Tuesday, 20 June 2017

भिक्षु गीत , मन विषयक

*भिक्षु गीत*

भिक्षु गीत


1. क्षिप्तोऽवमानितोऽसद्भिः प्रलब्धोऽसूयितोऽथवा।
ताडितः सन्निबद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः।
श्रेयस्कामः कृच्छुगत आत्मनाऽऽत्मानमुद्धरेत्॥
अर्थः
दुष्ट लोग आक्षेप करें, अपमान करें, ठग लें, मत्सर करें, मारें, बंधन में डालें, आजीविका छीन लें या दुःख में डालें, तो भी मोक्षार्थी स्वयं ही अपनी आत्मा का उद्धार करे।

2. नायं जनो मे सुखदु ख-हेतुर्
न देवताऽऽत्मा ग्रह-कर्म-कालाः।
मनः परं कारणमामनन्ति
संसार-चक्रं परिवर्तयेद् यत्॥
अर्थः
मेरे सुख-दुख का कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता, न यह शरीर और न ग्रह। कर्म और काल आदि भी कारण नहीं। महात्मा लोग (सुख-दुखात्मक) संसाररूप चक्र घुमाने वाले मन को ही इनका कारण बताते हैं।

3. मनो गुणान् वै सृजते बलीयस्
ततश्च कर्माणि विलक्षणानि।
शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि
तेभ्यः सर्वणाः सृतयो भवन्ति॥
अर्थः
मन अत्यंत बलवान है। वह (सात्त्विकादि) गुणों (गुणवृत्तियों) को उत्पन्न करता है। उनसे (सात्विक, राजस और तामस जैसे) तरह-तरह के कर्म पैदा होते हैं और उन (उन कर्मों) से सवर्ण यानि कर्मानुरूप विविध गतियाँ उत्पन्न होती हैं।

4. अनीह आत्मा मनसा समीहता
हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे।
मनः स्वलिंगं परिगृह्य कामान्
जुषन् निबद्धो गुणसंगतोऽसौ॥
अर्थः
(मन ही सब तरह की चेष्टाएँ करता है।) मन इच्छा करते हुए भी अत्मा निरिच्छ ही रहता है। वह प्रकाशमय, मेरा सखा, केवल साक्षी रूप रहता है। वह मन को अपना रूप समझकर विषयों का भोग करते हुए गुणों की आसक्ति से बंधन में पड़ता है।

5. दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च
श्रुतानि कर्माणि च सद्व्रतानि।
सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः
परो हि योगो मनसः समाधिः॥
अर्थः
दान, स्वधर्माचरण, यम, नियम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और उत्तमोत्त्म व्रत, सभी का अंतिम फल है- मन का एकाग्र होना। मन साम्यावस्था में रहे, वास्तव में यही परम योग है।

6. मनोवशेऽन्ये ह्यभवन् स्म देवा
मनश्च नान्यस्य वशं समेति।
भीष्मो हि देवः सहसः सहीयान्
युंज्याद् वशे तं स हि देवदेवः॥
अर्थः
(बड़े-बड़े) देवगण भी मन के वश में हो गये। किंतु मन किसी के वश नहीं होता। मन बलवान से बलवान भयंकर देव है। जो मन को वश कर लेता है, वह देवों का देव है।

7. तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेगं
अरुं तुदं तन्न विजित्य केचित्।
कुर्वन्त्यसद्-विग्रहमत्र मर्त्यैर्
मित्राण्युदासीनरिपून् विमूढ़ा।।
अर्थः
सचमुच मन ही बहुत बड़ा शत्रु है। उसे जीतना कठिन है और उसका आक्रमण असह्य है। वह मर्मस्थल पर ही प्रहार करता है। मनुष्य को पहले इस शत्रु को जीत लेना चाहिए। लेकिन मूढ़ लोग उसे जीतने का यत्न न कर मर्त्य मनुष्यों से व्यर्थ झगड़ते रहते हैं और किसी को मित्र, किसी को उदासीन, तो किसी को शत्रु बना लेते हैं।

8. देहं मनोमात्रमिंम गृहीत्वा
ममाहमित्यंधधियो मनुष्याः।
ऐषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेण
दुरंतपारे तमसि भ्रमन्ति॥
अर्थः
यह मनोमात्र देह पकड़कर ‘मम’ और ‘अहं’ से ग्रस्त होकर अंधबुद्धि के लोग ‘यह मैं हूँ’ और ‘यह दूसरा’ ऐसे भ्रम में पड़ते हैं और उसी से अनन्त अपार अंधकार में भटकते रहते हैं।

9. न केनचित् क्वापि कथंचनास्य
द्वंद्वोपरागः परतः परस्य।
यथाहमः संसृति-रूपिणः स्यात्
ऐवं प्रबुद्धो न विभेति भूतैः॥
अर्थः
संसार-ग्रस्त अहंवृत्ति को जैसे (सुख-दुख आदि) द्वंद्वों का स्पर्श होता है, वैसा परात्पर चिद् रूप आत्मा को किसी भी कारण, कहीं भी कैसा भी द्वंद्व स्पर्श नहीं होता। इस प्रकार जानने वाला विवेकी पुरुष (जड़) भूतों से नहीं डरता।

10. ऐतां समास्थाय परात्मनिष्ठां
अध्यासितां पूर्वतमेर् महर्षिभिः।
अहं तरिष्यामि दुरंतपारं
तमो मुकुंदांघ्रि-निषेवयैव।।
अर्थः
अत्यंत प्राचीन महर्षियों ने इस परात्म-निष्ठा का आश्रय लिया है। मैं भी उसी का आश्रय ग्रहण करूँगा और (मुक्ति और भक्ति देने वाले) मुकुंद के चरण-कमलों की सेवा द्वारा ही यह दुस्तरतम (अज्ञान सागर सहज ही) तर जाऊँगा।

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