[8:51pm, 09/09/2015] सत्यजीत तृषित: कथित निर्गुणी को देखें ...
क्या सच में वो निराकार को जान गया है !
सगुण से बडे देवालय निर्गुण पंथ के है ! जबकि वहाँ ईश्वर स्वतंत्र है , सर्वत्र है किसी स्थान विशेष की आवश्यकता नहीं ! बहुत बार निर्गुण पंथ गुरु प्रधान है ... गुरु ने दर्शन किया ! शेष सभी ने उन्हें ईश्वर कहा ...
यहाँ मैं कहता हूँ कि आपको किसी एक ही स्थान विशेष ईश्वर आरोपित करने थे तब तो वो पहले ही है ...
फिर तो राम-कृष्ण-शिव क्यों नहीं !
निर्गुण निराकार दर्शन है ...
निर्गुण के विषय में कुछ भी कहना निर्गुण को सगुण करना है !
जिसे कहा ना जा सके ...
जो सर्वत्र है ...
केवल वहीं है ...
तो कहते ही लघुता होगी !
ईश्वर मौन कर देते है ! मूकता सहज है ! यहीं मूकता ... यहीं मौन निराकार है ... निर्गुण है !
कहा कि सगुण हुआ ...
कई निर्गुण पंथ है जो अब निर्गुण दिखते कारण वहाँ प्रकट होने की तलब हुई !
निराकार साकार हो गया
शुद्ध निराकार है ...
ईश्वरिय तत्व को सर्वत्र समान रूप से मान जीवन का भगवत्मय होना ! कण - कण में राम है कहना सरल है ... मानना नहीं ! राम होते ही प्रत्येक कण ही साक्षात् है ! और यथा स्वरूप ही ईश्वर है ! फिर ईश्वर है ही तो प्रत्येक कण से ईश्वरिय भाव हो ! स्वयं की लघुता और दृश्य अदृश्य जगत को प्रभुत्व और गुरुत्व मानना निर्गुण है !
निर्गुण के नाम पर अब इतना होता है ! दीक्षा निर्गुण हो जाती है ...
जीवन में निराकार दर्शन से होने वाली क्रांति नहीं होती है ! कोई जीवंत बदलाव नहीं होता !
इसका कारण है कि निराकार उपासना आरोपित होती ही नहीं ...
आध्यात्मिक जीवन में स्वत: उचित स्तर
होने पर घटित होती है !
सगुण उपासना प्रेम अनुभुति सही है तो निश्चित् ही निर्गुणता अद्वेतता होगी ! अब सगुण की बात करेंगें
[10:28pm, 09/09/2015] सत्यजीत तृषित: जल एक है ... बर्फ होकर दिखे या भाप होकर न दिखें !
सगुण निराकार एक है ...
सगुण निर्गुण एक है ...
बच्चा माँ के भीतर है तो माँ निर्गुण है
बच्चा माँ के संग है तो सगुण
...
यें सरल है ! और समस्या का सरलीकरण होना असामान्य है ! ग्रहणिय नहीं है ! सरलता से पचाया जा सके वो भोजन जीवन में प्राणी विशेष परिस्थिति में होता है जैसे - शिशुकाल ... अस्वस्थता ... वृद्धावस्था !
ईश्क़ है ... प्रेम है तो निर्गुण ही कहा जायेगा ! सगुण होना किसी एक का या दोनों का होना है !
प्रमाण ... प्रतिपादन ... सुत्र ... विचार ... दर्शन ... रसास्वादन हेतु प्रेमी और प्रेमास्पद प्रकट होते है !
प्रेमी है कथन है तो प्रेमास्पद को दैहिक होना होगा !
ईश्वर स्वनिरसित रस का स्वादन होने को भी साकार होते है ! और प्रेमियों के मनोरथ-भाव-भावना सिद्धि , जगत् में धर्म के अनावरण-संस्थापन , साधुओं की रक्षा , आदि ...
हालांकि सब कुछ निराकार रहते हुये संकल्प मात्र से सम्भव है परन्तु रस स्वादन और स्वयं प्रेमी होने के कारण प्रगट होना होता ही है !
अदृश्य परन्तु जगत् की क्रिया साधन सिद्धि में प्रतित होते ईश्वर से प्रेम सहज नहीं है ! केवल प्राणी को सहजता हो प्रेमी को इन्द्रियों से भी अनुभुतियाँ हो ! सो साकार ईश्वर है ! चुंकि वें सर्वत्र व्याप्त है ...
सम्पुर्ण जगत् का दृश्य-अदृश्य सौन्दर्य ईश्वर ही है सो जब वें समेट कर स्वरूप लेंगें तो स्वरूप भी लावण्यमय होगा ! दिव्यतम् आभामय !
साकार ईश्वर लीला - रस - प्रेम - संवाद हेतु सरलतम् है ! परन्तु है तो ईश्वर ... सो गुणात्मक सगुण और निर्गुण दोनों ही भाव निहित् है !
निरूपण तो करना ही होगा तभी प्रेम निरखेगा ! प्रेमी को प्रेमास्पद चाहिये ! संग चाहिये ! साथ चाहिये सो साकार ईश्वर है ! निरूपण होने पर प्रत्येक तत्व को ईश्वर मानने में असावधानी से बचा जायेगा !
क्योंकि ... निराकार ईश्वर का व्यक्तिगत स्वरूप नहीं सो सभी स्वरूप वहीं है ! ईश्वर है ... परन्तु माना जाना सहज नहीं ! जैसे बिच्छु , क्राकरॉच , आदि प्रजातियाँ भी ईश्वर ही है ... क्योंकि सर्वत्र समान रूप से ईश्वर है पर क्या माना जा सकता है ...
माना जा सकता है जब प्रेममय हो और नज़रों से वें हटे ही नहीं ! जो सामने हो वो ना देख वहीं दिखे जिसे देखना हो ... दृष्टि केवल वहीं ईश्वर के चरणों में रहे ! सामने कुछ भी हो ! ऐसा होने के लिये अनुपम सौन्दर्य माधुर्य रस में स्नान आवश्यक है ... एक ऐसा स्नान जो कभी सुखे ना !
ऐसी छब से नेह हो जिससे कोई न सुन्दर हो , न मधुर ! तब अटल स्थिरता होगी !
ईश्वर भी निर्गुण रूप में अतृप्त है और अपनी तृप्ति रस-भाव आदि के लिये स्वरूप लेते है !
चुंकि ईश्वर के दर्शन के बहुत प्रावधान है ... जिन पर कभी कोई गौर नहीं करता ...
सारे प्रावधान जीव के उन्माद भाव रस से जुडे है ! क्योंकि कभी भी जीव ईश्वर का पूर्णदर्शन सहज ना कर सकेगा ! बूंद और सागर पास पास नहीं हो सकते ! हुआ तो सागर बूंद को कब समा लेगा बूंद को पता भी न होगा ! बूंद रहना भी चाहे सागर को निहारना भी तो सागर ही छोटा होगा !
जैसे जब तक जीव स्थुल है ईश्वर स्थुल दिखेंगें !
जब तक जीव स्वतंत्र नहीं ईश्वर को स्वतंत्र नहीं देख सकता !
जब तक केवल ईश्वर की भावना न हो तब तक ही संसार दिखता है वरन् फिर यहीं संसार केवल ईश्वर हो जाता है !
ईश्वर का पूर्ण दर्शन जब ही है जब जीव पूरी तरह पुन: वैचारिक भौतिक जगत् में न लौटने को तैयार हो !
वरन् वें उतना ही दिखेंगें जितना जीव की सीमा है ... जीव सह सके !
चुंकि जीव सुर्य को करोडो वर्ष किलोमीटर दूर खडे सुर्य से दो मिनट बाद परहेज हो जाता है तो करोडो सुर्य अपने में समेटे ईश्वर सामने होने के लिये ... सदा ईश्वर सिमटे है ! जिसे जितना बृहद पीना है उतना उतरना होगा ...
[11:32pm, 09/09/2015] सत्यजीत तृषित: जब प्रेमी और प्रेमास्पद एक हो जाये ! फिर बहते बहते पूर्ण विलय हो जाये ! इतने डुब जायें एक होना भी कमत्तर हो तब दोनो मिटते है ! दोनों घुलते है ! जैसे युगल सरकार लीला से प्रेम की तीव्र रस वेदना में अदृश्य हो जाते है ! ...
प्रेम है तो शुन्यता होगी यें ही साकार का निराकार होना है !
प्रेमियों के जीवन के उतरार्ध में यें अवस्था घटती है ! गुप्त या सापेक्ष !
साकार से निराकार हुई महक में प्रेमी प्रेमास्पद दोनों है पर अनुभुति अब एक होगी ! और अभिव्यक्ति शुन्य !
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