Saturday, 22 April 2017

भक्ति सारामृत , भागवत धर्म ।

भक्ति सारामृत

प्रभु कहते है ... ... ...
(नोट - यह पढ़ बाहर किसमे है , किसमें नही यह नही देखना ,स्वयं में यह भावना कब श्री प्रभु की कृपा से प्रकट होगी यह भावना हो ... आत्मार्थ उत्थान का पथ अध्यात्म है , और हमारी जड़ता इतनी गहरी कि हम सन्मुख में रावण निज स्वरूप में राम विचारते है ... अहंकार की सिद्धि ही विष है , अब अहंकार जैसे भी सिद्ध हुआ विष ही होगा , अधिकतर पुण्य या धर्म के पथिक के सँग सिद्ध होता रहता है )

1. हन्त ते कथयिष्यामि मम धर्मान् सुमंगलान्।
यान् श्रद्धयाऽऽचरन् मर्त्यो मृत्युं जयति दुर्जयम्॥
अर्थः
हे उद्धव! अपना अत्यंत कल्याणकारी भागवत-धर्म तुझे बताता हूँ, सुन। उसका श्रद्धा से आचरण करने पर अत्यंत दुर्जन्य मृत्यु पर मानव विजय पा लेता है।

2. कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्।
मय्यर्पित मनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः॥
अर्थः
मेरे भागवत-धर्म में स्वयं रमकर, अपना मन और चित्त मुझे अर्पण कर, सावधानी से मेरा स्मरण करते हुए- सब कर्म मेरे लिए धीरे-धीरे करता जा।

3. मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम्।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खं अमलाशयः॥
अर्थः
शुद्ध अंतःकरण वाला पुरुष आकाश की तरह बाहर-भीतर आवरणरहित और मुक्त (निरुपाधि) मुझे यानि आत्मा को सब प्राणियों में और अपने हृदय में स्थित देखे।

4. ब्रह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिंगके।
अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पंडितो मतः॥
अर्थः
ब्राह्मण और अन्त्यज (जाति); चोर और साहू (कर्म); सूर्य और चिन्गारी (गुण); कृपालु और क्रूर (स्वभाव)- इन विषम वस्तुओं को जो समदृष्टि से देखता है, उसे ‘पंडित’ कहते हैं।

5. नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात्।
स्पर्धाऽसूयातिरस्काराः साहंकारा दियन्ति हि॥
अर्थः
जो पुरुष सभी स्त्री-पुरुषों में निरंतर मेरी ही भावना करता है, उसके स्पर्धा, मत्सर, तिरस्कार आदि दुष्ट विकार, अहंकार तक, कुछ ही काल में नष्ट हो जाते हैं।

6. विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीड़ां च दैहिकीम्।
प्रणमेद् दंडवद् भूमौ आश्वचांडालगोखरम्॥
अर्थः
स्वजन हँसी करें तो करने दें, देहविषयक दृष्टि और उनसे उत्पन्न लाज छोड़ दें और कुत्ते, चांडाल, गाय, गधा आदि सबको साष्टांग प्रणाम करें।

7. यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावों नोपजायते।
तावदेवं उपासीत वाङ्मनः काय-वृत्तिभिः॥
अर्थः
जब तक सब प्राणियों में ‘मेरी ईश्वर-रूप ही है’ ऐसी भावना न हो जाए, तब तक मेरा भक्त काया, वाचा और मन से मेरी उपासना करे।

8. अयं हि सर्वकल्पानां सघ्रीचीनो मतो मम।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्काय-वृत्तिभिः॥
अर्थः
मेरी प्राप्ति के सब उपायों में श्रेष्ठ उपाय मैं यही समझता हूँ कि काय, वाचा और मन को सब वृत्तियों से सब प्राणियों में मेरी भावना की जाए।

9. ऐषा बुद्धिमतां बुद्धिर् मनीषा च मनीषिणाम्।
यत् सत्यं अनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्॥
अर्थः
इस लोक में इस विनाशी असत शरीर द्वारा मुझ अविनाशी, सत्य तत्त्व को प्राप्त करने में ही विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा है।
!! वसुदैेवसर्वम ... जयजय श्यामाश्याम । तृषित ।

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