*रावल* - राधा रानी का जन्म स्थान
राधा जी के बारे में प्रचलित है कि वह बरसाना की थीं। लेकिन, हकीकत है कि उनका जन्म बरसाना से 50 किलोमीटर दूर हुआ था। यह गांव रावल के नाम प्रसिद्ध है। यहां पर राधा का जन्म स्थान है।
कमल के फूल पर जन्मी थीं राधा
- रावल गांव में राधा का मंदिर है। माना जाता है कि यहां पर राधाजी का जन्म स्थान है।
- श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान के सचिव कपिल शर्मा के अनुसार, 5 हजार साल पहले रावल गांव को छूकर यमुना बहती थी।
- राधा की मां कृति यमुना में स्नान करते हुए अराधना करती थी और पुत्री की लालसा रखती थी।
- पूजा करते समय एक दिन यमुना से कमल का फूल प्रकट हुआ। कमल के फूल से सोने की चमक सी रोशनी निकल रही थी। इसमें छोटी बच्ची का नेत्र बंद था। अब वह स्थान इस मंदिर का गर्भगृह है।
- इसके 11 महीने बाद 3 किलोमीटर दूर मथुरा में कंस के कारागार में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था।
- वह रात में गोकुल में नंदबाबा के घर पर पहुंचाए गए। तब नंद बाबा ने सभी जगह संदेश भेजा और कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया गया।
- जब बधाई लेकर वृषभान अपने गोद में राधारानी को लेकर यहां गए तो राधारानी घुटने के बल चलते हुए बालकृष्ण के पास पहुंची। वहां बैठते ही तब राधारानी के नेत्र खुले और उन्होंने पहला दर्शन बालकृष्ण का किया।
राधा और कृष्ण क्यों गए बरसाना
- कृष्ण के जन्म के बाद से ही कंस का प्रकोप गोकुल में बढ़ गया था। यहां के लोग परेशान हो गए थे।
- नंदबाबा ने स्थानीय राजाओं को इकट्ठा किया। उस वक्त बृज के सबसे बड़े राजा वृषभान थे। इनके पास 11 लाख गाय थीं। जबकि, नंद जी के पास नौ लाख गाय थी।
- जिसके पास सबसे ज्यादा गाय होतीं थी, वह वृषभान कहलाते थे। उससे कम गाय जिनके पास रहती थीं, वह नंद कहलाए जाते थे।
- बैठक के बाद फैसला हुआ कि गोकुल व रावल छोड़ दिया जाए।
- गोकुल से नंद बाबा और जनता पलायन करके पहाड़ी पर गए, उसका नाम नंदगांव पड़ा। वृषभान, कृति और राधारानी को लेकर पहाड़ी पर गए, उसका नाम बरसाना पड़ा।
रावल में मंदिर के सामने बगीचा, इसमें पेड़ स्वरूप में हैं राधा व श्याम
- रावल गांव में राधारानी के मंदिर के ठीक सामने प्राचीन बगीचा है। कहा जाता है कि यहां पर पेड़ स्वरूप में आज भी राधा और कृष्ण मौजूद हैं।
- यहां पर एक साथ दो पेड़ हैं। एक श्वेत है तो दूसरा श्याम रंग का। इसकी पूजा होती है। माना जाता है कि राधा और कृष्ण पेड़ स्वरूप में आज भी यहां से यमुना जी को निहारते हैं।
Sunday, 30 April 2017
राधा और रावल गाँव
Saturday, 29 April 2017
श्री कृपालु जी , सूत्र
हम लोग अपना सब समय,आत्मशक्ति इसी में नष्ट कर रहें हैं कि लोग हमें अच्छा कहें,जबकि उपर्युक्त सिद्धान्त से यह सर्वथा असंभव है।हम अच्छा बनने का प्रयत्न नहीं करते,हम अच्छा कहलाने का प्रयत्न करते है। परिणाम-स्वरुप हमारा जीवन दंभमय हो जाता है। प्रतिक्षण ऐक्टिंग,बनावट,एटीकेट के ही चक्कर में परेशान रहते है। जरा सोचिये कि संसार में अच्छे एवं बुरे दो प्रकार के लोग हैं एवं सदा रहेंगे। ईश्वर के क्षेत्र वाले अच्छे हैं,तीन गुणों के आधीन रहने वाले बुरे हैं। फिर उन बुरों में भी तामस से राजस अच्छे,राजस से सात्त्विक अच्छे हैं।
अब आपको ईश्वरीय क्षेत्र का वास्तविक'अच्छा' बनना है,जिसके पश्चात् पुन: बुरा बनने की नौबत न आए। ऐसे 'अच्छे' के विरोधी सात्त्विक,राजस,तामस,तीन प्रकार के लोग हैं। तो फिर आप कैसे आशा करते हैं कि स्वभाविक विरोधी गुण वाले आपके अनुकूल रहेंगे ? यदि आप सात्त्विक बनेंगे तो आपको राजस,तामस,एवं ईश्वरीय लोग बुरा कहेंगे।यदि तामस बनते हैं तो राजस,सात्त्विक,ईश्वरीय बुरा कहेंगे।जब तीन पार्टी विरोधी हैं ही तो ईश्वरीय अच्छा क्यों न बना जाय,जिससे सदा के लिए अच्छे ही बन जायें यानी आनन्दमय हो जायें?संसार तो अपना कार्य स्वभाविक गुणों के आधीन होने के कारण करेगा ही,उसकी चिन्ता हम क्यों करें?
भावार्थ यह कि संसार को उपर्युक्त प्रकार से परस्पर विरोधी समझकर अच्छा कहलाने में समय एवं आत्मशक्ति का अपव्यय न करें,अपितु सत्यमार्ग का अवलम्बन करें।संसार को मिटाना भी हमारे हाथ में नहीं है,अतएव,हमें अपने अन्तरंग संसार को मिटाकर अपना लक्ष्य प्राप्त करना है।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
कथा रस
देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिँ त्यज त्वं , जायासुतादिषु सदा मततां विमुञ्च ।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं , वैराग्यरागरसिको भव भक्किनिष्ठः ।।
यह हडडी माँस का बना हुआ शरीर है । यह मै हूँ ऐसा अभिमान छोड़ दो । पत्नी पुत्रादि मेरे है यह ममता भी छोड़ दो । जगत् क्षण भंगुर है यह मिट जायेगा । यदि राग किये बिना रहा नहीँ जाता , क्योँकि राग रस की वृत्ति है , किसी से मुहब्बत करके उसका मजा लेना है । तब उसका भी उपाय है कि "वैराग्यरागरसिको भव " अर्थात् अपना प्रियतम वैराग्य को बनाओ । वैराग्य को माशूक बनाकर उसके आशिक बन जाओ । माशूक का अर्थ है महासुख , और आशिक का अर्थ है आसक्त । महासुख ही माशूक और आसक्त ही आशिक हो गया है । इसलिए यदि किसी का आशिक बनना है तो वैराग्य के आशिक बनो और यदि किसी के प्रति निष्ठा बनानी है तो "भक्तिनीष्ठः " अर्थात् भक्ति के प्रति निष्ठा बनाऔ ।।
धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान् , सेवस्व साधु पुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम् ।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु मुक्त्वा , सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम् ।।
लोक धर्म अर्थात् सांसारिक सम्बन्धो का त्याग करके सच्चे धर्म का सेवन करो । सेवस्व साधु पुरुषम् अर्थात् साधु पुरुषो सन्त पुरुषो की सेवा करो । जहि कामतृष्णाम अर्थात् कामतृष्णा का परित्याग करो । दूसरे के दोष और गुण का चिन्तन मे रखा है ? इनको छोड़ दो क्योकि गुणो का चिन्तन करने से राग होगा , और दोषो का चिन्तन करने से द्वेष उत्पन्न होगा । जिसके हृदय मेँ राग द्वेष आकर बस जाता है , उसके हृदय मेँ दुश्मन एवं दोस्त आकर बस जाते है ., तब उसके हृदय मेँ ईश्वर का दर्शन नही होता । इसलिए सेवाकथारसमहो नितरां पिव अर्थात् भगवतसेवा के , भगवतकथा के रस का बार बार पान करो ।।
जय श्री कृष्ण ,......
धर्म का परिवार
धर्म का परिवार >
स्वायम्भुव मनु की पुत्री प्रसूति एवं दक्ष प्रजापति से चौबीस कन्याएँ हुईँ जिनमे तेरह - श्रद्धा , लक्ष्मी , धृति , तुष्टि , पुष्टि , मेधा , क्रिया ,बुद्धि , लज्जा , वपु , शान्ति , सिद्धि एवं कीर्ति का विवाह धर्म के साथ हुआ । जिनसे श्रद्धा ने काम को , लक्ष्मी ने दर्प को , धृति ने नियम को , तुष्टि ने संतोष को , और पुष्टि ने लाभ को उत्पन्न किया । मेधा से श्रुत का, क्रिया से दण्ड ,नय और विनय का , बुद्धि से बोध का, लज्जा से विनय का , वपु से व्यवसाय का . शान्ति से क्षेम का , सिद्धि से सुख का ,और कीर्ति से यश का जन्म हुआ ।
काम से उसकी पत्नी रति ने हर्ष नामक पुत्र उत्पन्न किया जो धर्म का पौत्र हुआ ।
> अधर्म का परिवार <
अधर्म की पत्नी हिँसा से अनृत नामक पुत्र एवं निऋति जिसे दुरुक्ति या कर्कशा भी कहते हैँ नामक कन्या उत्पन्न हुई ।
इन दोनो से नरक एवं भय नामक पुत्र एवं माया एवं वेदना नामक कन्या हुई ।
भय की स्त्री माया से सब प्राणियोँ का संहार करने वाले मृत्यु नामक पुत्र एवं वेदना ने नरक के संसर्ग से दुःख नामक पुत्र को जन्म दिया । मृत्यु से व्याधि , जरा , शोक , तृष्णा , और क्रोध उत्पन्न हुए ।।
Tuesday, 25 April 2017
भाव और रस
रस की उपलब्धि में भाव आवश्यकता
इस ‘रस’ की उपलब्धि ‘भाव’ के बिना नहीं होती। ‘भावुक’ हुए बिना ‘रसिक’ नहीं हुआ जाता। ‘भावग्राह्य’ या भावसाध्य रस का प्रकाशन - आस्वादन भाव के बिना सम्भव नहीं। अतएव जहाँ ‘रस’ का प्रकाश है, वहाँ भाव की विद्यमानता है ही। इसी से प्रेमरसास्वादनकारी ज्ञानी पुरुषों ने यह साक्षात्कार किया है कि सृष्टि के मूल में - प्रकाश और प्रलय सभी अवस्थाओं में - भावपरिरम्भित, भाव के द्वारा आलिंगित रस के उत्स - मूल स्रोत से ही रसानन्द की नित्य धारा प्रवाहित है।
इस प्रकार जिस रस और भाव की लीला से ही - उनकी नृत्युभंगिमा से ही समस्त विश्व का विविध विलासवैचित्र्य सतत विकसित, अनुप्राणित और आवर्तित है, सभी रसों और भावों का जो मूल आत्मा और प्राण है, वह एक महाभावपरिरम्भित रसराज या आनन्दरस-विलास-विलसित महाभावस्वरूपिणी श्रीराधा से समन्वित श्रीकृष्ण ही (दूसरे शब्दों में अभिन्नतत्त्व श्रीराधा-माधव ही) समस्त शास्त्रों के तथा महामनीषियों के द्वारा नित्य अन्वेषणीय परात्पर परिपूर्ण तत्व हैं।
जय जय श्यामाश्याम ।।।
Saturday, 22 April 2017
भक्ति सारामृत , भागवत धर्म ।
भक्ति सारामृत
प्रभु कहते है ... ... ...
(नोट - यह पढ़ बाहर किसमे है , किसमें नही यह नही देखना ,स्वयं में यह भावना कब श्री प्रभु की कृपा से प्रकट होगी यह भावना हो ... आत्मार्थ उत्थान का पथ अध्यात्म है , और हमारी जड़ता इतनी गहरी कि हम सन्मुख में रावण निज स्वरूप में राम विचारते है ... अहंकार की सिद्धि ही विष है , अब अहंकार जैसे भी सिद्ध हुआ विष ही होगा , अधिकतर पुण्य या धर्म के पथिक के सँग सिद्ध होता रहता है )
1. हन्त ते कथयिष्यामि मम धर्मान् सुमंगलान्।
यान् श्रद्धयाऽऽचरन् मर्त्यो मृत्युं जयति दुर्जयम्॥
अर्थः
हे उद्धव! अपना अत्यंत कल्याणकारी भागवत-धर्म तुझे बताता हूँ, सुन। उसका श्रद्धा से आचरण करने पर अत्यंत दुर्जन्य मृत्यु पर मानव विजय पा लेता है।
2. कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्।
मय्यर्पित मनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः॥
अर्थः
मेरे भागवत-धर्म में स्वयं रमकर, अपना मन और चित्त मुझे अर्पण कर, सावधानी से मेरा स्मरण करते हुए- सब कर्म मेरे लिए धीरे-धीरे करता जा।
3. मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम्।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खं अमलाशयः॥
अर्थः
शुद्ध अंतःकरण वाला पुरुष आकाश की तरह बाहर-भीतर आवरणरहित और मुक्त (निरुपाधि) मुझे यानि आत्मा को सब प्राणियों में और अपने हृदय में स्थित देखे।
4. ब्रह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिंगके।
अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पंडितो मतः॥
अर्थः
ब्राह्मण और अन्त्यज (जाति); चोर और साहू (कर्म); सूर्य और चिन्गारी (गुण); कृपालु और क्रूर (स्वभाव)- इन विषम वस्तुओं को जो समदृष्टि से देखता है, उसे ‘पंडित’ कहते हैं।
5. नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात्।
स्पर्धाऽसूयातिरस्काराः साहंकारा दियन्ति हि॥
अर्थः
जो पुरुष सभी स्त्री-पुरुषों में निरंतर मेरी ही भावना करता है, उसके स्पर्धा, मत्सर, तिरस्कार आदि दुष्ट विकार, अहंकार तक, कुछ ही काल में नष्ट हो जाते हैं।
6. विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीड़ां च दैहिकीम्।
प्रणमेद् दंडवद् भूमौ आश्वचांडालगोखरम्॥
अर्थः
स्वजन हँसी करें तो करने दें, देहविषयक दृष्टि और उनसे उत्पन्न लाज छोड़ दें और कुत्ते, चांडाल, गाय, गधा आदि सबको साष्टांग प्रणाम करें।
7. यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावों नोपजायते।
तावदेवं उपासीत वाङ्मनः काय-वृत्तिभिः॥
अर्थः
जब तक सब प्राणियों में ‘मेरी ईश्वर-रूप ही है’ ऐसी भावना न हो जाए, तब तक मेरा भक्त काया, वाचा और मन से मेरी उपासना करे।
8. अयं हि सर्वकल्पानां सघ्रीचीनो मतो मम।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्काय-वृत्तिभिः॥
अर्थः
मेरी प्राप्ति के सब उपायों में श्रेष्ठ उपाय मैं यही समझता हूँ कि काय, वाचा और मन को सब वृत्तियों से सब प्राणियों में मेरी भावना की जाए।
9. ऐषा बुद्धिमतां बुद्धिर् मनीषा च मनीषिणाम्।
यत् सत्यं अनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्॥
अर्थः
इस लोक में इस विनाशी असत शरीर द्वारा मुझ अविनाशी, सत्य तत्त्व को प्राप्त करने में ही विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा है।
!! वसुदैेवसर्वम ... जयजय श्यामाश्याम । तृषित ।
Thursday, 20 April 2017
नारायण का स्वरूप
नारायण का स्वरूप
माया तरण का उपाय सुनकर, अब राजा निमि को प्रश्न पूछने का एक और अच्छा निमित्त मिल गया। वे कहते हैं, “आपने कहा कि जो ‘नारायण परायण’ हो जाता है वह माया को सरलता से तर जाता है। कृपा करके अब मुझे आप यह बताइए कि ‘नारायण’ का स्वरूप क्या है? उनका स्वभाव कैसा होता है।” देखो, कैसे सुन्दर प्रश्न हैं। प्रश्नों का कैसा क्रम चल पड़ा है। पहला प्रश्न था कि जिससे परम श्रेय की प्राप्ति होती है वह भागवत धर्म क्या है? दूसरा था भगवद्भक्त कौन है? उसके लक्षण क्या हैं? फिर तीसरा था कि भगवद्भक्ति में जो बाधक बनती है वह माया क्या है? उस माया को पार करने का उपाय क्या है, कहाँ से प्रारम्भ करें? तब यह बताया गया कि जो नारायण परायण हो जाता है वह माया को पार कर जाता है।
ऐसा कहने पर, स्वाभाविक प्रश्न यह उठा कि जिन नारायण के परायण हो जाना है उनका स्वरूप क्या है? कोई कहता है वे क्षीरसागर में रहते हैं तो कोई कहता है वे वैकुण्ठ लोक में रहते हैं। कोई कहता है गोलोक में रहते हैं तो कोई कहता है साकेत लोक में रहते हैं। कोई कहता है वे शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज हैं तो कोई कहता है वे द्विभुज हैं। वास्तव में वे कैसे हैं? उनका क्या स्वरूप है? देखो, प्रभु को चतुर्भुज, द्विभुज मानने वालों में भी बहुत झगड़ा होता रहता है। झगड़े में वे एक दूसरे की भुजा काट डालते हैं।
भगवान सब देखते रहते हैं कि ये कैसे लोग हैं! यह कोई विनोद की बात नहीं है। भगवान का तिलक किस प्रकार का होना चाहिए इस बात को लेकर लोग कोर्ट में केस करते हैं। अंग्रेजों के समय में भी किया था। अंग्रेज न्यायधीश उसका क्या निर्णय सुनाते? बोले, चार दिन आड़ा और चार दिन सीधा लगाते रहो। नहीं तो मन्दिर को ही बन्द कर डालो। वे और क्या कहते? देखो, ऐसे मूढ़ लोग भी होते हैं। इसीलिए कहा गया है कि मूढ़ भक्त या मूढ़ मित्र के स्थान पर एक बुद्धिमान् शत्रु का होना ज्यादा अच्छा है। ये मूढ़ भक्त बहुत कष्ट देते रहते हैं, बहुत उपद्रव मचाते रहते हैं।
अतः यहाँ प्रश्न यह है कि उन नारायण का स्वरूप क्या है? वे दूध के सागर में रहते हैं कि शहद के सागर में? कहाँ रहते हैं? श्रीमद्भागवत में यह ‘नारायण’ शब्द बार-बार आता रहता हैं। इसलिए जरा अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि नारायण का स्वरूप क्या है।
नारायणभिधानस्य ब्रह्मणः परमात्मनः।
निष्ठामर्हथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमाः।।[1]
राजा निमि ने कहा, “आप ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं। कृपा करके मुझे बताइये कि जिनको नारायण कहते हैं, परमात्मा कहते हैं, ब्रह्म भी कहते हैं, उनका स्वरूप क्या है? लोक में उनके जो भिन्न-भिन्न रूप बताए जाते हैं क्या वे ही सब उनके वास्तविक स्वरूप हैं?” देखो, इस संदेह का सबसे अच्छा उत्तर एक ही श्लोक में पहले ही बताया गया है।
जब नारायण भगवान ने ध्रुव जी के कपोल को शंख से स्पर्श किया था, तो ध्रुव जी ने उनकी स्तुति में कहा था-
योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां
संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्रा।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम्।।[2]
जो भगवान मेरे हृदय में प्रवेश करके मेरी वाणी को, प्राणों को, ज्ञानेन्द्रियों को तथा अन्तःकरण को चेतना प्रदान करते हैं, वे सत्चैतन्य स्वरूप हैं। परमात्मा का, नारायण का वास्तविक स्वरूप यही है। यद्यपि भगवान नारायण का रूप चतुर्भुज आदि उपाधियों सहित भी बताया जाता है, तथापि उनका वास्तविक स्वरूप तो यही है। राजा निमि के पंचम प्रश्न का उत्तर पिप्पलायन योगी ने दिया है।
पिप्पलायन जी कहते हैं,“जिन्हें ‘नारायण’ कहा जाता है वे ही इस व्यापक विश्व के, सृष्टि के ‘स्थित्युद्रवप्रलयहेतुरहेतुरस्य’ उद्भव, स्थिति व प्रलय के हेतु हैं, कारण हैं अर्थात अधिष्ठान रूप हैं। समस्त के कारण होते हुए, वे स्वयं अकारण हैं, उनका कोई कारण या हेतु नहीं है क्योंकि वे तो स्वतः सिद्ध हैं।”
यत् स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सद् बहिश्च।
देहेन्द्रियासुहृदयानि चरन्ति येन
संजीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र।।[1]
एक ओर तो पिप्पलायन योगीश्वर ने ऐसा उत्तर दिया कि भगवान सम्पूर्ण सृष्टि के आदिकारण हैं, यही उनका स्वरूप है। अब, जगत का कारण असत् तो हो नहीं सकता, वह जो भी हो, सत् ही होगा। अर्थात वे स्वयं सत् हैं, वे ही देह-प्राण-इन्द्रिय आदि सभी उपाधियों को चेतना प्रदान करते हैं और वे ही जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं को प्रकाशित भी करते हैं। इसी को वेदान्त की (शास्त्रीय) भाषा में कहते हैं कि जो ब्रह्म समस्त जगत का अधिष्ठान है, वही उसका प्रकाशक भी है।
नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा।[2]
दूसरी ओर पिप्पलायन योगी यह भी कहते हैं कि ऐसे परमात्म तत्त्व को न तो मन से जाना जा सकता है, न ही वाणी या चक्षु से। तब अन्य इन्द्रियों की बात ही क्या की जाए। सच तो यह है कि समस्त इन्द्रियाँ उसी चैतन्य स्वरूप परमात्मा के कारण ही अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती हैं।
नात्मा जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ।[3]
उनका न कभी जन्म हुआ है न उसे कोई रोग होता है, न ही उसका कभी मरण होता है। ‘सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धिमात्रं’[4] वह निर्विशेष सत, चैतन्य स्वरूप तथा उपलब्धि-अनुभव स्वरूप है। जो लोग यह कहते हैं कि हमें आत्मा का अनुभव नहीं हो रहा है, वे बड़े मूढ़ हैं। जिस आत्मा के कारण अन्य सारे अनुभव हो रहे हैं, सारी वस्तुओं का अनुभव हो रहा है, कहते हैं उसी का अनुभव नहीं है!
बोधेऽप्यनुभवो यस्य न कथंचन जायते।
तं कथं बोधयेच्छास्त्रं लोष्ठं नरसमाकृतिम्।।[1]
बोध स्वरूप आत्मा का जिसको अनुभव नहीं होता हो, वह तो मनुष्य के रूप में मिट्टी का ढेला ही है। उसे शास्त्र भी किस प्रकार समझा पाएगा? इस बात को मैं नहीं कह रहा हूँ। ऐसा हमारे पूर्वाचार्य श्री विद्यारण्य स्वामी जी ने अपने ‘पंचदशी’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में कहा है। सभी चीजें आँखों से ही दिखायी दे रही हैं लेकिन आँखें स्वयं तो दिखाई नहीं देतीं। तथापि आँखें हैं, इसमें कोई शंका है क्या? बिना आँख के तो कोई देख ही नहीं सकता। इसी प्रकार, सारे जगत का बोध हो रहा है, ज्ञान हो रहा है, इसी से सिद्ध होता है कि अनुभव स्वरूप आत्मा है! सच्चिदानन्द ही उनका स्वरूप है, लेकिन अभी वह प्रकाशित नहीं हो रहा है। हमारा अन्तःकरण पता नहीं कैसा हो गया है। यद्यपि परमात्मा ही परम हैं, वे स्वयं ही सभी कुछ बने हुए हैं, तथापि ‘एषो विभुरात्मा न सर्वत्र प्रकाशते’ वे सर्वत्र प्रकाशित नहीं होते। ऐस्ग क्यों हैं? तो कहा-
तस्मिन् विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वं।[2]
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मानः।।[3]
हमारा स्वरूप तो सच्चिदानन्द है और वह सदा ही उपलब्ध है। लेकिन हमें ऐसा अनुभव नहीं हो रहा है क्योंकि हमारा मन अशुद्ध हो गया है, मलिन हेा गया है। यह मैला मन साफ कैसे हो? क्योंकि जो पुरुष निष्काम हो जाता है, जिसका मन निर्मल हो जाता है, उसी को इस प्रकार का अनुभव प्राप्त हो सकता है। इसलिए प्रश्न यह है कि यह मन शुद्ध कैसे हो?
यह्र्यब्जनाभचरणैषणयोरुभक्त्या
चेतोमलानि विधमेद् गुणकर्मजानि।[4]
मन जब भगवान के सगुण रूप का ध्यान करता है, उनके चरणों पर आश्रित हो जाता है और उनकी सेवा करता है; तब वह शुद्ध हो जाता है। मन की शुद्धि हो जाने पर भगवान का स्वरूप प्रकट हो जाता है। इस प्रकार पिप्पलायन योगी ने नारायण भगवान का स्वरूप तथा उनकी उपलब्धि का साधन भी बता दिया। जयजय श्यामाश्याम जी ।
Sunday, 16 April 2017
भक्तों के तीन प्रकार भाग 1
भक्तों के तीन प्रकार ...
इस (तीसरे) अध्याय के पहले तीन श्लोक ही खास महत्त्व रखते हैं। यहाँ भक्तों के तीन दर्जे किए गए हैं। इस तरह से भक्तों के दर्जे और कहीं किए गए नहीं दीखते।
'
(3.1) सर्व-भूतेषु यः पश्येत् भगवद्भावमात्मनः।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः।।
पहला वर्ग है सर्वोत्तम भक्त का। भागवतोत्तमः का अर्थ है उत्तम भक्त। उत्तम भक्त कौन होगा? यः सर्वभूतेषु भगवद्भावम् आत्मनः पश्येत्- जो सब भूतों में भगवान को देखेगा और अपने को भी देखेगा। यहाँ दुगुना विचार कहा गया है
सब भूतों में भगवान की भावना और अपनी भी भावना करना।
मित्र- मंडली में अपनी भावना करना सरल है, किंतु सब भूतों में अपने को देखना थोड़ा कठिन है। पर यहाँ कहा गया है कि सब भूतों में अपना ही दर्शन होना चाहिए। प्रथम अपना दर्शन और फिर भगवान का दर्शन।
सोचने की बात है कि सब भूतों में अपने को देखना सरल है या भगवान को देखना? भगवान को देखना सरल लगता है, लेकिन यदि किसी की भगवान पर श्रद्धा न हो तो उसके लिए सब भूतों में अपने को देखना ही एक तरीका होगा। वैसे तो यह बात कठिन अवश्य है। माँ अपने बच्चे में अपने को देखती है, लेकिन दूसरे के बच्चों के लिए उसकी वह भावना नहीं रहती। इसलिए भगवान की ज्योति सबमें है, यह मानना आसान लगता है। फिर भी उसके लिए ईश्वर पर श्रद्धा चाहिए। वैसी श्रद्धा न हो तो सबमें अपनी भावना करना अधिक सरल होगा। यह नास्तिकों के लिए सहूलियत है।
फिर दूसरी बात बतायी : भूतानि भगवति आत्मनि एषः पश्येत्- भक्त सब भूतों को भगवान में, अपने में भी देखता है। यानि सब ओतप्रोत है। मतलब यह कि भगवान में प्राणिमात्र हैं और प्राणिमात्र में भगवान है। हममें सब भूत हैं और सब भूतों में हम हैं- ये चार बातें समझा दीं।
वैसे देखा जाय तो दुनिया में अनेक भेद हैं, लेकिन जड़, चेतन और परमात्मा, ये प्रमुख भेद हैं। उनमें भी अवान्तर भेद हैं। जड़ यानि सारी अचेतन सृष्टि। सृष्टि में पत्थर, पानी, पेड़, पहाड़, ये सारे भेद पड़े हैं। घड़ी, कुर्सी, चश्मा, ये भेद भी हैं। एक का काम दूसरी वस्तु नहीं कर पाती। इसी तरह चेतन-चेतन में भी भेद हैं। मनुष्य अलग और गदहा अलग। यही क्यों, मनुष्य-मनुष्य में भी भेद हैं। जैसे परमेश्वर और जड़ में भेद होता है, वैसे ही परमेश्वर और चेतन में भी है। तो, कुल मिलाकर पाँच प्रकार के भेद हुए :
जड़-चेतन,
जड़-जड़,
चेतन-चेतन,
परमेश्वर-जड़ और
परमेश्वर-चेतन।
किंतु भागवत ये सारे भेद खतम करने की बात कह रही है। इन पाँचों भेदों में जो अभेद देखेगा, वही उत्तीर्ण होगा। वह ‘भागवतोत्तम:’ होगा यानि उत्तम भक्त होगा। प्रथम श्रेणी का, पहले दर्जे का भक्त होगा। इस तरह की आशा रखना तो ठीक ही है। क्रमशः ...