Monday, 14 September 2015

देह क्या है ?

एक अद्भुत लेख ...
देह क्या है ?आत्मा क्या है? कैसी अवस्था में होती है? (गुरुदेव श्री मिथिलेश व्दिवेदी जी व्दारा)
जिज्ञासु का प्रश्न:- देह क्या है ?आत्मा क्या है ?कैसी अवस्था में होती है ? कैसे कर्मो को भोगती है और कैसे विचरण करती रहती है ?और ये भूत प्रेत योनी क्या है पितर गण क्या है??? मन से आत्मा का सम्बन्ध कैसे होता है, आत्मा निष्क्रिय है या सक्रिय, क्या स्थिति होती है ?आत्माओ कि अगर उन्हें शास्त्र काट नहीं सकता तो वो कर्मो का लेख कैसे भोगती है? फिर श्राद अगर आत्मा दुबारा जन्म ले लेती है फिर श्राद से तात्पर्य क्या है?? और मन से आत्मा का मिलन कैसे होता है ?
श्री मिथिलेश द्विवेदी जी का उत्तर :- बृहदारण्यकोपनिषद शुक्ल यजुर्वेद की काण्व-शाखा के अन्तर्गत आता है। 'बृहत' (बड़ा) और 'आरण्यक' (वन) दो शब्दों के मेल से इसका यह 'बृहदारण्यक' नाम पड़ा है। इसके प्रथम अध्याय के दूसरे ब्राह्मण खण्ड में सृष्टि के जन्म की अद्भुत कल्पना की गयी है। कोई नहीं जानता कि सृष्टि का निर्माण और विकास कैसे हुआ, किन्तु वैदिक ऋषियों ने अत्यन्त वैज्ञानिक ढंग से सृष्टि के विकास-क्रम को प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि सृष्टि के प्रारम्भ में कुछ नहीं था। केवल एक 'सत्' ही था, जो प्रलय-रूपी मृत्यु से ढका हुआ था। तब उसने संकल्प किया कि उसे पुन: उदित होना है। उस संकल्प के द्वारा आप: (जल) का प्रादुर्भाव हुआ। इस जल के ऊपर स्थूल कण एकत्र हो जाने से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। उसके उपरान्त सृष्टि के सृजनकर्ता के श्रम-स्वरूप उसका तेज़ अग्नि के रूप में प्रकट हुआ। तदुपरान्त परमेश्वर ने अपने अग्नि-रूप के तृतीयांश को सूर्य, वायु और अग्नि तीन भागों में विभक्त कर दिया। पूर्व दिशा उसका शीर्ष भाग (सिर), उत्तर-दक्षिण दिशाएं उसका पार्श्व भाग औ द्युलोक उसका पृष्ठ भाग, अन्तरिक्ष उदर, पृथ्वी वक्षस्थल और अग्नि तत्त्व उस विराट पुरुष की आत्मा बने। यही प्राणतत्त्व कहलाया। इसके बाद इस विराट पुरुष की इच्छा हुई कि अन्य शरीर उत्पन्न हों। तब मिथुनात्मक सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हुआ। नर-नारी, पशु और पक्षियों तथा जलचरों में नर-मादा के युग्म बने और उनके मिथुन-संयोग से जीवन का क्रमिक विकास हुआ। फिर इसके पालन के लिए अन्न से मन और मन से वाणी का सृजन हुआ। वाणी से ऋक्, यजु, साम का सृजन हुआ। यह हुआ पहला कदम..."
शरीर छोड़ने के बाद और नया शरीर ग्रहण करने के पहले जो अंतराल का काल है, उसके संबंध में दो-तीन बातें समझें तो ही प्रश्‍न समझ में आ सकेंगा। एक तो यह कि उस क्षण जो भी अनुभव होते है वह स्‍वप्‍नवत है। ड्रीम लाइफ है। इसलिए जब होते है तब तो बिलकुल वास्‍तविक लगते है, लेकि जब आप याद करते है तब सपने जैसे हो जाते है। स्‍वप्‍नवत इसलिए है वे अनुभव कि इंद्रियों का उपयोग नहीं होता। आपके यथार्थ का जो बोध है, यथार्थ की जो आपकी प्रतीति है, वह इंद्रियों के माध्‍यम से है, शरीर के माध्‍यम से नहीं। अगर मैं देखता हूं कि आप दिखाई पड़ते है, और छूता हूं और छूने में नहीं आते, तो मैं कहता हूं कि (PHANTOM) भुतहा विचार है, आदमी नहीं। वह टेबल में छूता हूं, और छूने में नहीं आती। और मेरा हाथ उसके आर पार चला जाता है। तो मैं कहता हूं कि सब झूठ है। मैं किसी भ्रम में पड़ गया हूं, कोई (HALLUCINATION) मतिभ्रम है। आपके यथार्थ की कसौटी आपकी इंद्रियों के कारण है। तो एक शरीर छोड़ने के बाद और दूसरा शरीर लेने के बीच इंद्रियाँ तो आपके पास नहीं होती। शरीर आपके पास नहीं होता। तो जो भी आपको प्रतीतियां होती है। वे बिलकुल स्‍वप्‍नवत है जैसे आप स्‍वप्‍न देख रहे है। जब आप स्‍वप्‍न देखते है तो स्‍वप्‍न बिलकुल ही यथार्थ मालूम होता है, स्‍वप्‍न में कभी संदेह नहीं होता।
यह बहुत मजे की बात है। यथार्थ में कभी-कभी संदेह हो जाता है। स्‍वप्‍न में कभी संदेह नहीं होता। स्‍वप्‍न बहुत श्रद्धावान है। यथार्थ में तो कभी-कभी ही ऐसा होता है। जो दिखाई पड़ता है, वह सच में है या नहीं। लेकिन स्‍वप्‍न में ऐसा कभी नहीं होता कि जो दिखाई पड़ रहा है वह सच में है या नहीं। क्‍यों? क्‍योंकि स्‍वप्‍न इतने से संदेह को सह न पाएगा, वह टूट जाएगा, बिखर जाएगा। स्‍वप्‍न इतनी नाजुम घटना है कि इतना सा संदेह भी मौत के लिए काफी है। इतना ही ख्‍याल आ गया कि कहीं यह स्‍वप्‍न तो नहीं है, कि स्‍वप्‍न टूट गया या समझिए कि आप जाग गए। तो स्‍वप्‍न के होने के लिए अनिवार्य है कि संदेह तो कण भर भी न हो। कण भर संदेह भी बड़े से बड़े प्रगाढ़ स्‍वप्‍न को छिन-भिन्‍न कर सकता है। तिरोहित कर देगा।
स्‍वप्‍न को कभी पता नहीं चलता कि जो हो रहा है, वह हो रहा है, फिर भी हो तो बिलकुल ही रहा है। इसका यह भी मतलब हुआ कि स्‍वप्‍न जब होता है तब यथार्थ से ज्‍यादा यथार्थ मालूम पड़ता है। यथार्थ कभी इतना यथार्थ नहीं मालूम पड़ता। क्‍योंकि यथार्थ में संदेह की सुविधा है। स्‍वप्‍न तो अति यथार्थ होता है। इतना अति यथार्थ होता है कि स्‍वप्‍न के दो यथार्थ में विरोध भी हो, तो विरोध दिखाई नहीं पड़ता। एक आदमी चला आ रहा है, अचानक कुत्‍ता हो जाता है, और आपने मन में यह भी ख्‍याल नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है। यह आदमी था, कुत्‍ता कैसे हो गया। संदेह उठा नहीं की स्‍वप्‍न खत्‍म। जागने के बाद आप सोच सकते है कि यह क्‍या गड़बड़ झाला है। लेकिन स्‍वप्‍न में कभी नहीं सोच सकते। स्‍वप्‍न में यह बिलकुल ही यथार्थ है, इसमें कहीं कोई असंगति नहीं है। बिलकुल ठीक है। एक आदमी अभी मित्र और एकदम से वहीं आदमी बंदूक तान कर खड़ा हो गया। तो आपके मन में कहीं ऐसा सपने में नहीं आता है कि अरे, मित्र होकर बंदूक तान रहे हो। स्‍वप्‍न में असंगति होती ही नहीं, स्‍वप्‍न में सब असंगत भी संगत है। क्‍योंकि जरा सा शक, कि स्‍वप्‍न बिखर जाएगा। लेकिन जागने के बाद, सब खो जायेगा। कभी ख्‍याल न किया होगा कि जाग कर ज्‍यादा से ज्‍यादा घंटे भर के बीच सपना याद किया जा सकता है। इससे ज्‍यादा नहीं। आमतौर से तो पाँच-सात मिनट में खोने लगता है। लेकिन ज्‍यादा से ज्‍यादा, बहुत जो कल्‍पनाशील है वे भी एक घंटे से ज्‍यादा स्‍वप्‍न की स्‍मृति को नहीं रख सकते। नहीं तो आपके पास सपने की ही स्‍मृति इतनी हो जायेगी। कि आप जी नहीं सकेगें। घंटे भर के बाद जागने के भीतर स्‍वप्‍न तिरोहित हो जाते है। आपका मन स्‍वप्‍न के धुएँ से बिलकुल मुक्‍त हो जाता है।

यह रहा दूसरा कदम....
ठीक ऐसे ही दो शरीरों के बीच का जो अंतराल का क्षण है, जब होता है, वह बिलकुल ही यथार्थ है—इतना यथार्थ, जितना हमारी आंखों और इंद्रियों से कभी हम नहीं जानते। इसलिए देवताओं के सुख का कोई अंत नहीं। क्‍योंकि अप्‍सराएं उनके लिए यथार्थ होती है, इंद्रियों के प्रयोग में स्‍त्रियां वैसी यथार्थ कभी नहीं होती। इसलिए प्रेतों के दुःख का अंत नहीं। क्‍योंकि जैसे दुःख उन पर टूटते है ऐसे दूःख आप पर कभी टूट नहीं सकते। तो नरक और स्‍वर्ग जो है वे बहुत प्रगाढ़ स्‍वप्‍न अवस्‍थाएं है - बहुत प्रगाढ़ - जैसी आग नरक में जलती है, उतनी यथार्थ में कभी नहीं जल सकती। हालांकि यह बड़ी (INCONSISTENT) असंगत आग है। कभी देखा कि नरक की आग का जो-जो वर्णन है, उसमे यह बात है कि आग में जलाएं जाते है, लेकिन जलते नहीं। मगर यह इनकंसिस्‍टेंसी ख्‍याल में नहीं आती कि आग में जलाया जा रहा है, आग भयंकर है, तपन सही नहीं जाती और जल बिलकुल भी नहीं रहा हूं। मकर यह इनकंसिस्‍टेंसी बाद में ख्‍याल आ सकती हे। उस वक्‍त ख्‍याल नहीं आ सकती। तो दो शरीरों के बीच का जो अंतराल है उसमें दो तरह की आत्माएं है। एक तो वे बहुत बुरी आत्‍माएं, जिनके लिए गर्भ मिलने में वक्‍त लगेगा। उनको में प्रेत कहता हूं। दूसरी वे भली आत्‍माएं जिन्‍हें गर्भ मिलने में देर लगेगी। उनके योग्‍य गर्भ चाहिए। उन्‍हें में देव आत्‍माएं कहता हूं। इन दोनों में बुनियादी कोई भेद नहीं है—व्‍यक्‍तित्‍व भेद है, चरित्र गत भेद है। चितगत भेद है। योनि में कोई भेद नहीं है। अनुभव दोनों के भिन्‍न है। बुरी आत्‍माएं बीच के इस अंतराल से दुखद अनुभव लेकिर लौटेंगी। और उनकी ही स्‍मृति का फल नरक है। जो-जो उस स्‍मृति को दे सके है लौट कर, उन्‍होंने ही नरक की स्‍थिति साफ करवाई। नरक बिलकुल स्वप्नलोक है, कहीं है नहीं। लेकिन जो उससे आया है वह मान नहीं सकता। क्‍योंकि आप जो दिखा रहे हे, यह उसके सामने कुछ भी नहीं है। वह कहता है, आग बहुत ठंडी है, उसके मुकाबले जो मैंने देखी है, यहां जो घृणा और हिंसा है वह कुछ भी नहीं। जो मैं देख कर चला आ रहा हूं। वह जो स्‍वर्ग का अनुभव है, वह भी ऐसा ही अनुभव है। सुखद सपनों का और दुखद सपनों का भेद है। वह पूरा का पूरा स्वप्न खण्ड है।
अब यह तो बहुत तात्‍विक समझने की बात है कि वह बिलकुल ही स्वप्न है। हम समझ सकते है, क्‍योंकि हम भी रोज सपना देख रहे हे। सपना आप तभी देखते है जब आपके शरीर की इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हे। एक गहरे अर्थ में आपका संबंध टूट जाता हे। सपने भी रोज ही दो तरह के देखते है—स्‍वर्ग और नरक के। या तो मिश्रित होते है। कभी स्‍वर्ग के कभी नरक के। या कुछ लोग नरक ही देखते है। कुछ लोग स्‍वर्ग ही देखते है। कभी सोचें कि आपने सपना रात आठ घंटे आपने देखा। अगर उस को आठ साल कर दिया जाये तो आपको कभी भी पता नहीं चलेगा। क्‍योंकि समय का बोध नहीं रह पाता। उस घड़ी का बोध पिछले जन्‍म के शरीर और इस जन्‍म के शरीर के बीच पड़े हुए परिवर्तनों से नापा जा सकता है। पर वह अनुमान है। खुद उसके भीतर समय का कोई बोध नहीं है। अच्‍छी आत्‍माएं सुखद सपने देखती है, बुरी आत्‍माएं दुखद सपने देखती हे। सपनों से ही सुखी, पीडित या दुःखी होती है। जैसा मैंने कहा कि सुबह उठ कर घंटे भर तक आपको सपना याद रहता है। ऐसा ही नये जन्‍म पर कोई छह महीने तक, छह महीने की उम्र तक करीब-करीब सब याद रहता है। फिर धीरे-धीरे वह खोता चला जाता है। जो बहुत कल्‍पनाशील है या बहुत संवेदनशील है, वे कुछ थोड़ा ज्‍यादा रख लेते है। जिन्‍होंने अगर कोई तरह की जागरूकता के प्रयोग किए है पिछले जन्‍म में, तो वह बहुत देर तक रख ले सकते है। जैसे सुबह एक घंटे तक सपना याददाश्‍त में घूमता रहता है, धुएँ की तरह आपके आस-पास मँडराता रहता है। ऐसे ही रात सोने के घंटे भर पहले भी आपके ऊपर स्वप्न की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। ऐसे ही मरने के भी छह महीने पहले आपके ऊपर मौत की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। इस लिए छह महीने के भीतर मौत कि भविष्यवाणी की जा सकती है।

यह रहा तीसरा कदम......
हर वो शख्स इस जिन्दगी से मुक्त हो जाता है जो इस जीवन की अर्थता और व्यर्थता को जान लेता है. जो होश में जीता है, जिसे ये भी ख्याल होता है की वो सांस ले रहा है. जो ये जानता है वो और उसका ये शरीर दोनों अलग-अलग बातें है, जैसे एक मंदिर में भगवान की मूर्ति उस मंदिर की आत्मा होती है. जब तक उस मंदिर में मूर्ति है तब तक उस मंदिर अर्थ है जैसे ही उस मंदिर से मूर्ति को हटा दे तो मंदिर व्यर्थ हो जाता है. जिसे ये अच्छी तरह ख्याल में है कि वो कुछ दिन के लिए इस शरीर में है, एक दिन इसे खो जाना है. जिसे न तो पाने कि ख़ुशी होती है न खोने का गम होता है उसे मुक्ति मिल चुकी है. कुछ लोगों का मानना है कि मृत्यु मुक्ति का द्वार है. लेकिन मेरा मानना है कि जिन्दगी को जान लेना ही मुक्ति है. और मृत्यु जीवन का द्वार है. मृत्यु पा लेने के बाद भी हम वही होते है जो मृत्यु से पहले होते है. अंतर सिर्फ इतना होता है कि मृत्यु के बाद हमारे पास शरीर नहीं होता, मृत्यु के बाद भी हम और हमारी इच्छाए बरकरार रहती है. इच्छाएं पूरी करने के लिए भटकती रहती है. यही इच्छा उसे अगले जन्म लेने के लिए मजबूर करती है. शरीर छोड़ने के बाद ये आत्मा कभी-कभी इतनी ज्यादा आतुर होती है अपनी इच्छाओ को पूरी करने के लिए कि उसे जैसा भी गर्भ मिले उसमे समा जाती है. जिन्हें अपनी इच्छाओ पर काबू है वो अपने अनुसार गर्भ कि तलाश करते है. जिसमे कुछ वक़्त लग जाता है. जो उत्तम आत्माएं होती उन्हें अपने अनुसार गर्भ ढूंढने में सैकड़ो साल या युग भी लग जाते है......यह रहा चौथा कदम.......
अब बात करते है कि मृत्यु के बाद जो क्रिया कर्म (श्राद्धादि) होते है वो कहाँ तक उचित या जरुरी है. एक आम इंसान पूरे जीवन में जो अपने आस-पास होते हुए देखता है, वही वो अपनी मृत्यु के बाद भी चाहता है. क्योंकि उसकी आत्मा शरीर छोड़ने के बाद भी शरीर के आस-पास ही रहती है तब तक, जबतक कि उसके शरीर को उसके अपने धर्मो के अनुसार नष्ट करके सभी क्रिया-कर्म न कर लिया जाए. क्योंकि उसे तब तक यकीन ही नहीं हो पाता है कि वो मर चूका है. उस आत्मा को यकीन दिलाने के लिए ये सभी कर्म कांड कराये जाते है. बाकि इन कर्म-कांडो का कोई अर्थ नहीं है. इसी यकीन दिलाने को लोग मुक्ति कहते है जबकि वो अब भी मुक्त नहीं हुआ है. क्योंकि उसकी इच्छाएं अब भी उतनी ही है. और वो अपनी इच्छा को पूरी करने के लिए कुत्ते के गर्भ में भी जा सकता है. उसे किस गर्भ में जाना है ये निर्भर करता है कि उसका भाव और प्रारब्ध कैसा रहा है अपने जीवनकाल में. जो ध्यान करते है उन्हें यह समझने में जरा भी मुश्किल नहीं होती कि मृत्यु क्या है, और कोई भी आत्मा शरीर से कैसे अलग हो जाता है. क्योंकि वो ध्यान में खुद को अलग होते हुए देखते है. मृत्यु का पूर्वाभ्यास कर लेते है. इसलिए मृत्यु उनके लिए जिन्दगी में कोई अहम् घटना नहीं होती. और वो आसानी से मृत्यु को स्वीकार कर लेते है, कुछ लोग जो कुछ ज्यादा ही ध्यान को उपलब्ध होते है वो तो अपनी मृत्यु खुद बुला लेते है जिन्हें आप समाधि भी कह सकते है . ऐसे लोगो को मृत्यु के बाद उनके शरीर को कुछ भी कर दे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वो जान लेते है कि मैं मृत्यु को उपलब्ध हो चूका हूँ. और उन्हें अपने शरीर से कोई मोह नहीं होता. आम इंसान मृत्यु के बाद अवाक हो जाता है, चौंक जाता है, कि ये क्या हुआ? मेरा शरीर क्यों बेजान पड़ा हुआ है? इन्ही सब सवालो के जवाब में मृत्यु के क्रिया कर्मो को करके उसे समझाया जाता है कि वह मर चूका है. उत्तम आत्माएं आपके आस-पास घुमती रहती है. अच्छे कामो को करने में मदद करती है. ये आत्माएं महात्मा कहलाती हैं. जो कुछ ज्यादा ही बुरे लोग होते है, उनकी आत्माओं को भी अपना दूसरा गर्भ ढूंढने में वक़्त लग जाता है. और वो दुरात्मा कहलाती है. ये भी आपके आस-पास घुमती रहती है. और ये आपके बारे में बुरा सोचती और आपसे बुरा कराती है. इन्हीं को तृप्त करने का माध्यम है श्राद्ध....

यह रहा पांचवां और अंतिम कदम......
इसलिए अच्छा सोचें, अच्छा भाव रखे , मुक्त आज ही हो जाएं, मृत्यु का इंतज़ार न करें. हो सकेव् तो श्रद्धा को मूल-मन्त्र मान कर ध्यान जरुर करें.
परमात्मा आप सभी का कल्याण करें.....पूर्वजगण आपका ख्याल रखें रखें......
मित्रों - नये जुडे लोगों और कुछ
मेरे मन की खोजते - खोजते कभी
- कभी कुछ दुर्लभ भी मिल जाता है |
मेरे भीतर पहले कई प्रश्न थे , अब उतने नहीं सो भक्तिमय लेख ही जो
मुझे पढना होता है वहीं शेयर करता हूँ | परन्तु आत्मा होने के नाते सामान्य
जानकारी होनी चाहिये | कम से कम एक मानसिक शान्ति , स्थिरता ही मिल
जाती है ... सत्यजीत "तृषित"

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