Thursday, 13 June 2019

साधक, साध्य तथा साधन

साधक, साध्य तथा साधन
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एक सत्ता मात्र के सिवाय और कुछ नहीं है। उस सत्ता में न ‘मैं’ है, न ‘तू’ है, न ‘यह’ है और न ‘वह’ है।
संसार की सत्ता हमारी मानी हुई है, वास्तव में है नहीं। सत्ता मात्र ‘है’ है और संसार ‘नहीं’ है।

‘नहीं’ नहीं ही है और ‘है’ है ही है-

‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’।[गीता 2। 16]

‘नहीं’ का अभाव स्वतः-स्वाभाविक है और ‘है’ का भाव स्वतः-स्वाभाविक है। वह ‘है’ ही हमारा साध्य है। जो ‘नहीं’ है, वह हमारा साध्य कैसे हो सकता है?

उस ‘है’ का अनुभव करना नहीं है, वह तो अनुभवरूप ही है।

तात्त्विक दृष्टि से देखें तो साधक वह है, जो साध्य के बिना नहीं रह सकता और साध्य वह है, जो साधक के बिना नहीं रह सकता। साधक साध्य से अलग नहीं हो सकता और साध्य साधक से अलग नहीं हो सकता।
कारण कि साधक और साध्य की सत्ता एक ही है। ‘है’ से अलग कोई हो सकता ही नहीं। इसलिये अगर हम साधक हैं तो साध्य की प्राप्ति तत्काल होनी चाहिये। साधक वही है, जो साध्य के बिना अन्य की सत्ता ही स्वीकार न करे। वह साध्य के सिवाय किसी का आश्रय न ले, न पदार्थ का, न क्रिया का।

जो साध्य के बिना रहे, वह साधक कैसा और जो साधक के बिना रहे, वह साध्य कैसा?
जो माँ के बिना रह सके, वह बच्चा कैसा और जो बच्चे के बिना रह सके, वह माँ कैसी?

हमारा साध्य हमारे बिना नही रह सकता, रहने की ताकत ही नहीं; क्योंकि मूल में सत्ता एक ही है।
जैसे समुद्र और लहर में एक ही जल-तत्त्व की सत्ता है, ऐसे ही साधक और साध्य में एक ही सत्ता है। लहर रूप से केवल मान्यता है। जब तक लहर रूप शरीर (जड़ता)-से सम्बन्ध है, तब तक साधक है। जड़ता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर साधक नहीं रहता, केवल साध्य रहता है।अगर साधक साध्य के बिना रहता है तो समझना चाहिये कि वह साध्य के सिवाय अन्य (भोग तथा संग्रह)- का भी साधक है।
उसने अपने मन में दूसरे को भी सत्ता दी है। अगर साध्य साधक के बिना रहता है तो समझना चाहिये कि साध्य के सिवाय साधक का अन्य भी कोई साध्य है अर्थात भोग तथा संग्रह भी साध्य है। हृदय में नाशवान का जितना महत्त्व है, उतनी ही साधकपनें में कमी है। साधकपनें में जितनी कमी रहती है, उतनी ही साध्य से दूरी रहती है। पूर्ण साधक होने पर साध्य की प्राप्ति हो जाती है।

शरीर को मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानने से ही साधक को साध्य की अप्राप्ति दीखती है। साध्य के सिवाय अन्य की सत्ता स्वीकार न करना ही उसकी प्राप्ति का बढ़िया उपाय है। इसलिये साधक की दृष्टि केवल इस तरफ रहनी चाहिये कि संसार नहीं है। संसार का पहले भी अभाव था, बाद में भी अभाव हो जायगा और बीच में भी वह प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है। संसार की स्थिति है ही नहीं। उत्पत्ति-प्रलय की धारा ही स्थिति रूप से दीखती है।

साधक के लिये साध्य में विश्वास और प्रेम होना बहुत जरूरी है। विश्वास और प्रेम उसी साध्य में होना चाहिये, जो विवेक-विरोधी न हो। मिलने और बिछुड़ने वाली वस्तु में विश्वास और प्रेम करना विवेक-विरोधी है। विश्वास और प्रेम-दोनों में कोई एक भी हो जाय तो दोनों स्वतः हो जायँगे।
विश्वास दृढ़ हो जाय तो प्रेम अपने-आप हो जायगा। अगर प्रेम नहीं होता तो समझना चाहिये कि विश्वास में कमी है अर्थात साध्य (परमात्मा)- के विश्वास के साथ संसार का विश्वास भी है। पूर्ण विश्वास होने पर एक सत्ता के सिवाय अन्य (संसार)-की सत्ता ही नहीं रहेगी। साध्य में विश्वास की कमी होगी तो साधन में भी विश्वास की कमी होगी अर्थात साध्य के सिवाय अन्य इच्छाएँ भी होंगी।

जितनी दूसरी इच्छा है, उतनी ही साधन में कमी है।सम्पूर्ण इच्छाओं के मूल में एक परमात्मा की ही इच्छा है। उसी पर सम्पूर्ण इच्छाएँ टिकी हुई हैं। हमसे भूल यह होती है कि अपनी इस स्वाभाविक (परमात्मा की) इच्छा को हम शरीर की सहायता से पूरी करना चाहते हैं।
वास्तव में परमात्मा की प्राप्ति में शरीर अथवा संसार की किंचिन्मात्र भी जरूरत नहीं है। परमात्मा अपने में हैं; अतः कुछ न करने से ही उनका अनुभव होगा। कुछ करने के लिये तो शरीर की आवश्यकता है, पर कुछ न करने के लिये शरीर की क्या आवश्यकता है?

कुछ देखने के लिये नेत्रों की आवश्यकता है, पर कुछ न देखने के लिये नेत्रों की क्या आवश्यकता है?

हाँ, नामजप, कीर्तन आदि साधन अवश्य करने चाहिये; क्योंकि इनको करने से कुछ न करने की सामर्थ्य आती है।

हम परमात्मा के अंश हैं, इसलिये हमारा सम्बन्ध परमात्मा के साथ ही है। हमारा सम्बन्ध न तो शरीर के साथ है और न शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध- इन विषयों के साथ है।
हम परमात्मा के हैं- इस सत्य पर साधक को दृढ़ विश्वास करना चाहिये। अगर दृढ़ विश्वास न कर सके तो भगवान से माँगे। हम शरीर-संसार के हैं- यह भूल है। भूल को भूल समझने में देरी लगती है, पर भूल समझने पर फिर भूल मिटने में देरी नहीं लगती।

यह नियम है कि परमात्मा की प्राप्ति असत् (पदार्थ और क्रिया)- के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत असत के सम्बन्ध-विच्छेद से होती है। असत से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये साधक को तीन बातों को स्वीकार करने की आवश्यकता है-

1.मेरा कुछ भी नहीं है।
2.मेरे को कुछ नहीं चाहिये।
3.मैं कुछ नहीं हूँ।

अब इन तीन बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें। पहली बात है- मेरा कुछ भी नहीं है। इसको स्वीकार करने के लिये साधक को इस बात का मनन करना चाहिये कि हम अपने साथ क्या लाये हैं और अपने साथ क्या ले जायँगे? मनन करने से साधक को पता लगेगा कि हम अपने साथ कुछ लाये नहीं और अपने साथ कुछ ले जा सकते नहीं।

तात्पर्य यह निकला कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़ने वाली है, वह हमारी नहीं हो सकती। जो वस्तु उत्पन्न और नष्ट होने वाली है, वह हमारी नहीं हो सकती। जो वस्तु आने और जाने वाली है, वह हमारी नहीं हो सकती। कारण कि स्वयं मिलने-बिछुड़ने वाला, उत्पन्न-नष्ट होने वाला, आने-जाने वाला नहीं है।
अतः सिद्ध हुआ कि अनन्त ब्रह्माण्डो में तिल-जितनी वस्तु भी हमारी नहीं है।

दूसरी बात है- मेरे को कुछ नहीं चाहिये। साधक को विचार करना चाहिये कि जब संसार में कोई वस्तु मेरी है ही नहीं, तो फिर मेरे को क्या चाहिये?
शरीर को अपना मानने से ही चाह पैदा होती है कि हमें रोटी चाहिये, जल चाहिये, कपड़ा चाहिये, मकान चाहिये आदि-आदि। साधक इस बात पर विचार करे कि शरीर से अलग होकर मेरे को क्या चाहिये?
तात्पर्य है कि जब साधक इस सत्य को स्वीकार कर लेता है कि मेरा कुछ भी नहीं है, तब वह इस सत्य को स्वीकार करने में समर्थ हो जाता है कि मेरे को कुछ नहीं चाहिये।तीसरी बात है- मैं कुछ नहीं हूँ।
शरीर और संसार को तो सब देखते हैं, पर ‘मैं’ को किसी ने नहीं देखा है। शरीर की प्रतीति होती है और स्वयं का अनुभव होता है, पर ‘मैं’ की न तो प्रतीति होती है और न अनुभव ही होता है। ‘मैं’ का भान होता है। जब साधक इस सत्य को स्वीकार कर लेता है कि मेरे को कुछ नहीं चाहिये, तब वह इस सत्य को स्वीकार करने में समर्थ हो जाता है कि ‘मैं’ कुछ नहीं है।
जिसमें संसार की ममता और परमात्मा की जिज्ञासा है, उसको ‘मैं’ कह देते हैं, पर वास्तव में ‘मैं’ कुछ नहीं है। सुषुप्ति में स्वयं तो रहता है, पर ‘मैं’ नहीं रहता। सुषुप्ति में स्वयं के भाव का और ‘मैं’ के अभाव का अनुभव सबको होता है।

मेरा कुछ नहीं है और मेरे को कुछ नहीं चाहिये- इन दो बातों की सिद्धि होते ही ‘मैं’ सत्ता मात्र में अर्थात् ‘है’ में विलीन हो जाता है।
तात्पर्य है कि चेतन-अंश चेतन-तत्त्व में और जड़-अंश जड़ में विलीन हो जाता है। फिर एक सत्ता मात्र के सिवाय कुछ नहीं रहता।

प्रकृति का स्वरूप है- पदार्थ और क्रिया।
पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है। क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। शरीरादि पदार्थों का आश्रय ‘पराश्रय’ है और क्रिया का आश्रय ‘परिश्रम’ है। परमात्मप्राप्ति के लिये क्रिया और पदार्थ की बिलकुल आवश्यकता नहीं है।

संसार में तो ‘करना’ मुख्य है, पर परमात्मा में ‘न करना’ ही मुख्य है। शरीर और संसार की सहायता से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती।
जो तत्त्व सब जगह परिपूर्ण है, उसकी प्राप्ति ‘करने’ से कैसे होगी?

करने से तो उलटे वह दूर होगा!

शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, योग्यता, बल आदि सब प्रकृति के हैं। इनका आश्रय लेना प्रकृति का आश्रय है।

प्रकृति का आश्रय रखने पर परमात्मा की प्राप्ति कैसे होगी?

शरीर प्रकृति का होने से हमारा नहीं है और हमारे लिये भी नहीं है। इसलिये शरीर के द्वारा जो कुछ भी किया जाय, वह केवल संसार के लिये ही किया जाना चाहिये।शरीर से जप, ध्यान, पूजन, तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ भी किया जाय, वह इस भाव से किया जाय कि दूसरों का हित हो। अपने लिये कुछ भी करना भोग है, योग नहीं।

तात्पर्य हुआ कि शरीर संसार का अंश है, इसलिये शरीर से होने वाली प्रत्येक क्रिया संसार के लिये ही है, हमारे लिये नहीं। हमारे लिये केवल परमात्मा हैं; क्योंकि हम उन्हीं के अंश हैं।
अतः पराश्रय और परिश्रम भोग है। जो पराश्रय को छोड़कर भगवदाश्रय को अपनाता है और परिश्रम को छोड़कर विश्राम को अपनाता है, वह योगी होता है। परन्तु जो पराश्रय और परिश्रम को अपनाता है, वह भोगी होता है।

पराश्रय और परिश्रम में सभी पराधीन हैं, पर भगवदाश्रय और विश्राम में सब-के-सब स्वतन्त्र हैं।
पराश्रय और परिश्रम तो संसार के लिये हैं, पर भगवदाश्रय और विश्राम अपने लिये हैं। साधक को अपने में जितनी कमी दीखती है, उतना ही पराश्रय और परिश्रम है। भगवदाश्रय और विश्राम के आते ही मानव-जीवन पूर्ण हो जाता है। कारण कि एक भगवान् के सिवाय और कोई ऐसा नहीं है, जो सदा हमारे साथ रहे, कभी हमसे बिछुड़े नहीं।
संसार की प्राप्ति के लिये क्रिया है और परमात्मा की प्राप्ति के लिये विश्राम है। क्रिया से शक्ति का ह्रास होता है और अक्रियता अर्थात् विश्राम से शक्ति का संचय होता है। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण शक्तियाँ अक्रिय-तत्त्व से ही प्रकट होती हैं। मनुष्य दिन भर परिश्रम करके रात को सोता है तो निद्रा से उसकी थकावट मिट जाती है और पुनः कार्य करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।

परन्तु निद्रा का सुख तामस होता है-

‘निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाह्रतम्’।[गीता 18। 39]

अपने लिये विश्राम करना अर्थात् कुछ न करना भोग है, पर परमात्मा के लिये विश्राम करना साधन है; क्योंकि परमात्मा परम विश्राम-स्वरूप हैं। अतः विश्राम अपने लिये न होकर परमात्मा के लिये होना चाहिये।नित्य परमात्मसत्ता में निरन्तर स्थित रहना ही परमात्मा के लिये विश्राम करना है।
परमात्मा के लिये होने वाला विश्राम तामस नहीं होता, प्रत्युत सात्त्विक होकर गुणातीत हो जाता है।

इसलिये साधक के लिये सबसे मूल्यवान् वस्तुएँ दो ही हैं-

भगवदाश्रय और विश्राम।

भगवदाश्रय और विश्राम से पारमार्थिक इच्छा पूरी हो जाती है और सांसारिक इच्छाएँ मिट जाती हैं। अगर साधक का भगवान पर विश्वास न हो, प्रत्युत अपने पर विश्वास हो तो वह स्वाश्रय को अपना सकता है।

अगर साधक का न तो भगवान पर विश्वास हो, न अपने पर विश्वास हो तो वह धर्म का अर्थात् कर्तव्य का आश्रय अपना सकता है।

मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं- यह भगवान् का आश्रय है। मेरा कुछ नहीं है, मेरे को कुछ नहीं चाहिये- यह ‘स्व’ का आश्रय है।

पदार्थ और क्रिया केवल दूसरों के हित के लिये है- यह धर्म का आश्रय है......

भगवान का आश्रय ‘भक्तियोग’ है।
‘स्व’ का आश्रय ‘ज्ञानयोग’ है।
धर्म का आश्रय ‘कर्मयोग’ है।

यद्यपि तीनों ही योग मार्गों से पदार्थों और क्रियारूप प्रकृति का आश्रय छूट जाता है और सत्ता मात्र में अपनी स्वतःसिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है, तथापि इन तीनों में भगवान् का आश्रय सर्वश्रेष्ठ है; क्योंकि मूल में हम भगवान् के ही अंश हैं।

भगवदाश्रय से मुक्ति के साथ-साथ भक्ति की भी प्राप्ति हो जाती है, जो मानव जीवन का चरम लक्ष्य है।

एक ‘है’ (सत्तामात्र)- के सिवाय और कुछ नहीं है- ऐसा जानने से मुक्ति हो जाती है और वह ‘है’ अपना है-ऐसा मानने से भक्ति हो जाती है।

वास्तव में जो ‘है’ वही अपना हो सकता है।

जो ‘नहीं’ है, वह अपना कैसे हो सकता है?

अगर साधक असत की सत्ता ही स्वीकार न करे और
अपना कोई आग्रह न रखे तो भक्ति अपने-आप होती है।

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