हम लोग अपना सब समय,आत्मशक्ति इसी में नष्ट कर रहें हैं कि लोग हमें अच्छा कहें,जबकि उपर्युक्त सिद्धान्त से यह सर्वथा असंभव है।हम अच्छा बनने का प्रयत्न नहीं करते,हम अच्छा कहलाने का प्रयत्न करते है। परिणाम-स्वरुप हमारा जीवन दंभमय हो जाता है। प्रतिक्षण ऐक्टिंग,बनावट,एटीकेट के ही चक्कर में परेशान रहते है। जरा सोचिये कि संसार में अच्छे एवं बुरे दो प्रकार के लोग हैं एवं सदा रहेंगे। ईश्वर के क्षेत्र वाले अच्छे हैं,तीन गुणों के आधीन रहने वाले बुरे हैं। फिर उन बुरों में भी तामस से राजस अच्छे,राजस से सात्त्विक अच्छे हैं।
अब आपको ईश्वरीय क्षेत्र का वास्तविक'अच्छा' बनना है,जिसके पश्चात् पुन: बुरा बनने की नौबत न आए। ऐसे 'अच्छे' के विरोधी सात्त्विक,राजस,तामस,तीन प्रकार के लोग हैं। तो फिर आप कैसे आशा करते हैं कि स्वभाविक विरोधी गुण वाले आपके अनुकूल रहेंगे ? यदि आप सात्त्विक बनेंगे तो आपको राजस,तामस,एवं ईश्वरीय लोग बुरा कहेंगे।यदि तामस बनते हैं तो राजस,सात्त्विक,ईश्वरीय बुरा कहेंगे।जब तीन पार्टी विरोधी हैं ही तो ईश्वरीय अच्छा क्यों न बना जाय,जिससे सदा के लिए अच्छे ही बन जायें यानी आनन्दमय हो जायें?संसार तो अपना कार्य स्वभाविक गुणों के आधीन होने के कारण करेगा ही,उसकी चिन्ता हम क्यों करें?
भावार्थ यह कि संसार को उपर्युक्त प्रकार से परस्पर विरोधी समझकर अच्छा कहलाने में समय एवं आत्मशक्ति का अपव्यय न करें,अपितु सत्यमार्ग का अवलम्बन करें।संसार को मिटाना भी हमारे हाथ में नहीं है,अतएव,हमें अपने अन्तरंग संसार को मिटाकर अपना लक्ष्य प्राप्त करना है।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
Saturday, 29 April 2017
श्री कृपालु जी , सूत्र
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