निर्बल के बल राम।”

निष्काम अनन्यभक्त नरसी की तरह जो साधनविहीन हैं, दीन-दुनिया का जिन्हें कुछ भी भरोसा नहीं, केवल भगवान का सहारा है, ऐसे भक्तों को भगवान ऐसा प्रसन्न करते हैं कि वह निहाल हो जाता है।

ऐसे भी भक्त होते हैं, जो चाहते सब कुछ हैं, पर साधन कुछ नहीं है और साथ ही भगवान पर विश्वास भी नहीं है। ऐसे लोगों के लिये भी शास्त्रों में निराशा का शब्द नहीं।

उनके लिये शास्त्र कहते हैं कि भगवान को पुकारो------

“हे अशरण-शरण, हे अनाथनाथ, हे अकारण-करुण, हे करुणा-वरुणालय, हे प्रभो! मैं आपको नहीं जानता। अपने को नहीं जानता, आपके और अपने सम्बन्ध को नहीं जानता। माया ठगिनी ने मुझे खूब ठगा। मैं उन्मादी बन बैठा। तरंग, कटक, मुकुट, कुण्डल, घटाकाश जैसे घमण्ड करे कि मेरे अतिरिक्त जल नाम की कोई वस्तु नहीं, स्वर्ण नाम की कोई वस्तु नहीं और महाकाश नाम की कोई वस्तु ही नहीं है।
ठीक इसी प्रकार भगवान! मैं इतना उन्मादी बन बैठा कि कहने लगा ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं।

हे नाथ! अब आप ही कृपा करें कि मैं भाव-कुभाव जिस किसी तरह से भी आपको पुकारूँ।”

                                 (परमपूज्य श्री करपात्रीजी )

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