Tuesday, 30 May 2017

नाद 1

*नाद*

श्री वृन्दावन में अग्रिम भाव उत्सव वेणु माधुरी रस प्रधान होने को है ...
उसी क्रम में कुछ कृपा वर्षण ...

नादात्मंक नादबीजं प्रयतं प्रणवस्थितम्।
वन्दे तं सच्चिदानंद माधवं मुरलीधरम्।।
नादरूपं परं ज्योतिर्नारूपी परो हरिः।।
‘नाद ही परम ज्योति है और नाद ही स्वयं परमेश्वर हरि है।’
नाद अनादि है। जब से सृष्टि है, तभी से नाद है। महाप्रलय के बाद सृष्टि के आदि में जब परमात्मा का यह शब्दात्मक संकल्प होता है कि ‘मैं एक बहुत हो जाऊँ’, तभी इस अनादि नाद की आदि-जागृति होती है। यह नाद ब्रह्मा ही शब्द-ब्रह्म का बीज है। वेदों का प्रादुर्भाव इसी नाद से होता है। नाद का उभ्दव परमेश्वर की सच्चिदानन्दमयी भगवती स्वरूपा-शक्ति से होता है और इस नाद से ही बिन्दु उत्पन्न होता है। यह बिन्दु ही प्रणव है और इसी को बीज कहते हैं।

‘सच्चिदानन्दविभवात् सकलात् परमेश्वरात्।
आसीच्छक्तिस्ततो नादस्तमाद् बिन्दुसमुभ्दवः।।
नादो बिन्दश्रच बीजश्रच स एव त्रिविधो मतः।
भिद्यमानात् पराद्विन्दोरुभयात्मा रवोऽभवत्।
स रवः श्रुतिसम्पन्नः शब्दो ब्रह्माभवत् परम्।।
‘सच्चिदानन्दरूप वैभवयुक्त पूर्ण परमेश्वर से उनकी स्वरूपा शक्ति आविर्भूत हुई, उससे नाद प्रकट हुआ और नाद से बिन्दु का प्रादुर्भाव हुआ। वही बिन्दु नाद, बिन्दु तथा बीज रूप से तीन प्रकार का माना गया है। बीज रूप बिन्दु जब भेद को प्राप्त हुआ, तब उससे अव्यक्त और व्यक्त प्रकार के शब्द प्रकट हुए। व्यक्त शब्द ही श्रुति सम्पन्न श्रेष्ठ शब्द ब्रह्म हुआ।

यही नाद क्रमशः स्थूल रूप को प्राप्त हुआ समस्त जगत में फैल जाता है। पाँच भूतों में सबसे पहले महाभूत आकाश का गुण शब्द है। यह नाद का ही एक रूप है। आदि-नाद रूप बीज से ही पच्चंतत्त्व की उत्पति मानी गयी है। इस स्थूल नाद की उत्पति अग्नि प्रेरणा करती है। अग्नि में यह प्रेरणा आत्मा से प्रेरित चित्त के द्वारा होती है। तब प्राणवायु अग्रि से प्रेरित होकर नाद को उत्पन्न करता है। यह नाद नाभि में अति सूक्ष्म, हृदय में सूक्ष्म, कण्ठ में पुष्ट, मस्तक में अपुष्ट और वदन में कृत्रिम रूप से आकार धारण करता है। कहते हैं कि ‘न’ कार प्राण है और ‘द’ कार वहिृ है और प्राण तथा वहिृ के संयोग से उत्पन्न होने के कारण ही इसको ‘नाद’ कहते हैं। योगी लोग इसी नाद की उपासना करके ब्रह्म को प्राप्त किया करते हैं। हठयोग-शास्त्रों में इसका बड़ा विस्तार है। मुक्तासन और शाम्भवी मुद्रा के साथ इस नाद का अभ्यास किया जाता है। इस नाद साधना से सब प्रकार की सिद्धियाँ मिलती हैं। अनाहतनाद योगियों का परम ध्येय है। शास्त्रों में नाद को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पुरुषार्थों की सिद्धि का एक साधन माना है। नाद के बिना जगत का कोई भी कार्य नहीं चल सकता। पाच्चंभौतिक जगत में आकाश सर्वप्रधान है और आकाश का प्राण नाद ही है। इसी से जगत को नादात्मक कहते हैं। नाद का माहात्म्य अपार है। संगीत दर्पण की एक सुन्दर उक्ति है कि देवी सरस्वती जी नाद रूपी समुद्र में डूब जाने के भय से वक्षःस्थल में सदा तूँबी धारण किये रहती हैं।

नादाब्धेस्तु परं पारं न जानाति सरस्वती।
अद्यापि मज्जनभयात्तुम्बं वहति वक्षसि।।
संगीत और स्वर का तो प्राण ही नाद है। गीत, नृत्य और वाद्य नादात्मक हैं। नाद द्वारा ही वर्णों ही स्फोट होता है। वर्ण से पद और पद से वाक्य बनता है। इस प्रकार समस्त जगत ही नादात्मक है। क्रमशः ...

दीपक का हेतु है प्रकाश ,अतः उस प्रकाश का सदुपयोग हो

दीपक के प्रकाश मेँ
चाहे कोई भागवत पाठ
करे , चाहे चोरी।
दीपक के मन मेँ न
तो किसी के
प्रति सुभाव होगा ,न
तो कुभाव । दीपक
का धर्म तो एक ही है ,
प्रकाशित होना ,
प्रकाश देना ।
प्रकाश का किसी के
कर्म के साथ कोई
सम्बन्ध नहीँ है - -
"
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन
तिष्ठति "
परमात्मा सभी के
हृदय मेँ बस कर दीपक
की भाँति प्रकाश
देते हैँ । जीव पाप
करे या पुण्य ,
किन्तु साक्षीभूत
परमात्मा पर
इसका कोई प्रभाव
नहीँ पड़ता । ईश्वर
आनन्दस्वरुप है ,
सर्वव्यापी है।
परमात्मा बुद्धि से
परे है । ईश्वर
ही बुद्धि को प्रकाश
करते है । ईश्वर
को प्रकाश देने
वाला कोई नहीँ है ।
ईश्वर
तो स्वयंप्रकाशी हैँ
। ईश्वर के अतिरिक्त
अन्य
सभी परप्रकाशी है ।
ईश्वर का दीपक सा यह
स्वरुप हमेँ प्रकाश
देता है । इस स्वरुप
का अनुभव करने हेतु
ज्ञानी पुरुष
ब्रह्माकार
वृत्ति धारण करते है
। जब मन ईश्वर का सतत
चिन्तन करे ,
वृत्ति जब
कृष्णाकार ,
ब्रह्माकार बने ,
तभी शान्ति मिलती है
। ईश्वर को छोड़कर
मनोवृत्ति को जहाँ भ
वह स्थान उसे
समा नहीँ पाएगा ।
ईश्वर को छोड़कर
सभी अल्प हैँ ।
अतः अन्य
किसी भी वृत्ति प्रव
मनोवृत्ति को शान्ति
वृत्ति कृष्णाकार ,
ब्रह्माकार बनेगी ,
भगवत स्वरुप बनेगी ,
तभी आनन्द
की प्राप्ति होगी ।
लकड़ी मेँ
जो अग्नि समायी हुई
है , उसका उपयोग कैसे
किया जाय यह
जानना चाहिए।
लकडी पर बाहर से
अग्नि जलाने पर
ही जलेगी । स्वयं
प्रकाशी परमात्मा सभ
हृदय मेँ रहते हुए
प्रकाश ही देते हैँ ,
और कुछ नहीँ करते ।
प्रभू के सगुण
स्वरुप को हृदय मेँ
बसाकर , उसी मेँ
वृत्ति तदाकार करने
पर
ही शान्ति मिलेगी !

सीता जु पूर्व जन्म और छाया सीता

-> प्राचीन काल मेँ
वृषध्वज राजा हुए , उनके
पुत्र रथध्वज के दो पुत्र -
धर्मध्वज और कुशध्वज थे ।
दोनोँ के
माँ लक्ष्मी की कठोर
तपस्या से एक एक मनोरथ
सिद्ध हुए,और
माँ की कृपा से धर्म सम्पन
राजा हो गये । कुशध्वज
की पत्नी मालावती से
एक कन्या हुई
जो लक्ष्मी का अंश थी ।
जन्मते ही वह
कन्या स्पष्ट स्वर से
वेदमन्त्रो का उच्चारण
करते हुए सूतिका गृह से
बाहर निकल आयी ।
विद्वान लोग उसे
"वेदवती" कहने लगे ,
जो तपस्या हेतु वन मेँ
चली गयी ।तप करते हुए
आकाशवाणी हुई कि दूसरे
जन्म मे श्रीहरि तुम्हारे
पति होँगे ।
तब वह गन्धमादन पर्वत
पर कठोर तप करने लगी ।
वही एक दिन रावण आकर
विकारयुक्त होते हुए
वेदवती को हाथ से
खीँचकर श्रृँगार करने
की कुचेष्टा करने लगा ।
तब उसे शाप देते हुए कहा -
"दुरात्मन् ! तू मेरे लिए
ही अपने बन्धु वांधवो के
साथ काल का ग्रास
बनेगा क्योँकि तूने
कामभाव से मुझे स्पर्श कर
लिया है ।
और वही पर
योगद्वारा अपने शरीर
का त्याग कर दिया ।
वही दूसरे जन्म
सीता हुई ,
जिसका विवाह राम के
साथ हुआ, जो रावण
की मृत्यु का कारण बनी ।
अपने पिता के
बचनो को सिद्ध करने के
लिए राम लक्ष्मण और
सीता के साथ जब समुद्र के
तट पर थे वही पर
ब्राह्मण
वेषधारी अग्नि देव ने
आकर सीता को अपने साथ
ले गये और
छाया सीता राम के पास
रह गयी ।
रावण बध के बाद जब
वास्तविक सीता राम
को मिलीँ तब
छाया सीता ने कहा अब
क्या करुँगी । तब
छाया सीता राम एवं
अग्निदेव के आदेश पर
पुस्करक्षेत्र मेँ कठोर तप
करने लगी और शंकर से
पति के लिए
प्रार्थना करने लगी पाँच
बार कहने पर पाँच
पति प्राप्त करने
का वरदान
दिया वही छाया सीता राजा द्रुपद
के यहाँ यज्ञ की वेदी से
प्रकट होकर
पाण्डवो की पत्नी द्रौपदी हुई

(देवी भागवत नवम् स्कन्ध
अध्याय सोलह)

Friday, 12 May 2017

राधा बाबा जु सूत्र 3

श्री राधा बाबा जू🙌🏻🙌🏻

विषयो में सर्वथा सर्वांश में सुख नही है । फिर यह सुख की भ्रांति भी क्यों होती है? इसका रहस्य आपसे निवेदन करता हूँ ।।
👉
मान ले खूब जोर से भूख लगी है तब भोजन के समय बहुत आनंद मिलता है। वस्तुतः यह जो आनंद मिलता है वह भोजन की वस्तुओं से सर्वथा नही मिलता,
वह मिलता है भगवान से जो हमारे अंतः करण में बैठे है।

होता यह है कि जब मन में अति उत्कट इच्छा होती है कि कुछ भोजन मिले तो जब इस इच्छा की पूर्ति होती है तो कुछ देर के लिये मन की चंचलता मिट जाती है। अब तक जो भोजन के लिये व्याकुलता वश चंचल था, अब वह भोजन पाकर शांत स्थिर हो जाता है।
👉
स्थिर मन पर आत्मा का सुख प्रतिविम्बित होने लगता है। बस मनुष्य को आनंद का अनुभव होने लगता है। वास्तव में आनंद जो आया है वह भोजन से नही परमात्मा के आनंद की छाया मन पर पड़ी है, इससे अनुभव हुआ है।
👇🏻👇🏻
इसी बात को सभी विषयों में समझ लेना चाहिये।

किसी भी विषय की इच्छा हुई और जब वह इच्छा पूर्ण होने लगती है , तब उतनी देर के लिये मन स्थिर हो जाता है।

मन स्थिर होते ही आत्मा की छाया उस पर पड़ने लगती है, मनुष्य मूर्खता वश मान लेता है कि अमुक विषय से मुझे सुख मिला।

अवश्य ही इस बात पर विश्वास होना कठिन है, परंतु सत्य यही है कि संसार में जितना भी सुख यदि कभी किसी को मिला था, मिलेगा अथवा मिल रहा है। सब घन आनंद स्वरूप- परमात्मा को ही प्राप्त होता है।

इसलिये मन को स्थिर करने की आवश्यकता है।
😊
श्री राधा बाबा जू👏🏻

राधा बाबा जु सूत्र 2

रूपांतरण चेष्ठा:
🙌🏻 श्री राधा बाबा जु द्वारा निम्न रहस्य समाधान🙌🏻

यह प्रकृति के अंश का शोधन है। जो देह माता पिता के द्वारा मिलती है,उसमे अनुवांशिकी प्रकृति रहती है, माता-पिता के परम्परागत गुण दोष भी उसके भाग होते है। फिर संग जनित गुण दोष भी उसमे प्रविष्ठ हो जाते है।
👉👉
सिद्ध संत अपने सम्पर्क में आये जीवो की प्रकृति का शोधन करता है। जितना जितना सम्पर्क में आये व्यक्ति का समर्पण होता है, उसकी प्रकृति का उतना उतना अंश रूपांतरित हो जाता है।

संत के सम्पर्क में आया व्यक्ति अपने अहंकार के कुछ पाप पुण्य अपने पास ही सुरक्षित रखना चाहता है।
👇🏻
वह संत के सम्मुख अच्छा दिखने की भावना से कुछ अच्छाइयां बचाकर रखता है, और अधिक बुरा नही दिखे कुछ बुराइयां भी छुपाता है। इस कपट के होने से उसका उतना भाग अरूपांतरित रह जाता है।
👏🏻👏🏻

राधा बाबा सूत्र 1

हम जो कुछ भजन-सेवा कर रहे हैं, उसका नाम तो है `भक्ति' लेकिन कहीं तामसी भक्ति तो नहीं है?

भगवान् बोले – लोग भक्ति करते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग तामसी भाव में चले जाते हैं | हिंसा (किसी का ऐश्वर्य नष्ट करना ये हिंसा है, हिंसा माने केवल मारना-पीटना ही नहीं है, किसी की बुराई करना आदि ये सब हिंसा में आता है, पराई निन्दा सुनकर खुश हो जाना, दूसरे के पतन को देखकर के हँसना, ये सब हिंसा है),

दम्भ (दिखावापन, कोई सेठ आया तो माला जोर-जोर से हिलाने लग गए कि वह समझे महाराज बड़े भजनानन्दी महात्मा हैं ये सब दम्भ है | हम जो कर रहे हैं, सब लोग देखेंगे, तारीफ करें हमारी, ये दिखावापन है) और

मात्सर्य (इर्ष्या, किसी की तारीफ हो रही है और हम सह नहीं पाए क्योंकि मत्सरता है | आज एक भक्त दूसरे भक्त को देखकर चिढ़ता है, साधु-साधु को देखकर चिढ़ता है, ये मात्सर्य है)

ये तीन चीजें भक्ति को तामसी बना देती हैं, इसलिए सावधान रहना चाहिए, नहीं तो जितना भी भजन किया, वह किया-कराया सब चौपट हो जाता है | तो ये तीन चीजें भक्ति को तामस बना देती हैं