Tuesday, 30 May 2017

दीपक का हेतु है प्रकाश ,अतः उस प्रकाश का सदुपयोग हो

दीपक के प्रकाश मेँ
चाहे कोई भागवत पाठ
करे , चाहे चोरी।
दीपक के मन मेँ न
तो किसी के
प्रति सुभाव होगा ,न
तो कुभाव । दीपक
का धर्म तो एक ही है ,
प्रकाशित होना ,
प्रकाश देना ।
प्रकाश का किसी के
कर्म के साथ कोई
सम्बन्ध नहीँ है - -
"
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन
तिष्ठति "
परमात्मा सभी के
हृदय मेँ बस कर दीपक
की भाँति प्रकाश
देते हैँ । जीव पाप
करे या पुण्य ,
किन्तु साक्षीभूत
परमात्मा पर
इसका कोई प्रभाव
नहीँ पड़ता । ईश्वर
आनन्दस्वरुप है ,
सर्वव्यापी है।
परमात्मा बुद्धि से
परे है । ईश्वर
ही बुद्धि को प्रकाश
करते है । ईश्वर
को प्रकाश देने
वाला कोई नहीँ है ।
ईश्वर
तो स्वयंप्रकाशी हैँ
। ईश्वर के अतिरिक्त
अन्य
सभी परप्रकाशी है ।
ईश्वर का दीपक सा यह
स्वरुप हमेँ प्रकाश
देता है । इस स्वरुप
का अनुभव करने हेतु
ज्ञानी पुरुष
ब्रह्माकार
वृत्ति धारण करते है
। जब मन ईश्वर का सतत
चिन्तन करे ,
वृत्ति जब
कृष्णाकार ,
ब्रह्माकार बने ,
तभी शान्ति मिलती है
। ईश्वर को छोड़कर
मनोवृत्ति को जहाँ भ
वह स्थान उसे
समा नहीँ पाएगा ।
ईश्वर को छोड़कर
सभी अल्प हैँ ।
अतः अन्य
किसी भी वृत्ति प्रव
मनोवृत्ति को शान्ति
वृत्ति कृष्णाकार ,
ब्रह्माकार बनेगी ,
भगवत स्वरुप बनेगी ,
तभी आनन्द
की प्राप्ति होगी ।
लकड़ी मेँ
जो अग्नि समायी हुई
है , उसका उपयोग कैसे
किया जाय यह
जानना चाहिए।
लकडी पर बाहर से
अग्नि जलाने पर
ही जलेगी । स्वयं
प्रकाशी परमात्मा सभ
हृदय मेँ रहते हुए
प्रकाश ही देते हैँ ,
और कुछ नहीँ करते ।
प्रभू के सगुण
स्वरुप को हृदय मेँ
बसाकर , उसी मेँ
वृत्ति तदाकार करने
पर
ही शान्ति मिलेगी !

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