Friday, 10 April 2020

क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? - 1

दशकों पूर्व का एक लेख
*धर्म सम्राट श्री करपात्री जी*

क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?


मथुरा ‘धर्म संघ’ के विशेषाधिवेशन में ‘अखण्ड ज्योति’ के सम्पादक ने अपने कुछ मित्रों की राय और अपने सन् 1942 के 20 सितम्बर के अंगवाले लेख की ओर ध्यान दिलाया और यह बतलाया कि “आज चार मुख के ब्रह्मा, छः मुख के षडानन, हजार मुख के शेष भी यदि कहें कि माला जपने से सुख-शान्ति होगी, तो भी दुनिया इस बात को नहीं मान सकती, जबकि पूजा-पाठ और माला जप होते हुए भी सोमनाथ का मन्दिर टूट ही गया, काशी विश्वनाथ को पलायन करना ही पड़ा। आज भी सब देशों की अपेक्षा यहाँ अधिक धर्म होता है, यहाँ छप्पन लाख साधु अपना समय निरन्तर भजन में ही लगाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेकों गृहस्थ भी भजन करते हैं। बड़े-बड़े मठ-मन्दिर करोड़ों की सम्पत्तियों से भरपूर हैं। गणितज्ञों ने गम्भीर विवेचन करके यह निश्चय कर लिया है, कि हर एक व्यक्ति के पीछे पौने तीन घण्टे का भजन पड़ता है। इस तरह प्रति व्यक्ति के पीछे दो आने की आय और उसमें से डेढ़ पैसे का दान पड़ता है। इस तरह सम्पूर्ण देशों की अपेक्षा यहाँ का धर्म, दान और भजन अधिक है। यदि इनका सदुपयोग हो (धर्मादि की सम्पत्तियों का सदुपयोग हो) तो कितनी ही यूनिवर्सिटियाँ चल सकती हैं। आज की दुनिया धर्म से ऊब गयी है, अतः आज ‘टन-टन’, ‘पों-पों’ से काम नहीं चलेगा। लोगों को धार्मिक बनने का उपदेश करने के पहले वर्तमान स्वरूप और उसके परिष्कार की ओर ध्यान देना होगा।”

वस्तुतः ऐसी अनेकों शंकाओं का मूल कारण है, अपने धर्म, कर्म, सभ्यता एवं संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाले शास्त्रों का अध्ययन न करना, उसके विपरीत इतिहासों, साहित्यों का अभ्यास और विपरीत वातावरण में पलना।

जब धर्म के स्वरूप पर हम विचार करते हैं तो मालूम होता है कि धर्म केवल माला जपना ही नहीे बतलाता, किन्तु वह तो अधिकारानुसार सामाजिक, राष्ट्रीय सब प्रकार के कर्त्तव्यों को सोच-समझकर यथायोग्य काम करने को कहता है। अतः इस प्रश्न का अवकाश ही नहीं रहता कि जब घर में आग लगी हो तो पानी ढूँढकर बुझाने का प्रयत्न करना चाहिये, केवल ‘राम-राम’ कहने से काम नहीं चल सकता। परन्तु यहाँ भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि घर में आग लगने पर ‘राम-राम’ कहते बैठे रहना सबसे हो भी नहीं सकता।
विपरीत भावना से, प्रचण्ड वायु से आग अधिक उत्तेजित भी हो सकती है, परन्तु जिसे पूर्ण विश्वास है वह ‘राम-राम’ के सहारे भोजन-पानादि की भी परवाह नहीं करता। जिसके मन में घर में आग लगने पर भी नाम का भाव दिखाई देता है, उसकी आग भगवत्कृपा से अवश्य बुझ जायेगी। परन्तु वैसी धारणा और योग्यता न होने पर भी जो भोजनपान-व्यवहारादि कार्यों में तत्पर, रहते हुए भी, समाज तथा राष्ट्र के हित में नहीं प्रवृत्त होते हैं; किसी भी धार्मिक, सामाजिक कार्यों के अवसर पर केवल राम-नाम का सहारा पकड़ते हैं, वे तो योग्यता और अवसर को न सोचकर एक सत्सिद्धान्त को केवल कलंकित ही करने का प्रयत्न करते हैं।

वैराग्य के स्थान में राग, राग के स्थान में वैराग्य प्रवृत्ति के स्थान में निवृत्ति और निवृत्ति के स्थान में प्रवृत्ति-अनुचित है, हानिकर है।

“नीकीहू फीकी लगत, बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में, रस सिंगार न सुहात।।”
परन्तु यदि दूसरा उपाय ही दृष्टिगोचर न हो, तब तो सिवा भगवान के सहारा के और चारा ही क्या है? इसीलिये तो जहाँ एक परमविश्वासी उच्चकोटि के भगवद्भक्त के लिये भगवद्भजन ही सर्वाभीष्टपूरक है, वैसे ही एक अत्यन्त आर्त्त या अर्थार्थी एवंच सर्वसाधनविहीन का एक मात्र भगवान ही सहारा है। तत्त्वनिष्ट कृतकृत्य ज्ञानी भक्त स्वभाव से ही भगवान को भजते हैं। जिज्ञासु ज्ञान-प्राप्त्यर्थ भगवान को भजते हैं। अर्थार्थी, आर्त्त अपनी अर्थ-प्राप्ति और आर्तिनिवृत्ति के लिये परमेश्वर को भजते हैं। किसी भी कामना वाला व्यक्ति अपनी अभीष्ट पूर्ति के लिये तत्तत्‌ उपायों का अनुष्ठान करता हुआ भी, उनकी सफलता के लिये परमेश्वर की आराधना करता है। जिज्ञासु भगवच्चरण-पंकज-समर्पण-बुद्ध्या धर्मों का अनुष्ठान करता है।

वेदान्तों का श्रवण, मनन, निदिध्यासन करता है। आर्त्त, अर्थार्थी शास्त्र के अनुसार नैतिक, आर्थिक उपायों का प्रयोग करता है, फिर भी ‘मामनुस्मर युद्ध्य च’ के अनुसार अपने अस्त्र-शस्त्र बल का गर्व, बौद्ध और बाहुबल के घमण्ड को छोड़कर, ईश्वर का आश्रयण करना पड़ता है। क्योंकि ईश्वर अनुकूल होने पर ही सम्पूर्ण लौकिक उपायों की सफलता होती है। भगवदुपेक्षित प्राणी के लिये सम्पूर्ण उपाय भी व्यर्थ हो जाते हैं। इसीलिये माता-पिता के द्वारा अनेक उपचारों से लालन-पालन करते रहने पर भी, बालकों की मृत्यु देखी जाती है।
चिकित्सकों के अनेक उपचारा करने पर भी रोगी मरते दिखते हैं। अत:-
“बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह
नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौः।[1]
“मातु मृत्यु पितु शमन समाना। सुधा होहिं विष सुन हरियाना।।
मित्र करहिं सत रिपु की करनी। ताकहँ बिबुध नदी बैतरनी।।
सब जग ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता।।”
“राम विमुख सम्पति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरसि गये पुनि तबहिं सुखाहीं।।”
अतः साधन-सम्पन्नों को भी श्रीभगवान का आश्रयण आवश्यक है। फिर तो जो साधन-विहीन हैं, उनके लिये तो सिवा भगवान के और सहारा ही क्या है? जैसे एक वीतराग तत्त्वनिष्ठ कृतकृत्य केवल भगवान के ही सहारे रहता है, उसके सम्पूर्ण योगक्षेम का भगवान ही निर्वाह करते हैं।

“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।”
अनन्य भावना से भगवान की आराधना में तत्पर प्राणियों को अप्राप्त अभीष्ट-प्राप्तिरूप योग और प्राप्त रक्षणरूप क्षेम श्रीभगवान ही पूरा करते हैं। वैसे ही साधनविहीन विश्वासी आर्त्त-अर्थार्थी की भी एकमात्र भगवान ही सहारा है। अतः उसके भी योगक्षेम को भगवान ही वहन करते हैं। परन्तु भारत  की स्थिति तो आज उससे भी अधिक चिन्तनीय है। वह तो आज आत्माराम कृतकृत्य नहीं, निष्काम मुमुक्षु नहीं, साधन-सम्पन्न आर्त्त एवं अर्थार्थी नहीं, इतने पर भी भगवद्विश्वासी नहीं अर्थात आर्त्त-अर्थार्थी होने पर भी आर्त्ति निवृत्ति और अर्थ प्राप्ति के लिये अपेक्षित साधनों से भी रहित है।
ऐसी स्थिति में भी निराश्रय निष्कपट भाव से भगवान को पुकारने से काम चल सकता था, परन्तु इस समय भगवान से विश्वास उठ गया है। गिरते समय प्राणी के हाथ-पाँव यद्यपि स्वभाव से ही किसी सहारे को टटोलने लगते हैं और दुनिया के सम्पूर्ण सहारों के कमजोर होने पर, एकमात्र भगवान का ही बल रह जाता है।

अतः स्वाभाविक रूप से भगवान का आश्रयण ही शेष रह जाता है। फिर भी जब ब्रह्मा, शेष आदि के कहने पर भी भगवान के पुकारने में विश्वास न हो, तो इसे राष्ट्र का दुर्भाग्य ही समझना चाहिये। रहा यह कि जप, पाठ, पूजा करते हुए भी सोमनाथ का मन्दिर टूट गया, विश्वनाथ भाग गये, हिन्दू जाति का सर्वस्व लुट गया; फिर ईश्वर या धर्म को पुकारने से क्या लाभ? परन्तु यदि ठण्डे दिल से विचार करें, तो इस शंका का कुछ भी महत्त्व नहीं है। पहले तो यह सोचना चाहिये कि क्या किसी उपाय के कभी असफल हो जाने मात्र से, सर्वदा के लिये उसे व्यर्थ और बेकाम समझ लेना उचित है?

क्या कभी वायुयान के फेल हो जाने या किसी यन्त्र के कलपुर्जों के बेकार हो जाने पर सर्वदा के लिये उनको बेकार समझ लिया जाता है? देखते तो यह हैं कि बार-बार वायुयानों, मोटरों, रेलों तथा अन्यान्य यन्त्रों के बेकार या हानिकारक होने पर भी उनका निर्माण और संचालन बन्द नहीं हुआ। बडे़-बड़े आविष्कारक वैज्ञानिक बार-बार विफल होने पर भी प्रयत्न का पीछा नहीं छोड़ते, फिर लाखों सफलता के भी तो उदाहरण विद्यमान हैं, फिर उनके आधार पर विश्वास ही क्यों न किया जाय?

असफलता का कारण कोई त्रुटि ही समझी जाती है। किसी यन्त्र के एक छिद्र या कीलों की गड़बड़ी या कमी-वेशी से वह व्यर्थ या हानिकारक हो सकता है। इसी तरह जो कार्यकारण-भाव अपैरुषेय अत: भ्रम-प्रमादादि स्पर्श से शून्य प्रामाणिक शास्त्र से सिद्ध है, कतिपयस्थलीय व्यभिचार दर्शन मात्र से उसका विघटन नहीं समझा जा सकता। जैसे वैज्ञानिक-निर्दिष्ट पद्धति से विपरीत किंचित भी उलट-फेर होने पर यन्त्र-संचालन और निर्माण व्यर्थ ही नहीं, हानिकारक समझे जाते हैं, वैसे ही शास्त्र-निर्दिष्ट पद्धति में किंचित भी गड़बड़ी होने पर जप, पाठ, पूजा आदि धर्म बेकार या हानिकारक हो सकते हैं, परन्तु इससे मात्र से ही उन शास्त्रों का अप्रामाण्य या उन जप, पाठ, पूजाओं में सर्वदा के लये अश्रद्धा कदापि उचित नहीं।
जब अनेकों स्थलों में वैज्ञानिक-निर्दिष्ट पद्धति से काम करने पर सफलता देखी जा चुकी है, तब तो स्पष्ट ही है कि जहाँ कहीं यन्त्रों की की विफलता या हानिकारकता देखी जाय, वहाँ संचालन, निर्माण में ही कर्तृ-क्रियादि की विगुणता या अन्यान्य किसी प्रकार की त्रुटि का ही फल-बल से कल्पना करना उचित है। इसी तरह जप, पाठ, पूजा आदि किन्हीं भी प्रामाणिक शास्त्रोक्त उपायों को जब अनेकों स्थलों में सफल होते देख रहे हैं, तो कतिपय स्थलों में व्यर्थता देखकर फल-बल से ही उनके अनुष्ठान में या साधनों में या कर्ताओं में अवश्य ही किसी प्रकार की त्रुटि समझ लेनी चाहिये। चिकित्सकों के शास्त्रोक्त अनेक उपाय कहीं व्यर्थ हो जाते हैं, साथ ही कहीं हानिकारक भी साबित होते हैं, तो भी वे उपाय सर्वदा व्यर्थ और सर्वदा हानिकारक हैं, यह समझना भारी भूल है। किन्तु यही समझना उचित है कि जब यह अनेकों स्थलों में सफल होते हैं, तो प्रयोक्ता या प्रयोग को ही कोई त्रुटि होने से कहीं विफल होते हैं।

इस तरह सहज ही में समझा जा सकता है, कि जब अनेक जगह पूजा, पाठ, जप आदि की सफलता प्रत्यक्ष ही देखी जाती है, फिर भी कहीं सोमनाथ आदि स्थलों में यदि पूजादि की व्यर्थता हुई, तो इससे प्रयोक्ताओं या प्रयोगों में ही त्रुटि की कल्पना कर लेनी चाहिये, न कि पूजादि उपायों को ही सर्वदा के लिये व्यर्थ और हानिकारक मान लेना चाहिये। अध्यक्षों और पूजकों के अत्याचारों, अनाचारों और मन्दिरों के अपचारों से मूर्ति में से देवतत्त्व हट जाता है।

अनुष्ठानों में, मन्त्रोच्चारण में किसी तरह की गड़बड़ी या अनुष्ठाताओं के आचार-विचारों में गड़बड़ी से अनुष्ठान व्यर्थ और हानिकारक हो सकते हैं, परन्तु इतने से ही सब अनुष्ठान वैसे ही नहीं समझे जा सकते। इसके सिवा जैसे दो मल्लों के युद्ध में प्रबल मल्ल की विजय, दुर्बल का पराभव होता है वैसे ही किसी अनर्थ को दूर करने के लिये किये गये पुरुषार्थ से, अनर्थ के जनकभूत प्रारब्ध कर्म से संघर्ष होता है। यदि पिछले अनर्थारम्भक कर्मों की प्रबलता रही और अनर्थ निवारक वर्तमान पुरुषार्थ कमजोर रहा तो पुरुषार्थ की व्यर्थता हो जाती है, परन्तु यदि अनर्थारम्भक प्रारब्ध कर्मों से पुरुषार्थ प्रबल हुआ तो अवश्य ही सफलता मिलती है। भेद यही है कि प्रारब्ध कर्म अब घटाये-बढ़ाये नहीं जा सकते, पुरुषार्थ बढ़ाया जा सकता है। अतः पुरुषार्थ से कभी भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है।
क्रमशः ...

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