पात्रता के अभाव मेँ ज्ञान टिकता नहीँ है । सुपात्र के अभाव मेँ ज्ञान शोभा नहीँ पाता है । धन और ज्ञान सुपात्र के बिना शोभा नहीँ पाते है ।
जब तक ज्ञान क्रियात्मक नहीँ होता , तब तक वह अज्ञान जैसा ही होता है । बहुत जानने की अपेक्षा तो जितना जान लिया है , उसे जीवन मेँ उतारने का प्रयत्न करना चाहिए । ज्ञान जब तक क्रियात्मक न बन जाये तब तक उसकी कोई कीमत नही होती । जब ज्ञान क्रियात्मक होता है तभी वह शान्ति देता है । ज्ञान को शब्दरुप ही न रहने दिया जाय बल्कि उसे क्रियात्मक बनाया जाय । ज्ञान का अन्त न कभी हुआ और न कभी होने वाला है , परन्तु जितना ज्ञान प्राप्त हो गया है उसे ही क्रियात्मक बनाने से शान्ति मिलती है ।
कपिल अर्थात् जो जितेन्द्रिय है वही ज्ञान को पचा सकता है । विलासी जन ज्ञान का अनुभव नही कर सकते ।
कर्दम जीवात्मा है और देवहूति बुद्धि है । देवहूति देव को बुलाने वाली निष्काम बुद्धि है ।
ज्ञान प्राप्त करने हेतु सरस्वती के पास रहना होगा। कर्दम होना होगा । यदि हम कर्दम होँगे तभी बुद्धि देवहूति बनेगी, अर्थात् जितेन्द्रिय होने पर ही बुद्धि निष्काम होगी और कपिल भगवान आयेगे अर्थात् ज्ञान सिद्ध होगा । ज्ञान सिद्ध होने पर पुरुषार्थ सिद्ध होगा ।
वैराग्य और संयम के अभाव मेँ ज्ञान सिद्ध नही होता , प्राप्त ज्ञान को जीवन मे उतारकर भक्तिमय जीवन बिताने वाले जन बहुत ही विरले हैँ ।
ज्ञान का. सार है *****वैराग्य! वैराग्य के बिना असंगता नहीं आयेगी और दुखड़ा, नही मिटेगा. ! यदि कोई कहे कि. समाधि लगाने से दुख मिट जायेगा तो यह कहना ठीक, नहीं, क्योंकि जब समाधि टूटेगी तो फिर दुख पर सवार हो जायेगा ¡! लेकिन यदि असंगता आ जाय तो चाहे समाधि हो चाहे दुख हो ,चाहे सर्दी हो या गर्मी , दुख का आत्यन्तिक निवारण हो जायेगा , असल में वैराग्यही असंगता ही ज्ञान का सार है । कई लोग समाधि द्वारा अपनी बलिष्ठ प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेते है । परन्तु उनको फिर संसार में. आना पड़ता है, लेकिन यदि हृदय. में भगवद् भक्ति. आजाय तो. दुख भी. सुख हो जाता है.!जिस पात्र मेँ वर्षो से तेल ही रखा जाता है , ऐसे बर्तन को पाँच दस बार धोने पर वह स्वच्छ तो होगा , किन्तु तेल की वास नहीँ जायेगी । अब उस बर्तन मेँ यदि चटनी अचार रखा जायेगा तो वह बिगड़ जायेगा । हमारा मस्तिष्क भी ठीक ऐसा ही है । जिसमेँ कई वर्षो से कामवासना रुपी तेल रखा गया है । इस बुद्धिरुपी पात्र मेँ श्रीकृष्ण रुपी रस रखना है। मस्तिष्क रुपी बर्तन मेँ काम का अंशमात्र भी होगा तो उसमेँ प्रेम रस , जमेगा ही नहीँ । जब बुद्धि मेँ परमात्मा का निवास होगा,तभी पूर्ण शान्ति मिलेगी । जब तक बुद्धि मे ईश्वर का अनुभव नहीँ होगा तब तक आनन्द का अनुभव नहीँ हो पायेगा । संसार के विषयोँ का ज्ञान बुद्धि मेँ आने पर विषय सुखरुप बनते हैँ ।
परमात्मा को बुद्धि मेँ रखना है । मस्तिष्क मेँ जब ईश्वर आ बसते हैँ ,तभी ईश्वर स्वरुप का ज्ञान पूर्ण आनन्द देता है । जैसे तेल के अंश से चटनी अचार बिगड़ते है वैसे ही बुद्धि मेँ वासना का अंश रह जाने पर वह अस्थिर ही रहेगी।
बुद्धि को स्थिर और शुद्ध करने हेतु मन के स्वामी चंद्र और बुद्धि के स्वामी सूर्य की आराधना करनी है । त्रिकाल संध्या करने से बुद्धि विशुद्ध होगी ।
जब तक राम नहीँ आते हैँ । तब तक कृष्ण भी नहीँ आते है जिसके घर मे राम नही आते हैँ , उसका रावण (काम) मरता नहीँ और जब तक कामरुपी रावण नही मरता तब तक श्रीकृष्ण नही आते है। जब राम की मर्यादा का पालन किया जायेगा तभी काम मरेगा । चाहे जिस संप्रदाय मेँ विश्वास हो , किन्तु जब तक रामचन्द्र की मर्यादा का पालन नहीँ किया जायेगा तब तक आनन्द नहीँ मिलेगा । रामचन्द्र की उत्तम सेवा यही है कि उनकी मर्यादा का पालन किया जाए । उनका सा ही वर्तन रखो । रामजी का भजन करना अर्थात् उनकी मर्यादा का पालन करना । उनका वर्तन हमेँ जीवन मेँ उतारना चाहिए ।
यदि राम जी को मन मेँ बसाने , मर्यादा-पुरुषोत्तम रामचन्द्र का अनुकरण करने पर भगवान मिलेँगे । रामजी की लीलाएँ अनुकरणीय एवं श्रीकृष्ण की लीलाएँ चिँतनीय हैँ ।
रामचन्द्र का मातृप्रेम, पितृप्रेम, बंधुप्रेम , एक पत्नी प्रेम आदि सब कुछ जीवन मेँ उतारने योग्य है ।
श्रीकृष्ण के कृत्य हमारे लिए अशक्य है . उनका कालियानाग को वश मे करना , गोवर्धन उठाना आदि । रामचन्द्र ने अपना ऐश्वर्य छिपाकर मानव जीवन का नाटक किया साधक का वर्तन कैसा होना चाहिए यह रामचन्द्र जी बताया है । साधक का वर्तन रामचन्द्र जैसा होना चाहिए , सिद्ध पुरुष का वर्तन श्रीकृष्ण जैसा हो सकता है ।
रघुनाथ जी का अवतार राक्षसोँ की हत्या के हेतु नहीँ , मनुष्योँ को मानवधर्म सिखाने के लिए हुआ था । वे जीवमात्र को उपदेश देते हैँ । रामजी ने किसी भी मर्यादा को भंग नहीँ किया । हमेँ भी मर्यादा का पालन करते हुए श्रीकृष्ण को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए !!
हमारे पुण्य और पापकर्मो के परिणामस्वरुप प्रतिक्रियाएँ अस्थायी हैँ और हम इस बद्ध जीवन मेँ कभी भी प्रसन्न नहीँ हो सकते । ये भौतिक शरीर हमेँ भौतिक गुणोँ के अनुसार प्राप्त होते हैँ । जिससे हम अत्यन्त उद्विग्न रहते हैँ । जीवन की भौतिक स्थिति मेँ हमेँ केवल इस मृत शरीर मेँ भार ढोने वाले पशु बनने के लिए बाध्य किये गये हैँ तथा बद्ध जीवन के द्वारा बाध्य किये जाने पर हमने कृष्णभावनामृत के सुखी जीवन को त्याग दिया है । अब हमेँ अनुभव हुआ है कि हम सबसे अधिक मूर्ख हैँ । अपनी अज्ञानता के कारण हम भौतिक प्रतिक्रियाओँ के जाल मेँ फँस गये हैँ । अतएव हम श्रीकृष्ण के चरणकमलोँ की शरण मेँ आए हैँ , जो फलदायक कार्यकलापोँ के परिणामोँ को तुरन्त ही उन्मूलित कर सकती है और हमेँ भौतिक सुख दुःख के दोष से मुक्त कर सकते हैँ ।
मस्तक मेँ बुद्धि है जब बुद्धि ईश्वर का अनुभव करती है , तब संसार के सारे बंधन टूट जाते हैँ । जो भगवान को अपने मस्तक पर विराजमान करता है , उनके लिए कारागार के तो क्या मोक्ष के द्वार भी खुल जाते हैँ । जिसके सिर पर भगवान हैँ , उसके मार्ग मेँ विघ्न बाधाएँ नहीँ सता सकती ।
कारागृह के सांसारिक मोह के बंधन टूट जाते हैँ , अन्यथा यह सारा संसार मोह रुप कारागृह मे ही सोया हुआ है ।ज्ञान के अभाव मेँ भक्ति अंधी है , और भक्ति के अभाव मेँ ज्ञान पंगु । भक्ति के लिए ज्ञान और वैराग्य दोँनो की आवश्यकता है । ज्ञान एवं वैराग्य के बिना भक्ति वन्ध्या रह जाती है ।
कुछ ज्ञानी मानते हैँ कि उनको भक्ति की आवश्यकता नहीँ है । वे भक्ति को तिरस्कृत करते हैँ। इसी प्रकार कुछ भक्तजन ज्ञान और वैराग्य की उपेक्षा करते है। किन्तु ज्ञान एवं वैराग्य परस्पर एक दूसरे के पूरक हैँ । एक के अभाव मेँ दूसरा पंगु बन जाता है । ज्ञान वैराग्य सहित भक्ति होनी चाहिए । वैराग्य के बिना भक्ति कच्ची रह जाती है ।
भक्ति रहित ज्ञान अभिमानी बनाता है । भक्ति ज्ञान को नम्र बनाती है । भक्ति का साथ न हो तो ज्ञान अभिमान के द्वारा जीव को उद्धत बना देगा । ब्रह्मज्ञान होने पर भी यदि स्वरुप प्रीति न होगी तो ब्रह्मानुभव नहीँ होगा । सच्चा ज्ञानी वह है जो परमात्मा से प्रेम करता है । ज्ञानी होने के बाद धन,प्रतिष्ठा ,आश्रम आदि आ गये तो पतन ही होगा । ज्ञानी को भक्ति की आवश्यकता है ।
जीव ईश्वर से जब प्रगाढ़ प्रेम करने लगे तभी वे उसको अपने मूल रुप का दर्शन कराते हैँ । मनुष्य अपनी सारी धन सम्पत्ति केवल निजी व्यक्ति को ही बताता है , उसी प्रकार प्रभु भी अपने सच्चे भक्त को ही अपना सच्चा स्वरुप दिखाते है ।
ज्ञान , भक्ति और वैराग्य तीनो का समन्वय होने पर ही परमात्मा से साक्षात्कार होगा। भक्त हमेशा नम्र बना रहता है। नम्रता ही भक्ति का आसन है ।।
सभी के प्रति समभाव , समता रखे वही ज्ञानी है । सभी मेँ ईश्वर है , ऐसा ज्ञान होना ही सच्चा ज्ञान है । ईश्वर स्वरुप के ज्ञान के बिना न तो भक्ति होती है और न ही भक्ति दृढ होती है । अतः भक्ति मेँ ज्ञान भी आवश्यक है ।
.., विषय के प्रति जब तक वैराग्य नही उत्पन्न होता तब तक भक्ति नहीँ हो सकती ।भक्ति के पहले ज्ञान और वैराग्य आते हैँ । जहाँ भक्ति है , वहाँ ज्ञान द्वारा रक्षा होती है । भक्ति सिद्ध होते ही सभी शास्त्रो का ज्ञान प्राप्त हो जाता है । राम की महिमा भी बहुत बडी है --
" नाम लिया उन्होँने जान लिया सकल शास्त्र का भेद ।
बिना नाम नरक मेँ गया पढ-पढ चारोँ वेद ।।"
Thursday, 22 August 2019
पात्रता अभाव और ज्ञान
Tuesday, 20 August 2019
सत्य और माया
ईश्वर के सिवा जो कुछ भी दिखायी देता है , वह असत्य है । अस्तित्व न होने पर भी जो दिखाई देता है और सभी मेँ व्याप्त होते हुए भी ईश्वर दिखाई नहीँ देता , यह ईश्वर की माया ही है । उसे ही महापुरुष आवरण और विक्षेप कहते हैँ । सभी का मूल उपादान कारण प्रभु हैँ । प्रभु मे भासमान संसार सत्य नहीँ है , किन्तु माया के कारण आभासित होता है ।
माया की दो शक्तियाँ है - (1) आवरण शक्ति > माया की आवरण शक्ति परमात्मा को छिपाए रहती है।
(2) विक्षेप शक्ति > माया की विक्षेप शक्ति ईश्वर के अधिष्ठान मेँ भी जगत् का भास कराती है ।
आत्मस्वरुप का विस्मरण ही माया है । अपने स्वरुप की विस्मृति स्वप्न ही है , जो स्वप्न देखता है , वह देखने वाला सच्चा है । स्वप्न मेँ एक ही पुरुष दो दिखाई देता है । तात्विक दृष्टि से देखेँ तो स्वप्न का और प्रमाता एक ही है । वह जब जागता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि मै घर मे विस्तर पर सोया हुआ हूँ ।
माया का अर्थ है अज्ञान । अज्ञान कब से शुरु हुआ . यह जानने की कोई जरुरत नही है । माया जीव से कब लगी है , उसका भी विचार करने की जरुरत नहीँ है ।
माया का अर्थ विस्मरण है ।
"मा" निषेधात्मक है और "या" हकारात्मक ।
इस प्रकार जो न हो , उसे दिखाए वह माया है ।
माया के तीन प्रकार हैँ -
(1) स्वमोहिका ।
(2) स्वजन मोहिका ।
(3) विमुखजन मोहिका ।
जो सतत् ब्रह्मदृष्टि रखता है,उसे माया पकड़ नहीँ सकती ।
माया नर्तकी है जो सबको नचाती है । नर्तकी माया के मोह से छूटना है तो नर्तकी शब्द को उलट देना चाहिए तब होगा कीर्तन । कीर्तन करने से माया छूटेगी । कीर्तन भक्ति मेँ हरेक इन्द्रिय को काम मिलता है । इसीलिए महापुरुषोँ ने कीर्तन भक्ति को श्रेष्ठ माना है । माया का पार पाने के लिए माया जिसकी दासी है , उस मायापति परमात्मा को पाने का प्रयत्न करना चाहिए । माया की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए माधवराय की शरण मेँ जाना होगा , भगवान स्वयं कहते हैँ - -
"मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।"
मुझे जो भजते हैँ , वे इस दुस्तर माया अथवा संसार को पार कर जाते है ।
इसलिए हमेँ हर किसी स्थान मेँ और हर किसी समय , अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि की कथाओँ का श्रवण , कीर्तन एवं स्मरण करना चाहिए --
"तस्मात् सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम् ।।"
जीवन रुपी वृक्ष की शोभा मात्र उसकी लताओँ अथवा पत्तोँ से नहीँ होती वरन् जब संस्कृति का फूल खिलता है , तभी उसमेँ सौन्दर्य एवं परिपूर्णता आती है । जिस प्रकार किसी वृक्ष का सारा सौन्दर्य , गौरव एवं ,मधुरस उसके पुष्प मेँ विद्यमान रहता है , उसी प्रकार राष्ट्र के जीवन का चिन्तन ,मनन एवं सौन्दर्य बोध उसकी संस्कृति मेँ ही निवास करता है , अतः समस्त भौतिक आवश्यकताओ की पूर्ति हो जाने पर भी संस्कृति का अभाव मनुष्य को अशोभनीय बना देता है ।
माया से पार पाने वाले को स्वतंत्र रहने के बदले किसी सच्चे संत को गुरु को बनाना चाहिए और सद्गुरु की आज्ञा मेँ रहना चाहिए ।
संत ऐसा ब्रह्मनिष्ठ हो जिसका स्मरण मात्र शिष्य को पाप कर्म की ओर बढ़ने से रोक दे ।
"जवानी अन्धी एवं उच्छृंखल होती है अतः इस अवस्था मेँ संतो की,सद्गुरु की आज्ञा मेँ रहना चाहिए । जो माया से छूटना चाहता है , वह ब्रह्मचर्य का पालन करे - आँखो से भी और मन से भी ।रोज एकान्त मेँ बैठकर प्रभुनाम का स्मरण करे ।
वाणी संयम भी आवश्यक है । प्रतिदिन कुछ समय तक मौन रखो ।मौन मन को एकाग्र करके चित्त की शक्ति को बढ़ाता है ।
वाणी एवं पानी का दुरुपयोग करने वाला ईश्वर का अपराधी है । मन, वचन , कर्म से किसी को भी न सताओ । स्वधर्म मेँ , भागवत धर्म मेँ निष्ठा रखो किन्तु अन्य धर्मो के प्रति कुभाव नहीँ । जीव और ईश्वर का पहला सम्बन्ध वाग्दान से होता है ।
अतः रोज प्रार्थना करें - "नाथ मैँ आपका हुँ , मेरे अपराधो को क्षमा करना ।"
विवेकपूर्वक विचार करने से माया का मोह कम होता है , अन्यथा मनुष्य अपना बहुत सा धन,व्यसन और फैशन मेँ गँवाता है ।
कलियुग मेँ श्रीकृष्ण का नाम जप करने से सद्गति मिलती है -
"कलियुग केवल नाम अधारा ।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहिँ पारा ।।
भाव कुभाव अनख आलसहु ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।"
कलियुग का मनुष्य विलासी है । शरीर की उत्पत्ति ही काम द्वारा होती है,सो इस युग मेँ योग और ज्ञानमार्ग की अपेक्षा हरिकीर्तन से ईश्वर को प्राप्त करना सरल है ।"नाम जप सरल हैँ क्योँकि जीभ हमारे आधीन है । भगवान का नाम सर्वसुलभ होने पर भी अधिकांश जीव नरकगामी होते हैँ ,यह बड़े आश्चर्य की बात है ---
"नारायणेति मंत्रोऽस्ति वागस्ति वशवर्तिनी ।
तथापि नरके घोरे पतन्तीत्येदद्भुतम्।।"
महाभारत के वनपर्व मे यक्ष युधिष्ठिर से पूछते हैँ कि -
इस जगत् का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?
युधिष्ठिर कहते है -
"अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यम मंदिरम्।
शेषाः स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।
मनुष्य प्रतिदिन हजारोँ जीवो को यम सदन जाते हुए देखता है , फिर भी वह स्वयं तो इस प्रकार व्यवहार करता है कि जैसे वह अमर हो । मनुष्य यहाँ हमेशा के लिए रहना चाहते है ।
इससे बड़ा आश्चर्य और क्या होगा ?
दूसरोँ को मरते देखकर भी स्वयं को अमर मानकर भोग विलास मे डूबा रहना सबसे बड़ा आश्चर्य है।
जब प्रभू की माया रुपिणी स्त्री जीव को अपनी भुजा रुपी लता से आलिँगन करती है । तब वह अविवेक और अज्ञान के कारण रमण करने के लिए घर बनाने की धुन मेँ लग जाता है । इस प्रकार स्त्री पुत्र आदि मेँ मोहित होने के कारण उसकी आत्मा अपार अन्धकार मेँ पड़ जाती है । वह जीव उन काल चक्रधारी यज्ञपुरुष का तिरस्कार करके अन्य देवताओ का पूजन करने लगता है । कभी सर्दी गर्मी आदि दैहिक , दैविक , और भौतिक दुःखो से पीड़ित होकर भी जब उन्हेँ दूर नहीँ कर पाता तो अत्यन्त दुखित होता है । कभी कृपणता से धन संचय करता है और कभी धन के क्षीण हो जाने से उपभोग्य वस्तुओँ को न पाकर उनकी प्राप्ति के प्रयत्न मेँ अपमानित होता है ।
इस प्रकार के संसार बन्धनोँ से साधुजन ही लौट सकते है , शान्त , शील , और मन को वश मेँ करने वाले मुनिजन उन बन्धनो शीघ्र ही तोड़ डालते है । बड़े बड़े दिग्विजयी नरेश भी यज्ञादि कर्मो से इस बन्धन को नहीँ तोड़ पाये । वे पृथिवी के मोह मेँ फँसकर संग्राम भूमि मेँ शयन करने को विवश हो गये ।
कर्मवल्ली को पकड़कर नरक से छूट भी जाय तो भी उसे संसार मेँ लौटना पड़ता है और शुभकर्मो का फल क्षीण होने पर स्वर्ग से गिरकर संसार के भोगोँ को भोगना पड़ता है ।
जैसे कठपुतलियाँ जादूगर के संकेत पर नृत्य करती हैँ वैसे ही हम भी ईश्वर की इच्छा पर नृत्य करते हैँ । उनकी ही इच्छानुसार दुःख भोगते हैँ अथवा कृपानुसार सुख का उपभोग करते हैँ । सुख दुःख ईश्वरेच्छा से प्राप्त होते हैँ अतएव सभी परिस्थितियो मेँ उनका सन्तुलन समान होता है ।
"अस्मिन् महमोहमये कटाहे,सुर्याग्निना रात्रीदिवेंधनेन।
मासरतुदर्वी परीघट्टनेनभूतानि कालः पचतीति वार्ताह् ।।"
यह संसार एक मोह रूपी कड़ाहा है।। यहां काल पाचक अर्थात रसोइयां है। इसमे रात और दिन का ईंधन अग्नि के रूप मे निरंतर प्रज्वलित रहता है।कड़ाह मे चलाने के लिए 12 मास और छः ऋतुएँ करछुल का काम करती हैं। यह काल किसी को आज किसी को कल पका देता है। किसी को वर्षों बाद पकाता है।।
इस लिए कवियों ने कहा , खूब भजन करो,खुब काम करो लेकिन दो बातें याद रहें---
दो बातों को याद रख जो चाहे कल्याण।
नारायण इक मौत को दूजे श्री भगवान।।