देवकी कृत स्तुति
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रूपं यत्तत्प्राहुरव्यक्तमाद्यं
ब्रह्मज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम्।
सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं स त्वं साक्षाद्विष्णुरध्यात्मदीपः।।
(हे प्रभो! वेदों ने आपके रूप का इस प्रकार प्रतिपादन किया कि) आप व्यक्त अर्थात अद्वितीय हैं, आदिकारण हैं, (तो क्या आदिकारण होने से परमाणु हैं? नहीं;) बृहत् (ब्रह्म) हैं, (परंतु ब्रह्म तो प्रधान को भी कहते हैं क्या आप प्रधान (प्रकृति) हैं? नहीं,) चेतन (ज्योति) हैं (तो क्या आप तार्किकों के मतानुसार ज्ञानरूप गुण से युक्त चेतन हैं? नहीं;) केवल सत्तामात्र हैं, (तो क्या आप सामान्य नहीं? नहीं;) जाति, गुण आदि विशेष से रहित हैं। (तब तो आप कारण होने से सक्रिय तो नहीं है? नहीं;) निरीह हैं। तात्पर्य यह कि सन्निधिमात्र से कारण हैं। (जैसे सूर्य की सन्निधि से सब लोग अपना-अपना व्यापार करते हैं किन्तु सूर्य भगवान उन सब व्यापारों के कारण नहीं है।) इस प्रकार की अनिर्वचनीय जो अलौकिक वस्तु है, वही साक्षात् विष्णु हैं। देह, इंद्रिय अंतःकरण रूप संघात के प्रकाशक आप ही हैं। (भाव यह है कि आपको भय की शंका ही नहीं है)।।
नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु।
व्यक्तेऽव्यक्तं कालवेगेन याते भवानेकःशिष्यतेऽशेषसंज्ञः।।
(यह भी है कि महाप्रलय में आप ही शेष रहते हैं, इस कारण भय कहाँ से हो सकता है?) काल के वेग से ब्रह्मा जी की दो परार्ध आयु का अंत होने पर जब ये चौदह लोक नष्ट होते हैं, अर्थात् पञ्च महाभूतों में लीन हो जाते हैं और महाभूत इंद्रियों सहित अहंकार में लीन हो जाते हैं, अहंकार महत्तत्त्व में, महत्तत्त्व अव्यक्त (प्रधान) में और प्रधान आप में लीन हो जाता है तब ‘यह जगत मुझमें इस प्रकार लीन हुआ है फिर इसको इस प्रकार उत्पन्न करना चाहिए’, इस तरह सबका ज्ञान रखने वाले आप ही शेष रह जाते हैं।।
योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धो
चेष्टामाहुश्चेष्टते येनविश्वम्।
निमेषादिर्वत्सरान्तो महीयांस्तं
त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये।।
(अब काल की स्वतंत्रता का खण्डन करते हैं-) हे प्रधान (माया) के प्रवर्तक! यह काल जिसकी निमेषादि सूक्ष्मावस्था है और संवत्सरादि स्थूलावस्था है, जिसको द्विपरार्धलक्षण महाकाल कहते हैं, जिससे यह विश्व विपरिणाम को प्राप्त होता है वह आपका शक्ति विशेष- अथवा लीला है ऐसे ईशान (प्रकृति- कालादि के नियन्ता) अभय देने वाले आपकी मैं शरणागत होती हूँ।।
मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायँल्लोकान्सर्वान्निर्भयं नाध्यगच्छत।
त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति।।
(अब यह वर्णन किया जाता है कि भगवान ही निर्भय स्थान हैं।) यह जन्म-मरणशील जन मृत्युरूपी सर्प से भयभीत होकर संपूर्ण लोकों में भागता फिरा किन्तु (सब लोकों में मृत्यु होने के कारण) निर्भय स्थान इसे कहीं नहीं मिला, अब हे आदिपुरुष! किसी पुण्यविशेष के कारण आपके चरणकमलों के समीप पहुँचकर निर्भय शयन करता है क्योंकि मृत्यु आपके चरण कमलों से दूर भागती है।।
स त्वं घोरादुग्रसेनात्मजान्नस्राहि
त्रस्तान्भृत्यवित्रासहासि।
रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं
मा प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठाः।।
(देवकी अब प्रस्तुत कार्य की प्रार्थना करती है-) हे मधुसूदन! ऐसे आप अपने भयभीत सेवक हम लोगों की क्रूर स्वभाव वाले कंस से रक्षा कीजिए, क्योंकि आप भक्तों के दुःख को दूर करने वाले हैं, किन्तु आपका जो यह (चतुर्भुज) ईश्वरीय स्वरूप मुमुक्षु पुरुषों के ध्यान करने योग्य हैं, चर्मचक्षुवाले (अज्ञानी) पुरुषों को उसका दर्शन न दीजिए।।
जन्म ते मय्यसौ पापो मा विद्यान्मधुसूदन।
समुद्विजे भवद्धेतोः कंसादहमधीरधीः।।
हे मधुसूदन! वह पापी कंस ‘आपका जन्म मेरे गर्भ से हुआ’ यह न जान पावे क्योंकि मैं अधीरबुद्धि आपके निमित्त ही कंस से अत्यंत भयभीत हूँ।।
उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।
शंखचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम्।।
हे विश्वात्मन्! शंख, चक्र, गदा और पद्म से सुशोभित एवं चार भुजाओं वाले इस दिव्य अलौकिक रूप को गुप्त कीजिए। (अर्थात बालक रूप धारण कीजिए)।।
विश्वं यदेतत्स्वतनौ निशान्ते यथावकाशं पुरुषः परो भवान्।
बिभर्ति सोऽयं मम गर्भगोऽभूदहो नूलोकस्य विडम्बनं हि तत्।।
जो आप परम पुरुष प्रलय के शान्त होने पर (सृष्टि और स्थिति के समय) इस असंख्य ब्रह्माण्डात्मक जगत को अपने शरीर में निस्संकोच (अवकाशपूर्वक) धारण कर लेते हैं, ऐसे आपको मेरे उदर से उत्पन्न हुआ जो समझाता है, वह मनुष्यों में हास्यास्पद है।।
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