Thursday, 20 June 2019

श्रीकृष्ण-लीला के अन्ध-अनुकरण से हानि

श्रीकृष्ण-लीला के अन्ध-अनुकरण से हानि
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रसिक सन्त वाणी कृपा से ...

भगवान श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और भगवान श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्तम।

दोनों एक हैं। एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा भिन्न-भिन्न लीलाओं के लिये दो युगों में दो रूपों में अवतीर्ण हुए।

इनमें बड़े-छोटे की कल्पना करना अपराध है। श्रीराम रूप में आपकी प्रत्येक लीला सबके अनुकरण करने योग्य मर्यादा रूप की होती है, राम रूप में लीलाओं का रहस्य अत्यन्त निगूढ़ होने पर भी बाह्य रूप से सबकी समझ में आ सकता है और बिना किसी बाधा के अपने-अपने अधिकारानुसार सभी उसका अनुकरण कर सकते हैं, वह सीधा राजमार्ग है; परंतु भगवान की श्रीकृष्ण रूप में की गयी कुछ लीलाएँ बाहर-भीतर दोनों ही प्रकार से निगूढ़ और रहस्यमय हैं।

इनका समझना अत्यन्त ही कठिन है और बिना समझे अनुकरण करना तो हलाहल विष पीना अथवा जान-बूझकर धधकती हुई आग में कूद पड़ना है। यह बड़ा ही कण्टकाकीर्ण और ज्वालामय मार्ग है।

अतएव सर्वसाधारण के लिये सर्वथा समझने, मानने और पालन करने योग्य महान् उपदेश भगवान श्रीकृष्ण की भगवद्गीता है और सर्वतोभाव से अनुकरण करने योग्य भगवान श्रीराम के मर्यादा युक्त लीलाएँ हैं।

जिन लोगों ने बिना समझे-बूझे भगवान श्रीकृष्ण की लीला का अनुकरण किया, वे स्वयं डूबे और दूसरे अनेक निर्दोष नर-नारियों को डुबाने का कारण बने।

अग्नि पी जाने, पहाड़ अँगुली पर उठा लेने, कालिय नाग को नाथ ने आदि क्रियाओं का अनुकरण तो कोई क्यों करने लगा और करना भी शक्ति के बाहर की बात है; अनुकरण करने वाले तो बस, चीरहरण, रासलीला और श्रीराधाकृष्ण की प्रेमलीलाओं का अनुकरण करते हैं।

इन लीलाओं के महान उच्च आध्यात्मिक भाव को समझने में सर्वथा असमर्थ होकर अपनी वासनामयी वृत्ति को चरितार्थ करने के लिये इनके अनुकरण के नाम पर वास्तव में पाप किया जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि----

‘भगवत्प्रेम में वैराग्य की कोई आवश्यकता नहीं, त्याग की अपेक्षा नहीं। श्रीप्रिया-प्रियतम के प्रेम में केवल श्रृंगार और भोग का ही प्रयोजन है।’

बल्कि यहाँ तक भी कह दिया जाता है कि ----‘युगल-सरकार के चरणों के सेवक बन जाओ; फिर चोरी-जारी, झूठ-कपट, प्रमाद-आलस्य - जो कुछ भी करते रहो, कोई आपत्ति नहीं है।’

मेरी समझ से ये सारी बातें अपनी दुर्बलताओं को छिपाने, भगवद्भक्ति के नाम पर विषयों को प्राप्त करने, कपट-प्रेमी बनकर पाप कमाने और भोले नर-नारियों को ठगकर अपनी बुरी वासनाओं को तृप्त करने के लिये कही जाती हैं।

सच्चिदानन्दघन भगवान श्रीकृष्ण और आत्म स्वरूपिणी जगज्जननी श्रीराधिकाजी का चरण-सेवक बनकर भी क्या कोई कभी चोरी-जारी आदि पापकर्म कर सकता है?

भगवान के सच्चे मन से लिये हुए एक नाम से ही जब सारे पापों का समूह भस्म हो जाता है, तब भगवान के चरण सेवकों में तो पाप-प्रवृत्ति रह ही कैसे सकती है?

वैराग्य और त्याग तो भगवद्भक्ति की आधार-शिला हैं। जो अपने मन से विषयों को त्याग नहीं करता, भोगों की स्पृहा नहीं छोड़ता, वह भगवान का भक्त ही कैसे बन सकता है? भक्त को तो अपना सर्वस्व, लोक-परलोक और मोक्ष तक भगवान के चरणों पर निछावर करके सर्वथा अंकंचन बन जाना पड़ता है। भगवत्प्रेमी भोगी कैसे हो सकता है?

अतएव जो भगवत्प्रेम के नाम पर भोग का उपदेश करते हैं, उनसे और उनके उपदेशों से सदा सावधान रहना चाहिये।

दुःख की बात है कि श्रीमद्भागवत की रासपंचाध्यायी का भ्रान्त-अनुकरण करने जाकर काम-वासना से स्त्रियों से मिलने-जुलने में तो कोई आपत्ति नहीं मानी जाती, यहाँ तो भगवान के लीला-अनुकरण का नाम लिया जाता है,।

परंतु उस श्रीमद्भागवत के ....

‘स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान्’ -

आत्मवान् को चाहिये कि वह स्त्रियों के ही नहीं, स्त्रीसंगियों के संग को भी दूर से त्याग दें- इस उपदेश पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।

श्रीमद्भागवत और श्रीकृष्ण प्रेम के एवं माधुर्य रस के मर्म को समझने वाले तो श्रीचैतन्य महाप्रभु थे, जो मधुर रस के उपासक होकर भी धन और स्त्री से सर्वथा दूर रहते थे।

यद्यपि कई कारणों से आजकल प्रकट में प्रायः ऐसी पाप-क्रियाएँ कम होती हैं, फिर भी गुप्त रूप से इन भावों का प्रचार और प्रसार अब भी कम नहीं है। ये भक्ति और भगवत्प्रेम के विधातक हैं।

कवियों ने व्यास शुकदेव के मर्म को न समझकर अपनी-अपनी भावना के अनुसार मनमानी रचना की; तपस्वी, भक्त और मर्मज्ञ पुरुषों को छोड़कर शेष गुरु, भक्त और उपदेशक कहलाने वाले लोगों ने मनमाना कथन और कार्य किया।

श्रृंगार के गंदे-गंदे गीतों में श्रीकृष्ण और श्रीराधा का समावेश किया गया और दुष्ट विषयी पुरुषों ने इन लीलाओं की आड़ लेकर पाप की परम्परा चला दी।

इससे हिंदू-जाति का जो घोर अमंगल हुआ है, उसकी कोई सीमा नहीं है। अब भी सब लोगों को चेतकर भगवान श्रीकृष्ण की गीता के दिव्य उपदेश के अनुसार अपने जीवन को बनाना चाहिये।

भगवान के इन शब्दों को सर्वथा और सर्वदा याद रखना चाहिये-

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
[गीता 16। 21]

काम, क्रोध और लोभ - ये तीन नरक के दरवाजे और आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले हैं; इसलिये इन तीनों को सर्वथा त्याग देना चाहिये।

श्रीकृष्ण-लीलानुकरण हानिकारक
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जो लोग श्रीकृष्ण का स्वाँग सजकर गोपीभाव से स्त्रियों से पूजा कराते हैं, मेरी तुच्छ समझ से वे बड़ी भारी भूल करते हैं।

यह सत्य है कि यह सारा जगत् परमात्मा की अभिव्यक्ति है, इसके निमित्तोपादान कारण परमात्मा ही होने से यह परमात्मस्वरूप ही है और इस दृष्टि से देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग- सभी को परमात्मा का स्वरूप समझना आवश्यकता है; परंतु परमात्मा का यह पूर्ण रूप नहीं है। यह तो अंश मात्र है।

यद्यपि सब कुछ परमात्मा है, किंतु परमात्मा यह ‘सब कुछ’ ही नहीं है - परमात्मा इस ‘सब कुछ’ से परे अनन्त है और वह अनन्त परमात्मा श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है, इससे श्रीकृष्ण से ही सब व्याप्त हैं - यह ठीक ही है।

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।[गीता 9। 4]

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ही है- ‘मेरी अव्यक्त मूर्ति से (परमात्मा विभु से) सारा जगत् व्याप्त है।’

परंतु यही (जगत् ही) श्रीकृष्ण नहीं है। अतएव श्रीकृष्ण का स्वाँग रासलीला के खेल में चाहे आ सकता है; परंतु कोई मनुष्य वस्तुतः श्रीकृष्ण बनकर लोगों से अपने को पुजवाये, यह तो बहुत ही अनुचित है और पूजने वाले भी बड़ी भूल करते हैं।

माना कि स्त्रियाँ श्रद्धालु हैं, भले घरों की हैं और शुद्ध भाव से ही ऐसा करती हैं; परंतु यह क्रिया वास्तव में आदर्श के विरुद्ध और हानिकारक है।

यह भी माना कि महात्मा निर्विकार हैं; परंतु उनका भी आदर्श तो बिगड़ता ही है और यदि वे साधक हैं तो इस निर्विकारता का बहुत दिनों तक टिकना भगवान की असीम कृपा से ही सम्भव है।

ऐसी स्थिति में जो शुद्ध भाव से इस कार्य का प्रतिवाद करते हैं, वे न तो कोई दोष करते हैं और न अनुचित ही करते हैं। मेरी समझ से यदि उनका भाव द्वेष रहित और शुद्ध है तो वे पाप के भागी नहीं होते।

श्रीकृष्ण मेरी समझ से महापुरुष या सिद्ध महात्मा ही नहीं हैं; वे साक्षात परब्रह्म, पूर्णब्रह्म सनातन पुरुषोत्तम स्वयं भगवान हैं।

उनका शरीर पान्चभौतिक-मायिक नहीं है, वे नित्य सच्चिदानन्द-विग्रह हैं और गोपीजन भी दिव्य शरीर युक्ता साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण की स्वरूपभूता  आह्लादिनी शक्ति की घनीभूत दिव्य मूर्तियाँ हैं।

पद्मपुराण में श्रीगोपीजन के सम्बन्ध में कहा गया है-

गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेया ऋषिजा देवकन्यकाः।
................ राजेन्द्र न मानुष्यः कदाचन।।

‘गोपियों को श्रुतियाँ, ऋषियों का अवतार, देवकन्या और गोपकन्या जानना चाहिये। वे मनुष्य कभी नहीं हैं।’

अखिलरससागर रसराजशिरोमणि जगत्पति श्रीकृष्ण की प्रेयसी इन महाभाग्यवती दिव्यविग्रहधारिणी गोपियों में कुछ तो ‘नित्यसिद्धा’ हैं, जो अनादिकाल से भगवान् श्रीकृष्ण के साथ दिव्य लीला-विलास करती हैं।

कुछ पूर्वजन्म में श्रुतियों की अधिष्ठात्री देवता हैं, जो ‘श्रुतिपूर्वा’ कहलाती हैं।

कुछ दण्डकारण्य के सिद्ध ऋषि हैं, जो ‘ऋषिपूर्वा’ के नाम से ख्यात हैं ।

और कुछ स्वर्ग में रहने वाली देव कन्याएँ हैं, जो ‘देवीपूर्वा’ कहलाती हैं।

पिछले तीनों वर्गों की गोपिकाएँ ‘साधनसिद्धा’ हैं।

नित्य-सिद्धा गोपीजनों में श्रीराधाजी मुख्य हैं और चन्द्रावलीजी, ललिताजी, विशाखाजी आदि उन्हीं की कायव्यूहरूपा हैं; ये ‘गोपकन्या’ कहलाती हैं।

साधनसिद्धा गोपियाँ पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण-सेवा-लालसा से साधन सम्पन्न होकर इस जन्म में गोपीगृहों में अवतीर्ण हुई थीं और नित्यसिद्धा गोपीजनों के सत्संग, सहयोग और सेवन से दिव्यरूपता को पाकर इन्होंने श्रीकृष्ण का दिव्य चरण-सेवाधिकार प्राप्त किया था।

न तो ये गोपियाँ परस्त्रियाँ थीं और न अखिल विश्वब्रह्माण्ड के स्वामी, आत्माओं के आत्मा भगवान् श्रीकृष्ण ही परपुरुष या उपपति थे।

प्रेम-रसास्वादन के लिये- प्रेममार्ग के साधन की अत्युच्च भूमिका के शिखर पर महात्माओं को भगवत्कृपा से जो सिद्धिरूपा चरमानुभूति होती है, उसी अतुलनीय दिव्य प्रेम का वितरण करने के लिये ‘जगत्पति’ ने ‘उपपति’ का और उनकी नित्यसंगिनी नित्यकान्तास्वरूपा शक्तियों ने ‘परस्त्री’ का साज सजा था।

यह रास-गोपी-गोपीनाथ का मिलन हमारे मलिन मिलन की तरह गंदे कामराज्य की वस्तु नहीं है, पांचभौतिक देहों के गंदे काम-विकार का परिणाम नहीं है।

यह तो परम अद्भुत, परम विलक्षण- जिसकी एक झाँकी के लिये बड़े-बड़े आत्मज्ञानी कैवल्य-प्राप्त महापुरुषगण तरसते रहते हैं- दिव्य लीला है।

इसका अनुकरण कोई भी मनुष्य कदापि नहीं कर सकता, चाहे वह कितनी ही ऊँच स्थिति में हो।

इस लीला का अनुकरण करने जाकर जो पर-स्त्री और पर-पुरुष परस्पर प्रेम का सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं, वे तो घोर नरक-यन्त्रणा की तैयारी करते हैं। सचमुच उनमें सच्चा प्रेम है ही नहीं।

वे तो तुच्छ काम के गुलाम हैं और प्रेम के नाम को कलंकित करते हैं। सच्चा प्रेम तो एक श्रीभगवान् से ही होता है। प्रेम में प्रेम के सिवा और कोई कामना-वासना रहती ही नहीं।

जगत में परोपकारतक के कार्यों में आत्मतृप्ति की एक वासना रहती है।

जगत का कोई भी जीव आत्मेन्द्रिय-तृप्ति की इच्छा बिना- चाहे वह अत्यन्त ही क्षीण हो- किसी से प्रेम नहीं करता और जिसमें आत्मेन्द्रिय-तृप्ति की वासना है, वह प्रेम प्रेम नहीं है।

आत्मेन्द्रियतृप्ति की इच्छा से रहित एकनिष्ठ प्रेम तो आत्माओं के आत्मा, हमारे आत्मा के भी आत्मा श्रीकृष्ण  के प्रति ही हो सकता है।

जो पर-स्त्री और पर-पुरुष इन्द्रियतृप्ति की इच्छा से- चाहे वह बहुत सूक्ष्म वासना के रूप में ही हो- प्रेम का स्वाँग सजते हैं, वे वस्तुतः अपना महान् अनिष्ट करते हैं।

वासना को बढ़कर प्रबल रूप धारण करते देर नहीं लगती।

आग में ईंधन डालने से जैसे आग बढ़ती है, वैसे ही भोग्य वस्तु की प्राप्ति से भोगतृष्णा बढ़ती है और उसके परिणाम में इस लोक और परलोक में प्राप्त होते हैं- निन्दा, भय, क्लेश, कष्ट और अनन्त नरक-यन्त्रणा।

शास्त्र कहते हैं -------

यस्त्विह वा अगम्यां स्त्रियं पुरुषः अगम्यं वा पुरुषं योषिदभिगच्छति तावमुत्र कशया ताडयन्तस्तिग्मया सूम्र्या लोहमय्या पुरुषमालिंगयन्ति स्त्रियं च पुरुषरूपया सूर्म्या।

अर्थात् ‘कोई पुरुष यदि अगम्या स्त्री में गमन करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुष से गमन करती है (अगम्य वही है, जिससे विवाह न हुआ हो) तो उसके मरने पर यमदूत उनको मारते हुए ले जाते हैं और वहाँ जलती हुई लोहे की स्त्रीमूर्ति से पुरुष का और पुरुषमूर्ति से स्त्री का आलिंगन कराते हैं। इस नरक का नाम ‘तप्तसूर्मि’ है।’

इसके बाद जब स्थूलदेह में जन्म होता है, तब उन्हें कई जन्मों तक नाना प्रकार के भयानक रोगों से पीड़ित रहना पड़ता है।

अतएव इस मायिक जगत् में श्रीकृष्ण की और गोपियों की दिव्य लीला का अनुकरण कदापि नहीं हो सकता, न ऐसा दुस्साहस किसी को कभी करना ही चाहिये।

हाँ, जिनके अन्तःकरण परम विशुद्ध हो गये हैं, इस लोक और परलोक के भोगों की सारी वासना जिनके मन से मिट चुकी है, जो मुक्ति का भी तिरस्कार कर सकते हैं, ऐसे पुरुषों में यदि किन्हीं महापुरुष की कृपा से श्रीकृष्ण सेवा की लालसा जग उठे और भुक्ति-मुक्ति की सूक्ष्म वासना तक का सर्वथा अभाव होकर उन्हें शुद्ध प्रेमा-भक्ति प्राप्त हो, तब सम्भव है गोपियों की भाँति श्रीकृष्ण उन्हें उपपति के रूप में प्राप्त हो सकें।

अतएव यदि गोपियों को आदर्श मानकर उनका अनुकरण करना हो तो वह परम पुरुष श्रीकृष्ण के लिये करना चाहिये, न कि हाड़-मांस से घृणित पुतले पर-पुरुष या पर-स्त्री के लिये।

शरीर से तो अनुकरण कोई भी नहीं कर सकते। परंतु भाव से भी, जिनमें तनिक भी निजेन्द्रिय-तृप्ति की वासना है, जो पवित्र और परम वैराग्य की स्वच्छ भूमिका पर नहीं पहुँच गये हैं, वे पुरुष या स्त्री यदि श्रीगोपी-गोपीनाथ की लीलाओं का अनुकरण करना चाहेंगे तो उनकी वही दशा होगी, जो सुन्दर फूलों के हार के भरोसे अत्यन्त विषधर नाग को गले में पहनने वालों की होती है।

पांचभौतिक देहधारी स्त्री-पुरुष को तो श्रीकृष्ण की लीला की तुलना अपने कार्यों से करनी ही नहीं चाहिये।

भगवान की सब लीलाओं का अनुकरण नहीं हो सकता
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भगवान की अवतार-लीलाओं के सम्बन्ध में कुछ भी संदेह न करके ऐसा मानना चाहिये कि वे भगवान हैं, सर्वसमर्थ हैं, सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र हैं- चाहे जैसे, चाहे जो चाहे जब कर सकते हैं; उनके लिये सभी कुछ ठीक है।
हमें अनुकरण उन्हीं बातों का करना चाहिये, जिनके लिये उनका तथा उनकी ही वाणीरूप शास्त्रों का आदेश हो; और सच बात तो यह है कि भगवान की सारी लीलाओं का अनुकरण किया भी नहीं जा सकता।

भगवान की लीलाएँ प्रधानतया तीन प्रकार की होती हैं- 1. लोकसंग्रह या लोकशिक्षा के लिये की जाने वाली आदर्श लीला,

2. अद्भुत, असम्भव जान पड़ने वाली ऐश्वर्यमयी लीला

3. अन्तरंग प्रेमी भक्तों के साथ की जाने वाली प्रेममयी लीला।

माता-पिता की भक्ति, गुरु की भक्ति, ब्राह्मण-भक्ति, सदाचार, देवपूजन, दीनरक्षण, इन्द्रियनिग्रह, ध्यान-पूजन, सत्य व्यवहार, निष्कामभाव, अनासक्ति, समत्व, नित्य आनन्द में स्थिति आदि यथायोग्य अनुकरण करने योग्य "आदर्श लीलाएँ" हैं।
इनका अनुकरण अपने-अपने अधिकार के अनुसार किया जा सकता है और करनी ही चाहिये। भगवान का आदेश भी है ऐसा करने के लिये।

अग्नि पीना, वरुणलोक में जाना, अँगुली पर सात दिनों तक पर्वत उठाये रखना, कई प्रकार से अपने विराट् रूप के दर्शन कराना, अघासुर-शिशुपाल आदि के मरने पर उनकी आत्मज्योति को अपने में विलीन कर लेना, हजारों-लाखों मनुष्यों के साथ विभिन्न भावों से एक ही साथ मिलना, हजारों रानियों के महलों में एक साथ रहना, दो जगह एक ही साथ एक ही समय आतिथ्य स्वीकार करना, सूर्य को ढक देना, असख्ंय गोवत्स, गोपबालक तथा उनकी प्रत्येक वस्तु के रूप में स्वयं बन जाना, ब्रह्माजी को सबमें भगवत्स्वरूप के तथा महान ऐश्वर्य के दर्शन कराना, अक्रूर को जल में दर्शन कराना, मारकर असुरों का उद्धार करना आदि "ऐश्वर्यमयी लीलाएँ" हैं। इनका अनुकरण साधारण मनुष्य के द्वारा सर्वथा असम्भव है।

गोपियों के घरों से माखन चुराकर खाना, चीरहरण, रासलीला और निकुन्जलीला आदि अन्तरंग मधुर प्रेमीलीलाएँ हैं, जिन्हें भगवान अपने आत्मस्वरूप पार्षदों के तथा प्रेमियों के साथ अनर्गल-अमर्यादरूप में श्रुतिसेतु का भंग करके अपने-आप में ही किया करते हैं-----

"रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः।"

‘रमानाथ भगवान ने व्रजसुन्दरियों के साथ वैसे ही खेल किया, जैसे बालक अपनी छाया के साथ करता है।’
इन मधुर लीलाओं का अनुकरण कदापि नहीं करना चाहिये। जो मूढ़ इनका अनुकरण करने जाता है, वह शास्त्र और धर्म से च्युत होकर घोर नरक का अधिकारी होता है।

वस्तुतः इन तीनों प्रकार की लीलाओं में केवल पहली लीला ही अनुकरण करने योग्य होती है।

पिछले दोनों प्रकार की लीलाएँ तो श्रवण, कीर्तन, मनन और ध्यान करके भगवान के प्रति भक्ति तथा प्रेम प्राप्त करने के लिये है।

शुद्ध मन से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान की ऐश्वर्य और माधुर्य से भरी लीलाओं का चिन्तन करना चाहिये और आदर्श लोकशिक्षामयी लीलाओं को अपने जीवन में उतारना चाहिये।

Monday, 17 June 2019

एक लालसा

एक लालसा
              - श्रीभाई जी
              (श्रद्धेय श्री श्री हनुमानप्रसाद जी 'भाई जी')

एक लालसा -

जीवन का परम ध्येय स्थिर हो जाने पर जब उसके अतिरिक्त अन्य सभी लौकिक-परलौकिक पदार्थों के प्रति वैराग्य हो जाता है, तब साधक के हृदय में कुछ दैवी भावों का विकास होता है । उसका अन्त:करण शुद्ध सात्विक बनता जाता है । इन्द्रियाँ वश में हो जाती है, मन विषयों से हट कर परमात्मा में एकाग्र हो जाता है, सुख-दुःख, शीतोष्ण का सहन सहज में ही हो जाता है, संसार के कार्यों से उपरामता होने लगती है, परमात्मा और उसकी प्राप्ति के साधनो में तथा सन्तशास्त्रों की वाणी में परम श्रद्धा हो जाती है, परमात्मा को छोड़ कर दुसरे किसी पदार्थ में मेरी तृप्ति होगी या मुझे परम सुख मिलेगा, यह शंका सर्वथा मिटकर चित का समाधान हो जाता है । फिर उसे एक परमात्मा के सिवा अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उसकी सारी क्रियाए केवल परमात्मा की प्राप्ति के लिए होती है । वह सब कुछ छोड़ कर एक परमात्मा को ही चाहता है । इसी का नाम मुमुक्षा या शुभेच्छा है ।
मुमुक्षा तो इससे पहले भी जागृत हो सकती है, परन्तु वह प्राय अत्यन्त तीव्र नहीं होती । ध्येय का निश्चय, वैराग्य, सात्विक, षट सम्पति आदि की प्राप्ति के बाद जो मुमुक्षत्व होता है वाही अत्यन्त तीव्र हुआ करता है ।

भगवान् श्री शंकराचार्य ने मुमुक्षत्व के तीव्र, मध्यम, मन्द और अतिमन्द ये चार भेद बतलाये है । अध्यात्मिक, अधिभौतिक और अधिदैविक भेद से त्रिविध होने पर भी प्रकार भेद से अनेकरूप दुखों के द्वारा सर्वदा पीड़ित और व्याकुल होकर जिस अवस्था में साधक विवेकपूर्वक परिग्रहमात्र को ही अनर्थकारी समझकर त्याग देता है, उसको तीव्र मुमुक्षा कहते है । त्रिविध ताप का अनुभव करने और सत-परमार्थ वस्तु को विवेक से जानने के बाद, मोक्ष के लिए भोगो का त्याग करें की इच्छा होने पर भी संसार में रहना उचित है या त्याग देना, इस प्रकार के संशय में झूलने को मध्यम मुमुक्षा कहते है । मोक्ष के लिए इच्छा होने पर भी यह समझना की अभी बहुत समय है, इतनी जल्दी क्या पड़ी है, संसार के कामों को तो कर ले, भोग भोग ले, आगे चल कर मुक्ति के लिए भी उपाय कर लेंगे । इस प्रकार की बुद्धि को मन्द मुमुक्षा कहते है  और जैसे किसी राह चलते मनुष्य को अक्समात रास्ते में बहुमूल्य मणि पड़ी दीखाई दी और उसने उसको उठा लिया, वैसे ही संसार के सुख-भोग भोगते-भोगते ही भाग्यवश कभी मोक्ष मिल जायगा तो मणि पाने वाले पथिक की भांति मैं भी धन्य हो जाऊँगा । इस प्रकार की मूढ़-मतिवालों की बुद्धि को अतिमन्द मुमुक्षा कहते है ।
बहुजन्म व्यापी तपस्या और श्रीभगवान् की उपासना के प्रभाव से हृदय के सारे पाप नष्ट होने से भगवान् की प्राप्ति के लिए तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है । तीव्र इच्छा उत्पन्न होने पर मनुष्य को इसी जन्म में भगवान् की प्राप्ति हो जाती है । इस तीव्र शुभेच्छा के उदय होने पर उसे दूसरी कोई भी बात नही सुहाती, जिस उपाय से उसे अपने प्यारे का मिलन संभव दीखता है, वह लोक-परलोक किसी की कुछ भी परवा न कर उसी उपाय में लग जाता है । प्रिय मिलन की उत्कण्ठा उसे उन्मत बना देती है । प्रिय की प्राप्ति के लिए वह तन-मन-धन-धर्म-कर्म सभी को उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहता है ।
प्रियतम की तुलना में उसकी दृष्टी से सभी कुछ तुच्छ हो जाता है, वह अपने आप को प्रियमिलनेइच्छा पर न्योछावर कर डालता है । ऐसे भक्तों का वर्णन करते हुए सत्पुरुष कहते है-

प्रियतम से मिलने को जिसके प्राण कर रहे हाहाकार ।

गिनता नही मार्ग, कुछ भी, दूरी को, वह किसी प्रकार ।।

नहीं ताकता, किन्न्चित भी, शतशत बाधा विघ्नों की और ।

दौड़ छूटता जहाँ बजाते मधुर वनश्री नदं किशोर ।।       

प्रियतम के लिए प्राणों को तो हथेली पर लिए घुमते है ऐसे प्रेमी साधक ! उनके प्राणों की सम्पूर्ण व्याकुलता, अनादी काल से लेकर अब तक की समस्त इच्छाए उस एक ही प्रियतम को अपना लक्ष्य बना लेती है ।

प्रियतम को पाने के लिए उसके प्राण उड़ने लगते है । एक सज्जन ने कहाँ की ‘जैसे बाँध के टूट जाने पर प्राणों में भगवतप्रेम के जिस प्रबल उन्मत वेग का संचार होता है, वह सारे बन्धनों को जोर से तत्काल हो तोड़ डालता है ।
प्राणी के अभिसार से दौड़ने वाली प्रणयिनी की तरह उसे रोकने में किसी भी सांसारिक प्रलोभन की परबा शक्ति समर्थ नहीं होती, उस समय वह होता है अनन्त का यात्री-अनन्त परमानन्द-सिन्धु-संगम का पूर्ण प्रयासी । घर-परिवार सबका मोह छोड़कर, सब और से मन मोड़कर वह कहता है-

बन बन फिरना बेहतर इसको हमको रतं भवन नही भावे है ।

लता तले  पड़ रहने में सुख नाहिन सेज सुखावे है ।।

सोना कर धर शीश भला अति तकिया ख्याल न आवे है ।

‘ललितकिशोरी’ नाम हरी है जपि-जपि मनु सचु पावे है ।।

अबी विलम्ब जनि करों लाडिली कृपा-द्रष्टि टुक हेरों ।

जमुना-पुलिन गलिन गहबर की विचरू सांझ सवेरों ।।

निसदिन निरखों जुगल-माधुरी रसिकन ते भट भेरों ।

‘ललितकिशोरी’ तन मन आकुल श्रीबन चहत बसेरों ।।

एक नन्दनंदन प्यारे व्रजचन्द्र की झांकी निरखने के सिवा उसके मन में फिर कोई लालसा नही रह जाती, वह अधीर होकर अपनी लालसा प्रगट करता है-

एक लालसा मनमहूँ धारू ।

बंसीवट, कालिंदी तट, नट नागर नित्य निहारूं ।।

मुरली-तान मनोहर सुनी सुनी तनु-सुधि सकल  बिसारूँ ।

छीन-छीन निरखि झलक अंग-अन्गनि पुलकित तन-मन वारु ।।

रिझहूँ स्याम मनाई, गाई गुन, गूंज-माल   गल डारु ।

परमानन्द भूली सगरों, जग स्यामहि श्याम पुकारूँ ।।

बस, यही तीव्रतंम शुभेच्छा है !   
       

   —श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!