Tuesday, 20 August 2019

सत्य और माया

ईश्वर के सिवा जो कुछ भी दिखायी देता है , वह असत्य है । अस्तित्व न होने पर भी जो दिखाई देता है और सभी मेँ व्याप्त होते हुए भी ईश्वर दिखाई नहीँ देता , यह ईश्वर की माया ही है । उसे ही महापुरुष आवरण और विक्षेप कहते हैँ । सभी का मूल उपादान कारण प्रभु हैँ । प्रभु मे भासमान संसार सत्य नहीँ है , किन्तु माया के कारण आभासित होता है ।
माया की दो शक्तियाँ है - (1) आवरण शक्ति > माया की आवरण शक्ति परमात्मा को छिपाए रहती है।
(2) विक्षेप शक्ति > माया की विक्षेप शक्ति ईश्वर के अधिष्ठान मेँ भी जगत् का भास कराती है ।
आत्मस्वरुप का विस्मरण ही माया है । अपने स्वरुप की विस्मृति स्वप्न ही है , जो स्वप्न देखता है , वह देखने वाला सच्चा है । स्वप्न मेँ एक ही पुरुष दो दिखाई देता है । तात्विक दृष्टि से देखेँ तो स्वप्न का और प्रमाता एक ही है । वह जब जागता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि मै घर मे विस्तर पर सोया हुआ हूँ ।
माया का अर्थ है अज्ञान । अज्ञान कब से शुरु हुआ . यह जानने की कोई जरुरत नही है । माया जीव से कब लगी है , उसका भी विचार करने की जरुरत नहीँ है ।
माया का अर्थ विस्मरण है ।
"मा" निषेधात्मक है और "या" हकारात्मक ।
इस प्रकार जो न हो , उसे दिखाए वह माया है ।
माया के तीन प्रकार हैँ -
(1) स्वमोहिका ।
(2) स्वजन मोहिका ।
(3) विमुखजन मोहिका ।
जो सतत् ब्रह्मदृष्टि रखता है,उसे माया पकड़ नहीँ सकती ।
माया नर्तकी है जो सबको नचाती है । नर्तकी माया के मोह से छूटना है तो नर्तकी शब्द को उलट देना चाहिए तब होगा कीर्तन । कीर्तन करने से माया छूटेगी । कीर्तन भक्ति मेँ हरेक इन्द्रिय को काम मिलता है । इसीलिए महापुरुषोँ ने कीर्तन भक्ति को श्रेष्ठ माना है । माया का पार पाने के लिए माया जिसकी दासी है , उस मायापति परमात्मा को पाने का प्रयत्न करना चाहिए । माया की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए माधवराय की शरण मेँ जाना होगा , भगवान स्वयं कहते हैँ - -
"मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।"
मुझे जो भजते हैँ , वे इस दुस्तर माया अथवा संसार को पार कर जाते है ।
इसलिए हमेँ हर किसी स्थान मेँ और हर किसी समय , अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि की कथाओँ का श्रवण , कीर्तन एवं स्मरण करना चाहिए --
"तस्मात् सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम् ।।"
जीवन रुपी वृक्ष की शोभा मात्र उसकी लताओँ अथवा पत्तोँ से नहीँ होती वरन् जब संस्कृति का फूल खिलता है , तभी उसमेँ सौन्दर्य एवं परिपूर्णता आती है । जिस प्रकार किसी वृक्ष का सारा सौन्दर्य , गौरव एवं ,मधुरस उसके पुष्प मेँ विद्यमान रहता है , उसी प्रकार राष्ट्र के जीवन का चिन्तन ,मनन एवं सौन्दर्य बोध उसकी संस्कृति मेँ ही निवास करता है , अतः समस्त भौतिक आवश्यकताओ की पूर्ति हो जाने पर भी संस्कृति का अभाव मनुष्य को अशोभनीय बना देता है ।
माया से पार पाने वाले को स्वतंत्र रहने के बदले किसी सच्चे संत को गुरु को बनाना चाहिए और सद्गुरु की आज्ञा मेँ रहना चाहिए ।
संत ऐसा ब्रह्मनिष्ठ हो जिसका स्मरण मात्र शिष्य को पाप कर्म की ओर बढ़ने से रोक दे ।
"जवानी अन्धी एवं उच्छृंखल होती है अतः इस अवस्था मेँ संतो की,सद्गुरु की आज्ञा मेँ रहना चाहिए । जो माया से छूटना चाहता है , वह ब्रह्मचर्य का पालन करे - आँखो से भी और मन से भी ।रोज एकान्त मेँ बैठकर प्रभुनाम का स्मरण करे ।
वाणी संयम भी आवश्यक है । प्रतिदिन कुछ समय तक मौन रखो ।मौन मन को एकाग्र करके चित्त की शक्ति को बढ़ाता है ।
वाणी एवं पानी का दुरुपयोग करने वाला ईश्वर का अपराधी है । मन, वचन , कर्म से किसी को भी न सताओ । स्वधर्म मेँ , भागवत धर्म मेँ निष्ठा रखो किन्तु अन्य धर्मो के प्रति कुभाव नहीँ । जीव और ईश्वर का पहला सम्बन्ध वाग्दान से होता है ।
अतः रोज प्रार्थना करें - "नाथ मैँ आपका हुँ , मेरे अपराधो को क्षमा करना ।"
विवेकपूर्वक विचार करने से माया का मोह कम होता है , अन्यथा मनुष्य अपना बहुत सा धन,व्यसन और फैशन मेँ गँवाता है ।
कलियुग मेँ श्रीकृष्ण का नाम जप करने से सद्गति मिलती है -
"कलियुग केवल नाम अधारा ।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहिँ पारा ।।
भाव कुभाव अनख आलसहु ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।"
कलियुग का मनुष्य विलासी है । शरीर की उत्पत्ति ही काम द्वारा होती है,सो इस युग मेँ योग और ज्ञानमार्ग की अपेक्षा हरिकीर्तन से ईश्वर को प्राप्त करना सरल है ।"नाम जप सरल हैँ क्योँकि जीभ हमारे आधीन है । भगवान का नाम सर्वसुलभ होने पर भी अधिकांश जीव नरकगामी होते हैँ ,यह बड़े आश्चर्य की बात है ---

"नारायणेति मंत्रोऽस्ति वागस्ति वशवर्तिनी ।
तथापि नरके घोरे पतन्तीत्येदद्भुतम्।।"
महाभारत के वनपर्व मे यक्ष युधिष्ठिर से पूछते हैँ कि -
इस जगत् का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?

युधिष्ठिर कहते है -
"अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यम मंदिरम्।
शेषाः स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।

मनुष्य प्रतिदिन हजारोँ जीवो को यम सदन जाते हुए देखता है , फिर भी वह स्वयं तो इस प्रकार व्यवहार करता है कि जैसे वह अमर हो । मनुष्य यहाँ हमेशा के लिए रहना चाहते है ।
इससे बड़ा आश्चर्य और क्या होगा ?
दूसरोँ  को मरते देखकर भी स्वयं को अमर मानकर भोग विलास मे डूबा रहना सबसे बड़ा आश्चर्य है।
जब प्रभू की माया रुपिणी स्त्री जीव को अपनी भुजा रुपी लता से आलिँगन करती है । तब वह अविवेक और अज्ञान के कारण रमण करने के लिए घर बनाने की धुन मेँ लग जाता है । इस प्रकार स्त्री पुत्र आदि मेँ मोहित होने के कारण उसकी आत्मा अपार अन्धकार मेँ पड़ जाती है । वह जीव उन काल चक्रधारी यज्ञपुरुष का तिरस्कार करके अन्य देवताओ का पूजन करने लगता है । कभी सर्दी गर्मी आदि दैहिक , दैविक , और भौतिक दुःखो से पीड़ित होकर भी जब उन्हेँ दूर नहीँ कर पाता तो अत्यन्त दुखित होता है । कभी कृपणता से धन संचय करता है और कभी धन के क्षीण हो जाने से उपभोग्य वस्तुओँ को न पाकर उनकी प्राप्ति के प्रयत्न मेँ अपमानित होता है ।
इस प्रकार के संसार बन्धनोँ से साधुजन ही लौट सकते है , शान्त , शील , और मन को वश मेँ करने वाले मुनिजन उन बन्धनो शीघ्र ही तोड़ डालते है । बड़े बड़े दिग्विजयी नरेश भी यज्ञादि कर्मो से इस बन्धन को नहीँ तोड़ पाये । वे पृथिवी के मोह मेँ फँसकर संग्राम भूमि मेँ शयन करने को विवश हो गये ।
कर्मवल्ली को पकड़कर नरक से छूट भी जाय तो भी उसे संसार मेँ लौटना पड़ता है और शुभकर्मो का फल क्षीण होने पर स्वर्ग से गिरकर संसार के भोगोँ को भोगना पड़ता है ।
जैसे कठपुतलियाँ जादूगर के संकेत पर नृत्य करती हैँ वैसे ही हम भी ईश्वर की इच्छा पर नृत्य करते हैँ । उनकी ही इच्छानुसार दुःख भोगते हैँ अथवा कृपानुसार सुख का उपभोग करते हैँ । सुख दुःख ईश्वरेच्छा से प्राप्त होते हैँ अतएव सभी परिस्थितियो मेँ उनका सन्तुलन समान होता है ।
"अस्मिन् महमोहमये कटाहे,सुर्याग्निना रात्रीदिवेंधनेन।
मासरतुदर्वी परीघट्टनेनभूतानि कालः पचतीति वार्ताह् ।।"

यह संसार एक मोह रूपी कड़ाहा है।। यहां काल पाचक अर्थात रसोइयां है। इसमे रात और दिन का ईंधन अग्नि के रूप मे निरंतर प्रज्वलित रहता है।कड़ाह मे चलाने के लिए 12 मास और छः ऋतुएँ करछुल का काम करती हैं। यह काल किसी को आज किसी को कल पका देता है। किसी को वर्षों बाद पकाता है।।
इस लिए कवियों ने कहा , खूब भजन करो,खुब काम करो लेकिन दो बातें याद रहें---
दो बातों को याद रख जो चाहे कल्याण।
नारायण इक मौत को दूजे श्री भगवान।।

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