Monday, 30 January 2017

द्विदल सिद्धान्त भाग 6

द्विदल सिद्धान्त भाग 6

द्विदल-सिद्धान्‍त

इन दोनों की प्रीति को अपने लता-गुल्‍म में प्रतिबिबित करने का वृन्‍दावन का स्‍वभाव है। रसिक संतों ने वर्णन किया है। कि वृन्‍दावन में कहीं तो मर्कत-मणि[1] के तमालों से कंचन को कोमल बेलि लिपटी हुई है और कहीं कंचन के तमालों से मर्कत-मणि की बेलि उलझ रही है। कहीं गौर श्‍याम के आश्रित हैं और कहीं श्‍याम गौर के। विलक्षणता यह है कि दोनों स्‍थानों में सौन्‍दर्य की अभिव्‍यक्ति समान है।

भोक्‍ता और भोग्‍य में समान रस-स्थिति का यह सिद्धान्‍त भार की रस-परिपाटी के अनुकूल एवं गौड़ीय भक्ति-रस-सिद्धान्‍त के प्रतिकूल है। गौड़ीय-सिद्धान्‍त में राधा-माधव की पारस्‍परिक प्रीति में तारतम्‍य स्‍वीकार किया गया है। श्री राधा का प्रेम श्री कृष्‍ण के प्रेम की अपेक्षा कहीं अधिक गुरु एवं गंभीर तथा उससे विलक्षण बतलाया गया है। मादन महाभाव का प्रकाश केवल श्री राधा में होता है, श्री कृष्‍ण मैं नहीं। प्रेमाधिक्‍य के कारण ही श्रीराधा वृन्‍दावनेश्‍वरी हैं एवं श्रीकृष्‍ण सब प्रकार पूर्ण एवं स्‍वतन्‍त्र होते हुए भी उनके सर्वथा अधीन हैं। राधावल्‍लभ भीय सिद्धान्‍त में श्री राधा-कृष्‍ण एक ही रस की दो मूर्तियों हैं, अत: उनमें किसी तारतम्‍य को अवकारश नहीं है। यहां भी श्री कृष्‍ण सर्वथा श्री राधा के अधीन हैं। नाभा जी ने अपने छप्‍पय में श्री हित प्रभु का परिचय उनको ‘राधाचरणप्रधान’ कह कर दिया है और यह बात समस्‍त राधाकृष्‍ण-उपासक आचार्यो में केवल श्रीहिताचार्य के सम्‍बन्‍ध में ही कही है। हित-सम्‍प्रदाय में श्री राधा को अपूर्व में ही कही है। हित-सम्‍पद्राय में श्री राधा को अपूर्व प्रधानता प्राप्‍त है, किन्‍तु वह किसी कारण विशेष को लेकर नहीं है, वह सहज है। श्री राधा भोग्‍य सरूपा हैं, वे रस-दात्री हैं , और रसभोक्‍ता श्री श्‍यामसुन्‍दर स्‍वाभाविक रूप से उनके अधीन हैं। सेवक जी ने श्री राधा को वृन्‍दावन की नित्‍य-उदित सहज चन्द्रिका कहा है-‘सहजविपिन-वर उदित चांदिनी’। राधा-माधव में सब प्रकार से समान रस की स्थिति होते हुए भी श्री राधा की प्रधानता प्रेम के क्षेत्र में प्रेम-पात्र की स्‍वभाविक प्रधानता को लेकर है। श्री बल्‍लभरसिक ने बतलाया है कि यद्यपि दोनों की प्रीति सब लोग समान कहते हैं, किन्‍तु प्रिया महबूब (प्रेम पात्र) हैं एवं प्रिय-तुम आशिक [प्रेमी] हैं।

जद्यपि दोउन की लगन, सब मिलि कहैं समान।
पै प्‍यारी महबूब है, प्‍यारौ आशिक जान।।

महबूब होने के नाते वृन्‍दावन-रस में श्री राधाचरणों की सहज प्रधानता है।

द्विदल सिद्धान्त भाग 5

द्विदल सिद्धान्त भाग 5

समान आश्रयों को पाकर ही प्रीति का पूर्ण रूप प्रकाशित होता है। विषम-प्रेम को पर्ण प्रेम नहीं कहा जा सकता। हित भोरी ने अपने एक पद में प्रेम के प्रकाश की तीन भूमिकाओं का वर्णन करके इस तथ्‍य को स्‍पष्‍ट कर दिया है। वे कहते हैं -‘प्रीति की रीति का मैा किस प्रकार वर्णन करूँ ! मैं अपने मन में विचार करते-करते थक जाता हूँ, फिर भी मन इसमें प्रवेश नहीं पाता। संसार में चकोर की प्रीति धन्‍य मानी गई है। वह चन्‍द्र की ओर एक-टक देखता रहता है और अपने प्राण रहते उधर से दृष्टि नहीं हटाता; फिर भी चकोर की यह प्रीति अति अल्‍प है। प्रेम के प्रकाश की यह पहिली ही भूमिका है। जब चकोर का तन-मन चन्‍द्र बनकर चन्‍द्र की छवि का पान करने लगे और प्रतिक्षण उसकी रस-तृषा बढ़ती रहे, तब उसको विलक्षण ही आस्‍वाद आवे। यह दूसरी भूमिका है। किन्‍तु इसमें चकोर और चन्‍द्र के समान-प्रेमी ने होने के कारण प्रेम एकांगी रहता है, और यह भी अच्‍छा नहीं लगता कि चन्‍द्रमा चकोर के प्रेम-पाश में बँधकर एक टक उसकी ओर देखता रहे। इसमें प्रेम-पात्र की सहज सलज्‍ज प्रीति के अत्‍यन्‍त व्‍यक्‍त हो जाने से रस-हानि हो जायगी। प्रेम का पूर्ण स्‍वरूप तब बनता है जब चकोर चन्‍द्र बनकर चन्‍द्र से प्रेम करे और चन्‍द्र चकोर बनकर चकोर से, औश्र प्रेम के अद्भुत फंद में उलझ कर दोनों क्षण-क्षण में अपने शरीरों को बदलते रहे हैं। जब चकोर अपने प्रेम को चंन्‍द्र में और चन्‍द्र अपने प्रेम को चकोर में ज्‍यौं -का त्‍यौं पाता है, तब, इन दोनों प्रेमों के संगम से, प्रेम-पयोनिधि अमर्यादित बढ़ता है। जिस प्रकार दो दर्पणों के बीच में एक दीपक रख देने से वह अगणित रूपों में प्रतिविंवित हो उठता है , उसी प्रकार समान आश्रयों का पाकर प्रेम भी अनंत बन जाता है। मैंने प्रेम का यह वर्णन अपने अनुमान के आधार पर किया है। वास्‍तव में, प्रेम अनिर्वचनीय तत्व है। जब उसको दूर से देखकर ही बावली हो जाती हैं तो उसकी गहराई कौन जान सकता है।‘
प्रीति रीति कहि आवै।
करि विचार हिय हार रहत हौं, क्‍यों हूँ मन न समावै।।
चंदहि रहत एक टक देखत, सो जग धन्‍य चकोरी।

श्री हितप्रभु ने, जैसा हम देख चुके हैं, श्री राधा-माधव को जल-तरंगवत् एक-दूसरे में ओत-प्रोत बतलाया है। अत: इनके स्‍वरूपों में थोड़ा-सा भी तारतम्‍य कर देने से प्रीति का वह उज्‍जलतम रूप निष्‍पन्‍न नहीं हो सकता, जिसका वर्णन हितभोरी ने अपने पद में किया है। ध्रुवदास जी कहते हैं, ‘श्‍यामा-श्‍याम की एक-सी रूचि है, एक-सी वय है ओर एक ही प्रकार की परस्‍पर प्रीति है। इन दोनों का शील एक-सा हे और एक-सा ही मृदुल स्‍वभाव है। इन्‍होंने तो रस-विलास के लिये दो देह धारण किये हैं।

टूटै सीस दीठ नहि छूटै, तदपि प्रीति अति थोरी।।
तन-मन होइ चकोरी चंदा, शशि ह्रै शशि छवि पीवै।
तौ कछु स्‍वाद और ही पावै, पियत जु प्‍यासी जीवै।।
तद्यपि प्रीति इकंगी कहिये, जहां न प्रेमी दोऊ।
उघरहि रस जु चकोरहि, इक-टक चाहै चंदा सोऊ।।
ह्रैं चकोर वह चहैं चकोरहि, यह चंदा ह्रै चंदहि।
छिन-छिन में तन पलटैं दोऊ, अरूझि प्रेम के फंदहिं।।
याकौ वामें, वाकौ यामें, पलटि पलटि हित पावै।
छिन-छिन प्रेम-पयोनिधि संगम, अधिक अधिक अधिकावै।।
ज्‍यों द्वै दरपन बीच दीप की, अगनित आभा दरसै।
द्विगुन, चौगुनौं,, फेरि अठ गुनौं, त्‍यौं अनंत हित सरसै।।
अनु प्रमान अनुमान कह्यौ, यह प्रीति बात कछु औरै।
ताकी थाह कौन अवगाहै, दूरहि तें मति बौरे।।
‘भोरीहित’। जब द्रवहिं व्‍यास-सुत गूँगे लौं गुर खाऊँ।
रोम रोम भरि रहै मिठाई ना कछु कहौं, कहाऊँ।।

एक रंग, रूचि, एक वय, एकै भांति सनेह।
एकै शील, सुभाव मृदु, रस के हित दो देह।।

द्विदल सिद्धान्त भाग 4

द्विदल सिद्धान्त भाग 4

अतिशय प्रीति हुती अन्‍तर-गति हित हरिवंश चली मुकलित मन।
निविड़ निकुंज मिले रस सागर जीते सत रतिराज सुरत रन।।

श्री हित प्रभु को निकट-मान अधिक रूचिकर और सेवक जी ने अपनी वाणी के अंतिम प्रकरण में उसी का व्‍याख्‍यान किया है। निकट-मान का बड़ा सरस वर्णन भी हितप्रभु ने अपने एक पद में किया है। उन्‍होंने बतलाया है-‘एक बार प्रेम-विहार करते हुए श्री श्‍यामसुन्‍दर अपनी प्रिया की अदभुत अंग-शोभा का दर्शन करके -विथकित वेपथगात’ हो गये। नागरी प्रिया ने अधर-रस-दान के द्वारा उनको सावधान किया, दूसरे क्षण में हो वे प्रेम की दूसरी प्रबल तरंग में पड़ गये। उनको ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्‍होंने प्रिया के मुख में ‘रसाल विंबाधरों को प्रथम वार ही देखा है और वे अत्‍यन्‍त दीनतापूर्वक प्रिया से अधर-रस-दान की प्रार्थना करने लगे। उनके इस विभ्रम को देख कर प्रिया मानवती हो गई और उनके इस अप्रत्‍याशित मान को देख कर श्‍यामसुन्‍दर विरह-दुख से अत्‍यन्‍त कातर एवं अधीर बन गये। प्रिया ने सदय होकर उनको भुजाओं में भर लिया और दोंनों के प्रीति-पूर्वक मिलने से कुछ ऐसे सुख की निष्‍पत्ति हुई कि उस दिन की सन्‍ध्‍या एक निमेष के समान व्‍यतीत हो गई।

हित हरिवंश भुजनि आकर्षे लै राखे उर मांझ।
मिथुन मिलते जु कछुक सुख उपज्‍यौ त्रु टिलव मिव भई सांझ।।

संयोग और वियोग के युगपत् अनुभव से केवल बाह्य आकार में कुछ-कुछ मिलने वाली प्रेम की एक तंरग है, जिसका वर्णन वृन्‍दावन-रस के रसिकों ने किया है और गौड़ीय-भक्ति - रस-साहित्‍य में भी जिसके वर्णन प्राप्‍त होते हैं। इस प्रेम-तरंग को ‘प्रेम वैचित्‍य’ कहते हैं। श्रीहितप्रभु ने इसका उदाहरण अपने राधा-सुधानिधि स्‍तोत्र में दिया है। उनहोंने कहा है - ‘प्रियतम के अंक में स्थित होते हुए भी अकस्‍मात् ‘हा मोहन’! कहकर प्रलाप करनेवाली, श्‍यामसुन्‍दर के अनुराग मद की विहृलता से मोहन अंगो वाली कोई अनिर्वचनीय श्‍यामा-मणि निकुंज की सीमा में उत्‍कर्ष को प्राप्‍त है’।

यहां पर निकटसंयोग में रहते हुए भी प्रेमोत्‍कर्ष के कारण श्री राधा के चित्‍त में वियोग का उदय हो गया है और उनका संयोगानुभव सर्वथा लुप्‍त हो गया है। संयोगानुभव के सर्वथा अभाव के कारण, प्रत्‍यक्ष संयोग होते हुए भी, प्रेम-वैचित्र्य की गणना वियोग के भेदों में की गर्इ है और वियोग का अनुभव एक-साथ नहीं होता। उधर संयोग और वियोग के युगपत् अनुभव की स्थिति, वृन्‍दावन-रस में आस्‍वादित होने वाले प्रेम का सामान्‍य लक्षण है। तथा अन्‍य रसों के साथ यह उसकी दूसरी भिन्‍नता है।

वृन्‍दावन-रस की तीसरी विलक्षणता रस-स्थिति सबन्धि‍नी है। इस रस-सिद्धान्‍त में भोक्‍ता और भोग्‍य-नायक और नायिका में-समान रस की स्थिति मानी गई है। श्री हितप्रभु ने युगल- राधामाधव- के रस को ‘समतूल’ कहा है, ‘दंपति रस समतूल’ एवं दोनों को एक-दूसरे के गुण गणों के द्वारा पराजित माना है -‘बनी हित हरिवंश जोरी उभय गुन गान मात’।

श्रीध्रुवदास जी इस सिद्धान्‍त को सपष्‍ट करते हुए कहते हैं - ‘राधामाधव प्रेम की राशि हैं और दोनों परम रसिक हैं। दोनों की एक वय है और दोनों में रस की स्थिति भी एक है। दोनों ने गाढ़ आलिंगन से विमुक्‍त न होने की टेक ले रखी है। इन दोनों में परस्‍पर प्रेम की अद्भुत रूचि सहज रूप से होती है इनको देखकर ऐसा मालूम होता है कि एक ही रंग दो शीशियों मे भर दिया गया है। श्‍याम के रंग से श्‍याम रँगी है, और श्‍याम के रँग से श्‍याम रँग रहे हैं। इन दोनों के तन, मन एवं प्राण सहज रूप से एक हैं; यह कहने भर को दो नाम धारण किये हुए हैं। कभी प्रिया प्रियतम हो जाती हैं और कभी प्रियतम प्रिया हो जाते हैं। इस प्रेम-रस में पड़कर इनको यह पता नहीं है कि रात-दिन किधर व्‍यतीत हो रहे हैं।

प्रेम रासि दोउ रसिक वर एक वैस रस एक।
निमिष न छूटत अंग अंग यहै दुहुनि कै टेक।।
अदभुत रूचि सखि प्रेम की सहज परस्‍पर होइ।
जैसे एकहि रँग सौं भरिये सीसी दोइ।।
श्‍याम रंग श्‍यामा रँगी श्‍यामा के रँग श्‍याम।
एक प्रान तन-मन सहज कहिवैं कौं दोउ नाम।।
कबहुँ लाडि़ली होत प्रिय, लाल प्रिया ह्रैं जात।
नहिं जानत यह प्रेम रस निसि दिन कहां विहात।।

द्विदल सिद्धान्त भाग 3

द्विदल सिद्धान्त भाग 3

भजनदास जी बतलाते हैं- ‘तीव्र प्रेम का यह रूप है कि तन से तन, मन से मन, प्राण से प्राण एवं नेत्र से नेत्र मिले रहने पर भी चैन नहीं मिलता’।

तन सौं तन मन सौं जु मन मिले प्राण अरू नैन।
तीव्र प्रेम को रूप यह तऊ हिेये नहि‍ चैन।।

साधारणतया विप्रलम्भ से संयोग की पुष्टि मानी जाती है। इस सम्‍बन्‍ध में यह कारिका प्रसिद्ध है:-

न विप्रलंभेन सभोग: पुष्टिमश्‍नुते।
कषायिते हि वस्‍त्रादौ भूयान् रागोहि वर्धते।।

श्री रूप गोस्‍वामी ने ‘उज्‍ज्‍वल नीलमणि’ में इस कारिका को स्‍वीकृति-पूर्वक उद्धृत किया है एवं मधुर रस का पूर्ण परिपाक ‘समृद्धिमान संयोग’ में माना है। समृद्धिमान् संयोग का लक्षण यह किया है ‘पारतन्‍त्रय के कारण वियुक्‍त एवं एक-दूसरे को देखने में असमर्थ नायिका-नायक के उपभोग के आधिक्‍य को समृद्धिमान संयोग कहते हैं।

दुर्लभालोकयो र्यूनो: पारतन्‍त्र्यद्वियुक्‍तयो:।
उपभोगातिरेको य: कीर्त्‍यते स समृद्धिमान्।।[1]

नित्‍य-विहार में श्री युगलकिशोर अत्‍यन्‍त समृद्ध संयोग का ही अनुभव करते हैं, किन्‍तु उसका नियोजक दुर्लभ-दर्शन एवं पारतन्‍त्र्य नहीं है। यहां प्रेम का स्‍वरूप ही ऐसा है कि क्षण क्षण में नवीन रूचि के तरंग उठते रहते हें और श्रीराधा-माधव प्रतिक्षण एक दूसरे के सर्वथा नवीन स्‍वरूप का आस्‍वाद करते रहते हैं।

आलकांरिकों ने विप्रलम्‍भ श्रृंगार के चार भेद बतलाये हैं-पूर्वानुराग, प्रवास, मान, एवं करूणा। नित्‍य-विहार में पूर्वानुराग, प्रवास एवं करूणा के लिये तो स्‍थान ही नहीं है, केवल ‘प्रणय-मान’ का ग्रहण किया गया है, और वह इसलिये नहीं कि मान के द्वारा संयोग की पुष्टि होती है, किन्‍तु इसलिये कि इसमें प्रेम के एक आवश्‍यक अंग का प्रकाशन होता है। प्रेम का वह अंग है उसकी सहज कुटिल गति, उसकी स्‍वाभाविकवामता। एक श्‍लोक प्रसिद्ध है कि ‘नदियों की, बंधुओं की, भुजंगों की एवं प्रेम की गति अकारण वक्र होती है’।

नदीनां च वधूनां च भुजंगानां च सर्वदा।
प्रेशर गतिर्वक्रा कारणं तत्र नेष्‍यते।।

जहां प्रेम उत्‍कर्ष को प्राप्‍त होता है वहां उसकी वामाता प्रकाशित हुए बिना नहीं रहती। इसीलिये नित्‍य-विहार में निर्हेतुक प्रणय-मान को स्‍वीकार किया गया है और यहां इसके बडे़ सुन्‍दर स्‍वरूप प्रत्‍यक्ष हुए हैं। प्रणय-मान की निहेंतुकता व्‍यंज्जित करने के लिये श्री वृन्‍दावन में ऐसी कुंजों का वर्णन किया गया है जो ‘मान-कुंज’ कहलाती हे। वृन्‍दावन में प्रेम-विहार करते हुए नव-दंपति जब अनायास इनमें प्रविष्‍ट होते है, तब प्रिया की भ्रू-लता अकारण भंग हो जाती है और यह देख कर श्री श्‍यामसुन्‍दर अत्‍यन्‍त कातर भाव से अनुनय में प्रवृत्‍त हो जाते हैं।

मान कुंज आये जबहिं कुंवरि भौंह भईं भंग।
चितै लाल पांइनि परैं समुझि मान कौं अंग।।
ऐसे रस में हो प्रिये ऐसी जिय न विचार।
तासौं इती न चाहिये तन मन जो रहयौ हार।।
मेरें है गति एक, तुम पद-पंकज की प्रिये।
अपने हठ की टेक, छांडि़ कृपा करि लाडिली।।[1]

अहैतुक मान प्रेम का सहज अंग होने के कारण अनंत प्रकारों में घटित होता है। हित-चतुरासी में मान के अनेक प्रकार दिये हुए हैं। मोटे तौर पर इनको दो भेदों में बांटा गया है-निकुंजान्‍तर-मान और निकट-मान। निकुंजान्‍तर- मान में श्री राधा अहैतुक मानवती होकर कुजान्‍तर चमें चली जाती है और जब सहचरी गण उनको उनके प्रियतम की करूण-स्थिति का वर्णन सुनाती है, तब वह आतुर गति से उस कुंज की ओर चल पड़ती है जहां बैठे हुए श्री श्‍याम-सुन्‍दर उनके आगमन-मार्ग की ओर अधीर नेत्रों से देख रहे हैं। इस प्रकार के एक निकुंजांतर-मान के समय श्री राधा की आगाध प्रीति ‘अन्‍तर्गति’ बन गई थी, अपने आप में डूब गई थी। सखियों ने जब विदग्‍धता-पूर्वक उनको प्रियतम का स्‍मरण दिलाया, तब वह प्रीति उनके मन में मुकुलित हो उठी और दोनों रस-सागर निविड़-निकुंज में एक दूसरे से मिलकर उद्वेलित हो उठे।

द्विदल सिद्धान्त भाग 2

द्विदल सिद्धान्त भाग 2

सुनियत यहां दूसर कोउ नाहीं।
बिना एक चाह परिछाहीं।।
चाहनि सों पूछी में बाता, प्रीतम कही कौंन रंग राता।
तिनि मूसकाइ बात यह कही, नित्‍य-मिलन अनमिलनौं सही।[1]

अन्‍यत्र वे कहते हैं, ‘प्रेम में जैसे प्रेमी और प्रेम-पात्र एक प्राण, दो देहवाले होते हैं, श्रृंगार-रस में वैसी ही स्‍थति संयोग और वियोग की है’। बात को स्‍पष्‍ट करने के लिये उन्‍होंने नायक को विरह-रूप और नायिका को संयोग-रूप बतलाया है। ‘श्‍याम विरह है और गोरी संयोगिन है। विचित्रता यह है कि श्‍याम और गौर-वियोग और संयोग-अदल-बदल होते रहते हैं। कभी संयोग विरह-जैसा प्रतीत होता है, और कभी विरह संयोग -जैसा प्रतीत होता है। दृष्टि न आने पर ‘श्‍याम’ कहलाते हैं और जब दृष्टि में आने लगते हैं तब ‘गोरी’ कहलाते हैं। गौर-श्‍याम इस प्रकार मिलकर रहते हैं कि न तो उनको संयुक्‍त कहा जा सकता है और न वियुक्‍त ही। श्री वृन्‍दावन श्रृंगार-रस है और गौर-श्‍याम संयोग-वियोग हैं।

त्‍यौं सिंगार बिछुरन मिलन एक प्राण दो देह।

विरह नाम नायक कौ धरयौ, नाम संयोग नायिका करयौ।
स्‍याम विरह गोरी संजोगनि, अदल बदल तिहिं सकै न कोउ गानि।।
डीठि न आवै श्‍याम कहावै, डीठि परे गोरी छवि पाबै।
गौर श्‍याम ऐसे मिलि रहे, बिछुरे भेंटे जाहिं न कहे।।
वृन्‍दावन सिंगार, गौर श्‍याम बिछुरन मिलन।
तिहि ठां करत विहार, हित माते कहत न बनैं।।

संयोग और वियोग की यह स्थिति अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म एवं तीव्र प्रेम में ही संभव है। प्रेम का जहां स्‍थूल स्‍वरूप होता है, वहां संयोग और वियोग भी स्‍थूल प्रकारों में व्‍यक्‍त होते हैं। श्री हिताचार्य ने वियोग के स्‍‍थूल एवं सूक्ष्‍म स्‍वरूपों के उदाहरण अपनी रचनाओं में दिये हैं। स्‍थूल-गति का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि ‘मधुर रस एवं मधुर स्‍वरों वाली वीणा को गोद में रखकर वियोगवती श्री राधा नागर-शिरोमणि श्री श्‍यामसुन्‍दर की भावमयी लीलाओं का गान करती हैं और अश्रु-वर्षा से अपार बने हुए दु:ख के साथ दिनों को बिताती है। अहो ! ऐसी श्री राधा मेरे हृदय में विराजमान हों।(रा. सु.)

यहां श्री राधा-माधव के बीच में देश और काल का अंतर पड़ा हुआ है। जिस वियोग दशा का अनुभव इस समय श्री राधा को हो रहा है, उसका कारण कवेल प्रेम ही नहीं है, उसके साथ्‍ज्ञ देश और काल का अंतर भी है। प्रेम के साथ देश और काले के योग के कारण ही यहां पर विरह. का रूप स्‍थूल बन गया है। देश और काल का अन्‍तर जितना कम होता जाता है, उतना ही विरह सूक्ष्‍म होता जाता है एक स्थिति ऐसी आती है जहां विजातीय पदार्थ का अन्‍तर शून्‍य हो जाता है और एक-मात्र प्रेम ही अत्‍यन्‍त तीव्र बन कर सूक्ष्‍म विरह में परिणत हो जाता है। विरह की सूक्ष्‍म स्थिति का वर्णन करते हुए श्री हितप्रभु कहते हैं-‘जिन श्री राधा-माधव का वाह्य एवं अन्‍तर एक क्षण के वियोग के आभास-मात्र के कोटि कल्‍पग्नियों के दाह का अनुभव करता है, गाढ़स्‍नेहानुबन्‍ध में गुथे हुए-से उन दोनों अदभुत प्रेम-मूर्तियों को मैा परम-मधुर आश्रय जानता हूँ। (रा. सु.)

इससे भी अधिक सूक्ष्‍म विरह का उदाहरण श्रीहित- प्रभु ने हित चतुरासी में दिया है जहां चन्‍द्र-चकोर की भांति परस्‍पर रूप देखते-देखते पलक ओट होने से महा-कठिन दशा हो जाती है और जहां अपनी देह भी न्‍यारी सहन नहीं होती। श्रीश्‍याम सुन्‍दर के नेत्रों की करूण स्थिति का वर्णन करती हुई एक सहचरी कहती है-‘मैं इन नेत्रों की बात क्‍या कहूँ ! हय भ्रमर के समान प्रिया के मुख-कमल के रस में अटक रहे हैं और एक क्षण के लिये भी अन्‍यत्र नहीं जाते। जब-जब यह पलकों के संपुट में रूक जाते हैं, तब-तब अत्‍यन्‍त आतुर होकर अकुलाने लगते हैं। निमेषपात के एक लव के अन्‍तर को भी यह सैकड़ों कल्‍पों के अन्‍तर से अधिक मानते हैं। कानों के आभूषण, आखों के अंजन एवं कुचों के बीच का मृगमद बनकर भी इनको चैन नहीं मिलता। इसलिये श्री श्‍याम सुन्‍दर अपनी एवं प्रिया की देहों को एक करने की अभिलाषा करते रहते हैं’।(हि. चतु.)

द्विदल सिद्धान्त भाग 1

द्विदल-सिद्धान्‍त भाग 1

काव्‍य शास्‍त्र में श्रृंगार-रस के दो भेद माने गये हैं-संभोग श्रृंगार, विप्रलाभ श्रृंगार। प्रेमोपासकों ने भी श्रृंगार-तरू को द्विदल माना है। उसका एक दल संयोग है और दूसरा वियोग। श्रृंगार रस के दो भेद, पक्ष किंवा दल सबको स्‍वीकार हैं किन्‍तु इन दोनों दलों के स्‍वरूप, प्रभाव एवं पारस्‍परिक-सम्‍बन्‍ध के विषय में पर्याप्‍त मतभेद हैं। कुछ लोग श्रृंगार रस की पुष्टि संयोग में मानते हैं और कुछ वियोग में। वे दोनों यह भूल जाते हैं कि संयोग और वियोग में कोई एक यदि अपने आप में पूर्ण होता तो श्रृंगार को द्विदल होने की आवश्‍यकता न थी; उसकी पूर्ण अभिव्‍यक्ति किसी एक के द्वारा हो जाती। श्रृगार ने दो पत्‍ते धारण किये हैं, इसका अर्थ ही यह है कि उसके पूर्ण स्‍वरूप की अभिव्‍यक्ति इन इोनों के द्वारा होती है, एक के द्वारा नहीं। यह दोनों मिल कर ही सम्‍पूर्ण प्रेम को प्रकाशित करते हैं। श्री हिताचार्य ने चकई और सारस के दृष्‍टान्‍त से संयोग और वियोग की अपूर्णता को प्रगट किया है। प्रकृति में सारस नित्‍य-संयोग का प्रतीक है और चकई वियोग का। सारस वियुक्‍त होने पर जीवित नहीं रहता है और चकई प्रति-रात्रि वियोगज्‍वाला का पान करती रहती है। चकई की यह स्थिति देखकर सारस के मन में प्रसके प्रेम के प्रति सन्‍देह होता है और उससे कहता है ‘प्रियतम से वियुक्‍त होने पर तेरे प्राण तेरे शरीर में बेकार रहे आते है; और वह ऐसी स्थिति में, जब तुम दोनों के बीच में सरोवर का अन्‍तर, अन्‍धकार-पूर्ण रात्रि, बिजली की चमक और घन की गर्जना रहती है ! समझ में नही आता कि यह सब सहन कर लेने के बाद प्रात: काल तू प्रेम-जल -विहीन नेत्रों को लेकर कैसेट अपने प्रियतम के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करती हैं ! श्रीहित हरिवंश कहते हैं ‘बुद्धिमानों, को सारस के उपरोक्‍त वचनों पर विचार करना चाहिये। अधिक कहने से तो क्‍या लाभ है, सारस के मन में यह सन्‍देह है कि परम दुखदायी वियोग की स्थिति में चकई के शरीर में प्राण कैसे रहे आते हैं।

सारस के वचनों को सुनकर वियोग-रस में निमग्‍न रहने वाली चकई को उसके ऊपर तरस आता है और वह कहती है, ‘हे सारस, अपनी प्रिया के वियोग को यदि एक क्षण के लिये भी तेरा शरीर सहन कर सकता और तेरे वियोग में यदि तेरी त्रिया को कामाग्नि-पान करना पड़ता तब तू हमारी पीर को समझ सकता था। यदि वैसी स्थिति में तू अपने शरीर को वज्‍ज्र का बनाकर धैर्य धारण कर सकता तब तेरी बात थी। तुम तो वियुक्‍त होने पर फौरन मर जाते हो; तुम्‍हारा मन वियोग के प्रभाव का अनुभव हो नहीं कर पाता’। श्रीहित हरिवंश कहते हैं-विरह के बिना श्रृंगार रस की स्थिति शोचनीय है, सदैव प्रिय के पास रहने वाला सारस प्रेम के मर्म को क्‍या जान सकता है?
इस प्रकार, संयोग और वियोग दोनों के अपूर्ण होने के कारण, रस की वही स्थिति आदर्श मानी जा सकती है जिसमें संयोग और वियोग एक साथ उपस्थित रहकर अपने भिन्‍न प्रभावों के द्वारा, प्रेम के एकान्‍त अनुभव को पुष्‍ट बनाते हों। ‘वृन्‍दावन रस’ में इसी स्थि‍ति का ग्रहण किया गया है। संयोग की परावधि तो यह है कि एक क्षण के लिये भी दोनों वियुक्‍त नहीं होते और वियोग की सीमा यह है कि नित्‍य संयुक्‍त होने पर भी अपने को अनमिले मानते हैं। भ्‍ज्ञजनदास जी कहते हैं - ‘युगल किशोर के अंग-अंग मिले हुए हैं, फिर भी वे अपने को अलमिले मानकर अकुलाते रहते हैं। जहां का संयोग ही विरह रूप है उस रस का वर्णन नहीं किया जा सकता।

मिले अनमिले रह‍त विवि अंग अंग अकुलांइ।
प्रेमहि विरह सरूप जहां यह रस कह्यौ न जाइ।।

ध्रुवदास जी कहते हैं, जहां देखना ही विरह के समान है, वहां के प्रेम का वर्णन कोई क्‍या करे ! प्रेमी का वर्णन कोई क्‍या करे ! प्रेमी कभी बिछुड़ता नहीं है और न वह कभी मिला ही रहता है। प्रेम की यह अद्भुत एकरस स्थिति है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता’।

देखिवौ जहां विरह सम होई, तहां कौ प्रेम कहा कहि कोई।

प्रेमी बिछुरत नाहिं कहुँ मिल्‍यौ न सो पुनि आहि।
कोन एकरस प्रेम कौ कहि न सकत ध्रुव ताहि।।

मोहन जी प्रेम की इस एकत्र संयोग-वियोगमयी स्थिति को स्‍पष्‍ट करते हुए कहते हैं-‘प्रियतम की खोज में मेरा मन जब अत्‍यन्‍त अधीर होने लगा और किसी प्रकार उसका पता लगता ही न था, तब अनुभावियों ने मुझे बताया कि इस प्रेमदेश में अपनी चाह की छाया के अतिरिक्‍त अन्‍य कोई रहता ही नहीं है जिससे तुम कुछ जान सको। मैंने यह सुनकर, अपनी चाहों से पूछा कि तुम हो बताओ कि प्रियतम का स्‍वरूप क्‍या है? उन्‍होंने मुस्‍करा कर जवाब दिया कि नित्‍य-मिलन में अनमिलना ही उसका स्‍वरूप है।‘
क्रमशः ...