Wednesday, 3 August 2016

साधन जगत के चार राज्य 1 भाई जी

साधन-जगत में प्रधानतया उत्तरोत्तर विलक्षण चार राज्य हैं -

कर्मराज्य
भावराज्य
ज्ञानराज्य
महान परम भावराज्य।
इस रस हेतु कृपया लेख पूरा पढियेगा ...
महान परम भावराज्य इसी के अनुसार साधकों के स्वरूप हैं, साध्य-स्वरूप हैं और दिव्य लोकादि हैं। कर्मप्रवण पुरुष कर्मराज्य में श्रौत-स्मार्त वैध कर्मों के द्वारा कर्म-साधन करते हैं। सकाम भाव होने पर वे स्वर्गादि पुनरावर्ती लोकों में जाते हैं और सर्वथा कामना रहित होने पर ‘नैष्कर्म्यसिद्धि’ को प्राप्त होते हैं। इनके तत्त्व ज्ञान की स्थिति में लोक की कल्पना नहीं है और कर्म तत्त्व की दृष्टि से सृजन-पालन-संहार करने वाले सर्वशक्तिमान सर्वनियन्ता ईश्वर के सांनिध्य में इनका कर्म जगत में कार्य चलता रहता है। इनमें कोई-कोई साधक सिद्धि प्राप्त करके ब्रह्मा के पद तक पहुँच जाते हैं और मूल परम तत्त्व के अंशावतार विभिन्न ब्रह्माण्डाधिपति सृजनकर्ता ब्रह्मा, पालन कर्ता विष्णु तथा संहार कर्ता रुद्रों में कहीं ‘ब्रह्मा’ का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं।

इससे उच्चतर या आगे ‘भावराज्य’ है, वहाँ कर्म के साथ केवल निष्काम भाव की प्रधानता न होकर ईश्वर-प्रीति साधक भक्ति की प्रधानता होती है। भावुक पुरुष इस भावराज्य के क्षेत्र में भाव साधना के द्वारा अपने भावानुरूप इष्टदेव परमैश्वर्य-सम्पन्न, स्वशक्तियुक्त भगवत्स्वरूपों के सांनिध्य और उनके दिव्य लोकों को प्राप्त करते हैं। इनकी साधना का फल दिव्य भगवल्लोकों की प्राप्ति है। ये भी सर्वथा मायामुक्त होते हैं।
इससे आगे ज्ञान राज्य है। इसमें विचार-प्रधान पुरुष साधन-चतुष्टयादि के द्वारा महावाक्यों का अनुसरण करके विशुद्ध आत्म स्वरूप में परिनिष्ठित होते हैं। इनके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता। ये ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं या ब्रह्मसायुज्य को प्राप्त करते हैं।
इससे आगे एक महाभावरूप ‘भगवद्भाव-राज्य’ है। भुक्ति-मुक्ति, कर्म-ज्ञान आदि की वासना से शून्य पुरुष ही इस परम ‘भावराज्य’ के अधिकारी होते हैं। उपर्युक्त तत्त्वज्ञानी मुक्त पुरुषों में भी किन्हीं-किन्हीं में ‘भगवत्प्रेमांकुर का उदय हो जाता है, जिससे वे दिव्य शरीर के द्वारा उपर्युक्त कर्म-भाव-ज्ञान-राज्य से अतीत भगवद्भाव-राज्य में प्रवेश करके प्रियतम भगवान के साथ लीला विहार करते हैं या उनकी लीला में सहायक-सेवक होकर उनके सुख में ही अपने भिन्न स्वरूप को विसर्जित कर नित्य सेवारत रहते हैं; परंतु भोग-मोक्ष की कामना-गन्ध-लेश से शून्य, सर्वात्मनिवेदनकारी महानुभावों का ही इसमें प्रवेश होता है; चाहे वे पवित्र त्यागमय प्रेमस्रोत में बहते हुए सीधे ही यहाँ पहुँच जायँ अथवा उपर्युक्त ज्ञान-राज्य में ज्ञान प्राप्त होने के अनन्तर किसी महान कारण से इस सर्वविलक्षण महाभाव रूप परम दुर्लभ राज्य में प्रवेश प्राप्त करें।
इस भावराज्य में नित्य-निरन्तर भाव मय सच्चिदानन्दघन दिव्य प्रेम रस-स्वरूप श्रीराधा-कृष्ण का भाव मय नित्य लीला-विहार होता रहता है। गोपी-प्रेम की उच्च स्थिति पर पहुँचे हुए गोपी हृदय महापुरुष तथा श्रीराधा की कायव्यूहरूपा नित्यसिद्धा तथा विविध साधनों द्वारा यहाँ तक पहुँची हुई अन्यान्य गोपांगनाओं का उनमें नित्य सेवा-सहयोग रहता है। इसी को ‘गो-लोक’ या ‘नित्य प्रेम धाम’ भी कहते हैं। यह ‘भावराज्य’ ज्ञानराज्य से आगे का या उससे उच्च स्तर पर स्थित है। प्रेमी महानुभावों ने तो भगवत्कृपा से, ‘स्वयं भगवान’ श्रीकृष्ण के द्वारा सखा-भक्त अर्जुन के प्रति उपदिष्ट गीता में भी इसके संकेत प्राप्त किये हैं। कुछ उदाहरण देखिये - तेरहवें अध्याय में भगवान ने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, ज्ञान-ज्ञेय के स्वरूप का वर्णन किया है। उसमें सर्वत्र व्याप्त सगुण निराकार तथा ज्ञानगम्य ब्रह्मस्वरूप का उपदेश करने के बाद वे कहते हैं—

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद् विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।
“इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान, ज्ञेय संक्षेप में कहे गये हें। इन क्षेत्र-ज्ञान-ज्ञेय को जानकर मेरा भक्त ‘मेरे भाव’ को प्राप्त होता है।”
चतुर्थ अध्याय में भगवान कहते हैं—

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।
“बहुत-से रोग-भय-क्रोध से रहित, ज्ञानरूप तप से पवित्र, मुझमें तन्मय, मेरे आश्रित पुरुष ‘मेरे भाव’ को प्राप्त हो चुके हैं।” अठारहवें अध्याय में स्पष्ट शब्दों में भगवान ने कहा है—

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्ति लभते पराम्।।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।
‘ब्रह्मभूत होकर प्रसन्नात्मा पुरुष न तो शोक करता है न आकांक्षा करता है अर्थात ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त होकर शोक-कामना से रहित प्रसन्नात्मा— आनन्दस्वरूप हो जाता है तथा सब भूतों में सम हो जाता है; तब वह मेरी पराभक्ति को प्राप्त करता है। उस भक्ति से यानी परा ज्ञाननिष्ठा से जैसा जो कुछ मैं हूँ, उस मुझको तत्त्व से जानकर तदनन्तर मुझमें प्रवेश कर जाता है।’ अभिप्राय यह कि ब्रह्मस्वरूप समदर्शी शोकाकांक्षारहित उच्च स्थिति पर पहुँच जाने पर भी भगवान के ‘यः यावान’ स्वरूप का ज्ञान और उस भावराज्य में प्रवेश शेष रह जाता है, जो पराभक्ति - प्रेमाभक्ति से ही सिद्ध होता है।
इस पराभक्ति से भगवान के जिस स्वरूप का ज्ञान होकर जिस भावराज्य की लीला में प्रवेश प्राप्त होता है, भगवान का वह स्वरूप भी अद्वय अक्षर ज्ञान तत्त्व ब्रह्म से (तत्त्वतः एक होने पर भी) असाधारण विलक्षण है। इसका भी संकेत गीता की भगवद्वाणी में स्पष्ट है—

मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद् यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।[1]
‘सहस्त्रों मनुष्यों में कोई एक सिद्धि के लिये – तत्त्व ज्ञान के लिये प्रयत्न करता है। उन यत्न करते हुए सिद्ध – सिद्धि प्राप्त पुरूषों में कोई एक मुझको तत्त्व से जानता है।’ यहाँ के ‘तत्त्वतः वेत्ति’ से उपर्युक्त ‘तत्त्वतः अभिजानाति’ का और यहाँ के ‘सिद्धि’से उपर्युक्त श्लोक के ‘ब्रह्मभूत’ का सर्वथा साम्य है। इससे सिद्ध होता है कि ज्ञान तत्त्व ब्रह्म की अपेक्षा ‘माम्’ शब्द के वाच्य भगवान विलक्षण हैं।
पंद्रहवें अध्याय में दो प्रकार के पुरुषों का वर्णन करते हुए भगवान अपने को ‘क्षर’ पुरुष से अतीत और ‘अक्षर’ पुरुष से उत्तम ‘पुरुषोत्तम’ बताते हैं और इस कथन को ‘गुह्यतम’ कहते हैं। ‘अक्षर’ क्या है, यह भगवान के शब्दों से ही स्पष्ट है - ‘अक्षरं ब्रह्म परमम्’[2] - परम ब्रह्म अक्षर है। इससे भी अत्यन्त स्पष्ट भगवान की उक्ति है—

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।[3]
‘अव्यय ब्रह्म, अमुत, नित्य धर्म और ऐकान्तिक सुख (- ये चारों ब्रह्म के वाचक हैं) की मैं ही प्रतिष्ठा हूँ।’
इससे सिद्ध है कि ज्ञान राज्य से यह महा ‘भावराज्य’ विलक्षण है और ज्ञान गम्य ज्ञानतत्त्व ‘ब्रह्म’ से भगवान श्रीकृष्ण विलक्षण हैं। क्रमश: ...

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