*नाद*
श्री वृन्दावन में अग्रिम भाव उत्सव वेणु माधुरी रस प्रधान होने को है ...
उसी क्रम में कुछ कृपा वर्षण ...
नादात्मंक नादबीजं प्रयतं प्रणवस्थितम्।
वन्दे तं सच्चिदानंद माधवं मुरलीधरम्।।
नादरूपं परं ज्योतिर्नारूपी परो हरिः।।
‘नाद ही परम ज्योति है और नाद ही स्वयं परमेश्वर हरि है।’
नाद अनादि है। जब से सृष्टि है, तभी से नाद है। महाप्रलय के बाद सृष्टि के आदि में जब परमात्मा का यह शब्दात्मक संकल्प होता है कि ‘मैं एक बहुत हो जाऊँ’, तभी इस अनादि नाद की आदि-जागृति होती है। यह नाद ब्रह्मा ही शब्द-ब्रह्म का बीज है। वेदों का प्रादुर्भाव इसी नाद से होता है। नाद का उभ्दव परमेश्वर की सच्चिदानन्दमयी भगवती स्वरूपा-शक्ति से होता है और इस नाद से ही बिन्दु उत्पन्न होता है। यह बिन्दु ही प्रणव है और इसी को बीज कहते हैं।
‘सच्चिदानन्दविभवात् सकलात् परमेश्वरात्।
आसीच्छक्तिस्ततो नादस्तमाद् बिन्दुसमुभ्दवः।।
नादो बिन्दश्रच बीजश्रच स एव त्रिविधो मतः।
भिद्यमानात् पराद्विन्दोरुभयात्मा रवोऽभवत्।
स रवः श्रुतिसम्पन्नः शब्दो ब्रह्माभवत् परम्।।
‘सच्चिदानन्दरूप वैभवयुक्त पूर्ण परमेश्वर से उनकी स्वरूपा शक्ति आविर्भूत हुई, उससे नाद प्रकट हुआ और नाद से बिन्दु का प्रादुर्भाव हुआ। वही बिन्दु नाद, बिन्दु तथा बीज रूप से तीन प्रकार का माना गया है। बीज रूप बिन्दु जब भेद को प्राप्त हुआ, तब उससे अव्यक्त और व्यक्त प्रकार के शब्द प्रकट हुए। व्यक्त शब्द ही श्रुति सम्पन्न श्रेष्ठ शब्द ब्रह्म हुआ।
यही नाद क्रमशः स्थूल रूप को प्राप्त हुआ समस्त जगत में फैल जाता है। पाँच भूतों में सबसे पहले महाभूत आकाश का गुण शब्द है। यह नाद का ही एक रूप है। आदि-नाद रूप बीज से ही पच्चंतत्त्व की उत्पति मानी गयी है। इस स्थूल नाद की उत्पति अग्नि प्रेरणा करती है। अग्नि में यह प्रेरणा आत्मा से प्रेरित चित्त के द्वारा होती है। तब प्राणवायु अग्रि से प्रेरित होकर नाद को उत्पन्न करता है। यह नाद नाभि में अति सूक्ष्म, हृदय में सूक्ष्म, कण्ठ में पुष्ट, मस्तक में अपुष्ट और वदन में कृत्रिम रूप से आकार धारण करता है। कहते हैं कि ‘न’ कार प्राण है और ‘द’ कार वहिृ है और प्राण तथा वहिृ के संयोग से उत्पन्न होने के कारण ही इसको ‘नाद’ कहते हैं। योगी लोग इसी नाद की उपासना करके ब्रह्म को प्राप्त किया करते हैं। हठयोग-शास्त्रों में इसका बड़ा विस्तार है। मुक्तासन और शाम्भवी मुद्रा के साथ इस नाद का अभ्यास किया जाता है। इस नाद साधना से सब प्रकार की सिद्धियाँ मिलती हैं। अनाहतनाद योगियों का परम ध्येय है। शास्त्रों में नाद को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पुरुषार्थों की सिद्धि का एक साधन माना है। नाद के बिना जगत का कोई भी कार्य नहीं चल सकता। पाच्चंभौतिक जगत में आकाश सर्वप्रधान है और आकाश का प्राण नाद ही है। इसी से जगत को नादात्मक कहते हैं। नाद का माहात्म्य अपार है। संगीत दर्पण की एक सुन्दर उक्ति है कि देवी सरस्वती जी नाद रूपी समुद्र में डूब जाने के भय से वक्षःस्थल में सदा तूँबी धारण किये रहती हैं।
नादाब्धेस्तु परं पारं न जानाति सरस्वती।
अद्यापि मज्जनभयात्तुम्बं वहति वक्षसि।।
संगीत और स्वर का तो प्राण ही नाद है। गीत, नृत्य और वाद्य नादात्मक हैं। नाद द्वारा ही वर्णों ही स्फोट होता है। वर्ण से पद और पद से वाक्य बनता है। इस प्रकार समस्त जगत ही नादात्मक है। क्रमशः ...
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