Thursday, 22 August 2019

पात्रता अभाव और ज्ञान

पात्रता के अभाव मेँ ज्ञान टिकता नहीँ है । सुपात्र के अभाव मेँ ज्ञान शोभा नहीँ पाता है । धन और ज्ञान सुपात्र के बिना शोभा नहीँ पाते है ।
जब तक ज्ञान क्रियात्मक नहीँ होता , तब तक वह अज्ञान जैसा ही होता है । बहुत जानने की अपेक्षा तो जितना जान लिया है , उसे जीवन मेँ उतारने का प्रयत्न करना चाहिए । ज्ञान जब तक क्रियात्मक न बन जाये तब तक उसकी कोई कीमत नही होती । जब ज्ञान क्रियात्मक होता है तभी वह शान्ति देता है । ज्ञान को शब्दरुप ही न रहने दिया जाय बल्कि उसे क्रियात्मक बनाया जाय । ज्ञान का अन्त न कभी हुआ और न कभी होने वाला है , परन्तु जितना ज्ञान प्राप्त हो गया है उसे ही क्रियात्मक बनाने से शान्ति मिलती है ।
कपिल अर्थात् जो जितेन्द्रिय है वही ज्ञान को पचा सकता है । विलासी जन ज्ञान का अनुभव नही कर सकते ।
कर्दम जीवात्मा है और देवहूति बुद्धि है । देवहूति देव को बुलाने वाली निष्काम बुद्धि है ।
ज्ञान प्राप्त करने हेतु सरस्वती के पास रहना होगा। कर्दम होना होगा । यदि हम कर्दम होँगे तभी बुद्धि देवहूति बनेगी, अर्थात् जितेन्द्रिय होने पर ही बुद्धि निष्काम होगी और कपिल भगवान आयेगे अर्थात् ज्ञान सिद्ध होगा । ज्ञान सिद्ध होने पर पुरुषार्थ सिद्ध होगा ।
वैराग्य और संयम के अभाव मेँ ज्ञान सिद्ध नही होता , प्राप्त ज्ञान को जीवन मे उतारकर भक्तिमय जीवन बिताने वाले जन बहुत ही विरले हैँ ।
ज्ञान का. सार है *****वैराग्य!  वैराग्य के बिना असंगता नहीं आयेगी और दुखड़ा, नही मिटेगा.  ! यदि कोई कहे कि. समाधि लगाने से दुख मिट जायेगा तो यह कहना ठीक, नहीं, क्योंकि जब समाधि टूटेगी तो फिर दुख पर सवार हो जायेगा ¡! लेकिन यदि असंगता आ जाय तो चाहे समाधि हो चाहे दुख हो ,चाहे सर्दी हो या गर्मी , दुख का आत्यन्तिक निवारण हो जायेगा ,  असल में वैराग्यही   असंगता ही ज्ञान  का  सार है । कई लोग समाधि द्वारा  अपनी बलिष्ठ प्रकृति पर विजय प्राप्त कर  लेते है । परन्तु उनको फिर संसार में. आना पड़ता है, लेकिन यदि हृदय. में भगवद् भक्ति. आजाय तो. दुख भी. सुख हो जाता है.!जिस पात्र मेँ वर्षो से तेल ही रखा जाता है , ऐसे बर्तन को पाँच दस बार धोने पर वह स्वच्छ तो होगा , किन्तु तेल की वास नहीँ जायेगी । अब उस बर्तन मेँ यदि चटनी अचार रखा जायेगा तो वह बिगड़ जायेगा । हमारा मस्तिष्क भी ठीक ऐसा ही है । जिसमेँ कई वर्षो से कामवासना रुपी तेल रखा गया है । इस बुद्धिरुपी पात्र मेँ श्रीकृष्ण रुपी रस रखना है। मस्तिष्क रुपी बर्तन मेँ काम का अंशमात्र भी होगा तो उसमेँ प्रेम रस , जमेगा ही नहीँ । जब बुद्धि मेँ परमात्मा का निवास होगा,तभी पूर्ण शान्ति मिलेगी । जब तक बुद्धि मे ईश्वर का अनुभव नहीँ होगा तब तक आनन्द का अनुभव नहीँ हो पायेगा । संसार के विषयोँ का ज्ञान बुद्धि मेँ आने पर विषय सुखरुप बनते हैँ ।
परमात्मा को बुद्धि मेँ रखना है । मस्तिष्क मेँ जब ईश्वर आ बसते हैँ ,तभी ईश्वर स्वरुप का ज्ञान पूर्ण आनन्द देता है । जैसे तेल के अंश से चटनी अचार बिगड़ते है वैसे ही बुद्धि मेँ वासना का अंश रह जाने पर वह अस्थिर ही रहेगी।
बुद्धि को स्थिर और शुद्ध करने हेतु मन के स्वामी चंद्र और बुद्धि के स्वामी सूर्य की आराधना करनी है । त्रिकाल संध्या करने से बुद्धि विशुद्ध होगी ।
जब तक राम नहीँ आते हैँ । तब तक कृष्ण भी नहीँ आते है  जिसके घर मे राम नही आते हैँ , उसका रावण (काम) मरता नहीँ और जब तक कामरुपी रावण नही मरता तब तक श्रीकृष्ण नही आते है। जब राम की मर्यादा का पालन किया जायेगा तभी काम मरेगा । चाहे जिस संप्रदाय मेँ विश्वास हो , किन्तु जब तक रामचन्द्र की मर्यादा का पालन नहीँ किया जायेगा तब तक आनन्द नहीँ मिलेगा । रामचन्द्र की उत्तम सेवा यही है कि उनकी मर्यादा का पालन किया जाए । उनका सा ही वर्तन रखो । रामजी का भजन करना अर्थात् उनकी मर्यादा का पालन करना । उनका वर्तन हमेँ जीवन मेँ उतारना चाहिए ।
यदि राम जी को मन मेँ बसाने , मर्यादा-पुरुषोत्तम रामचन्द्र का अनुकरण करने पर भगवान मिलेँगे । रामजी की लीलाएँ अनुकरणीय एवं श्रीकृष्ण की लीलाएँ चिँतनीय हैँ ।
रामचन्द्र का मातृप्रेम, पितृप्रेम, बंधुप्रेम , एक पत्नी प्रेम आदि सब कुछ जीवन मेँ उतारने योग्य है ।
श्रीकृष्ण के कृत्य हमारे लिए अशक्य है . उनका कालियानाग को वश मे करना , गोवर्धन उठाना आदि । रामचन्द्र ने अपना ऐश्वर्य छिपाकर मानव जीवन का नाटक किया साधक का वर्तन कैसा होना चाहिए यह रामचन्द्र जी बताया है । साधक का वर्तन रामचन्द्र जैसा होना चाहिए , सिद्ध पुरुष का वर्तन श्रीकृष्ण जैसा हो सकता है ।
रघुनाथ जी का अवतार राक्षसोँ की हत्या के हेतु नहीँ , मनुष्योँ को मानवधर्म सिखाने के लिए हुआ था । वे जीवमात्र को उपदेश देते हैँ । रामजी ने किसी भी मर्यादा को भंग नहीँ किया । हमेँ भी मर्यादा का पालन करते हुए श्रीकृष्ण को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए !!
हमारे पुण्य और पापकर्मो के परिणामस्वरुप प्रतिक्रियाएँ अस्थायी हैँ और हम इस बद्ध जीवन मेँ कभी भी प्रसन्न नहीँ हो सकते । ये भौतिक शरीर हमेँ भौतिक गुणोँ के अनुसार प्राप्त होते हैँ । जिससे हम अत्यन्त उद्विग्न रहते हैँ । जीवन की भौतिक स्थिति मेँ हमेँ केवल इस मृत शरीर मेँ भार ढोने वाले पशु बनने के लिए बाध्य किये गये हैँ तथा बद्ध जीवन के द्वारा बाध्य किये जाने पर हमने कृष्णभावनामृत के सुखी जीवन को त्याग दिया है । अब हमेँ अनुभव हुआ है कि हम सबसे अधिक मूर्ख हैँ । अपनी अज्ञानता के कारण हम भौतिक प्रतिक्रियाओँ के जाल मेँ फँस गये हैँ । अतएव हम श्रीकृष्ण के चरणकमलोँ की शरण मेँ आए हैँ , जो फलदायक कार्यकलापोँ के परिणामोँ को तुरन्त ही उन्मूलित कर सकती है और हमेँ भौतिक सुख दुःख के दोष से मुक्त कर सकते हैँ ।
मस्तक मेँ बुद्धि है जब बुद्धि ईश्वर का अनुभव करती है , तब संसार के सारे बंधन टूट जाते हैँ । जो भगवान को अपने मस्तक पर विराजमान करता है , उनके लिए कारागार के तो क्या मोक्ष के द्वार भी खुल जाते हैँ । जिसके सिर पर भगवान हैँ , उसके मार्ग मेँ विघ्न बाधाएँ नहीँ सता सकती ।
कारागृह के सांसारिक मोह के बंधन टूट जाते हैँ , अन्यथा यह सारा संसार मोह रुप कारागृह मे ही सोया हुआ है ।ज्ञान के अभाव मेँ भक्ति अंधी है , और भक्ति के अभाव मेँ ज्ञान पंगु । भक्ति के लिए ज्ञान और वैराग्य दोँनो की आवश्यकता है । ज्ञान एवं वैराग्य के बिना भक्ति वन्ध्या रह जाती है ।
कुछ ज्ञानी मानते हैँ कि उनको भक्ति की आवश्यकता नहीँ है । वे भक्ति को तिरस्कृत करते हैँ। इसी प्रकार कुछ भक्तजन ज्ञान और वैराग्य की उपेक्षा करते है। किन्तु ज्ञान एवं वैराग्य परस्पर एक दूसरे के पूरक हैँ । एक के अभाव मेँ दूसरा पंगु बन जाता है । ज्ञान वैराग्य सहित भक्ति होनी चाहिए । वैराग्य के बिना भक्ति कच्ची रह जाती है ।
भक्ति रहित ज्ञान अभिमानी बनाता है । भक्ति ज्ञान को नम्र बनाती है । भक्ति का साथ न हो तो ज्ञान अभिमान के द्वारा जीव को उद्धत बना देगा । ब्रह्मज्ञान होने पर भी यदि स्वरुप प्रीति न होगी तो ब्रह्मानुभव नहीँ होगा । सच्चा ज्ञानी वह है जो परमात्मा से प्रेम करता है । ज्ञानी होने के बाद धन,प्रतिष्ठा ,आश्रम आदि आ गये तो पतन ही होगा । ज्ञानी को भक्ति की आवश्यकता है ।
जीव ईश्वर से जब प्रगाढ़ प्रेम करने लगे तभी वे उसको अपने मूल रुप का दर्शन कराते हैँ । मनुष्य अपनी सारी धन सम्पत्ति केवल निजी व्यक्ति को ही बताता है , उसी प्रकार प्रभु भी अपने सच्चे भक्त को ही अपना सच्चा स्वरुप दिखाते है ।
ज्ञान , भक्ति और वैराग्य तीनो का समन्वय होने पर ही परमात्मा से साक्षात्कार होगा। भक्त हमेशा नम्र बना रहता है। नम्रता ही भक्ति का आसन है ।।
सभी के प्रति समभाव , समता रखे वही ज्ञानी है । सभी मेँ ईश्वर है , ऐसा ज्ञान होना ही सच्चा ज्ञान है । ईश्वर स्वरुप के ज्ञान के बिना न तो भक्ति होती है और न ही भक्ति दृढ होती है । अतः भक्ति मेँ ज्ञान भी आवश्यक है ।
.., विषय के प्रति जब तक वैराग्य नही उत्पन्न होता तब तक भक्ति नहीँ हो सकती ।भक्ति के पहले ज्ञान और वैराग्य आते हैँ । जहाँ  भक्ति है , वहाँ ज्ञान द्वारा रक्षा होती है । भक्ति सिद्ध होते ही सभी शास्त्रो का ज्ञान प्राप्त हो जाता है । राम की महिमा भी बहुत बडी है --
" नाम लिया उन्होँने जान लिया सकल शास्त्र का भेद ।
बिना नाम नरक मेँ गया पढ-पढ चारोँ वेद ।।"

No comments:

Post a Comment