Wednesday, 10 August 2016

ब्रज भूमि

ब्रजभुमि
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योगेश्वर कृष्ण और जगत जननी राधिका जी की जनम स्थली और क्रीड़ा स्थली को ही लोक में ब्रजभूमि की संज्ञा दी गई है।

व्रज:- अर्थात 'व' से ब्रह्म और शेष रह गया 'रज' यानि यहाँ ब्रह्म ही रज के रुप में व्याप्त हैं।

स्कन्दपुराण में व्रज शब्द की सुन्दर परिभाषा दी गयी है :-
'गुणातीतं परं ब्रह्म व्यापकं ब्रज उच्यते।
सदानन्दं परं ज्योति मुक्तानां पदव्ययम्॥'

सत्त्व, रज, तम, इन तीनों गुणों से अतीत जो परब्रह्म हैं, वह विश्व के कण-कण में सर्वत्र व्याप्त हैं, इसलिए उसे ही ब्रज कहते हैं।

यह सच्चिदानन्द स्वरुप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है, जीवन्मुक्त परम रसिक ही इसमें निवास करते हैं।

'ब्रजन्ति गावः यस्मिन्नित्ति ब्रजः' अर्थात जहाँ गो, गोपाल, गोप और गोपियाँ विचरण करती हैं, उसे ब्रज कहते हैं।

नन्दबाबा अपनी गऊओं, बछड़ों, परिवार और परिकरों के साथ जिन-जिन स्थानों पर निवास करते थे, वह स्थान 'ब्रज' कहलाता है।

योगेश्वर कृष्ण और जगत जननी राधिका जी की जनम स्थली और क्रीड़ा स्थली को ही लोक में ब्रजभूमि की संज्ञा दी गई है, इसलिए यहाँ केवल प्रेम ही प्रेम बिखरा पड़ा है और उस प्रेम-समुद्र में उन्नत उज्जवल प्रणयरस सदा उच्छ्वलित होता रहता है।

ऐसा माना जाता है कि राधा-कृष्ण ब्रज में आज भी नित्य विराजते हैं और यहाँ पर उनकी परम रसमयी रास एवं अन्यान्य क्रीड़ाएँ, नित्यलीला सदैव गतिमान रहतीं हैं।
अतएव, उनके दर्शन के निमित्त भारत के समस्त तीर्थ यहाँ विराजमान हैं।

यही कारण है कि इस भूमि के दर्शन करने वाले को कोटि-कोटि तीर्थो का फल प्राप्त होता है।
यहाँ पर राधा-कृष्ण ने अनेकानेक चमत्कारिक लीलाएं की हैं, सभी लीलाएं यहाँ के पर्वतों, कुण्डों, वनों और यमुना तट आदि पर की गई हैं।

लगभग चौरासी कोस में फैली इस भूमि पर ही श्री कृष्ण ने यमुना किनारे अपने अनगिनत गोप सखाओं और दाऊ भैया के साथ गायें चराई थीं।

यहाँ पर ही श्री कृष्ण अपनी मधुर-मधुर बंशी बजाते हुए असंख्य गौओं के साथ सर्वत्र विचरण करते थे।

यहीं पर उन्होंने कहीं राक्षसों का नाश किया, कहीं यमुना के तट पर कालिया को नाथा।

कहीं कुञ्जों में छुपकर जगत जननी राधा जी का श्रृंगार किया और कहीं गोपियों के संग रास रचाया था।

यहीं पर कभी कन्हैया ने इन्द्र का मान भंग करने के लिए नख पर गिरिवर धारण किया था।

यहाँ के पनघट पर घट भरने के बहाने ब्रज बालाएँ अपने ह्रदय-घट में कृष्ण प्रेम रस भरने के लिए नित जाती थीं।

"पनघट जान दे री, पनघट जात हैं" सखि री, मुझे पनघट जाने दे, नहीं तो प्रियतम से मिलने का पन घट जायेगा।
इस पन की रक्षा के लिए घट लिए ब्रज बालाओं की पनघट पर भीड़ लग जाती थी।

इस रसीले स्थल पर प्रियतम की तिरच्छी रसीली चितवन से ब्रज-बालाएँ जब जल भरने के बहाने जल में गागर डुबोने लगती थी, उसी समय बज उठती थी रसिक शिरोमणि की रसीली बाँसुरी।

फिर ये ब्रज-बालाएँ घट भरकर ले आती थीं या खाली लौटाकर ले आती थीं, भला किसे यह सुध रहती थी?

कालिन्दी के कल-कल करते हुए तटों पर मधुर निकुञ्जों में, टेढ़ी-मेढ़ी संकरी रसीली बीथियों में इन रसीली छेड़-छाड़ से, राग-तकरार से, ऐंठ-उमेठ से, मधुर चितवन से, मधुर-मधुर बोलियों से जल केलि का रसास्वादन कर रसिक शेखर ब्रजेन्द्रनन्दन उत्तरोत्तर रस में विभोर हो जाते थे।

ब्रज की महिमा का भला कौन वर्णन कर सकता है?

इसी कारण यहाँ ब्रजराज कहलाए जाने वाले सर्वेश्वर प्रभु को गोप-ग्वालों और गोपिकाओं के साथ मनोहारी अद्भुत लीलाएँ करते देखकर स्वयं ब्रह्माजी को भी शंका उत्पन्न हुई थी कि यह कैसा भगवद् अवतार बताया जा रहा है।

अन्त में वे भी हार मानकर कहते हैं- 'अहो भाग्यम्! अहो भाग्यम्।

जय जय श्री राधे कृष्ण
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