Tuesday, 16 August 2016

रोग और कृपा

रोग और कृपा

टूटे फूटे खण्डहर में सूर्य का प्रकाश अधिक होता है । और सभी दीवारों के हट जाने पर प्रकाश ही शेष रह जाता है ।
देह से अभिन्नता और स्वयं को देह रूप की भावना , भौतिक सुखों हेतु है । देह की ममता , दैहिक सुख हेतु है । बाहरी रूप से आज दैहिक स्तर से कोई उठना नही चाहता , जीवन रहते देह से यह आसक्ति न टूटी तो आत्म स्वरूप को देह के न रहने पर मुक्त होकर भी मुक्ति अनुभूत नही होती । वह प्रेत आदि योनियों में चला जाता है , कारण देह से सम्बन्ध ।
साधक की साधना का समूल रस जब ही उदित होगा जब वह देह न रहे । दैहिक साधक दैहिक सुख ही चाहता है और फिर ऐसे साधक और असुर साधकों में क्या भेद हुआ ?
अपितु माँग और कठिन साधना दोनों ही स्तर पर असुर साधक वर्तमान साधको से बेहतर थे ।
देह मै नही हूँ , यह अनुभूति हो इसलिये रोग आते है । रोग वास्तविकता बता देते है आप कौन हो ? उस समय यह अनुभूत हो जावें हम देह नही तो रोग रसप्रदाता हो जावें । पुराने वस्त्र का गलना और फटना दोनों नए वस्त्र का आगमन है और नया वस्त्र भी गलेगा - फटेगा अतः आत्म स्वरूप अब और वस्त्र की अपेक्षा छोड़ दे ।
ईश्वर से नित्य सम्बन्ध है परन्तु देह की सिद्धि से दीवार बनी हुई है । देह तो मिली है सेवा हेतु , जगत रूप ईश्वर की सेवा हेतु । सेवा भोग को समूल मिटा सकती है , भोगी सेवक हो सकता है । जिसमें रस मिलता हो उसे रस दे सकता है । जगत देह को सुख भोग का साधन जान स्वयं को देह तक ही जानना और मानना चाहता है । अतः मृत्यु क्षण में वह ही मरते है जो सदैव देह ही बने रहे । जो वास्तविक स्वरूप हम है वह तो मरता भी नही । और वह अगर देह की भोग रूपी गोंद से छुट जावें तो अनुभूत होगा वह तो अनन्त की ऊर्जा का स्रोत है , देह उसकी अनिवार्यता नही है , वह देह से परे है हाँ जब तक देह है तब तक देह का सदुपयोग आवश्यक है । विचार कीजिए वास्तव में जो हम है वह तो सोता - जागता , खाता - पीता भी नही । उसकी क्या प्यास है , क्यों हमने देह रूपी वस्त्र ओढ़ लिया ,और कैसे हम वस्त्र ही रह गए । हम जो है वह जगत में होकर भी जगत का नही अतः उसे वस्तु स्पर्श होता ही नहीँ , हाँ हम वास्तव में जो है उसे वास्तविक मिलन की ही अबाध प्यास है ।
ईश्वर से अभिन्नता की भावना का विकास जगत और देह रूपी जड़ता को शीघ्रता से हरण कर लेता है ।
रोग भगवत् कृपा है , उन क्षणों में हमें हमारा स्वरूप दर्शन करना चाहिये । और देह की असमर्थता को गहनता से समझ समर्थ से नित्य सम्बन्ध को अनुभूत करना चाहिये ।
सिद्ध वह नही जो जगत में जगत की वस्तु से नही छुट सके , सिद्ध तो वह है जो तप रूपी ताप जीवन रहते अपने को सभी तरह से रसमय कर ईश्वर की भोग्य वस्तु हो जावें । कच्चा धान हम नही चबा सकते तो ईश्वर को भी पक कर रसमय हो अर्पित जो हो जावें वह सिद्ध है । देह रूपी अहंता , के आगे अन्य सभी अहंता को तर्जन करना साधना में अनिवार्य है । जापक जानते है तर्जनी को साधना हिस्सा नहीँ रखा जाता , वह अहम सूचक है । सत्यजीत तृषित ।

No comments:

Post a Comment