Thursday, 25 August 2016

जन्मोत्सव का लेख , तृषित

जयजय श्यामाश्याम ।  जन्मोत्सव की हार्दिक बधाई जी । आप सभी हरि प्रिय जनोँ से तृषावर्धन की आशा में एक तृषित जीव । उत्सव रस में बाधा न पड़े अतः किसी तरह की बात नही करने का ही मन होते हुए भी जन्मोत्सव को कुछ अनुभूत कर लेते है । उत्सव में होने पर इसे उत्सव उपरांत ही पढियेगा । भगवतोत्सव ही रस है , और वह अवश्य किसी भी जाल में फंसे जीव को भगवत् रस की ओर लालायित करता है , भगवत् धाम तो नित्य नव नव उत्सवों से ही सजे होते है । सत्-चित्-आनन्द का आनन्द तो नित्य है और वर्धनमान है ।
किसी भी वस्तु को प्रकट होने के लिये स्थल चाहिये । बीज भूमि की अपेक्षा करता है । "कृष्ण" में कृष भू वाचक है । कृषि - कृषक आदि शब्द हमने सुने ही है न । वही कृष् यहाँ ष् आधा है क्योंकि जिस भूमि की यहाँ बात हो रही है वह भूमि प्राकृत नही है अप्राकृत है , यह मेरा मानस भर है , ष् के आधे होने पर । मैं ज्ञान शून्य हूँ अतः व्याकरण से सम्भवतः यह सम्बंधित न हो । संस्कृत में मैंने अनुभूत किया जहाँ गुण कहते न बनते हो वहाँ शब्द आधा रह जाता है , अव्यक्त को कहते कहते भी वाणी अधीर होने से सदा गुण वाचक शब्दों में हलन्त हो ही जाता है , यह भाव पक्ष है , व्याकरण पक्ष नही ।
अतः कृष् भू वाचक है यह तो शास्त्र मत है ही । "ण" यहाँ निरतिशय अविरल अनन्त आनन्द का वाचक है । अतः कृष्ण नाम में कृष् यानी भूमि अधिक और आनन्द उसके उपरान्त एक अक्षरी ही है ।
भूमि क्या है ? -- सत्ता ।
सत्ता क्या है -- भाव ।
भाव क्या है -- अत्यधिक एकात्म होने से अभीष्ट के चित्रण की चित् की द्रविभूत अवस्था । (इसे विस्तार से कभी वाणी माध्यम से भगवत्कृपा से व्यक्त करने का प्रयास रहेगा) ।

अतः भाव उपरांत आनन्द । भाव की भूमि पर सदा रहने और बढ़ते रहने वाला आनन्द । अतः पहली आवश्यकता है आनन्द के लिये भूमि की , और वह है भाव ।
भाव क्या है ? -- प्रेम अवस्था , और इस प्रेम अवस्था का मूल सार रस स्वरूप क्या है ? वह है श्री श्यामा जु । किशोरी जु ।
यशोदा - यश: ददाति इति यशोदा । जो दूसरों को यश दे वह यशोदा है , इस स्वरूप से देने के लिये होना भी चाहिये जिसमें अपार यश वर्षा हो वही स्वरूपा यशोदा है । संसार में यश दिया नही जाता , लिया जाता है । यह पूर्ण ऐश्वर्यमयी अवस्था है । वृन्दावन की  बाला-बाला ऐश्वर्यमयी श्री लक्ष्मी स्वरूपा है , वही तो यश दे सकेंगी जिसमें हो ।

नन्द - जो सभी को आनन्द देते हो वह नन्द है । आनन्द देता कौन है ? आनन्द की ही तो सदा माँग रहती है , फूहड़ से फूहड़ पथ और गहन से गहन सभी और हमारी चेतना आनन्द की प्यास में भागती है । देता कौन है , फिर वहीँ बात , वहीँ देगा जो अपार राशि धारण किये हो । जिससे आनन्द सम्भालें न सम्भले ।
वाणी , विचार , सदाचार आदि से जो सबको आनन्द देवें वहीँ भगवान पधारते है । जो आनन्द देता है वह स्वयं परमानंद प्राप्त है ।
भगवान स्वयं ही आनन्द प्रदायक है अन्य कोई कैसे दे सकता है , अतः नन्द स्वरूप भी मधुर-रससार "आनन्द" राशि का सम्पूर्ण सार ही प्रकट है ।
भगवान से भिन्न कुछ कैसे हो सकता है । श्री कृष्ण जिस तरह की नव भावनाओं के स्रोत बन अवतरण लेना चाहते है उस हेतु भूमि और विकास भी वैसा ही चाहिये । अतः नन्द-यशोदा यह सब भगवत् स्वरूप ही है और ब्रज क्षेत्र तो ऐश्वर्य की पराकाष्ठ स्वरूप धाम वैकुण्ठ की माधुर्य लालसा की ओर उठा हुआ उससे ही विकसित माधुर्य क्षेत्र है । अतः वह जिस आवश्यकता में फलित होगा वह सब नारायणत्व और श्री के बीज से फलित होगा ।
श्री कृष्ण में चार माधुर्य अन्य नारायण स्वरूपों से भी विशेष है - वेणु माधुरी , प्रेम माधुरी , रूप माधुरी , लीला माधुरी ।
अतः जिन्हें ऐसे भगवत् स्वरूप की पिपासा हो वह यहाँ श्याम दर्शनातुर है ।
वसुदेव और देवकी माँ भी इसी तरह पूर्णत्व स्वरूप है , वह कश्यप-अदिति अवतार तो है ही । कश्यप-अदिति भी भगवान से भिन्न तो नही । अपितु भगवत् अवतरण होता कब है पूर्णतः निर्मल चित् में , जहाँ छिलका ही जीव रह जावे अंदर रस-माधुर्य-आनन्द रूप भगवान ही रह जावें । छिलकों के नाम से वहीँ स्वयं अवतरित होते है । मनुष्य से पशु का जन्म नही होता , पशु से मनुष्य का नही होता । जैसा भीतर रस है वहीँ प्रकट होगा । भगवान ही जब भीतर रह जावें बाहर छिलका कोई भी हो तब रस तत्व आनन्द सार श्री कृष्ण अवतरण लेते है । कहने को जन्मोत्सव है , है अवतरणोत्सव । भगवान जन्म नहीँ लेते अवतार लेते है , अति विशेष भाव रस निर्मल चित् भूमि से ।

प्राची (पूर्व) दिशा से ही पूर्णचन्द्र उदय होता है ।
बंदऊँ कौशल्या दिशि प्राची ।
प्राची रूपी कौशल्या माँ से पूर्णतम आनन्द श्री राम प्रकट हुए ।

और भागवत जी में --
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशिन्दुरिवपुष्कलः ।

देवरूपिणी देवकी (मनुष्य रूपिणी नहीं कहा गया , यह देवत्व पिपासा से प्राप्त निर्मलत्व ही है ) में आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र ऐसे प्रकट हुए जैसे प्राची दिशा से पूर्णचन्द्र ।

पूर्णचन्द्र को उदय हेतु पूर्ण प्राची दिशा चाहिये । पूर्णिमा के अतिरिक्त पूर्ण पूर्व दिशा से चन्द्र उदय नही होता है । पूर्ण चन्द्र उदय हो रहा है विशुद्ध पूर्व दिशा से और हमारा चित् है आज पाश्चात्य मय ।
प्राची सम्बोधन का अर्थ है , निर्मल- विशुद्ध-सत्वमय देवकी रुपए प्राची । ब्रह्म का पूर्ण प्रकाश ब्रह्माकार में समाये हुये परम् सत्वमयी मानसी वृत्ति पर ही पुर्णोत्तम पुरुषोत्तम का प्राकट्य होता है । सात्विकता की पराकाष्ठा से ही पूर्ण स्वरूप का दर्शन सम्भव है , और प्रेम पिपासा से वह अवस्था आज भी सुलभ है । देवकी माँ उसी सात्विकता की अधिष्ठात्री महाशक्ति देवरूपिणी श्री देवकी है और उनमें पूर्णतम तत्व का आनन्दघन श्री कृष्णचंद्ररूप में प्राकट्य हुआ है । ... सत्यजीत तृषित ।

Wednesday, 24 August 2016

नवधा भक्ति

प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्म निवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

रामचरितमानस में नवधा भक्ति

भगवान् श्रीराम जब भक्तिमती शबरीजी के आश्रम में आते हैं तो भावमयी शबरीजी उनका स्वागत करती हैं, उनके श्रीचरणों को पखारती हैं, उन्हें आसन पर बैठाती हैं और उन्हें रसभरे कन्द-मूल-फल लाकर अर्पित करती हैं। प्रभु बार-बार उन फलों के स्वाद की सराहना करते हुए आनन्दपूर्वक उनका आस्वादन करते हैं। इसके पश्चात् भगवान राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि-

नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं।।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।

गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान। 3/35

मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।

छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।

आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।

नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।। 3/35/1-5

Tuesday, 16 August 2016

रोग और कृपा

रोग और कृपा

टूटे फूटे खण्डहर में सूर्य का प्रकाश अधिक होता है । और सभी दीवारों के हट जाने पर प्रकाश ही शेष रह जाता है ।
देह से अभिन्नता और स्वयं को देह रूप की भावना , भौतिक सुखों हेतु है । देह की ममता , दैहिक सुख हेतु है । बाहरी रूप से आज दैहिक स्तर से कोई उठना नही चाहता , जीवन रहते देह से यह आसक्ति न टूटी तो आत्म स्वरूप को देह के न रहने पर मुक्त होकर भी मुक्ति अनुभूत नही होती । वह प्रेत आदि योनियों में चला जाता है , कारण देह से सम्बन्ध ।
साधक की साधना का समूल रस जब ही उदित होगा जब वह देह न रहे । दैहिक साधक दैहिक सुख ही चाहता है और फिर ऐसे साधक और असुर साधकों में क्या भेद हुआ ?
अपितु माँग और कठिन साधना दोनों ही स्तर पर असुर साधक वर्तमान साधको से बेहतर थे ।
देह मै नही हूँ , यह अनुभूति हो इसलिये रोग आते है । रोग वास्तविकता बता देते है आप कौन हो ? उस समय यह अनुभूत हो जावें हम देह नही तो रोग रसप्रदाता हो जावें । पुराने वस्त्र का गलना और फटना दोनों नए वस्त्र का आगमन है और नया वस्त्र भी गलेगा - फटेगा अतः आत्म स्वरूप अब और वस्त्र की अपेक्षा छोड़ दे ।
ईश्वर से नित्य सम्बन्ध है परन्तु देह की सिद्धि से दीवार बनी हुई है । देह तो मिली है सेवा हेतु , जगत रूप ईश्वर की सेवा हेतु । सेवा भोग को समूल मिटा सकती है , भोगी सेवक हो सकता है । जिसमें रस मिलता हो उसे रस दे सकता है । जगत देह को सुख भोग का साधन जान स्वयं को देह तक ही जानना और मानना चाहता है । अतः मृत्यु क्षण में वह ही मरते है जो सदैव देह ही बने रहे । जो वास्तविक स्वरूप हम है वह तो मरता भी नही । और वह अगर देह की भोग रूपी गोंद से छुट जावें तो अनुभूत होगा वह तो अनन्त की ऊर्जा का स्रोत है , देह उसकी अनिवार्यता नही है , वह देह से परे है हाँ जब तक देह है तब तक देह का सदुपयोग आवश्यक है । विचार कीजिए वास्तव में जो हम है वह तो सोता - जागता , खाता - पीता भी नही । उसकी क्या प्यास है , क्यों हमने देह रूपी वस्त्र ओढ़ लिया ,और कैसे हम वस्त्र ही रह गए । हम जो है वह जगत में होकर भी जगत का नही अतः उसे वस्तु स्पर्श होता ही नहीँ , हाँ हम वास्तव में जो है उसे वास्तविक मिलन की ही अबाध प्यास है ।
ईश्वर से अभिन्नता की भावना का विकास जगत और देह रूपी जड़ता को शीघ्रता से हरण कर लेता है ।
रोग भगवत् कृपा है , उन क्षणों में हमें हमारा स्वरूप दर्शन करना चाहिये । और देह की असमर्थता को गहनता से समझ समर्थ से नित्य सम्बन्ध को अनुभूत करना चाहिये ।
सिद्ध वह नही जो जगत में जगत की वस्तु से नही छुट सके , सिद्ध तो वह है जो तप रूपी ताप जीवन रहते अपने को सभी तरह से रसमय कर ईश्वर की भोग्य वस्तु हो जावें । कच्चा धान हम नही चबा सकते तो ईश्वर को भी पक कर रसमय हो अर्पित जो हो जावें वह सिद्ध है । देह रूपी अहंता , के आगे अन्य सभी अहंता को तर्जन करना साधना में अनिवार्य है । जापक जानते है तर्जनी को साधना हिस्सा नहीँ रखा जाता , वह अहम सूचक है । सत्यजीत तृषित ।

योग और भोग

🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿

*एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों और ज्योतिष प्रेमियों की सभा बुलाकर प्रश्न किया कि*

*"मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार* *मेरा राजा बनने का योग था मैं* *राजा बना , किन्तु उसी घड़ी*
*मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ?*

*इसका क्या कारण है ?*

     *राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर हो गये.*

*क्या जबाब दें कि एक ही घड़ी* *मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके भाग्य अलग अलग क्यों हैं!*
*सब सोच में पड़ गये ।*

*अचानक एक वृद्ध खड़े हुये और बोले महाराज की जय हो !*

*आपके प्रश्न का उत्तर भला कौन दे सकता है ,आप यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में यदि जाएँ* *तो वहां पर आपको एक महात्मा*
*मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल*
*सकता है । राजा की जिज्ञासा बढ़ी और घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर केपास बैठ कर अंगार*
*(गरमा गरम कोयला ) खाने में*
*व्यस्त हैं , सहमे हुए राजा ने*
*महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा*
*महात्मा ने क्रोधित होकर कहा*
*"तेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए*
*मेरे पास समय नहीं है मैं भूख से*
*पीड़ित हूँ ।तेरे प्रश्न का उत्तर*
*यहां से कुछ आगे पहाड़ियों के*
*बीच एक और महात्मा  हैं वे दे सकते हैं।*

*राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी,*
*पुनः अंधकार और पहाड़ी मार्ग*
*पार कर बड़ी कठिनाइयों से*
*राजा दूसरे महात्मा के पास*
*पहुंचा किन्तु यह क्या महात्मा*
*को देखकर राजा हक्का बक्का*
*रह गया ,दृश्य ही कुछ ऐसा था,*
*वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे*
*से नोच नोच कर खा रहे थे ।*
*राजा को देखते ही महात्मा ने*
*भी डांटते हुए कहा*
*" मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास*
*इतना समय नहीं है ,*
*आगे जाओ पहाड़ियों के उस*
*पार एक आदिवासी गाँव में एक*
*बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ*
*ही देर तक जिन्दा रहेगा सूर्योदय से*
*पूर्व वहाँ पहुँचो वह बालक तेरे*
*प्रश्न का उत्तर का दे सकता है.*

*सुन कर राजा बड़ा बेचैन हुआ*
*बड़ी अजब पहेली बन गया*
*मेरा प्रश्न, उत्सुकता प्रबल थी*
*कुछ भी हो यहाँ तक पहुँच*
*चुका हूँ वहाँ भी जाकर देखता*
*हूँ क्या होता है ।*
*राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर*
*किसी तरह प्रातः होने तक  उस*
*गाँव में पहुंचा, गाँव में पता किया*
*और उस दंपति के घर पहुंचकर*
*सारी बात कही और शीघ्रता से*
*बच्चा लाने को  कहा जैसे ही*
*बच्चा हुआ  दम्पत्ति ने नाल*
*सहित बालक राजा के सम्मुख*
*उपस्थित किया ।*

*राजा को देखते ही बालक ने*
*हँसते हुए कहा राजन् !*
*मेरे पास भी समय नहीं है,*
*किन्तु अपना उत्तर सुनो लो*

*तुम,मैं और दोनों महात्मा पूर्व*
*जन्म में हम चारों भाई व*
*राजकुमार थे ।*
*एकबार शिकार खेलते खेलते*
*हम जंगल में भटक गए।*
*तीन दिन तक भूखे प्यासे*
*भटकते रहे । अचानक हम*
*चारों  भाइयों को आटे की*
*एक पोटली मिली जैसे तैसे*
*हमने चार बाटी सेकीं और*
*अपनी अपनी बाटी लेकर खाने*
*बैठे ही थे कि भूख प्यास से*
*तड़पते हुए एक महात्मा आ*
*गये । अंगार खाने वाले भइया*
*से उन्होंने कहा*

*"बेटा मैं दस दिन से भूखा हूँ*
*अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ*
*दे दो , मुझ पर दया करो जिससे*
*मेरा भी जीवन बच जाय, इस घोर*
*जंगल से पार निकलने की मुझमें*
*भी कुछ सामर्थ्य आ जायेगी*
*इतना सुनते ही भइया गुस्से से*
*भड़क उठे और बोले*
*"तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या आग*
*खाऊंगा ? चलो भागो यहां से।*

*वे महात्मा जी फिर मांस खाने*
*वाले भइया के निकट आये*
*उनसे भी अपनी बात कही किन्तु*
*उन भइया ने भी महात्मा से गुस्से*
*में आकर कहा कि  "बड़ी मुश्किल*
*से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो मैं*
*क्या अपना मांस नोचकर खाऊंगा ?*

*भूख से लाचार वे महात्मा  मेरे*
*पास भी आये ,*
*मुझसे भी बाटी मांगी*
*तथा दया करने को कहा किन्तु*
*मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह*
*दिया कि*
*"चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा*
*मरुँ ?"*

*बालक बोला "अंतिम आशा लिये वो महात्मा हे राजन* *!आपके पास आये , आपसे भी दया की याचना*
*की, सुनते ही आपने उनकी दशा पर दया करते हुये ख़ुशी से अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित*
*उन महात्मा को दे दी ।*

*बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश*
*हुए और जाते हुए बोले "तुम्हारा*
*भविष्य तुम्हारे कर्म और व्यवहार*
*से फलेगा "*

*बालक ने कहा "इस प्रकार हे*
*राजन ! उस घटना के आधार*
*पर हम अपना भोग, भोग रहे हैं ,*
*धरती पर एक समय में अनेकों*
*फूल  खिलते हैं, किन्तु सबके*
*फल  रूप, गुण, आकार-प्रकार,*
*स्वाद  में भिन्न होते हैं "*

*इतना कहकर वह बालक मर गया।*
*राजा अपने महल में पहुंचा और*
*माना कि ज्योतिष शास्त्र, कर्तव्य*
*शास्त्र और व्यवहार शास्त्र है ।*
*एक ही मुहूर्त में अनेकों जातक*
*जन्मते हैं किन्तु सब अपना  किया,*
*दिया, लिया ही पाते हैं ।*
*जैसा भोग भोगना होगा वैसे ही*
*योग बनेंगे । जैसा योग  होगा*
*वैसा ही भोग भोगना पड़ेगा यही*
*जीवन चक्र है*

*🕉जय मानव धर्म ,जय सनातन धर्म🕉*

रोग और कृपा

रोग और कृपा

टूटे फूटे खण्डहर में सूर्य का प्रकाश अधिक होता है । और सभी दीवारों के हट जाने पर प्रकाश ही शेष रह जाता है ।
देह से अभिन्नता और स्वयं को देह रूप की भावना , भौतिक सुखों हेतु है । देह की ममता , दैहिक सुख हेतु है । बाहरी रूप से आज दैहिक स्तर से कोई उठना नही चाहता , जीवन रहते देह से यह आसक्ति न टूटी तो आत्म स्वरूप को देह के न रहने पर मुक्त होकर भी मुक्ति अनुभूत नही होती । वह प्रेत आदि योनियों में चला जाता है , कारण देह से सम्बन्ध ।
साधक की साधना का समूल रस जब ही उदित होगा जब वह देह न रहे । दैहिक साधक दैहिक सुख ही चाहता है और फिर ऐसे साधक और असुर साधकों में क्या भेद हुआ ?
अपितु माँग और कठिन साधना दोनों ही स्तर पर असुर साधक वर्तमान साधको से बेहतर थे ।
देह मै नही हूँ , यह अनुभूति हो इसलिये रोग आते है । रोग वास्तविकता बता देते है आप कौन हो ? उस समय यह अनुभूत हो जावें हम देह नही तो रोग रसप्रदाता हो जावें । पुराने वस्त्र का गलना और फटना दोनों नए वस्त्र का आगमन है और नया वस्त्र भी गलेगा - फटेगा अतः आत्म स्वरूप अब और वस्त्र की अपेक्षा छोड़ दे ।
ईश्वर से नित्य सम्बन्ध है परन्तु देह की सिद्धि से दीवार बनी हुई है । देह तो मिली है सेवा हेतु , जगत रूप ईश्वर की सेवा हेतु । सेवा भोग को समूल मिटा सकती है , भोगी सेवक हो सकता है । जिसमें रस मिलता हो उसे रस दे सकता है । जगत देह को सुख भोग का साधन जान स्वयं को देह तक ही जानना और मानना चाहता है । अतः मृत्यु क्षण में वह ही मरते है जो सदैव देह ही बने रहे । जो वास्तविक स्वरूप हम है वह तो मरता भी नही । और वह अगर देह की भोग रूपी गोंद से छुट जावें तो अनुभूत होगा वह तो अनन्त की ऊर्जा का स्रोत है , देह उसकी अनिवार्यता नही है , वह देह से परे है हाँ जब तक देह है तब तक देह का सदुपयोग आवश्यक है । विचार कीजिए वास्तव में जो हम है वह तो सोता - जागता , खाता - पीता भी नही । उसकी क्या प्यास है , क्यों हमने देह रूपी वस्त्र ओढ़ लिया ,और कैसे हम वस्त्र ही रह गए । हम जो है वह जगत में होकर भी जगत का नही अतः उसे वस्तु स्पर्श होता ही नहीँ , हाँ हम वास्तव में जो है उसे वास्तविक मिलन की ही अबाध प्यास है ।
ईश्वर से अभिन्नता की भावना का विकास जगत और देह रूपी जड़ता को शीघ्रता से हरण कर लेता है ।
रोग भगवत् कृपा है , उन क्षणों में हमें हमारा स्वरूप दर्शन करना चाहिये । और देह की असमर्थता को गहनता से समझ समर्थ से नित्य सम्बन्ध को अनुभूत करना चाहिये ।
सिद्ध वह नही जो जगत में जगत की वस्तु से नही छुट सके , सिद्ध तो वह है जो तप रूपी ताप जीवन रहते अपने को सभी तरह से रसमय कर ईश्वर की भोग्य वस्तु हो जावें । कच्चा धान हम नही चबा सकते तो ईश्वर को भी पक कर रसमय हो अर्पित जो हो जावें वह सिद्ध है । देह रूपी अहंता , के आगे अन्य सभी अहंता को तर्जन करना साधना में अनिवार्य है । जापक जानते है तर्जनी को साधना हिस्सा नहीँ रखा जाता , वह अहम सूचक है । सत्यजीत तृषित ।

Friday, 12 August 2016

निद्रा और साधक , सत्यजीत तृषित

नींद भोग अवस्था से है  , मन की एकाग्रता पक्की होने पर उसे कम किया जा सकता है । जीवन में जितना जागना शेष हो उतनी ही निद्रा शेष रहती है , और वास्तविक जाग्रति पर निद्रा नहीँ रहती । वह तटस्थ अवस्था परम् योगी को समाधि से और परम् प्रेमी को भगवत् विरह रस से सुलभ है । भगवतलीला से जब तक निद्रा आवें अर्थात् भगवत् प्रीति नहीँ क्योंकि प्रीति जहाँ होगी वहां निद्रा नही होगी । तन की आवश्यकता कम उपयोग में लेने पर तन निद्रा रहित रह सकता है , जगत में यह रोग है । प्रेमी का रोग तो निद्रा है ।
निद्रा के पीछे कारण शरीर कार्य करता है । मन किसी काम से दो घण्टे में ऊब जावें तो पूरा तन थकान अनुभव करेगा । मन सारा दिन न ऊबे तो तन स्फूर्त रहेगा ।  मैं कई लोभियों को या धन पिपासुओं को कई रात जागता हुआ देखता हूँ । और बहुत से साधकों को भी जागता हुआ पाया है । भोगी - लोभी को भगवत् रस उसके मन के अनुरूप नही अतः सोयेगा ही , वह तो भोग विलास साधन जुटावें , तो रात दिन एक कर देगा ।
ऐसे ही साधक या प्रेमी को संसार में लगा दो वह शीघ्र थकेगा और सोयेगा । भजन भी नही करेगा क्योंकि भाव के विपरीत आवरण परमाणुओं के निकास के लिये सोना ही वहाँ भजन होगा ।
आज भी छात्र जगत कई रात्रि अध्ययन करता ही है । क्योंकि मन अध्ययन के प्रतिफल परीक्षा परिणाम पर अटक गया है । गोपी रस में प्रेम मूर्छा ही निद्रा है , उस मूर्छा में ही उनका शरीर सुव्यवस्थित होता है । कभी भाव में प्रियतम या प्रिया जु ही स्वयं सुलाते है , और कभी कहते है सो जा बावरी , तू न सोयेगी मैं भी न सोऊँगा , अतः उन हेतु ही सोना वहाँ होता है । इस तरह पूरा जीवन बाहर से सामान्य सा चलता है भीतर स्वेच्छा नहीँ , वह कहते रहते है , माया से छुट कर भी शेष प्रपञ्च का निर्वहन होता है , पर अगर शरणागति हो गई तब शरणागति उपरान्त किसी कार्य विधि के परिणाम में शुभ अशुभ अर्थात् पाप-पूण्य विचार नही रहता है ।
हम भोगियों जगतमय प्राणियों को निद्रा इसलिये आती है क्योंकि जीव को एकांत चाहिये और मन को थिरता वह हो नही पाता अतः निद्रा काल में जगत् का आंशिक त्याग भोग जगत करता ही है । मन से जितना विषय त्याग हो जावेगा , एकांत जितना पक्का हो जावेगा , उतनी निद्रा की आवश्यकता नही रहेगी । निद्रा में भी चेतन तत्व तो सोता नही है , वह तन के संग न होने से नव नव संसार बना लेता है और स्वप्न रूप में रस लेता है । चेतन को भी भगवत् प्यास है यह वह जब जान जाएगा तो सदा एक रस रहेगा । स्वप्न भगवत् लीला रस मय होंगे । प्रियतम स्वप्न हो तो स्वप्न हेतु निद्रा स्वीकार हो जाती है । भगवत् शरणागति ही वास्तविक विश्राम है , भगवत् चरण में ही सुकूँ है यह जब पता चल जावें तो मन वास्तविक शांति हेतु भागे और वह वास्तविक शान्ति भी ना भोगने से नित्य चरणाश्रय हो जावेंगी और नित्य आनन्द प्रकट होगा । कहना इसे सरल है , जीवन्त निर्वाह सरल नहीँ । त्यागमय जीवन ही प्रेममय जीवन हो सकता है और प्रेममय जीवन ही रसमय जीवन और रसमय जीवन ही भगवत् समर्पित जीवन है । सत्यजीत तृषित