Thursday, 28 December 2017

ब्रह्माण्ड के स्वामी को भस्म सर्वाधिक प्रिय क्यों ? हमें भस्म क्यों धारण करनी चाहिए ?

ब्रह्माण्ड के स्वामी को भस्म सर्वाधिक प्रिय क्यों ? हमें भस्म क्यों धारण करनी चाहिए ? ........
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(यह लेख थोड़ा लंबा है जो पूरा पढ़कर ही समझ में आयेगा)
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एक बार जब भगवान शिव समाधिस्थ थे तब मनोभव (मन में उत्पन्न होने वाला) मतिहीन कंदर्प (कामदेव) ने अन्य देवताओं के उकसाने पर सर्वव्यापी भगवान शिव पर कामवाण चलाया | भगवान शिव ने जब उस मनोज (कामदेव) पर दृष्टिपात किया तब कामदेव भगवान शिव की योगाग्नि से भस्म हो गया | कामदेव के बिना तो सृष्टि का विस्तार हो नहीं सकता अतः उसकी पत्नी रति बहुत विलाप करने लगी जिससे द्रवित होकर आशुतोष भगवान शिव ने मनोमय (कामदेव) की भस्म का अपनी देह पर लेप कर लिया, जिस से कामदेव जीवित हो उठा |
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भगवती माँ छिन्नमस्ता, कामदेव और उसकी पत्नी रति को भूमि पर पटक कर उनकी देह पर पर नृत्य करती हैं | फिर वे अपने ही हाथों से अपनी स्वयं की गर्दन काट लेती हैं | उनके धड़ से रक्त की तीन धाराएँ निकलती हैं जिनमें से मध्य की रक्तधारा का पान वे स्वयं करती हैं, और अन्य दो धाराओं का पान उनके दोनों ओर खड़ी वर्णिनी और डाकिनी करती हैं |
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(उपरोक्त दोनों का आध्यात्मिक अर्थ बहुत गहन है जिसे किसी सुपात्र को समझाने के लिए समय व बहुत धैर्य चाहिए | यहाँ फेसबुक पर यह बताना संभव नहीं है|)
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तपस्वी साधू लोग ठंडी और गर्मी से बचाव के लिए भस्म लेपन करते हैं | त्याग तपस्या और वैराग्य का प्रतीक यह भस्म स्नान रुद्रयामल तंत्र के अनुसार अग्नि-स्नान है जो भगवन शिव को सर्वाधिक प्रिय है | शैवागम के वर्णोद्धार तंत्र के अनुसार भस्म का "भ"कार स्वयं परमकुण्डलिनी  है जो महामोक्षदायक और सर्व शक्तियों से युक्त है | स्म क्रियास्वरूप भूतकाल है |
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आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य की नाड़ी "उत्तरा सुषुम्ना" है जिस में प्रवेश कर कुंडलिनी, परमकुंडलिनी हो जाती है | योगमार्ग के साधक को अपनी चेतना निरंतर इसी उत्तरा सुषुम्ना में रखनी चाहिए और सहस्त्रार जो गुरुचरणों का प्रतीक है, पर ध्यान करना चाहिए| योगी के लिए आज्ञाचक्र ही उसका ह्रदय है | सहस्त्रार में स्थिति के पश्चात ही अन्य लोक भी दिखाई देने लगते हैं और अनेक सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं |
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ब्रह्माण्ड के स्वामी को भस्म सर्वाधिक प्रिय क्यों है ? यह योगाग्नि में जलकर भस्म हो कर परम पवित्र होने का  सन्देश है | मृत्यु के पश्चात् देह को जलाने से सब कुछ नष्ट नहीं होता, भस्म शेष रह जाती है, जो हमारी नश्वर शाश्वत आत्मा की प्रतीक है | यह भस्म प्रदर्शित करती है कि संसार में सब कुछ नश्वर है, केवल भस्म अर्थात् आत्मा ही अमर, अजर और अविनाशी है | अतएव, भस्म (आत्मा) ही सत्य है और शेष सब मिथ्या | भगवान शिव देह पर भस्म धारण करते हैं क्योंकि उन के लिए एक आत्मा को छोड़कर संसार के अन्य सब पदार्थ निरर्थक हैं | यह भस्म ही हमें यह याद दिलाती है कि हमारा जीवन क्षणिक है | भगवान शिव पर भस्म चढ़ाना एवं भस्म का त्रिपुंड लगाना कोटि महायज्ञ करने के सामान होता है | भगवन शिव अपनी भक्त-वत्सलता प्रकट करते हैं अपने भक्तों के चिताभस्म को अपने श्रीअंग का भूषण बनाकर |
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कुछ शैव सम्प्रदायों के साधुओं के अखाड़ों में विभूति-नारायण की पूजा होती है | विभूति-नारायण ..... अखाड़े के गुरुओं की देह से उतरी हुई भस्म का गोला ही होता है, जिसे वेदी पर रखकर पूजा जाता है|  कुछ वैष्णव सम्प्रदायों के वैरागी साधू भी देह पर भस्म ही लगा कर रखते हैं |
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"सोइ जानइ जेहि देहु जनाइ" भगवान जिसको कृपा कर के अपना ज्ञान देते है वो ही उन्हें जान सकता है | बाकी तो .... धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां .... वाली बात है | समस्त सृष्टि भगवान शिव का एक संकल्प मात्र यानि उनके मन का एक विचार ही है | भौतिक पदार्थों के अस्तित्व के पीछे एक ऊर्जा है, उस ऊर्जा के पीछे एक चैतन्य है, और वह परम चैतन्य ही भगवन शिव हैं | उनका न कोई आदि है और ना कोई अंत | सब कुछ उन्हीं में घटित हो रहा है और सब कुछ वे ही हैं | जीव की अंतिम परिणिति शिव है | प्रत्येक जीव का अंततः शिव बनना निश्चित है | उन्हें समझने के लिए जीव को स्वयं शिव होना पड़ता है | वे हम सब को ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दें !
शिवमस्तु ! ॐ शिव ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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कृपा शंकर
३१ मई २०१३

Monday, 18 December 2017

भगवदीय नयन

जो भगवदीय होते है, केवल उनके कंठ मे ही अमृत होता है। जब वे भगवदीय भगवद् लीला का वर्णन करते है तब वह कथामृत उनके मुख से निकलता है। और जो इस कथामृत को आदर पूर्वक पान करते है केवल वे ही भगवान को प्राप्त करते है।"

इस तरह श्री हरिरायजी आज्ञा करते है की भगवदीय वही है जो (१) श्री आचार्यजी के श्री चरणों का दृड़ आश्रय रखता हो, (२) श्री ठाकोरजी की सेवा द्वारा संतुष्ट रहता हो और अन्य किसी देव का भजन स्वप्न मे भी न जानता हो, (३) अन्य किसी की अपेक्षा न करता हो, (४) काम लोभ मोह मत्सर आदि से रहित हो और द्रव्य का भी लोभ न हो, (५) निरपेक्ष भाव से प्रभु के सेवा करता हो, (६) मन से विरकत रहे - वैराग्य पूर्वक रहे, (७) प्राणी मात्र पे दया भाव रखता हो, (८) किसी की इर्षा न करता हो, और (९) भगवद् कथा आदर पूर्वक श्रवण करता हो।

जिसमे यह सारे गुण - यह नव प्रकार के लक्षण देखने मिले उनका संग करना, शुद्ध मन से सन्मान करना और उनके वचनो पर दृड़ विश्वास रखना। इस प्रकार श्री महाप्रभुजी प्रसन्न हो कर वैष्णवो को आनंद का दान करते है।
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श्री ठाकुरजी की अतिशय कृपा से हमें यह मनुष्य शरीर मिला है। उसमे सभी अंग का अपना महत्व है। लेकिन आँखो का अपना अलग महत्व है। इसके बिना जग अँधेरा है। हम ठाकुरजी के दर्शन भी नहीं कर सकते है।आँखों के चार अंग है ।पलके, पुतली, आँसू और बरौनी।जब हम प्रभु के दर्शन करते है उस समय यह चारौ अपने भाव व्यक्त करते है।"पलकें कहे मूँद ले मोहन को अँखियाँमें, कहे मोहे निहारन दे।''पुतली कहे हट जा सामने से,निज जीवन मोहे सँवारन दे।,आँसू कहे, नंदलाल निहार लिए तुमने, अब पायँ पखारन दे।धर धीरज बोल उठी बरनी, पग नीरजकी रज झारन दे मोहे।वाह,,,,क्या भाव है चारोंका,?
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।।श्री मदन मोहन प्रभु प्यारे की जय।।
।।श्रीमथुराधीश प्रभु प्यारे की जय।।
।।श्री नवनीत प्रिय प्रभु प्यारे की जय।।
।।श्रीगोवर्धननाथ प्रभु प्यारे की जय।।
।।जय गोकुल के चंद की।।
।।श्यामसुंदर श्री यमुना महाराणी की जय।।
।।श्री वल्लभाधीश की जय।।
।।श्री गुंसाईजीपरमदयाल की जय।।
।।श्री वल्लभकुल परिवार की जय।।
।।वल्लभना व्हाला सर्वे वैष्णवने भगवद्स्मरण।।
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Saturday, 9 December 2017

सन्ध 10 अध्याय 2 श्लोक 30 से 32

परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन! आपके भक्तजन सारे जगत के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं। वे स्वयं तो इस भयंकर और कष्ट से पार करने योग्य संसार सागर को पार कर ही जाते हैं, किन्तु औरों के कल्याण के लिए भी वे यहाँ आपके चरण-कमलों की नौका स्थापित कर जाते हैं। वास्तव में सत्पुरुषों पर आपकी महान कृपा है। उनके लिये आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं। कमलनयन! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभाव से रहित होने के कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपने को झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं। वास्तव में तो वे बद्ध ही हैं। वे यदि बड़ी तपस्या और साधना का कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पद पर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। परन्तु भगवन! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणों में अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियों की भाँति अपने साधन मार्ग से गिरते नहीं। प्रभो! वे बड़े-बड़े विघ्न डालने वालों की सेना के सरदारों के सर पर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं।

Tuesday, 5 December 2017

देवकी के मृतवत्सा होने का कारण

> जय श्रीकृष्ण<<<
.,.... देवकी के मृतवत्सा होने का कारण ....
1,. एक बार महर्षि कश्यप यज्ञ कार्य हेतु वरुणदेव की गाय ले आये । यज्ञ कार्य की समाप्ति के बाद वरुणदेव के बहुत याचना करने पर भी उन्होँने उत्तम धेनु वापस नहीँ दी ।
तब उदास मन वाले वरुणदेव ने कश्यप को शाप दे दिया कि
..,...... मानव योनि मेँ जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोँनो भार्याएँ भी मानव योनि मे उत्पन्न होकर अत्यन्त दुःखी रहेँ । मेरी गाय के बछडे माता से वियुक्त होकर अति दुःखित हैँ और रो रहेँ है , अतएव पृथ्वीलोक मेँ जन्म लेने पर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी तथा कारागर मे रहकर कष्ट भोगना पडेगा ।
2,,.. दक्षप्रजापति की दो पुत्रियाँ दिति एवं अदिति कश्यप मुनि की पत्नियाँ थी ।
अदिति के तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए । तब दिति ने भी महर्षि से तेजस्वी पुत्र की याचना की ..
.,.. तब महर्षि की आज्ञानुसार पयोव्रत नामक उत्तम व्रत करते हुए भूमि शयनादि नियमोँ का पालन करते हुए दुर्बल एवं कृशकाय हो गयी तब इन्द्र अपनी माता के कहने पर दिति की सेवा करते हुए छलपूर्वक उनके गर्भ को सात टुकडो मे काट दिया जब वे गर्भस्थ शिशु रोने लगे तो इन्द्र ने कहा "मा रुद" और पुनः सातो के सात सात टुकडे कर दिये जो 49 मरुत् कहलाए .,...
........ इससे दुःखी होकर दिति ने भी अदिति को शाप दे दिया ..... इन्द्र का राज्य शीघ्र नष्ट हो जाय ....
..... जिस प्रकार पापिनि अदिति ने गुप्त पाप द्वारा मेरा गर्भ गिराया है उसी प्रकार इसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँ ...,
अट्ठाईसवेँ द्वापरयुग मेँ उन्ही शापो के कारण कश्यप वसुदेव ,अदिति देवकी एवं दिति रोहिणी हुईँ ..

Tuesday, 28 November 2017

चूड़ामणि रहस्य , रामायण

।।जय जय श्री राम ।।।

रहस्यमई “चूडामणि” का अदभुत रहस्य “

आज हम रामायण में वर्णित चूडामणि की कथा बता रहे है। इस कथा में आप जानेंगे की-

१–कहाँ से आई चूडा मणि ?
२–किसने दी सीता जी को चूडामणि ?
३–क्यों दिया लंका में हनुमानजी को सीता जी ने चूडामणि ?
४–कैसे हुआ वैष्णो माता का जन्म?

चौ.-मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा।।

चौ–चूडामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ।।

चूडामणि कहाँ से आई?

सागर मंथन से चौदह रत्न निकले, उसी समय सागर से दो देवियों का जन्म हुआ –
१– रत्नाकर नन्दिनी
२– महालक्ष्मी
रत्नाकर नन्दिनी ने अपना तन मन श्री हरि ( विष्णु जी ) को देखते ही समर्पित कर दिया ! जब उनसे मिलने के लिए आगे बढीं तो सागर ने अपनी पुत्री को विश्वकर्मा द्वारा निर्मित दिव्य रत्न जटित चूडा मणि प्रदान की ( जो सुर पूजित मणि से बनी) थी।

इतने में महालक्षमी का प्रादुर्भाव हो गया और लक्षमी जी ने विष्णु जी को देखा और मनही मन वरण कर लिया यह देखकर रत्नाकर नन्दिनी मन ही मन अकुलाकर रह गईं सब के मन की बात जानने वाले श्रीहरि रत्नाकर नन्दिनी के पास पहुँचे और धीरे से बोले ,मैं तुम्हारा भाव जानता हूँ, पृथ्वी को भार- निवृत करने के लिए जब – जब मैं अवतार ग्रहण करूँगा , तब-तब तुम मेरी संहारिणी शक्ति के रूपमे धरती पे अवतार लोगी , सम्पूर्ण रूप से तुम्हे कलियुग मे श्री कल्कि रूप में अंगीकार करूँगा अभी सतयुग है तुम त्रेता , द्वापर में, त्रिकूट शिखरपर, वैष्णवी नाम से अपने अर्चकों की मनोकामना की पूर्ति करती हुई तपस्या करो।

तपस्या के लिए बिदा होते हुए रत्नाकर नन्दिनी ने अपने केश पास से चूडामणि निकाल कर निशानी के तौर पर श्री विष्णु जी को दे दिया वहीं पर साथ में इन्द्र देव खडे थे , इन्द्र चूडा मणि पाने के लिए लालायित हो गये, विष्णु जी ने वो चूडा मणि इन्द्र देव को दे दिया , इन्द्र देव ने उसे इन्द्राणी के जूडे में स्थापित कर दिया।

शम्बरासुर नाम का एक असुर हुआ जिसने स्वर्ग पर चढाई कर दी इन्द्र और सारे देवता युद्ध में उससे हार के छुप गये कुछ दिन बाद इन्द्र देव अयोध्या राजा दशरथ के पास पहुँचे सहायता पाने के लिए इन्द्र की ओर से राजा दशरथ कैकेई के साथ शम्बरासुर से युद्ध करने के लिए स्वर्ग आये और युद्ध में शम्बरासुर दशरथ के हाथों मारा गया।

युद्ध जीतने की खुशी में इन्द्र देव तथा इन्द्राणी ने दशरथ तथा कैकेई का भव्य स्वागत किया और उपहार भेंट किये। इन्द्र देव ने दशरथ जी को ” स्वर्ग गंगा मन्दाकिनी के दिव्य हंसों के चार पंख प्रदान किये। इन्द्राणी ने कैकेई को वही दिव्य चूडामणि भेंट की और वरदान दिया जिस नारी के केशपास में ये चूडामणि रहेगी उसका सौभाग्य अक्षत–अक्षय तथा अखन्ड रहेगा , और जिस राज्य में वो नारी रहे गी उस राज्य को कोई भी शत्रु पराजित नही कर पायेगा।

उपहार प्राप्त कर राजा दशरथ और कैकेई अयोध्या वापस आ गये। रानी सुमित्रा के अदभुत प्रेम को देख कर कैकेई ने वह चूडामणि सुमित्रा को भेंट कर दिया। इस चूडामणि की समानता विश्वभर के किसी भी आभूषण से नही हो सकती।

जब श्री राम जी का व्याह माता सीता के साथ सम्पन्न हुआ । सीता जी को व्याह कर श्री राम जी अयोध्या धाम आये सारे रीति- रिवाज सम्पन्न हुए। तीनों माताओं ने मुह दिखाई की प्रथा निभाई।

सर्व प्रथम रानी सुमित्रा ने मुँहदिखाई में सीता जी को वही चूडामणि प्रदान कर दी। कैकेई ने सीता जी को मुँह दिखाई में कनक भवन प्रदान किया। अंत में कौशिल्या जी ने सीता जी को मुँह दिखाई में प्रभु श्री राम जी का हाथ सीता जी के हाथ में सौंप दिया। संसार में इससे बडी मुँह दिखाई और क्या होगी। जनक जीने सीता जी का हाथ राम को सौंपा और कौशिल्या जीने राम का हाथ सीता जी को सौंप दिया।

राम की महिमा राम ही जाने हम जैसे तुक्ष दीन हीन अग्यानी व्यक्ति कौशिल्या की सीता राम के प्रति ममता का बखान नही कर सकते।

सीताहरण के पश्चात माता का पता लगाने के लिए जब हनुमान जी लंका पहुँचते हैं हनुमान जी की भेंट अशोक वाटिका में सीता जी से होती है। हनुमान जी ने प्रभु की दी हुई मुद्रिका सीतामाता को देते हैं और कहते हैं –

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा
जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा

चूडामणि उतारि तब दयऊ
हरष समेत पवन सुत लयऊ

सीता जी ने वही चूडा मणि उतार कर हनुमान जी को दे दिया , यह सोंच कर यदि मेरे साथ ये चूडामणि रहेगी तो रावण का बिनाश होना सम्भव नही है। हनुमान जी लंका से वापस आकर वो चूडामणि भगवान श्री राम को दे कर माताजी के वियोग का हाल बताया।

Saturday, 28 October 2017

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

-> धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे <-
...... यह शरीर ही क्षेत्र है , जहाँ धर्म और अधर्म का युद्ध होता है । प्रत्येक के मन मे और घर मेँ महाभारत चल रहा है ।
.... सदवृत्तियोँ एव असदवृत्तियो का युद्ध ही महाभारत है ...,
.., जीव धृतराष्ट्र है ( जिसकी आँख नही वह धृतराष्ट्र नही) जिसकी आँख मेँ काम है वह अन्धा धृतराष्ट्र है ।
.....  को अन्धः यो विषयानुरागी ....
,,, अर्थात् अन्धा कौन ?  जो विषयानुरागी है वह .....
...,दुःख रुप कौरव अनेक बार धर्म को मारने जाते हैँ ।   युधिष्ठिर और दुर्योधन रोज लडते है।  .... प्रभु भजन हेतु ठाकुर जी 4 बजे जगाते हैँ ...
....    धर्मराज कहते है उठो और सत्कर्म करो
....किन्तु दुर्योधन आकर कहता है कि  पिछले प्रहर की मीठी नीँद आ रही है । सबेरे उठने की क्या जरुरत है ?
  ...,  तू अभी आराम कर .., तेरा क्या बिगडता है ?
...  धर्म और अधर्म इसी तरह अनादिकाल से लडते आ रहे है ।
.,.. दुष्ट विचार रुपी दुर्योधन मनुष्य को उठने नहीँ देता ।
., निँद्रा और निँदा पर जो विजय प्राप्त कर लेता है वही भक्ति कर सकता है ...,
.,. दुर्योधन अधर्म है । युधिष्ठिर धर्म  का स्वरुप है ...
.,.....  धर्म धर्मराज की तरह  प्रभु के पास ले जाता है किन्तु अधर्म दुर्योधन की भाँति मनुष्य को संसार की ओर ले जाता है और इसका विनाश करता है ।
  धर्म ईश्वर की शरण मे जाय तो धर्म की विजय एवं अधर्म का विनाश होता है ।

नर

नर --> जो काम
क्रोधादि दुर्गुणोँ को
जीतकर भोगो मेँ
वैराग्यवान और
उपरत होकर
सच्चिदानन्दघन
परमात्मा को प्राप्त कर
ले वही सच्चा नर है । नर
शब्द ऐसे ही मनुष्य
का बाचक है आकार मे चाहे
वह स्त्री हो या पुरुष ।
अज्ञान से मोहित
जो मनुष्य आसक्तिवश
नाशवान रमणीय
विषयो के प्रलोभन मे
फँसकर
परमात्मा को भूलकर काम
क्रोधादि परायण होकर
पशुओ और
पिशाचो की भाँति आहार
निद्रा , मैथुन , और कलह मेँ
ही प्रवृत्त रहता है उसे
नर
नहीँ कहा जा सकता बल्कि
तो पशु से
भी गया बीता "साक्षात
पशुः पुच्छ विषाण हीनः "
बिना सीँग और पूछ
वाला अशोभन
निकम्मा और जगत के लिए
दुःखदायी एक जन्तु विशेष
है ।।

गोवर्धन लीला

गोवर्धन लीला ¤¤****
¤¤****¤¤****
गो का अर्थ है ज्ञान और भक्ति । ज्ञान और भक्ति को बृद्धिगत करने वाली लीला ही गोवर्धन लीला है । ज्ञान और भक्ति के बढ़ने से देहाध्यास नष्ट होता है जीव को रासलीला मेँ प्रवेश मिलता है ।।
ज्ञान और भक्ति को बढ़ाने हेतु क्या जाय ? घर छोड़ना पड़ेगा। गोप गोपियोँ ने घर छोड़कर गिरिराज पर वास किया था । हमारा घर भोगभूमि होने के कारण राग - द्वेष , अहंभाव - तिरस्कार , वासना आदि हमेँ घेरे रहते हैँ। घर मेँ विषमता होती है और पाप भी , भोग भूमि मेँ भक्ति कैसे बढ़ जायेगी । सात्विक भूमि मे ही भक्ति बढ़ सकती है ।
गृहस्थ का घर विविध वासनाओँ के सूक्ष्म परमाणु से भरा हुआ होता है । ऐसा वातावरण भक्ति मेँ बाधक है ऐसे वातावरण मेँ रहकर न तो भक्ति बढ़ाई जा सकती है और न ज्ञान । अतः एकाध मास किसी नीरव पवित्र स्थल पर जाकर , किसी पवित्र नदी के तट पर वास करके भक्ति और ज्ञान की आराधना श्रेयस्कर है ।
प्रवृत्ति छोड़ना तो अशक्य है किन्तु उसे कम करके निवृत्ति बढ़ायी जा सकती है ।
गो का अर्थ इन्द्रिय भी है । इन्द्रियोँ का संवर्धन त्याग से होता है , भोग से नहीँ । भोग से इन्द्रियाँ क्षीण होती हैँ । भोगमार्ग से हटाकर उन्हेँ भक्तिमार्ग मे लेँ जाना चाहिए । किन्तु उस समय इन्द्रादि देव वासना की बरसात कर देते हैँ । मनुष्य की भक्ति उनसे देखी नहीँ जाती । प्रवृत्तिमार्ग छोड़कर निवृत्ति की ओर बढ़ते समय विषय वासना की बरसात बाधा करने आ जाती है । इन्द्रियोँ का देव इन्द्र प्रभु भजन करने जा रहे जीव को सताता है । वह सोचता है कि उसके सिर पर पाँव रख कर उसको कुचल कर जीव आगे बढ़ जायेगा ।
अतः ध्यान , सत्कर्म , भक्ति आदि मेँ जीव की अपेक्षा देव अधिक बाधक हैँ । जीव सतत् ध्यान करे तो स्वर्ग के देवोँ से भी श्रेष्ठ हो जाता है । इसलिए जब भी इन्द्र भक्तिमार्ग मेँ विघ्न डाले तब गोवर्धन नाथ का आश्रय लेना चाहिए ।
गोवर्धन लीला मेँ पूज्य और पूजक एक हो जाते हैँ । जब तक पूज्य एवं पूजक एक न होँ तब तक आनन्द नहीँ आता । पूजा करने वाले श्रीकृष्ण ने गिरिराज पर आरोहण किया यह तो अद्वैत का प्रथम सोपान है , गोवर्धन लीला ज्ञान और भक्ति को बढ़ाती है। जब ईश्वर के व्यापक स्वरुप का अनुभव हो पाता है , तभी ज्ञान और भक्ति बढ़ती है । ईश्वर जगत मेँ व्याप्त है और सारा जगत ईश्वर मेँ समाहित है ।
वासना वेग को हटाने के लिए श्रीकृष्ण का आश्रय लेना चाहिए।
भगवान ने हाथ की सबसे छोटी उँगली पर गोवर्धन पर्वत धारण किया था यह उँगली सत्वगुण का प्रतीक है । इन्द्रियो की वासना वर्षा के समय सत्वगुण का आश्रय लेना चाहिए । दुःख मे विपत्ति मेँ मात्र प्रभू का आश्रय लेना चाहिए ।
भक्ताभिलाषी चरितानुसारी दुग्धादि चौर्येण यशोविसारी ।
कुमारतानन्दित घोषनारी मम प्रभूः श्री गिरिराजधारी ।।
वृन्दावने गोधनवृन्दचारा मम प्रभूः श्री गिरिराजधारी ।।
स्वान्तःसुखाय
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श्रीहरिशरणम
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ऊँ शब्द मेँ तीन अक्षर

तीन अक्षरोँ का महत्व >>>
ऊँ शब्द मेँ तीन अक्षर हैँ --
< ओ, उ तथा म् ।>
1 ." ओ " अक्षर के उच्चारण से ओज (शक्ति ) की वृद्धि होती है क्योँकि उच्चारण करते समय मूलबन्ध (गुदा मार्ग को सिकोड़ना ) लगता है . जिससे विर्य का उर्ध्वरेता (शक्ति के रुप मेँ परिवर्तन ) स्वयं होता रहता है । लंबे समय के अभ्यास से मूलाधार चक्र प्रवाहित होता है ।
2 . " उ " अक्षर के उच्चारण से उदर शक्ति का विकास , उड्डयान बंध के (पेट को अंदर सिकोड़ना ) के लगने से होता है , जिससे उदर( पेट) सम्बन्धी बीमारी धीरे धीरे स्वतः समाप्त हो जाते हैँ । कुछ समय अभ्यास से मणिपूरक चक्र प्रवाहित होता है ।
3 . " म् " अक्षर के उच्चारण से मस्तिष्क की शक्तियोँ का विकास होता है क्योँकि उस समय मस्तिष्क मेँ भौरे की गुनगुनाहट सुनायी देती है जिसे भ्रामरी प्राणायाम कहते है जिसके कारण मस्तिष्क मेँ एक विशेष प्रकार की तरंग (वेव्स) उत्पन्न होती है जिससे मस्तिष्क मेँ जमेँ विकार बाहर ही निकलते हैँ बल्कि शून्य पड़े अवयव(अंग) भी कार्य करने लगते हैँ । फलस्वरुप मस्तिष्क की स्मरण शक्ति बढ़ने लगती है ।'म' के उच्चारण से सहस्रार चक्र प्रभावित होता है ।
जब मूलाधार,मणिपूरकतथा सहस्रार चक्र "ऊँ" शब्द के कई बार के उच्चारण से एक साथ प्रवाहित होते हैँ तो कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जिससे उपरोक्त सभी उपलब्धियाँ स्वतः प्राप्त होने लगती हैँ ।

संसार में चार प्रकार के भक्त हैं --जिज्ञासु, आर्त, अथार्थी और ज्ञानी

संसार में चार प्रकार के भक्त हैं:---------
जिज्ञासु, आर्त, अथार्थी और ज्ञानी |
जिज्ञासु---- ब्रह्म की रचना एवं इसके संचालन के रहस्य को जाना कहते हैं | राम-नाम के अभ्यास से इनका आंतरिक विकास हो जाता है जिसके द्वारा इनको ब्रह्म के रहस्य की जानकारी हो जाती है | वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण जगत की जानकारी हासिल करके ब्रह्म के प्रपंच यानी माया के खेल को समझ लेते हैं | इस ज्ञान के कारण ये संसार से विरक्त हो जाते हैं और ब्रह्म से इनका अनुराग पैदा हो जाता है | वे संसार के बीच रहते हुए भी अनुपम सुख का अनुभव करते हैं |
आर्त---- वे हैं जो सांसारिक विपत्ति से पीड़ित या घबराकर राम- नाम के भजन में लगते हैं | उन पर भी परमात्मा की कृपा होती है और उनकी दुःख और पीड़ा ख़त्म हो जाती है |
अर्थार्थी------ वो हैं जो अपनी किसी मनोकामना पूर्ण करने के लिए प्रभु की भक्ति करते हैं | राम-नाम के अभ्यास से उनकी ,मनोकामना पूरी हो जाती है पर वो फिर भी चौरासी के कैदी ही रहते हैं | इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है | ये तो अंधे कुएं के सामान है, एक पूरी हो तो दस खडी हो जाती हैं |
ज्ञानी---- वो हैं जिनके अन्दर संसार की कोई कामना नहीं होती है | वे सच्चे परमार्थी ज्ञान की प्राप्ति करके मोक्ष पाना चाहते हैं | ऐसे भक्तजन भी राम-नाम के अभ्यास से गूढ़ परमार्थी ज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष की प्राप्ति कर लेते हैं | चारों प्रकार के भक्तों को राम-नाम के अभ्यास द्वारा मनवांछित फल प्राप्त हो जाता है |
तुलसीदास जी समझाते हैं कि इन सब भक्तों में ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष प्रिय होते हैं, क्योंकि उनके अन्दर कोई सांसारिक कामना नहीं होती | वे भक्ति द्वारा अपने परमपिता का ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं | इसी लिए प्रभु के प्यारे होते हैं | जो भक्त सभी सांसारिक कामनाओं को छोड़ कर केवल प्रेम और भक्ति के वश में होकर राम-नाम का अभ्यास करता है, उसका मछली रूपी मन मानों राम-नाम रूपी अमृत-कुंद में निवास करता है | आत्मा शरीर के आवरणों मन के बन्धनों से मुक्त होकर राम-नाम रूपी मानसरोवर में प्रवेश करती है |
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी | बिरती बिरंची प्रपंच बियोगी ||
ब्रह्मसुखहिं अनुभवहिं अनूपा | अकथ अनामय नाम न रूपा ||
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ | नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ ||
साधक नाम जपहिं लाएँ | होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ ||
जपहिं नाम जन आरत भारी | मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ||
राम भगत जग चारि प्रकारा | सुकृति चारिउ अनघ उतारा ||
चहु चतुर कहूँ नाम अधारा | ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ||
चहुँ जग चहुँ श्रुति नाम प्रभाउ | कलि बिसेषी नहीं आन उपाउ ||
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीं |
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्ह्हूँ किए मन मीन ||