Monday, 29 February 2016

महामृत्युंजय का अर्थ

महामृत्युंजय मंत्र का अर्थ (Meaning of Mahamrityunjay Mantra in Hindi)
हम तीन नेत्र वाले भगवान शंकर की पूजा करते हैं जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण अपनी शक्ति से कर रहे हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल-रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार-रूपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बंधनों से सदा के लिए मुक्त हो जाएं तथा आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाएं और मोक्ष प्राप्त कर लें।

महामृत्युंजय मंत्र के फायदे (Benefits of Mahamrityunjay Mantra)
यह मंत्र व्यक्ति को ना ही केवल मृत्यु भय से मुक्ति दिला सकता है बल्कि उसकी अटल मृत्यु को भी टाल सकता है। कहा जाता है कि इस मंत्र का सवा लाख बार निरंतर जप करने से किसी भी बीमारी तथा अनिष्टकारी ग्रहों के दुष्प्रभाव को खत्म किया जा सकता है। इस मंत्र के जाप से आत्मा के कर्म शुद्ध हो जाते हैं और आयु और यश की प्राप्ति होती है। साथ ही यह मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद है।

शिव करुण है ।
उन्हें विनय है कि
पक जाने दीजिये ,
रस और सुगन्ध से
इसका अर्थ , पूर्णज्ञान
और पूर्ण प्रेम का रस
फिर पक स्वयं फ़टे ।
ताकि सुगन्ध रह जाये
रस रह जाएं , कर्कशता
सड़ांध न छूटे ।
रस मय हो कर फटने
से निकली चेतना भी
रसिली हो ।
अज्ञात में यह मन्त्र
भक्ति के अवसर का
विनय है ।
परन्तु इसका प्रयोग ,
पुनः पुनः पुनः भोग
हेतु ही होता है ,
अवसर प्राप्त अगर
मार्कण्डेय होना चाहे
तो शिव तो शिव रहने ही है ।

Saturday, 27 February 2016

सत्संग कण

सत्संग के अमृत कण -

परमात्मा के संग से योग और संसार के संग से भोग होता है । सुख की इच्छा, आशा और भोग - ये तीनों सम्पूर्ण दु:खों के कारण हैं । सुख की इच्छा का त्याग कराने के लिए ही दु:ख आता है । शरीर में ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानना प्रमाद है, प्रमाद ही मृत्यु है । नाशवान को महत्त्व देना ही बंधन है । इसकी चाह ना छोड़ने से अविनाशी तत्त्व की प्राप्ति होती है । शरीर संसार से अपना संबंध मानना कुसंग है । आप भगवान को नहीं देखते, पर भगवान आपको निरंतर देख रहे हैं । ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए - इसी में सब दु:ख भरे हुए हैं । अपने स्वभाव को शुद्ध बनाने के समान कोई उन्नति नहीं है । अच्छाई का अभिमान बुराई की जड़ है । मिटने वाली चीज एक क्षण भी टिकने वाली नहीं होती । शरीर को मैं - मेरा मानने से तरह - तरह के और अनंत दु:ख आते हैं । दूसरों के दोष देखने से हमारा भला होता है, न दूसरों का ।
नाशवान की दास्ता ही अविनाशी के सम्मुख नहीं होने देती ।

आप भगवान के दास बन जाओ तो भगवान आपको मालिक बना देंगे । आराम चाहनेवाला अपनी वास्तविक उन्नति नहीं कर सकता । परमात्मा दूर नहीं हैं, केवल उनको पाने की लगन की कमी है । जब क नाशवान वस्तुओं में सत्यता दिखेगी, तब तक बोध नहीं होगा ।

अपने में विशेषता केवल व्यक्तित्व के अभिमान से दिखती है । भगवान से विमुख होकर संसार के सम्मुख होने के समान कोई पाप नहीं है । परमात्मा की प्राप्ति में भाव की प्रधानता है, क्रिया की नहीं । मन में किसी वस्तु की चाह रखना ही दरिद्रता है ।

स्वार्थ और अभिमान का त्याग करने से साधुता आती है । संसार से विमुख होने पर बिना प्रयत्न किए स्वत: सद् गुण आते हैं । यह सत्य है कि हमारा शरीर तो संसार में है, परंतु हम स्वयं भगवान में ही हैं । मुक्ति इच्छा के त्याग से होती है, वस्तु के त्याग से नहीं । भगवान के लिए अपनी मनचाही वस्तु को छोड़ देना ही शरणागति है । संसार की सामग्री संसार के काम की है, अपना काम की नहीं । संसार से किसी भी चीज की कामना करना दु:ख पाने जैसा ही है ।

मनुष्य का उत्थान और पतन भाव से होता है । वस्तु, परिस्थिति आदि से नहीं । आने वाला ही जाने वाला होता है - यहीं नियम है । हम घर में रहने से नहीं फंसते अपितु सम्पूर्ण घर को अपना मानने से फंसते हैं ।

‘है’ - को परमात्मा का न मानकर संसार का मान लेते हैं - यहीं गलती है । ‘करेंगे’ - यह निश्चित नहीं है, पर ‘मरेंगे’ - यह निश्चित है । ठीक उसी तरह जब तक अभिमान और स्वार्थ है, तब तक किसी के भी सात प्रेम नहीं हो सकता ।

असत् का संग छोड़े बिना सत्संग का प्रत्यक्ष लाभ नहीं होता । भगवान में अपनापन सबसे सुगम और श्रेष्ठ साधन है । यदि हम संसार को अपना ना मानें तो इसी क्षम मुक्ति है । किसी तरह से भगवान में लग जाओ, फिर भगवान अपने - आप संभालेंगे ।

ठगने में दोष है, ठगे जाने में दोष नहीं है । जिसका स्वभाव सुधर जाएगा, उसके लिए दुनिया सुधर जाएगी । भगवान के सिवाय कोई मेरा नहीं है - यह असली भक्ति है ।

लेकर दान देने की अपेक्षा न लेना ही उचित है । भगवान हठ से नहीं मिलते, प्रत्युत सच्ची श्रद्धा से मिलते हैं । भोगी व्यक्ति रोगी होता है, दु:खी होता है और दुर्गति में जाता है ।

भगवान से विमुख होते ही जीव अनाथ हो जाता है । संसार की आसक्ति का त्याग किए बिना भगवान में प्रीति नहीं होती । लेने की इच्छा वाला सदा दरिद्र ही रहता है । ऊंची - से ऊंची जीवन्मुक्त अवस्था मनुष्य मात्र में स्वाभाविक है ।

किसी के अहित की भावना करना अपने अहित को निमंत्रण देना है । वस्तु - व्यक्ति से सुख लेना महान जड़ता है । जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी न किसी के पराधीन होना ही पड़ेगा । परंतु जो दूसरों को दु:ख देता है, उसका भजन में मन नहीं लगता ।

जो हमसे किसी भी वस्तु की आकांक्षा रखता है, वह हमारा गुरु कैसे हो सकता है ? संतोष से काम, क्रोध और लोभ - तीनों नष्ट हो जाते हैं । अपने लिए सुख की इच्छा रखना आसुरी वृत्ति है । मिले हुए को अपना मत मानो तो मुक्ति स्वत:सिद्ध है । अपने सुख से सुखी होने वाला कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।

याद रखें, भगवान का प्रत्येक विधान आपके परम हित के लिए हैं ।

अबोध और शरणागति

अबोध

अपनत्व और अनन्यता जब तक शिशु में रही , उसकी स्थिति योगियों , प्रेमियों सी रही । साधक नहीँ सिद्ध अवस्था । आत्मा भी , देह भी पर तब कारण देह का विकास नहीँ होने से दिव्यतम प्रकाश , त्याग ऐसा की केवल माता के दूध से जीवन का सञ्चालन । क्रिया ऐसी जैसे योग में भी न हो , बिलकुल स्लो मोशन । और निद्रा ऐसी जैसे स्वरूप ध्यान या समाधि । उज्ज्वलता , छटा ऐसी की जिसने मन्दिरों में भी नमन ना किया हो एक बार तो भीतर ही सही वह भी श्रद्धा से भर जाएं । सकरात्मक्ता ऐसी की कुटिल या नकरात्म चित् भी शिशु को गोद में लें लें तो वात्सल्य से भर जाएं , निर्भरता ऐसी की अपने प्राण ही निकल जाएं पर माँ पर निर्भर , मल में सना रहे पर चेष्टा माँ ही करें , हालाँकि इन सब को शिशु की दयनीयता कह प्रदर्शित किया जाता है , परन्तु मुझे उससे विशुद्ध अध्यात्म नहीँ दीखता । दस दिन के आस पास का शिशु गन्ध से माँ को जानने लगता है , फिर शब्द से , समझता नहीँ पर शब्द में निहित भाव उसे अनिवार्य सुरक्षा देते है , कुछ दूर माँ हो तो वह व्यथित हो उठता है , काश ऐसा भगवत् सम्बन्ध हो सके , पूर्ण निर्भरता । मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो आजीवन निर्भर रहता है , पर समझ नहीँ पाता वस्तुतः उसे निर्भर होना किस पर है । बोध इतना आवश्यक है कि मैं अबोध हूँ , मुझे अपने भगवान की गोद का बोध नहीँ , अतः अबोध हूँ , और मेरा बोध भी अब उन्ही को सौंपता हूँ , नन्हा शिशु के संग जो किया जाये वह उसे दर्द ही देता हो , अथवा वह रोता रहे पर माँ और परिजन करते हित है , शिशु रोता रहता है , कारण बदलते रहते है , पूरा ना हो तो अर्थ है माँग पूरी ना हो यहीँ भगवान चाहते है , जैसे शिशु के अनावश्यक मांग या रोने की परवाह किये बिना परिजन हित चाहते है । जीवन भर के साधन आदि ऐसी आभा और आकर्षण का विकास क्यों नहीँ कर सकते जैसा शिशु रूप में रहा , यहीँ जीवन का उत्तर है । जीवन को सदा उसी भावना से जिया जा सकता , वहीँ बालपन , वहीँ शिशुपन अपने प्रभु के प्रति शरण बस , तब स्वतः रस बढ़ता , घटता नहीँ । एक और बात अधिकतम उतनी ही शक्ति का विकास हो सकता है जितना बाल रूप में प्रकृति से मिला , जो नाना विचारों धारणाओं से छुट गया । भक्त कह लो , या नित्य योग में निहित सिद्ध होना उसे वैसा ही है जैसा आया था , तब ही वह सफल है । शरीर का स्वरूप बदले तो बदले अन्तस् वैसा ही हो । आज शायद आश्चर्य हो कि कभी हमें देख किन्हीं को भगवत् स्मृति हो उठती थी । क्यों ? एक चीज़ का तब उदय ना हुआ था , अहंकार और जगत का आभास , जगत् का बोध । जगत जितना जाना स्वबोध छुट गया । और ईश्वर हेतु तो अबोध स्वीकारना ही पूर्ण बोध है । विचारों के जाल ने हमारा मूल स्वरूप बिगाड़ दिया । ईश्वर कहते है वैसे हो सके जैसा तुम्हें जगत में भेजा तो तुम सफल हो । समस्त अभिनय में मूल रह गया , हमने ईश्वर को झुठलाया है , मुझे लगता है मनुष्य जैसा पैदा हुआ वह पूर्ण है , वह संग से ढल जाता है , भाषा आदि सब जगत देता है , अतः जैसा वह आया "निर्विकल्प" भाषा-देश-काल-स्थितियों से अनभिज्ञ वहीँ पुनः होना है और वहीँ मानव का मूल धर्म है । आज विद्यालय में सिखाया वह कम और अनुभव में आई बात बालक जल्दी जीवन में उतारता है , हर वक्त सिखने की ललक । जिसने जगत को एक क्षण ना देखा उनके हाव भाव देख अनुमान लग सकता है कि हमारा उठना बैठना सब कॉपी पेस्ट है और अपने लिए नहीँ । जिन्होंने जगत नहीँ देखा वह कभी सोचते नहीँ अगर सिखाया ना जाएं कि यहाँ बनावट अनिवार्य है , आवरण अनिवार्य है , उनके भोजन करने के तरीके को देख कर ही भीतर शान्ति उतरती है , भले हम बाहर इसे गलत सिद्ध कर दे । पहले जीवन भर एक बालक रहता था भीतर वह मरता नहीँ था , आज बालक को बालक नहीँ हम रहने देते । ईश्वर माँ है , उनके लिए तो हम सदा शिशु ही है , कुछ हरकतें उन्हें भाँति होगी , कुछ वह भा सके ऐसा अभिनय कर लेते होंगे । अपने शिशु की किसी हरकत को वह गलत तो नहीँ कहते , परन्तु शिशु का हित स्वयं को माँ को सौपने में ही है , इस में ज़रा भी अमंगल नहीँ होगा कारण माँ स्वहित के बदले भी शिशु का ही हित सोचती है । माँ अच्छा खाती है ताकि बालक को अच्छा दूध मिले , अपने लिए नहीँ , अपने बालक के लिए । और जब तक अपनी देह में शिशु हेतु दूध की भावना उसमें होती है माँ का अपना सौंदर्य भी निखरता है , कारण स्वहित में रस नहीँ , आनन्द ही तत्सुख में है और यहीँ जीवन की औषधि ।
पुनः पिछले भाव ....
किसी का कहा सच भले ना हो आपने जो जी लिया वो तो सच है ही क्या बचपन जीवन में सबसे सुंदर हिस्सा नहीँ , वह समय सदा भाता है , भले अभाव रहे हो , कारण अबोधता । बेफ़िक्री ।
अनुभुत् करियें ...
जन्म से कोई ऐसा साथ जो सदा रहा हो ... जन्म से पहले भी रहा हो मृत्यु के बाद भी रहेगा , केवल ईश्वर वह अपने शिशु को अकेला छोड़ ही नहीँ सकते । सदा निगाह गढाये है , ख्याल है उन्हें इतना , फिर अपने को ही सोचना तो गलत हुआ न । अपने उन वात्सल्य मय भगवान को विचारा जाता तो वह दौड़े आते ।
हम आये जब यहाँ कैसे थे ...क्या शंकायें थी ? क्या बोध था ? क्या हमें कुछ आता था ? फिर किसने
हमें जीवन हेतु दूध पीना सिखाया | किसने जन्म से पुर्व सभी व्यवस्था की , अनुकूल संग दिए ।
कितनी कांति थी तब ... और सौन्दर्य | फिर कांति - सौन्दर्य - अबोधता कम होती गई | कई रंग चढ गये ...जिस रंग में आये थे वो छुट गया |... प्रयासों से नहीं निश्चलता से पाया जा सकता है क्योंकि वहीँ हम लाये थे ... बोध से नहीं ...अबोधता से , क्यों कि अबोध ही हम है और रहेगें भी ।
आप को चलना आता ही ना हो तो माँ आपके साथ है ... हम खुद चलने लगे साथ छुटता गया |
शिशु को देखो ... जैसे छु कर आया  हो प्रभु को , हैं ना | इतनी निर्मलता चाहिये |इतनी कोमलता , इतनी सादगी | इतनी सच्चाई ...
दिये थे भी प्रभु यें सब | पर ...हम समझ ना सकें | अब वहीं सब चाहिये ... कुछ नया नहीं कर रहे ,
उनके लिये , वहीं करना है जो लाये थे | ठीक वहीं | जितना शिशुत्व आया | उतना होने पर पा सकेँगे उन्हें |
कितना सरल सुत्र है ...
जैसे जन्में वैसे ही मरना है ... बीच के जाल में ऐसे उलझे की छुटते गये | पहले वस्त्र पहन लो फिर हटा दो ...कोई एहसान नहीं हुआ उन पर ...उन्हें तो ठीक वही चाहिये , वहीं बाल
स्वरुप | सब नया सा | वहीँ आत्मा का मूल रूप है , शेष तो अभिनय उसने रट लिए , आत्मा थी इतनी निश्चल , शिशु में देहाभास नहीँ , आत्म रूप ही प्रगट है अतः स्वतः रस और आनन्द प्रगट ही है ।
उनके होना चाहते है तो एक चीज पकड लें अबोधता | बोध उन्हें है उन्हें ही रहे , माँ जाने सब कब क्या पहनना , कब क्या खाना पीना , अहित तो करेगी नहीँ |हम अबोध भले | पकडा देनी है डोर |
जहाँ ले गये बेहतर ही होगा | ख़ुद  पर बडा विश्वास दिखा कर डुब गये है | उन पर कर के देखना है ...
शिशु की हरकते देखिये और सीखिये |जितना छोटा बच्चा हुआ उतना सरल प्रभुत्व है उसमें |
१० माह के बच्चे को अपनी सबसे जरुरी किताब दे दो | एक पैन दे दो ...उसे उस किताब की सौन्दर्यता , गहराईसे कोई लेना देना नहीं ... वो तो टेडी-मेडी लकीरे खेच डालेगा | बिगाड देगा | पर उसे लगेगा की किताब अब संजी है |
अब सही स्वरुप पाई है ...
यही हम करते है ... ईश्वर ने संसार थमा दिया सब सुन्दर था पहाड , जंगल , नदी नाले सब हसीन् और सही तरह से सही स्वरुप में थे | हमें बोध मिला लग गये हर तरह से टेडी - मेडी लकीरों में ...बच्चा कुछ जरुरी किताब बिगाडे तो उसे बिगाडने को वापिस ना मिलें हम उसे डांटे ...पर प्रभु बार - बार सारी कुदरत थमा देते है बिन मांगें |... पर इन्सान् सदा गरीब | कुछ नहीं उसके पास ...सांसें ... मिली है | हमारी नहीं उनकी है  | हमारे बस में होता तो कभी रोकते ही ना | मुफ्त की है ... शुक्रिया नहीं निकलता | कृत्रिम सांसे एक दिन में लाखों खर्च करवा देगी वो भी बिस्तर पर ... हिल ना सकोगें , सोचो कितना कुछ मिला है मुफ्त | एक दिन सांसें खरीदनी पडी तब पता होगा ... ईश्वर क्या है ?
तब भी इंसान ऐसे मांगता है उनसे कि कि कोई उसी का चैक बाउन्स हो गया हो ... उनकी चीज है सब
कभी भी वो लें सकते है ... हमारा कोई किराया जमा नहीं है | सब उनका ही है | अबोधता जानें ... 
क्षमा और धन्यवाद कहते रहे …
अपनी अबोधता से पता होगा | सब कुछ उनसे है ... और वह अपने , अपनों को कौन नही जानता | मैं गलत हो  सकता हूँ , सब गलत हो सकते है ,विधियाँ गलत हो सकती है ... सुना-पढा भी गलत हो सकता है पर मेरे प्रभु कभी गलत नहीं हो सकते ... कभी गलत नहीं होते | ना होंगें
जो नहीं मांग रहे उसे प्रभु हाथों सेखिला रहे है ... ऐसी लाखों योनियाँ है खुद देखियें | सत्यजीतई "तृषित" !
मेरा कुछ नहीँ , मुझे कुछ नहीँ चाहिए , सब आपका ही है , आपने दिया वो सब लौटाना ही है , मेरे कुछ अपने है तो आप । खिलौनों संग नहीँ अपनी माँ संग ही सुख की नींद आती है ।

Friday, 26 February 2016

दृश्य और दृष्टाका क्या सम्बन्ध है

सन्तवाणी
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानंदजी महाराज

प्रश्न‒दृश्य और दृष्टाका क्या सम्बन्ध है ?

स्वामीजी‒दृश्यकी सीमा द्रष्टाके अन्तर्गत ही होती है । इस दृष्टिसे समस्त दृश्य इन्द्रियोंकी सीमाके भीतर है और इन्द्रियाँ मनकी सीमाके भीतर हैं और मन बुद्धिकी सीमामें है । बुद्धि तथा इन्द्रिय दृष्टिसे ही जगत्‌की प्रतीति होती है । बुद्धिका ज्ञाता जो अहम् तत्व है, वह बुद्धिकी सीमासे बड़ा है और अहम्‌का जो ज्ञाता अनन्त तत्त्व है, वह अहम्‌से बड़ा है । अतः सर्वका ज्ञाता और प्रकाशक जो अनादि, अनन्त, अनुपम, अद्वितीय तत्व है; उसके किसी अंशमें अहम् और अहम् तत्त्वके किसी अंशमें इदं तत्व है । अर्थात् ‘है’ के किसी अंशमें ‘मैं’ और ‘मैं’ के किसी अंशमें ‘यह’ सृष्टि है ।

Thursday, 25 February 2016

सच्चे साधक के लक्षण। कृपालु जी

🌿★★सच्चे साधक के लक्षण★★🌿

--"युक्ताहारविहारस्य" इस गीतोक्ति के अनुसार जो अपने प्रतिदिन का कम से कम एक चौथाई समय (6 घंटे) भगवद्भजन/भगवद्विषय में देता हो तथा अपने जीवन को संयमित भी रखता हो ।

--"मामेकम् शरणम् व्रज" भगवान के इस उपदेशानुसार जो केवल भगवान (हरि-गुरु) में ही अनन्य भाव से प्रेम (आसक्ति) करता है तथा शेष सब जगह उदासीन रहे ।

--"श्रद्धया देयम् अश्रद्धया देयम्" इस वेदोक्ति के अनुसार जो अपनी आय/कमाई का कम से कम दशांश(10%) अपने शरण्य हरि-गुरु के श्रीचरणो में अपना परम कर्तव्य समझकर सहर्ष दान करता हैं अपने ही कल्याण के लिये ।

--"बिनु सतसंग बिबेक ना होई" इस मानसोक्ति के अनुसार जो व्यक्ति अपने प्रत्येक दिन का कुछ ना कुछ समय सत्संग (मानसिक या मानसिक+दैहिक) में अवश्य ही देता हैं ।

--"दुष्ट संग जनि देई बिधाता" इस मानसोक्ति के अनुसार जो स्वयम् को यथाशक्ति कुसंग से बचाकर रखता हैं ।

--"आवृत्तिरसकृदुपदेशात्" इस वेदांतोक्ति के अनुसार जो गुरु-वेद/शास्त्रो द्वारा दिये उपदेशो को सुनकर या पढ़कर बारम्बार उन उपदेशो का चिंतन-मनन करता हैं ।

--"तज्जपस्तदर्थभावनम्" इस शास्त्रोक्ति के अनुसार जो निरंतर रूपध्यानयुक्त भगवन्नाम का जप (मानसिक) करता है या करने का अभ्यास करता हैं ।

--"वासुदेव सर्वमिति" इस गीतोक्ति के अनुसार जो सबमें सदा सर्वत्र अपने इष्टदेव (श्रीकृष्ण) का ही दर्शन करता है या इस भाव को दृढ़ करने का अभ्यास करता हैं ।

--"गुरुदेवतात्मा" इस भागवतोक्ति के अनुसार जो अपने गुरुदेव (जो कि श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष हो) में सदा भगवद्भाव ही रखे, कभी उनमें मनुष्य-भाव ना करें ।

--"पिबत भागवतम् रसमालयम्" इस भागवतोक्ति तथा "भरहिं निरंतर होहि ना पूरे" इस मानसोक्ति के अनुसार जो बस भगवान(हरि-गुरु) के नाम-रूप-गुण-लीला-धाम आदि के संकीर्तन में ही रुचि लें तथा निर्रथक संसारिक वार्ताये जिसे जहर लगती हो ।

->"जगद्गुरुत्तम श्रीकृपालु महाप्रभु" के उपदेशो पर आधारित<-
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रहस्य भाव 82 जरासन्ध

जब हम पचास वर्ष के होँगे तब जरासंध(काल) हमारी मथुरा नगरी(शरीर) पर आक्रमण करेगा । जरासंध वृद्धावस्था है । हमारी उत्तरावस्था ही जरासंध है जो शरीर के कई अंगो पर धावा बोल देती है ।
पचास वर्ष पूरे होने पर जरासंध आता है जीवन का पूर्वार्ध समाप्त हुआ और अब उत्तरार्ध आया है वृद्धावस्था शुरु हो रही है । जरासंध के आक्रमण से मथुरा का गढ़ टूटने लगता है , आँखो की , कानो की , हाथ पाँव की शक्ति क्षीण होती है ।
श्रीकृष्ण ने जरासंध को सत्तरह बार हराया तो वह अठारहवीँ बार कालयवन को लेकर आया । उसने काल को पहले भेजा ।
जब जरासंध (वृद्धावस्था ) अपने साथ कालयवन (काल) को भी लेकर आता है तब बचना आसान नहीँ है । जरासंध और कालयवन एक साथ आ धमके तो श्रीकृष्ण को मथुरा को छोड़कर द्वारिका जाना पड़ा ।
द्वारिका अर्थात् ब्रह्मविद्या । द्वारिका ब्रह्म धस्या सा ब्रह्मविद्या अर्थात् श्रीकृष्ण ने ब्रह्मविद्या का आश्रय लिया ।
मथुरा (मानव काया) छोड़कर ब्रह्मविद्या का आश्रय भगवान को भी लेना पड़ा । जब वृद्धावस्था अपने साथ काल को भी ले आये तब द्वारिका (ब्रह्म विद्या ) का आश्रय लेना चाहिए । ब्रह्मविद्या (द्वारिका) के द्वार काल और जरासंध के लिए खुल नहीँ सकते ।
जरासंध का त्रास अर्थात् जन्म मृत्यु का त्रास । जन्म लिया तो जरा और मृत्यु की व्यवस्था सहनी ही पड़ेगी ।
नरक क्या है ? शंकर स्वामी कहते है कि यह शरीर ही नरकवास है । जन्म धारण करना ही नरकवास है । किसी भी समय गर्भवास न करना पड़े ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।
भगवान की प्रेरणा के कारण कुछ महापुरुष भगवान के कार्यो के लिए जन्म लेते हैँ वह उत्तम है । वासना के बंधनोँ के कारण जन्म लेना नरकवास है . जरासंध और कालयवन के धक्के खाते हुए मथुरा (शरीर) छोड़ना की अपेक्षा समझ बूझकर छोड़ना अधिक अच्छा है । प्रवृत्ति हमेँ छोड़ सके इससे पहले हम ही उसे क्यो न छोड़ देँ ।
भगवान ने विश्वकर्मा को द्वारिका नगरी के निर्माण का आदेश दिया । कहते हैँ कि वहाँ के महल इतने बड़े थे कि लोँगो को द्वार ढूढ़ने पड़ते थे । द्वार कहाँ है ऐसा बार बार पूछा जाने के कारण ही इस नगरी का नाम द्वारिका पड़ा । का अर्थात ब्रह्म । उपनिषद के अनुसार "क" ब्रह्म सूचक है । जहाँ प्रत्येक द्वार पर परमात्मा का वास है वह नगरी द्वारिका है । जिस शरीर रुपी नगरी के इन्द्रियो रुपी द्वारो पर परमात्मा को स्थान दिया जायेगा तो जरासंध और कालयवन सता नहीँ पायेँगे । द्वारिका मेँ ये दोनो घुस नही सकते । प्रत्येक इन्द्रिय से भक्ति करने वाला जीव कालयवन पर विजय पाता है ।
यदि जरासंध पीछा करे तो प्रवर्षण पर निवास करना चाहिए । प्रवर्षण अर्थात् जहाँ ज्ञान और भक्ति की मूसलाधार वर्षा हो रही हो वह स्थान । जहाँ कथा श्रवण का लाभ मिले , भक्ति रस की धारा बहती रहे वहाँ चलना चाहिए ।
इक्यावन बावन वर्ष की वय होते ही गृहस्थाश्रम के लिए हम योग्य नही रह सकते ।
इक्या वन-बा वन अर्थात् वन मे प्रवेश का समय आ गया अब घर की आसक्ति त्याग करना है । विलासी लोगो के बीच विरक्त जीवन जीना आसान नहीँ है । जहाँ भक्ति और ज्ञान की सतत वर्षा हो रही हो वैसी पवित्र भूमि मे बसकर ही जरासंध से पीछा छुड़ा सकते हैँ ।।।
श्रीहरिशरणम् .....................

Tuesday, 23 February 2016

मानस से सत्संग पर प्रकाश

राधे राधे--
जीवन मे रुपया पैसा चाहे कितना भी आ जाए लेकिन रुपयो पैसो से ओर सोने चांदी से भगवान को बांध नही पाओगे---
भगवान सोने या चांदी की जंजीरो से नही बंधते बल्कि भगवान तो आंसुओ मे अर्थात् प्रेम मे बंध जाते है-- रीझत राम स्नेह निसोतें।-- (बालकाण्ड,रामचर
ितमानस)-- कथाओ से ही ह्रदय मे भाव जागृत होगा ,,प्रभु को पाने की प्यास बढेगी ओर प्यास बिहारी जी को खींच लायेगी ईसलिए जीवन मे हमेशा कथारस का पान करते रहना चाहिये-- जीवन मे अगर भगवान के प्रति शरणागति नही है,,जीवन मे अगर भक्ति नही है तो जीवन अशांत ओर तनावपुर्ण बना रहता है लेकिन जब जीवन मे हरि कृपा ओर गुरु कृपा से भक्ति का प्राकट्य होता है तो हर क्षण मनुष्य उत्साह से ओर आनंद मे डुबा रहता है--
*नित्य उत्सवा:* गोकुल मे नित्य उत्सव होते थे --
जब जीवन मे बांके बिहारी भक्ति रुप बनकर प्रकट होते है तो भक्त के ह्रदय मे भी नित्य भाव प्रकट होते रहते है-- भक्त भक्ति की मस्ती मे,,उत्साह मे निरंतर डुबे रहते है ओर भगवान की प्राप्ति की कामना तीव्र जागने पर भक्तो को भगवान की प्राप्ति भी होती है--मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा,उत्तरकाण्ड,(­­रामचरितमानस)--- ईसलिए अपने जीवन का मंथन करते रहो ओर देखना चाहिये की जीवन मे कहां कमी है --
आखिर मनुष्य अपने जीवन मे ईतना तनाव मे ओर अशांत क्यो रहता है?? ईन सबका मुल कारण अज्ञानता है--
मनुष्य संसार के प्रति ईतना ज्यादा आसक्त है की अपने जीवन के मोल को भुला बैठता है,-मनुष्य ईतना ज्यादा व्यस्त हो गया है की उसके पास कथाओ का रसपान करने के लिए भी समय नही है-- ओर यही कारण है की मनुष्य परेशान रहता है---
दूनिया के लिए तो मनुष्य के पास समय होता है लेकिन भगवान के लिए समय नही है--
जिसने ईतना सुंदर मानव जीवन दिया ,जो हरपल मनुष्य के साथ है उस भगवान के प्रति मनुष्य आसक्ति नही रखता ओर जो संसार कभी किसी का नही हुआ उस संसार के प्रति मनुष्य आसक्त है ओर यही कारण है की आज समाज मे ईंसान के चेहरे पर उदासी है -- ईसलिए शास्त्र बार-बार कहते है की प्रभु ने जो जिम्मेदारियां सौंपी है उनको तो मोहरहित होकर अवश्य निभाओ लेकिन भगवान के नाम ,गुण,कथाओ मे गहरी आसक्ति रखो---
भगवान के प्रेम मे जब जीवन रंग जायेगा तो जीवन आनंद से भर जायेगा ओर प्रभु की प्राप्ति होगी---- ये जीवन अशांत रहने के लिए ओर तनाव मे रहने के लिए नही मिला--
भगवान कभी नही चाहते की मानव अशांत रहे --
लेकिन मनुष्य अपने अहंकार ओर घमण्ड मे रहते हुए भगवान से विमुख होकर संसार मे आसक्त हो जाता है ईसलिए ईंसान दुखी रहता है--
सुख आने पर अहंकार मे चलता है ओर दुख आने पर रोने लगता है लेकिन जो भगवान मे आसक्ति रखते है उनपर सुख दुख का कोई प्रभाव नही पडता--
★ राम भक्ति मनि उर बस जाकें--
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें--(उत्तरकाण्ड ,रामचरितमानस)★
जब भगवान की कृपा से जीवन मे भक्ति जागृत होती है तो भक्त भक्ति के उत्साह मे निरंतर डुबे रहते है,,-
भगवान से विमुख होकर कोई भी जीव आनंद प्राप्त नही कर सकता--
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई--(उत्तरकाण्
ड,रामचरितमानस)---
अर्थात् भले ही बर्फ से अग्नि भी प्रकट क्यों ना हो जाए लेकिन भगवान से विमुख होकर जीव सुखी नही रह सकता----
भक्ति सुतंत्र सकल सुखखानि,,बिनु सत्संग न पावहि प्रानी-- ईसलिए कथारस का पान हमेशा करते रहना चाहिये-- तुलसीदास जी लिखते है की अगर जीवन मे उजाला चाहते हो तो मुख रुपि द्वार की जीभ रुपि देहली पर भगवान के नाम रुपि मणि-दीपक को रखो-- भगवान के नाम ओर कथाओ मे आसक्ति रखो--* राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर-----
★यन्नामकीर्तनं भक्त्या विलापनमनुत्तमम्। मैत्रेयाशेषपापानां धातूमिव पावकः----- 'जैसे अग्नि सुवर्ण आदि धातुओं के मल को नष्ट कर देती है, ऐसे ही भगवान का कीर्तन सब पापों के नाश का अत्युत्तम साधन है---
---- मनुष्य जिन भोगो मे आसक्ति रखकर उनको भोगता है उन भोगो की आसक्ति के कारण ही मनुष्य के जन्म जन्मांतर बर्बाद हो जाते है ओर मनुष्य को वास्तविक सुख नही मिल पाता,--*भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता* ईसलिए शास्त्र कहते है की आसक्ति सबसे बुरी होती है-- आसक्ति अगर भोगो मे होगी तो जीवन बर्बाद हो जाएगा ओर अगर आसक्ति भगवान से हो जायेगी तो जीवन सफल हो जायेगा---
भोगो को भोगना गलत नही है लेकिन निरासक्त होकर भोगना चाहिये--
जैसे जब भुख लगती है तो भोजन करना पडता है --
भोगो को भोगने के लिए शास्त्र मना नही करता--
शास्त्र कहते है की भोगो मे आसक्ति नही रखनी चाहिये ---
आसक्ति- मोह सिर्फ भगवान के नाम गुण कथाओ मे रखनी चाहिये-
जीवन मे वास्तविक सुख तो केवल भगवान के नाम,गुण ओर कथाओ से आसक्ति रखने से मिलेगा,--- बांके बिहारी अपने भक्त से ईतना ज्यादा प्रेम करते है की दूनिया साथ छोड जायेगी लेकिन बांके बिहारी अपने भक्त का साथ कभी नही छोडते-- परिक्षित के जीवन को भी भगवान ने सुधारा ओर मृत्यु को भी सुधारा---
हर भक्त की भगवान रक्षा करते है- जब कोई व्यक्ति भक्तिमार्ग पर चलता है तो दूनिया उसे पीछे हटाने का प्रयास करती है लेकिन सच्चा साधक ,सच्चा प्रेमी तो वो है जो किसी के बहकावे मे नही आता--
दूनिया चाहे लाख कोशिश करे लेकिन भक्तिमार्ग से पीछे नही हटना चाहिये-- सत्यमेव जयते--
जो सत्य मार्ग पर चलेगा वही प्रभु को पायेगा ईसलिए निडर होकर ओर पुर्ण श्रद्धा विश्वास ओर लगन के साथ भक्तिमार्ग पर चलते रहना चाहिये--मीरा कहती है-
या बदनामी लागे मीठी राणाजी ! म्हाँने या बदनामी लागे मीठी--भगवान कहते हैं-
वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ।।
'मेरा नाम-गुण-कीर्तन करते समय जिसका गला भर आता है, हृदय द्रवित हो जाता है, जो बार-बार मेरे प्रेममें आंसु ढालता है, कभी हँसने लगता है, कभी लाज-शर्म छोड़कर उच्च स्वरसे गाने और नाचने लगता है, ऐसा मेरा भक्त समस्त संसार को पवित्र कर देता है----ईसलिए पीबत भागवत रसमालयं--कथाओ को ह्रदय मे उतार लेना बहुत आवश्यक है-- कथाओ का रस पान करने पर ही जीवन मे भक्ति जागृत होती है।।

जय जय श्री राधे