Monday, 10 June 2019

अभिमान कैसे छूटे ?

अभिमान कैसे छूटे ?
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अभिमान के विषय में रामचरित मानस में आया है-

संसृत मूल सूलप्रद नाना।
सकल सोक दायक अभिमाना ।।[ मानस 7। 74। 3]

जितनी भी आसुरी-सम्पत्ति है, दुर्गुण-दुराचार हैं, वे सब अभिमान की छाया में रहते हैं।
मैं हूँ- इस प्रकार जो अपना होनापन (अहंभाव) है, वह उतना दोषी नहीं है, जितना अभिमान दोषी है। भगवान का अंश भी निर्दोष है। परन्तु मेरे में गुण हैं, मेरे में योग्यता है, मेरे में विद्या है, मैं बड़ा चतुर हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं दूसरों को समझा सकता हूँ- इस प्रकार दूसरों की अपेक्षा अपने में जो विशेषता दीखती है, यह बहुत दोषी है।

अपने में विशेषता चाहे भजन-ध्यान से दीखे, चाहे कीर्तन से दीखे, चाहे जप से दीखे, चाहे चतुराई से दीखे, चाहे उपकार (परहित) करने से दीखे, किसी भी तरह से दूसरों की अपेक्षा विशेषता दीखती है तो यह अभिमान है। यह अभिमान बहुत घातक है और इससे बचना भी बहुत कठिन है।

अभिमान जाति को लेकर भी होता है, वर्ण को लेकर भी होता है, आश्रम को लेकर भी होता है, विद्या को लेकर भी होता है, बुद्धि को लेकर भी होता है। कई तरह का अभिमान होता है।
मेरे को गीता याद है, मैं गीता पढ़ा सकता हूँ, मैं गीता के भाव विशेषता से समझता हूँ- यह भी अभिमान है। अभिमान बड़ा पतन करने वाला है।
जो श्रेष्ठता है, उत्तमता है, विशेषता है, उसको अपना मान लेने से ही अभिमान आता है।
यह अभिमान अपने उद्योग से दूर नहीं होता, प्रत्युत भगवान् की कृपा से ही दूर होता है।
अभिमान को दूर करने का ज्यों-ज्यों उद्योग करते हैं, त्यों-त्यों अभिमान दृढ़ होता है।
अभिमान को मिटाने का कोई उपाय करें तो वह उपाय ही अभिमान बढ़ाने वाला हो जाता है।

इसलिये अभिमान से छूटना बड़ा कठिन है!

साधक को इस विषय में बहुत सावधान रहना चाहिये।साधक को इस बात का खयाल रखना चाहिये कि अपने में जो कुछ विशेषता आयी है, वह खुद कि नहीं है, प्रत्युत भगवान् से आयी है। इसलिये उस विशेषता को भगवान् की ही समझे, अपनी बिलकुल न समझे। अपने में जो कुछ विशेषता दीखती है, वह प्रभु की दी हुई है- ऐसा दृढ़तापूर्व मानने से ही अभिमान दूर हो सकता है।

मैं जैसा कीर्तन करता हूँ, वैसा दूसरा नहीं कर सकता; दूसरे इतने हैं, पर मेरे जैसा करने वाला कोई नहीं है- इस प्रकार जहाँ दूसरे को अपने सामने रखा कि अभिमान आया!

साधक को ऐसा मानना चाहिये कि मैं करने वाला नहीं हूँ, प्रत्युत यह तो भगवान् की कृपा से हो रहा है...........

तेरी कृपा से सब काम हो रहा है  ।
करते हो तुम कन्हैया बस मेरा नाम हो रहा है ।।

जो विशेषता आयी है, वह मेरी व्यक्तिगत नहीं है। अगर व्यक्तिगत होती तो सदा रहती, उस पर मेरा अधिकार चलता। ऐसा मानने से ही अभिमान से छुटकारा हो सकता है।

भगवान् की कृपा है कि वे किसी का अभिमान रहने नहीं देते। इसलिये अभिमान आते ही उसमें टक्कर लगती है। भगवान विशेष कृपा करके चेताते हैं कि तू कुछ भी अपना मत मान, तेरा सब काम मैं करूँगा। भगवान् अभिमान को तोड़ देते हैं, उसको ठहरने नहीं देते- यह उनकी बड़ी अलौकिक, विचित्र कृपा है।

जिसमें अभिमान रह जाता है, वह राक्षस हो जाता है। हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, रावण, दन्तवक्त्र, शिशुपाल  आदि सब में अभिमान था।

अभिमान के कारण वे किसी को नहीं गिनते। भगवान को भी नहीं गिनते! उनके अभिमान को दूर करने के लिये भगवान अवतार लेते हैं और कृपा करके उनका नाश करते हैं।
वास्तव में भगवान मनुष्य को नहीं मारते हैं, प्रत्युत उसके अभिमान को मारते हैं।

जैसे फोड़ा हो जाता है तो वैद्य लोग पहले उसको पकाते हैं, फिर चीरा लगाते हैं। ऐसे ही भगवान् पहले अभिमान को बढ़ाते हैं, फिर उसका नाश करते हैं। इस विषय में वे किसी का कायदा नहीं रखते।भगवान का स्वभाव बड़ा विचित्र है। दूसरे मनुष्य तो हमारा कुछ भी उपकार करते हैं तो एहसान जनाते हैं कि तेरे को मैंने ऊँचा बनाया!

पर भगवान् सब कुछ देकर भी कहते हैं-

‘मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’!

भगवान यह नहीं कहते कि मैंने तेरे को ऊँचा बनाया है, प्रत्युत खुद उसके दास बन जाते हैं।

इतना ही नहीं, भगवान उसको पता ही नहीं चलने देते कि मैंने तेरे को दिया है। मनुष्य के पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो कुछ है, वह सब भगवान् का ही दिया हुआ है। वे इतना छिपकर देते हैं कि मनुष्य इन वस्तुओं को अपना ही मान लेता है कि मेरा ही मन है, मेरी ही बुद्धि है, मेरी ही योग्यता है, मेरी ही सामर्थ्य है, मेरी ही समझ है।

यह तो देने वाले की विलक्षणता है कि मिली हुई चीज अपनी ही मालूम देती है।

अगर आँखें अपनी हैं तो फिर चश्मा क्यों लगाते हो?

आँखों में कमजोरी आ गयी तो उसको ठीक कर लो। शरीर अपना है तो उसको बीमार मत होने दो, मरने मत दो।

देने वाले कि इतनी विचित्रता है कि वे यह जनाते ही नहीं कि मेरा दिया हुआ है। इसलिये मनुष्य मान लेता है कि मैं समझदार हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं पण्डित हूँ, मैं लेखक हूँ आदि। वह अभिमान कर लेता है कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना भजन करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना पाठ करता हूँ आदि।

विचार करना चाहिये कि यह किस शक्ति से कर रहा हूँ?

यह शक्ति कहाँ से आयी है?

अर्जुन वही थे, गाण्डीव धनुष और बाण भी वही थे, पर डाकू लोग गोपियों को ले गये, अर्जुन कुछ नहीं कर सके-

‘भीलहिं  लूटी गोपिका, वे अर्जुन वे बाण’।

अर्जुन ने महाभारत-युद्ध में विजय कर ली तो यह उनका बल नहीं था, प्रत्युत जो उनके सारथि बने थे, उन भगवान श्रीकृष्ण का बल था।

गीता में भगवान् ने कहा भी है-

‘"मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’"[ गीता 11। 33]

‘ये सभी मेरे द्वारा पहले से मारे हुए हैं।

हे सव्यसाचिन्! तुम निमित्तमात्र बन जाओ।’

सन्तों की वाणी में एक बड़ी विचित्र बात आयी है कि भगवान ने संसार को मनुष्य के लिये बनाया और मनुष्य को अपने लिये बनाया।

तात्पर्य है कि मनुष्य मेरी भक्ति करेगा तो संसार की सब वस्तुएँ उसको दूँगा! उसको किसी बात की कमी रहेगी ही नहीं! सदा के लिये कमी मिट जायगी! पर वह भक्ति न करके अभिमान करने लग गया।

अभिमान भगवान को सुहाता नहीं-----

ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ।
               [नारद भक्ति० 27]
"ईश्वर का भी अभिमान से द्वेषभाव है और दैन्य से   प्रियभाव है।’

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ।
जन अभिमान न राखहिं काऊ ।।
संसृत मूल सूलप्रद नाना।
सकल सोक दायक अभिमाना ।।
ताते करहिं कृपानिधि दूरी।
सेवक पर ममता अति भूरी ।।[ मानस, उत्तर० 74। 3-4]

भगवान् अभिमान को दूर करते हैं, पर मनुष्य फिर अभिमान कर लेता है! अभिमान करते-करते उम्र बीत जाती है!

इसलिये हरदम ‘हे नाथ! हे मेरे नाथ!’ पुकारते रहो और भीतर से इस बात का खयाल रखो कि जो कुछ विशेषता आयी है, भगवान से आयी है।

यह अपने घर की नहीं है। ऐसा नहीं मानोगे तो बड़ी दुर्दशा होगी!यह मानव जन्म भगवान का ही दिया हुआ है।
भगवान् ने मनुष्य को तीन शक्तियाँ दी हैं- ----
करने की शक्ति,
जानने की शक्ति और
मानने की शक्ति।

करने की शक्ति दूसरों का हित करने के लिये दी है,

जानने की शक्ति अपने-आपको जानने के लिये दी है

और मानने की शक्ति भगवान् को मानने के लिये दी है।

परन्तु गलती तब होती है, जब मनुष्य इन तीनों शक्तियों को अपने लिये लगा देता है।

इसीलिये वह दुःख पा रहा है। बल, बुद्धि, योग्यता आदि अपने दीखते ही अभिमान आता है।

मैं ब्राह्मण हूँ- ऐसा मानने पर ब्राह्मणपने का अभिमान आ जाता है।
मैं धनवान् हूँ- ऐसा मानने पर धन का अभिमान आ जाता है।
मैं विद्वान् हूँ- ऐसा मानने पर विद्या का अभिमान आ जाता है।
जहाँ मैं पन का आरोप किया, वहीं अभिमान आ जाता है।

इसलिये भीतर से हरदम भगवान को पुकारते रहो। अपने में योग्यता प्रत्यक्ष दीखती हैं, इसलिये अभिमान से बचना बहुत कठिन होता है।

मनुष्य को प्रत्यक्ष दीखता है कि मैं अधिक पढ़ा-लिखा हूँ, मैं गीता जानने वाला हूँ, मैं कीर्तन करने वाला हूँ, इसलिये वह फँस जाता है।

अगर यह दीखने लग जाय कि यह सब केवल भगवान् की कृपा से ही हो रहा है तो निहाल हो जाय! जिनको चेत न हो, उन पर दया आनी चाहिये। वे भी चेतेंगे, पर देरी से!

नारद जी महाराज भगवान् के भक्त थे, पर उनको भी अभिमान हो गया। इतना अभिमान हो गया कि भगवान् को ही शाप दे दिया-----

भले भवन अब बायन दीन्हा।
पावहुगे फल आपन कीन्हा ।।
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा।
सोइ तनु धरहु श्राप सम एहा ।।
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी।
करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ।।
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी।
नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ।।
[मानस, बाल० 137। 3-4]

नारद जी ने कहा कि बन्दर आपकी सहायता करेंगे- ‘करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी’ तो यह शाप हुआ कि वरदान?

यह तो वरदान हुआ! इसलिये कहा है- ---

‘साधु ते होइ न कारज हानी’। [मानस, सुन्दर० 6। 2]

शाप के कारण भगवान का अवतार हुआ और विविध लीलाएँ हुईं, जिनको गा-गाकर लोगों का कल्याण हो रहा है।

तात्पर्य है कि नारद जी का शाप लोगों के कल्याण का उपाय हो गया! ऐसे ही भगवान का भी क्रोध वरदान के समान कल्याणकारी होता है-

‘क्रोधोअपि देवस्य वरेण तुल्यः’।

भगवान् और उनके भक्त- दोनों ही बिना हेतु सबका हित करने वाले हैं- ----

हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ।।[मानस, उत्तर० 47। 3]

इन दोनों के साथ किसी भी तरह से सम्बन्ध हो जाय तो लाभ-ही-लाभ होता है। ये सब पर कृपा करते हैं। लोग कहते हैं कि भगवान ने दुःख भेद दिया! पर भगवान् के खजाने में दुःख है ही नहीं, फिर वे कहाँ से दुःख लाकर आपको देंगे?

भगवान् और सन्त कृपा-ही-कृपा करते हैं, इसलिये इनका संग छोड़ना नहीं चाहिये।

मनुष्य जन्म में किये गये पाप चौरासी लाख योनियाँ भोगने पर भी सर्वथा नष्ट नहीं होते, बाकी रह जाते हैं।
फिर भी भगवान् कृपा करके मनुष्य शरीर दे देते हैं, अपने उद्धार का मौका दे देते हैं। परन्तु मनुष्य मिले हुए को अपना मान लेता है। मिलने और बिछुड़ने वाली वस्तु को अपना मानने से वह वस्तु अशुद्ध हो जाती है।

इसलिये शुद्ध करने से अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता, प्रत्युत अपना न मानने से शुद्ध होता है।

अतः सब कुछ भगवान् के अर्पण कर दो----

तन मन धन सब कुछ है तेरा स्वामी
तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा  .......

मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि को भगवान् का मान लो तो सब शुद्ध निर्मल हो जायँगे।

जहाँ अपना माना, वहीं अशुद्ध हो जायँगे और अभिमान आ जायगा।

हम लोग विचार ही नहीं करते कि भगवान की हम पर कितनी विलक्षण कृपा है! हम क्या थे, क्या हो गये!

भगवान् ने कृपा करके क्या बना दिया-इस तरफ देखते ही नहीं, सोचते ही नहीं, समझते ही नहीं।

अपने-अपने जीवन को देखें तो मालूम होता है कि हम कैसे थे और भगवान् ने कैसा बना दिया!

गोस्वामी जी ने कहा है----

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ।।
[मानस, बाल० 26]

हौं तो सदा खर को असवार, तिहरोइ नामु गयंद चढ़ायो ।।[कविताव्ली, उत्तर० 60]

मैं कितना अयोग्य था, पर आपकी कृपा ने कितना योग्य बना दिया! इसलिये भगवान् की कृपा की ओर देखो।

हम जो कुछ बने हैं, अपनी बुद्धि, बल, विद्या, योग्यता, सामर्थ्य से नहीं बने हैं। जहाँ मन में अपनी बुद्धि, बल आदि से बनने की बात आयी, वहीं अभिमान आता है कि हमने ऐसा किया, हमने वैसा किया।

इस अभिमान से बचने के लिये भगवान को पुकारो। अपने बल से नहीं बच सकते, प्रत्युत भगवान् की कृपा से ही बच सकते हैं।
भगवान् की स्मृति समस्त विपत्तियों का नाश करने वाली है- ------
‘हरिस्मृतिः सर्वविपद्विमोक्षणम्’।[श्रीमद्भा० 8। 10। 55]

इसलिये भगवान को याद करो, भगवान् का नाम लो, भगवान् के चरणों की शरण लो। उनके सिवाय और कोई रक्षा करने वाला नहीं है।

भगवान् के बिना संसार मात्र अनाथ है। भगवान के कारण से ही संसार सनाथ है।

चलती चक्की में आकर सब दाने पिस जाते हैं, पर जिस कील के आधार पर चक्की चलती है, उस कील के पास जो दाने चले जाते हैं, वे पिसने से बच जाते हैं- -----

"‘कोई हरिजन ऊबरे कील माकड़ी पास’"।

इसलिये प्रभु के चरणों की शरण लो और प्रभु को पुकारो, इसके सिवाय अभिमान से बचने का कोई उपाय नहीं है।

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