Tuesday, 6 June 2017

दुःख मनीराम का ही सब जगत खेल

हमारा  मन सुख -दुख एवं इन्द्रियों के कर्म का विस्तार एवं नये नये शरीर का उत्पादन करता रहता है.!  सारा का सारा सुख दु: ख  मनीराम का ही  खेल है.!  जब हमारा मन विषयों के प्रेम में, अनुराग में डूबा हुआ है, तब तक हमे दु: ख की प्राप्ति होती है, जब उसमें विषय -परायणता नहीं रहती और मन विषय चिन्तन छोड़ दैता है तब क्षेम का हो जाता है.! जब तक दिये मे घी और बत्ती रहती है, तब तक उसमें से धुआँ निकलता रहता है., और जब घी -बत्ती कुछ नहीं रहती, तो अग्नि बुझकर अपने स्वरूप मे स्थित हो जाता है.! शरीर में पञ्च, कर्मेन्द्रियॉ, पञ्च ज्ञानेन्द्रियॉ, और मन इन सबको मिलाकर ग्यारह. वृत्तियॉ हैं.! गन्धादि ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं, गति -सम्भोगादि कर्मेन्द्रियों कै विषय हैं. और ये सब मन मे ही होते हैं.! ये. चाहे सौ हो हजार हो करोड़ हों ---- "मनसो विकारा: "मन के विकार हैं!  अविद्या से रचित हैं!  कभी आविर्हित होते है, कभी तिरोहित होते है, इनको माया का खेल समझना चाहिए.!
क्षेत्रज्ञ दो प्रकार का होता है ……………* एक त्वं पदार्थ रूप जीव और दूसरा तत्पदार्थ रूप ईश्वर.!! * ईश्वर स्वयं -ज्योति है, संपूर्ण जीवों का नियन्ता, नारायण भगवान वासुदेव. हैं.!  वह सबके हृदय मे आत्मा के रूप प्रविष्ट है.! जब जीव रूप क्षेत्रज्ञ ईश्वर की माया मे न फँसकर ईश्वर को जान लेता है, तब इस परिभ्रमण से छूट जाता है.! जब तक ईश्वर में उसकी दृष्टि नहीं जाती, वह उपाधि भूत संसार मे, माया के खेल में ही भटकता रहता है, तब तक उसको परमात्मा की प्राप्ति नही होती.! हरि -गुरू चरणोपासना ही इसकी औषधि है ****
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"""""""" गुरोर्हरेश्चरणोपासनास्त्रो जहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम् """"""
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इसलिये हरि -गुरूचरणोपासना करके मनीराम को ही  सुधारने का प्रयास करना चाहिए.!!!

जब तक गुरू में ईश्वर -बुद्धि नहीं होगी तब तक कोई अपने -आपको ही परमात्मा अनुभव करना चाहे तो उसका ख्याल स्वपनवत् ही होगा. !जिसका गुरू ही परमात्मा नहीं हुआ, वह अपने जीवन में परमात्मा कैसे हो सकता है.? 
********जो गुरू वह हरि, जो हरि वह गुरू. ! उनके चरणों की उपासना करके मनो रूप शत्रु को मारना चाहिए.!! 
*****""""""".     आत्मा तो शुद्ध बुद्ध ही. है. 
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