पात्रता के अभाव मेँ ज्ञान टिकता नहीँ है । सुपात्र के अभाव मेँ ज्ञान शोभा नहीँ पाता है । धन और ज्ञान सुपात्र के बिना शोभा नहीँ पाते है ।
जब तक ज्ञान क्रियात्मक नहीँ होता , तब तक वह अज्ञान जैसा ही होता है । बहुत जानने की अपेक्षा तो जितना जान लिया है , उसे जीवन मेँ उतारने का प्रयत्न करना चाहिए । ज्ञान जब तक क्रियात्मक न बन जाये तब तक उसकी कोई कीमत नही होती । जब ज्ञान क्रियात्मक होता है तभी वह शान्ति देता है । ज्ञान को शब्दरुप ही न रहने दिया जाय बल्कि उसे क्रियात्मक बनाया जाय । ज्ञान का अन्त न कभी हुआ और न कभी होने वाला है , परन्तु जितना ज्ञान प्राप्त हो गया है उसे ही क्रियात्मक बनाने से शान्ति मिलती है ।
कपिल अर्थात् जो जितेन्द्रिय है वही ज्ञान को पचा सकता है । विलासी जन ज्ञान का अनुभव नही कर सकते ।
कर्दम जीवात्मा है और देवहूति बुद्धि है । देवहूति देव को बुलाने वाली निष्काम बुद्धि है ।
ज्ञान प्राप्त करने हेतु सरस्वती के पास रहना होगा। कर्दम होना होगा । यदि हम कर्दम होँगे तभी बुद्धि देवहूति बनेगी, अर्थात् जितेन्द्रिय होने पर ही बुद्धि निष्काम होगी और कपिल भगवान आयेगे अर्थात् ज्ञान सिद्ध होगा । ज्ञान सिद्ध होने पर पुरुषार्थ सिद्ध होगा ।
वैराग्य और संयम के अभाव मेँ ज्ञान सिद्ध नही होता , प्राप्त ज्ञान को जीवन मे उतारकर भक्तिमय जीवन बिताने वाले जन बहुत ही विरले हैँ ।
ज्ञान का. सार है *****वैराग्य! वैराग्य के बिना असंगता नहीं आयेगी और दुखड़ा, नही मिटेगा. ! यदि कोई कहे कि. समाधि लगाने से दुख मिट जायेगा तो यह कहना ठीक, नहीं, क्योंकि जब समाधि टूटेगी तो फिर दुख पर सवार हो जायेगा ¡! लेकिन यदि असंगता आ जाय तो चाहे समाधि हो चाहे दुख हो ,चाहे सर्दी हो या गर्मी , दुख का आत्यन्तिक निवारण हो जायेगा , असल में वैराग्यही असंगता ही ज्ञान का सार है । कई लोग समाधि द्वारा अपनी बलिष्ठ प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेते है । परन्तु उनको फिर संसार में. आना पड़ता है, लेकिन यदि हृदय. में भगवद् भक्ति. आजाय तो. दुख भी. सुख हो जाता है.!जिस पात्र मेँ वर्षो से तेल ही रखा जाता है , ऐसे बर्तन को पाँच दस बार धोने पर वह स्वच्छ तो होगा , किन्तु तेल की वास नहीँ जायेगी । अब उस बर्तन मेँ यदि चटनी अचार रखा जायेगा तो वह बिगड़ जायेगा । हमारा मस्तिष्क भी ठीक ऐसा ही है । जिसमेँ कई वर्षो से कामवासना रुपी तेल रखा गया है । इस बुद्धिरुपी पात्र मेँ श्रीकृष्ण रुपी रस रखना है। मस्तिष्क रुपी बर्तन मेँ काम का अंशमात्र भी होगा तो उसमेँ प्रेम रस , जमेगा ही नहीँ । जब बुद्धि मेँ परमात्मा का निवास होगा,तभी पूर्ण शान्ति मिलेगी । जब तक बुद्धि मे ईश्वर का अनुभव नहीँ होगा तब तक आनन्द का अनुभव नहीँ हो पायेगा । संसार के विषयोँ का ज्ञान बुद्धि मेँ आने पर विषय सुखरुप बनते हैँ ।
परमात्मा को बुद्धि मेँ रखना है । मस्तिष्क मेँ जब ईश्वर आ बसते हैँ ,तभी ईश्वर स्वरुप का ज्ञान पूर्ण आनन्द देता है । जैसे तेल के अंश से चटनी अचार बिगड़ते है वैसे ही बुद्धि मेँ वासना का अंश रह जाने पर वह अस्थिर ही रहेगी।
बुद्धि को स्थिर और शुद्ध करने हेतु मन के स्वामी चंद्र और बुद्धि के स्वामी सूर्य की आराधना करनी है । त्रिकाल संध्या करने से बुद्धि विशुद्ध होगी ।
जब तक राम नहीँ आते हैँ । तब तक कृष्ण भी नहीँ आते है जिसके घर मे राम नही आते हैँ , उसका रावण (काम) मरता नहीँ और जब तक कामरुपी रावण नही मरता तब तक श्रीकृष्ण नही आते है। जब राम की मर्यादा का पालन किया जायेगा तभी काम मरेगा । चाहे जिस संप्रदाय मेँ विश्वास हो , किन्तु जब तक रामचन्द्र की मर्यादा का पालन नहीँ किया जायेगा तब तक आनन्द नहीँ मिलेगा । रामचन्द्र की उत्तम सेवा यही है कि उनकी मर्यादा का पालन किया जाए । उनका सा ही वर्तन रखो । रामजी का भजन करना अर्थात् उनकी मर्यादा का पालन करना । उनका वर्तन हमेँ जीवन मेँ उतारना चाहिए ।
यदि राम जी को मन मेँ बसाने , मर्यादा-पुरुषोत्तम रामचन्द्र का अनुकरण करने पर भगवान मिलेँगे । रामजी की लीलाएँ अनुकरणीय एवं श्रीकृष्ण की लीलाएँ चिँतनीय हैँ ।
रामचन्द्र का मातृप्रेम, पितृप्रेम, बंधुप्रेम , एक पत्नी प्रेम आदि सब कुछ जीवन मेँ उतारने योग्य है ।
श्रीकृष्ण के कृत्य हमारे लिए अशक्य है . उनका कालियानाग को वश मे करना , गोवर्धन उठाना आदि । रामचन्द्र ने अपना ऐश्वर्य छिपाकर मानव जीवन का नाटक किया साधक का वर्तन कैसा होना चाहिए यह रामचन्द्र जी बताया है । साधक का वर्तन रामचन्द्र जैसा होना चाहिए , सिद्ध पुरुष का वर्तन श्रीकृष्ण जैसा हो सकता है ।
रघुनाथ जी का अवतार राक्षसोँ की हत्या के हेतु नहीँ , मनुष्योँ को मानवधर्म सिखाने के लिए हुआ था । वे जीवमात्र को उपदेश देते हैँ । रामजी ने किसी भी मर्यादा को भंग नहीँ किया । हमेँ भी मर्यादा का पालन करते हुए श्रीकृष्ण को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए !!
हमारे पुण्य और पापकर्मो के परिणामस्वरुप प्रतिक्रियाएँ अस्थायी हैँ और हम इस बद्ध जीवन मेँ कभी भी प्रसन्न नहीँ हो सकते । ये भौतिक शरीर हमेँ भौतिक गुणोँ के अनुसार प्राप्त होते हैँ । जिससे हम अत्यन्त उद्विग्न रहते हैँ । जीवन की भौतिक स्थिति मेँ हमेँ केवल इस मृत शरीर मेँ भार ढोने वाले पशु बनने के लिए बाध्य किये गये हैँ तथा बद्ध जीवन के द्वारा बाध्य किये जाने पर हमने कृष्णभावनामृत के सुखी जीवन को त्याग दिया है । अब हमेँ अनुभव हुआ है कि हम सबसे अधिक मूर्ख हैँ । अपनी अज्ञानता के कारण हम भौतिक प्रतिक्रियाओँ के जाल मेँ फँस गये हैँ । अतएव हम श्रीकृष्ण के चरणकमलोँ की शरण मेँ आए हैँ , जो फलदायक कार्यकलापोँ के परिणामोँ को तुरन्त ही उन्मूलित कर सकती है और हमेँ भौतिक सुख दुःख के दोष से मुक्त कर सकते हैँ ।
मस्तक मेँ बुद्धि है जब बुद्धि ईश्वर का अनुभव करती है , तब संसार के सारे बंधन टूट जाते हैँ । जो भगवान को अपने मस्तक पर विराजमान करता है , उनके लिए कारागार के तो क्या मोक्ष के द्वार भी खुल जाते हैँ । जिसके सिर पर भगवान हैँ , उसके मार्ग मेँ विघ्न बाधाएँ नहीँ सता सकती ।
कारागृह के सांसारिक मोह के बंधन टूट जाते हैँ , अन्यथा यह सारा संसार मोह रुप कारागृह मे ही सोया हुआ है ।ज्ञान के अभाव मेँ भक्ति अंधी है , और भक्ति के अभाव मेँ ज्ञान पंगु । भक्ति के लिए ज्ञान और वैराग्य दोँनो की आवश्यकता है । ज्ञान एवं वैराग्य के बिना भक्ति वन्ध्या रह जाती है ।
कुछ ज्ञानी मानते हैँ कि उनको भक्ति की आवश्यकता नहीँ है । वे भक्ति को तिरस्कृत करते हैँ। इसी प्रकार कुछ भक्तजन ज्ञान और वैराग्य की उपेक्षा करते है। किन्तु ज्ञान एवं वैराग्य परस्पर एक दूसरे के पूरक हैँ । एक के अभाव मेँ दूसरा पंगु बन जाता है । ज्ञान वैराग्य सहित भक्ति होनी चाहिए । वैराग्य के बिना भक्ति कच्ची रह जाती है ।
भक्ति रहित ज्ञान अभिमानी बनाता है । भक्ति ज्ञान को नम्र बनाती है । भक्ति का साथ न हो तो ज्ञान अभिमान के द्वारा जीव को उद्धत बना देगा । ब्रह्मज्ञान होने पर भी यदि स्वरुप प्रीति न होगी तो ब्रह्मानुभव नहीँ होगा । सच्चा ज्ञानी वह है जो परमात्मा से प्रेम करता है । ज्ञानी होने के बाद धन,प्रतिष्ठा ,आश्रम आदि आ गये तो पतन ही होगा । ज्ञानी को भक्ति की आवश्यकता है ।
जीव ईश्वर से जब प्रगाढ़ प्रेम करने लगे तभी वे उसको अपने मूल रुप का दर्शन कराते हैँ । मनुष्य अपनी सारी धन सम्पत्ति केवल निजी व्यक्ति को ही बताता है , उसी प्रकार प्रभु भी अपने सच्चे भक्त को ही अपना सच्चा स्वरुप दिखाते है ।
ज्ञान , भक्ति और वैराग्य तीनो का समन्वय होने पर ही परमात्मा से साक्षात्कार होगा। भक्त हमेशा नम्र बना रहता है। नम्रता ही भक्ति का आसन है ।।
सभी के प्रति समभाव , समता रखे वही ज्ञानी है । सभी मेँ ईश्वर है , ऐसा ज्ञान होना ही सच्चा ज्ञान है । ईश्वर स्वरुप के ज्ञान के बिना न तो भक्ति होती है और न ही भक्ति दृढ होती है । अतः भक्ति मेँ ज्ञान भी आवश्यक है ।
.., विषय के प्रति जब तक वैराग्य नही उत्पन्न होता तब तक भक्ति नहीँ हो सकती ।भक्ति के पहले ज्ञान और वैराग्य आते हैँ । जहाँ भक्ति है , वहाँ ज्ञान द्वारा रक्षा होती है । भक्ति सिद्ध होते ही सभी शास्त्रो का ज्ञान प्राप्त हो जाता है । राम की महिमा भी बहुत बडी है --
" नाम लिया उन्होँने जान लिया सकल शास्त्र का भेद ।
बिना नाम नरक मेँ गया पढ-पढ चारोँ वेद ।।"
Thursday, 22 August 2019
पात्रता अभाव और ज्ञान
Tuesday, 20 August 2019
सत्य और माया
ईश्वर के सिवा जो कुछ भी दिखायी देता है , वह असत्य है । अस्तित्व न होने पर भी जो दिखाई देता है और सभी मेँ व्याप्त होते हुए भी ईश्वर दिखाई नहीँ देता , यह ईश्वर की माया ही है । उसे ही महापुरुष आवरण और विक्षेप कहते हैँ । सभी का मूल उपादान कारण प्रभु हैँ । प्रभु मे भासमान संसार सत्य नहीँ है , किन्तु माया के कारण आभासित होता है ।
माया की दो शक्तियाँ है - (1) आवरण शक्ति > माया की आवरण शक्ति परमात्मा को छिपाए रहती है।
(2) विक्षेप शक्ति > माया की विक्षेप शक्ति ईश्वर के अधिष्ठान मेँ भी जगत् का भास कराती है ।
आत्मस्वरुप का विस्मरण ही माया है । अपने स्वरुप की विस्मृति स्वप्न ही है , जो स्वप्न देखता है , वह देखने वाला सच्चा है । स्वप्न मेँ एक ही पुरुष दो दिखाई देता है । तात्विक दृष्टि से देखेँ तो स्वप्न का और प्रमाता एक ही है । वह जब जागता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि मै घर मे विस्तर पर सोया हुआ हूँ ।
माया का अर्थ है अज्ञान । अज्ञान कब से शुरु हुआ . यह जानने की कोई जरुरत नही है । माया जीव से कब लगी है , उसका भी विचार करने की जरुरत नहीँ है ।
माया का अर्थ विस्मरण है ।
"मा" निषेधात्मक है और "या" हकारात्मक ।
इस प्रकार जो न हो , उसे दिखाए वह माया है ।
माया के तीन प्रकार हैँ -
(1) स्वमोहिका ।
(2) स्वजन मोहिका ।
(3) विमुखजन मोहिका ।
जो सतत् ब्रह्मदृष्टि रखता है,उसे माया पकड़ नहीँ सकती ।
माया नर्तकी है जो सबको नचाती है । नर्तकी माया के मोह से छूटना है तो नर्तकी शब्द को उलट देना चाहिए तब होगा कीर्तन । कीर्तन करने से माया छूटेगी । कीर्तन भक्ति मेँ हरेक इन्द्रिय को काम मिलता है । इसीलिए महापुरुषोँ ने कीर्तन भक्ति को श्रेष्ठ माना है । माया का पार पाने के लिए माया जिसकी दासी है , उस मायापति परमात्मा को पाने का प्रयत्न करना चाहिए । माया की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए माधवराय की शरण मेँ जाना होगा , भगवान स्वयं कहते हैँ - -
"मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।"
मुझे जो भजते हैँ , वे इस दुस्तर माया अथवा संसार को पार कर जाते है ।
इसलिए हमेँ हर किसी स्थान मेँ और हर किसी समय , अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि की कथाओँ का श्रवण , कीर्तन एवं स्मरण करना चाहिए --
"तस्मात् सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम् ।।"
जीवन रुपी वृक्ष की शोभा मात्र उसकी लताओँ अथवा पत्तोँ से नहीँ होती वरन् जब संस्कृति का फूल खिलता है , तभी उसमेँ सौन्दर्य एवं परिपूर्णता आती है । जिस प्रकार किसी वृक्ष का सारा सौन्दर्य , गौरव एवं ,मधुरस उसके पुष्प मेँ विद्यमान रहता है , उसी प्रकार राष्ट्र के जीवन का चिन्तन ,मनन एवं सौन्दर्य बोध उसकी संस्कृति मेँ ही निवास करता है , अतः समस्त भौतिक आवश्यकताओ की पूर्ति हो जाने पर भी संस्कृति का अभाव मनुष्य को अशोभनीय बना देता है ।
माया से पार पाने वाले को स्वतंत्र रहने के बदले किसी सच्चे संत को गुरु को बनाना चाहिए और सद्गुरु की आज्ञा मेँ रहना चाहिए ।
संत ऐसा ब्रह्मनिष्ठ हो जिसका स्मरण मात्र शिष्य को पाप कर्म की ओर बढ़ने से रोक दे ।
"जवानी अन्धी एवं उच्छृंखल होती है अतः इस अवस्था मेँ संतो की,सद्गुरु की आज्ञा मेँ रहना चाहिए । जो माया से छूटना चाहता है , वह ब्रह्मचर्य का पालन करे - आँखो से भी और मन से भी ।रोज एकान्त मेँ बैठकर प्रभुनाम का स्मरण करे ।
वाणी संयम भी आवश्यक है । प्रतिदिन कुछ समय तक मौन रखो ।मौन मन को एकाग्र करके चित्त की शक्ति को बढ़ाता है ।
वाणी एवं पानी का दुरुपयोग करने वाला ईश्वर का अपराधी है । मन, वचन , कर्म से किसी को भी न सताओ । स्वधर्म मेँ , भागवत धर्म मेँ निष्ठा रखो किन्तु अन्य धर्मो के प्रति कुभाव नहीँ । जीव और ईश्वर का पहला सम्बन्ध वाग्दान से होता है ।
अतः रोज प्रार्थना करें - "नाथ मैँ आपका हुँ , मेरे अपराधो को क्षमा करना ।"
विवेकपूर्वक विचार करने से माया का मोह कम होता है , अन्यथा मनुष्य अपना बहुत सा धन,व्यसन और फैशन मेँ गँवाता है ।
कलियुग मेँ श्रीकृष्ण का नाम जप करने से सद्गति मिलती है -
"कलियुग केवल नाम अधारा ।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहिँ पारा ।।
भाव कुभाव अनख आलसहु ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।"
कलियुग का मनुष्य विलासी है । शरीर की उत्पत्ति ही काम द्वारा होती है,सो इस युग मेँ योग और ज्ञानमार्ग की अपेक्षा हरिकीर्तन से ईश्वर को प्राप्त करना सरल है ।"नाम जप सरल हैँ क्योँकि जीभ हमारे आधीन है । भगवान का नाम सर्वसुलभ होने पर भी अधिकांश जीव नरकगामी होते हैँ ,यह बड़े आश्चर्य की बात है ---
"नारायणेति मंत्रोऽस्ति वागस्ति वशवर्तिनी ।
तथापि नरके घोरे पतन्तीत्येदद्भुतम्।।"
महाभारत के वनपर्व मे यक्ष युधिष्ठिर से पूछते हैँ कि -
इस जगत् का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?
युधिष्ठिर कहते है -
"अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यम मंदिरम्।
शेषाः स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।
मनुष्य प्रतिदिन हजारोँ जीवो को यम सदन जाते हुए देखता है , फिर भी वह स्वयं तो इस प्रकार व्यवहार करता है कि जैसे वह अमर हो । मनुष्य यहाँ हमेशा के लिए रहना चाहते है ।
इससे बड़ा आश्चर्य और क्या होगा ?
दूसरोँ को मरते देखकर भी स्वयं को अमर मानकर भोग विलास मे डूबा रहना सबसे बड़ा आश्चर्य है।
जब प्रभू की माया रुपिणी स्त्री जीव को अपनी भुजा रुपी लता से आलिँगन करती है । तब वह अविवेक और अज्ञान के कारण रमण करने के लिए घर बनाने की धुन मेँ लग जाता है । इस प्रकार स्त्री पुत्र आदि मेँ मोहित होने के कारण उसकी आत्मा अपार अन्धकार मेँ पड़ जाती है । वह जीव उन काल चक्रधारी यज्ञपुरुष का तिरस्कार करके अन्य देवताओ का पूजन करने लगता है । कभी सर्दी गर्मी आदि दैहिक , दैविक , और भौतिक दुःखो से पीड़ित होकर भी जब उन्हेँ दूर नहीँ कर पाता तो अत्यन्त दुखित होता है । कभी कृपणता से धन संचय करता है और कभी धन के क्षीण हो जाने से उपभोग्य वस्तुओँ को न पाकर उनकी प्राप्ति के प्रयत्न मेँ अपमानित होता है ।
इस प्रकार के संसार बन्धनोँ से साधुजन ही लौट सकते है , शान्त , शील , और मन को वश मेँ करने वाले मुनिजन उन बन्धनो शीघ्र ही तोड़ डालते है । बड़े बड़े दिग्विजयी नरेश भी यज्ञादि कर्मो से इस बन्धन को नहीँ तोड़ पाये । वे पृथिवी के मोह मेँ फँसकर संग्राम भूमि मेँ शयन करने को विवश हो गये ।
कर्मवल्ली को पकड़कर नरक से छूट भी जाय तो भी उसे संसार मेँ लौटना पड़ता है और शुभकर्मो का फल क्षीण होने पर स्वर्ग से गिरकर संसार के भोगोँ को भोगना पड़ता है ।
जैसे कठपुतलियाँ जादूगर के संकेत पर नृत्य करती हैँ वैसे ही हम भी ईश्वर की इच्छा पर नृत्य करते हैँ । उनकी ही इच्छानुसार दुःख भोगते हैँ अथवा कृपानुसार सुख का उपभोग करते हैँ । सुख दुःख ईश्वरेच्छा से प्राप्त होते हैँ अतएव सभी परिस्थितियो मेँ उनका सन्तुलन समान होता है ।
"अस्मिन् महमोहमये कटाहे,सुर्याग्निना रात्रीदिवेंधनेन।
मासरतुदर्वी परीघट्टनेनभूतानि कालः पचतीति वार्ताह् ।।"
यह संसार एक मोह रूपी कड़ाहा है।। यहां काल पाचक अर्थात रसोइयां है। इसमे रात और दिन का ईंधन अग्नि के रूप मे निरंतर प्रज्वलित रहता है।कड़ाह मे चलाने के लिए 12 मास और छः ऋतुएँ करछुल का काम करती हैं। यह काल किसी को आज किसी को कल पका देता है। किसी को वर्षों बाद पकाता है।।
इस लिए कवियों ने कहा , खूब भजन करो,खुब काम करो लेकिन दो बातें याद रहें---
दो बातों को याद रख जो चाहे कल्याण।
नारायण इक मौत को दूजे श्री भगवान।।
Tuesday, 2 July 2019
श्रीजी भागवत सुधा से ।
श्रीमद्भागवत सुधा से
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श्री जी
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श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पाश्र्वे
नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्।
इष्णन्निषाणामुं म इषाण
सर्वलोकं म इषाण।।
श्रीमहीधर ने "श्री" का अर्थ किया है ....."सम्पत्ति-"
यथा सर्वजनाश्रयणीयी भवति सा श्रीः।
श्रीयतेअनया श्रीः सम्पतिरित्ययर्थः।
उन्होंने लक्ष्मी का अर्थ किया है सौन्दर्य, वह वस्तु जिसके द्वारा कोई वस्तु मनुष्यों के द्वारा लक्षित की जाती है-
लक्ष्यते दृश्यते जनैः सा लक्ष्मीः। सौन्दर्यमित्यर्थः
हे पुरुषोत्तम! श्री और लक्ष्मी तुम्हारी पत्नी हैं। दिन और रात्रि तुम्हारे पाश्र्व भाग हैं। आकाश में छिटके हुए सारे तुम्हारे रूप की रश्मियाँ हैं। द्युलोक और पृथ्वी लोक तुम्हारे मुख के विकास हैं। हम जानते हैं कि तुम हमें चाहते हो। इसलिये अवश्य हमारा अभ्युदय और निःश्रेयस चाहो। हमारा लोक, परलोक और सर्वलोक तुम श्रेष्ठ बना दो। सर्वलोक में मेरा आत्मभाव हो जाय।)
श्रयते हरिम् या सा श्रीः
जो भगवान की सेवा करे वह श्री। सेवा क्या है?
भक्ति।
‘भज सेवायां’ सेवा भक्ति भी कई तरह की होती है। पंखा चलाना भी सेवा है और पैर दबाना भी सेवा है, पर मुख्य सेवा क्या है-
कृष्णसेवा सदा कार्या मानसी सा परा मता।
चेतस्तत्प्रवणं सेवा तत्सिद्धयै तनुवित्तजा।।
अर्थात प्राणी को सदा श्रीकृष्ण सेवा करनी चाहिये। सेवा में भी मानसी सेवा ही सर्वोत्कृष्ट है। चित्त की कृष्णोन्मुखता या कृष्ण में तन्मयता ही सेवा है। मानसी सेवा की सिद्धि के लिये तनुजा और वित्तजा सेवा करनी चाहिये।
कायिकी वाचिकी आदि सेवा करते-करते अन्त में मानसी सेवा की योग्यता प्राप्त होती है।
‘विजातीयप्रत्ययनिारासपूर्वकसेव्याकाराकारित मानसीवृत्तिप्रवाह’ ही मानसी सेवा है।
जिस प्रकार समुद्रोन्मुखी गंगा का अखण्ड प्रवाह चलता है। उसी प्रकार भगवन्मुखी मानसी वृत्तियों का प्रवाह चलना ही मानसी सेवा है। संसार से विमुख होकर मन श्रीभगवान के सम्मुख होकर उन्हीं में रम जाय, यह मानसी सेवा है।
मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये।
मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गंगाम्भसोअम्बुधौ।।
अर्थात भगवच्चरित्र के श्रवणमात्र से सर्वान्तरनिवासी प्रभु की ओर समुद्र की ओर अभिमुख होने वाले अखण्ड, निर्मल, गंगा प्रवाह की तरह निर्मल अन्तःकरण का भक्तिरूप अविच्छिन्न प्रवाह होता है।
द्रवीर्भूत निर्मल, निष्कलंक परम पवित्र मनोवृत्ति का भगवदाकाराकारित अखण्ड प्रवाह, भक्ति है।
जैसे गंगाजल का निर्मल, निष्कलंक द्रवीभूत प्रवाह समुद्राभिमुख प्रवाहित होता है, वैसे ही जिसका निर्मल-निष्कलंक द्रवीभूत अन्तःकरण भगवदाकारित होकर अखण्ड प्रवाहित हो वही भक्ति है, वही श्री है।
'समुद्र मंथन के बाद श्री का प्रादुर्भाव हुआ।"
बहुतों ने उनको चाहा।
भगवती ने सोचा- ‘क्या करूँ’, बहुत से लोग मुझे चाहते हैं, पर मुझे जो चाहते हैं, मैं उन्हें चाहती ही नहीं।
मैं जिसको चाहती वह मुझको चाहता ही नहीं। श्रीमन्नारायण विष्णु मुझको अच्छे लगते हैं, पर वे मुझको चाहते ही नहीं, आप्तकाम-पूर्णकाम-आत्माराम भगवान मेरी ओर दृष्टि ही नहीं डालते।
पर वे चाहें- न-चाहें, हमारे तो ध्येय, ज्ञेय, परमाराध्य सर्वस्व वही हैं----
असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा,
गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।
द्वेषी मयि स्यात्करुणाम्बुधिर्वा,
कृष्णः स एवाद्यगतिर्ममायम्।।
अर्थात प्रियतम श्रीकृष्ण सौन्दर्य-माधुर्य-सुधाजलनिधि हों या सौन्दर्य-माधुर्यविहीन, सर्वगुण सम्पन्न हों या सर्वगुण रहित, मुझसे अनुकूल हों या प्रतिकूल, सब प्रकार से हमारे ध्येय, ज्ञेय, गति वही हैं।
लक्ष्मी जी ने श्रीभगवान विष्णु के गले में जयमाला डाल दी। श्री प्रभु ने उन्हें अपने वक्षः स्थल में स्थान दिया। सर्वात्मा-सर्वाधिष्ठान परात्पर परब्रह्म परमात्मा प्रभु की हृदयेश्वरी बन गयीं।
जो मुँह बाये घूमता है लक्ष्मी के लिये- आओ, आओ, आओ लक्ष्मी, लक्ष्मी उधर नहीं जाती।
‘श्रयते हरिं या सा श्रीः’ यह कर्ता में प्रयत्य है।
इसी दृष्टि से श्री का अर्थ सेवा या भक्ति किया जाता है।
‘श्रीयते सर्वैगुणैर्या सा श्रीः’
अनन्त कल्याण-गुण-गण जिनकी आराधना करत हैं, उनका नाम है श्री।
यस्तास्ति भक्तिर्भगवत्यकिंचना
सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुरः।
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणाः
मनोरथेनासति धावतो बहिः।।
जिस पुरुष की भगवान् में निष्काम भक्ति है, उसके हृदय में समस्त देवता धर्म-ज्ञानादि सम्पूर्ण सद्गुणों के सहित सदा निवास करते हैं।
किन्तु जो भगवान का भक्त नहीं है, उसमें महापुरुषों के वे गुण आ ही कहाँ से सकते हैं?
वह तो तरह-तरह के संकल्प करके निरंतर तुच्छ बाहरी विषयों की ओर ही दोड़ता रहता है।
जिसकी भगवान में प्रीति होती है, सब गुण सिमिट-सिमिट कर उसमें रमते हैं।
शोभा-आभा-प्रभा-कान्ति शान्ति की अधिष्ठात्री महाशक्तियाँ मूर्तिमती होकर भगवती श्री की सेवा में संलग्न रहती हैं।
जैसे सुन्दरता, मधुरता है ऐसे ही मृदुता=कोमलता की अधिष्ठात्री विग्रहवती शक्ति बड़ी कोमलागीं है, उसके चरणों के कमल के कोमल सुकोमल पंखुड़ियों के गड़ने का डर लगता है, नहीं-नहीं पंकज का पराग भी चुभता है। पंकज का पराग कितना कोमल है, वह भी उसके चरण में चुभता है।
जिस मृदुता के पादारबिन्द इतने कोमल हैं, उसके हस्तारविन्द कितने कोमल होंगे?
अपने ऐसे सुकोमल हस्तारविन्द से वह श्री राधारानी के चरणों का स्पर्श करने में सकुचाती है- ..
‘हमारे हाथ कठोर हैं, श्री जी के चरणारविन्द बड़े सुकोमल हैं, कहीं कोई आघात न हो जाय।’
इस तरह सुन्दरता की अधिष्ठात्री देवी, मधुरता की अधिष्ठात्री देवी, मृदुता की अधिष्ठात्री देवी, सौन्दर्या-मृत-सौगंध्यामृत की अधिष्ठात्री महाशक्तियाँ मूर्तिमति होकर जिनके मंगलमय चरणाविन्द की आराधना करती हैं------ उनका नाम है श्री।
‘श्रीयते सर्वैजर्गद्भिः स्थावरेः जगमैश्च या सा श्रीः’
सारे स्थावर-जंगल जिसका सहारा पकड़ते हैं, वह है श्री।
बुद्धिमानों ने तो कहा-
‘भगवती की अनुग्रह भरी दृष्टि जिस पर ज्यादा पड़ जाय वही परमेश्वर होता है, जिस पर दृष्टि जरा कम हो वही जीव होता है।
जीव ईश्वर का और कोई भेद नहीं।’ इसलिये सब उनका आश्रय लेते हैं।
ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपाड़ुमोक्षकामास्तपः समचरन् भगवत्प्रपन्नाः।
सा श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय यत्पादसौभगमलं भजतेअनुरक्ता।।
जिनका कृपा-कटाक्ष प्राप्त करने के लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान के शरणागत होकर बहुत दिनों तक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मी जी अपने निवास-स्थान कमलवन का परित्याग करके बड़े प्रेम से जिनके चरण कमलों की सुभग छत्रछाया का सेवन करती हैं।)
ब्रह्म, रुद्र, इन्द्र देवाधिदेव अनन्त-अनन्त काल तक तपस्या करते हैं, इस दृष्टि से कि श्री जी अनुग्रह भरी दृष्टि से निहार दें, क्यों कि उनकी दृष्टि में ही चमत्कार हैं। जिधर दृष्टि चली गयी वही निहाल हो गया, जिधर दृष्टि नहीं गयी वही बेहाल हो गया।
. ‘श्रीयते श्रीकृष्णेनाअपि या सा श्रीः’
श्री हरि स्वयं ही जिसकी आराधना। करते हैं। वंशी में और क्या गाते हैं?
राधारानी का मधुर मनोहर मंगलमय नाम। उन्हीं का परम पवित्र चरत्रि वंशी में गाते हैं।
रसखान कहता है-
"ब्रह्म में ढूड्यो पुरानन-कानन वेद रिचा सुनि चौगुने चायन,
देख्यो सुन्यो कबहूँ न कितै वह कैसे सरूप ओ कैसे लुभायन।
टेरत हेरत हारि परयो रसखानि बतायो न लोग लुगायन,
देख्यो दुरयो वह कुन्ज कुटीर में बैठयो पलोटत राधिका पाँयन।।"
वेद में पुरान में ब्रह्म को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गया। लोग-लुगाइयों ने कुछ बताया नहीं, आकर देखा तो कुन्ज-कुटीर में राधारानी के मंगलमय पादारविन्द का संवाहन कर रहा था।
इस तरह श्रीहरि भगवान भी जिनकी आराधना करते हैं, वे हैं श्री जी।
रामलीला की कथा में है- बन्दर-भालुओं ने राक्षसों को मार कर कहा कि अब हमारी वीर पूजा हो। हमने रावण का वध कर दिया। जनक नन्दिनी हंस पड़ी।
बन्दर-भालुओं ने कहा- ‘‘माँ क्यों हंसती हो?’’
माँ ने कहा- ‘‘कुछ नहीं, यों ही, तुम्हारी वीर-पूजा अवश्य होनी चाहिये, अवश्य होनी चाहिये।’’
भालुओं ने कहा- ‘‘नहीं, हंसी का कारण बताओ।’’
माँ ने कहा- तुमने तो बीस भुजा वाले रावण को मारा है, अभी सहस्रभुज रावण है, उसे जीतो तो वीर-पूजा की बात करो। बन्दर-भालुओं ने कहा ठीक है। तैयारी हुई।
किष्किन्धा के शूर-वीर, लंका और अयोध्या के शूर-वीर सज-धजकर लड़ाई करने गये। लोगों ने सहस्र भुज रावण को खबर दी।
एक बाण उसने ऐसा मारा कि लंका के शूर-वीर लंका पहुँच गये। किष्किन्धा के शूर-वीर किष्किन्धा पहुँच गये, अयोध्या के शूर-वीर अयोध्या पहुँच गये।
फिर सभी इकट्ठे हुए, फिर उसने बाण मारा तो जो जहाँ से शूर-वीर आये थे वहीं पहुँच गये। न लड़ाई न झगड़ा।
सभी बडे़ परेशान हुए। राम भगवान भी चिन्तित हुए, ‘यह तो बड़ा भयंकर है।’
नारद जी आये। बोले- ‘‘क्यों चिन्तित हो महाराज! उसका वध ये जनक नन्दिनी जानकी जी करेंगी।’’
राम जी ने कहा- ‘ये लड़ेगी, हैं, ये तो बहुत कोमलागीं हें, भला कैसे लडे़ंगी। तो नारद जी! आप ही इनसे कहो।’’
नारद जी ने कहा- ‘‘हमारे कहने से काम नहीं चलेगा। आप हमसे मंत्र दीक्षा लो महाराज और इनकी प्रार्थना करो।’’
श्रीराम को नारद जी ने मंत्र-दीक्षा दी।
श्रीराम ने स्तुति की ‘वन्दे विदेह- तनयापदपुण्डरीकं’ इत्यादि।
तब श्री जी का दिव्य स्वरूप प्रकट हुआ। उस दिव्य रूप से उन्होंने सहस्रभुज रावण का वध किया।
इस तरह ‘श्रीयते हरिणाअपि या सा श्रीः’ हरि भी जिनकी आराधना कहते हैं, वे हैं श्री जी।
. ‘श्रु श्रवणे’ धातुओं से श्री शब्द बनता है।
"‘श्रृणोति भक्तानां दुःख गाथाः श्रुत्वा च भगवन्तं श्रावयति इति श्रीः’'"
जो भक्तों की दुःख गाथा को सुनती हैं ओर फिर भगवान को सुनाती है, वे हैं श्री।
भक्तों की दुःख गाथा को सुनने का किसको अवकाश है?
श्री जी ही धैर्य पूर्वक सुनती हैं। तुलसी दास जी महाराज यही तो प्रार्थना करते हैं-
कबहुक अंब अवसर पाइ।
मेरिऔ सुधि द्याइवी, कछु करुण कथा चलाय।।1।।
दीन, सव अँग हीन, छीन, मलीन, अधी अघाइ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी दास कहाइ।।2।।
बूझि हैं ‘सो है कौन’ कहिबी नाम दसा जनाइ।
सुनत राम कुपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाई।।3।।
जानकी जग जननि जन की किये बचन सहाय।
तरै तुलसीदास भव तब नाथ-गुन गन गाइ।।4।।
अनन्त ब्रह्माण्ड नायक भगवान सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान प्रभु के दरबार तक अपनी बात को पहुँचाना हो, अपना सुख-दुःख, हर्ज-गर्ज सब कुछ कहना हो तो श्री जी ही सुनने के लिये तैयार हैं।
‘शं हिंसायाम् श्रणाति भक्तानां दोषान् हिनस्ति इति श्रीः।
भगवत्पद प्राप्ति में जो बाधक दोष हैं, उनका जो समूल उन्मूलन कर देती हैं, उनका नाम है श्री।
‘श्रीअ् पाके’- श्रीणाति परिपषवान् करोति शुभगुणान् इति श्रीः।
अर्थात् विवेक-वैराग्यादि- गुण-गणों को परिपक्व कर देती हैं।
इस तरह श्री जी परम दयामयी, करुणामयी और कल्याणमयी हैं।
लंका विजय के पश्चात हनुमान जी को श्रीरामचन्द्र ने कहा-‘‘जरा जानकी को शुभ समाचार सुना दो- मेघनाद, कुम्भकर्ण मारा गया, रावण वध हो गया। जनक नन्दिनी जानकी निश्चिन्त रहें। विभीषण भक्त हैं अब उनकी लंका में हैं।’’
श्री हनुमान जी ने सब समाचार सुना दिया। माँ बहुत प्रसन्न हुई।
नहि पश्यामि सदृशं चिन्तयन्ती प्लवंगम।
आख्यानकस्य भवतो दातुं प्रत्यभिनन्दनम्।।
न हि पश्चामि तत् सौम्य! पृथिव्यामपि वानर!।
सदृशं यत्प्रियाख्याने तब दत्वा भवेत् सुखम्।।
हिरण्यं वा सुवर्ण वा रत्नानि विविधानि च।
राज्यं वा त्रिषु लोकेषु एतन्नाहँति भाषितम्।।
(वानर वीर! ऐसा प्रिय समाचार सुनाने के कारण मैं तुम्हें कुछ पुरस्कार देना चाहती हूँ, किन्तु बहुत सोचने पर भी मुझे इसके योग्य कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। सौम्य वानर वीर! इस भूमण्डल में मैं कोई ऐसी वस्तु नहीं देखती, जो इस प्रिय संवाद के अनुरूप हो और जिसे तुम्हें देकर मैं सन्तुष्ट हो सकूँ। सोना, चाँदी, नाना प्रकार के रत्न अथवा तीनों लोकों का राज्य भी इस प्रिय समाचार की बराबरी नहीं कर सकता।)
हुनमान जी ने कहा- ‘‘माँ हम आज एक वरदान माँगेगे। हम जब आपका दर्शन करने आये थे तो राक्षसियाँ आपको मुँह दिखा रहीं थी। डरा धमका रही थीं। हमें आप आज्ञा दें। हम इनमें किसी की नाक काट दें। किसी का हाथ तोड़ दें, किसी का पैर तोड़ दें। चित्रवध इनका करें।’’
माँ ने कहा- ‘वत्स! तुम तो राघवेन्द्र के दरबार में रहते हो। वहाँ तो
"‘आनृशंस्यं परो धर्मः’"
राघवेन्द्र के दरबार में आनृशंस्य- अक्रूरता परम धर्म है।
बेटा तुम यह क्या सोचते हो?’
हनुमान ने कहा- ‘ये अपराधिनी हैं, बड़ी दुष्टा हैं।’
शिव जी महाराज ने कहा है-
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा।
भ्रष्ट होइ श्रुति मारग मोरा।।
राक्षस्यो दारुणकथा वरमेतत् प्रयच्छ मे।
मुष्टिभिः पार्ष्णिघातैश्च विशालैश्चैव बाहुभिः।।
जघंजानुप्रहारैश्च दन्तानां चैव पीडनैः।
कर्तनैः कर्णनासानां केशानां लुंचनैस्तथा।।
निपात्य हन्तुमिच्छामि तब विप्रियकारिणीः।
एवं प्रहारैर्बहुभिः सम्प्रहार्य यशस्विनि।
घातये तीव्ररूपाभिर्याभिस्त्वं तर्जिता पुरा
( मेरी इच्छा है कि मुक्कों, लातों, विशाल भुजाओं-थप्पड़ों, पिण्डलियों और घुटनों की मार से इन्हें घायल करके इनके दाँत तोड़ दूँ, इनके नाक और कान काट लूँ, तथा इनके सिर के बाल नोचूँ।
यशस्विनि! इस तरह बहुत से प्रहारों द्वारा इन सबको पीटकर क्रूरतापूर्ण बातें करने वाली इन अप्रिकारिणी राक्षसियों को पटक-पटक कर मार डालूँ। जिन-जिन भयानक रूपवाली राक्षसियों ने पहले आपको डाँट बतायी है, उन सबको मैं अभी मौत के घट उतार दूँगा। इसके लिये आप केवल वर दें ।
माँ ने कहा- ‘वत्स! ये रावण की नौकरानी थी, परवश होकर वैसा करती थीं-
आज्ञप्ता राक्षसेनेह राक्षस्यस्तर्जयन्ति माम्।
हते तस्मिन् न कुर्वन्ति तर्जनं मारुतात्मज।
(पवनकुमार! उस राक्षस रावण की आज्ञा से ही ये मुझे धमकाया करती थीं। जब से वह मारा गया है, तब से ये बेचारी मुझे कुछ नहीं कहतीं। इन्होंने डराना धमकाना छोड़ दिया है।)
पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि वा।
कार्य कारुण्यमार्येण न कश्चिन्नापराध्यति।।
(श्रेष्ठ पुरुष चाहिये कि कोई पापी हो या पुण्यात्मा अथवा वे वध के योग्य अपराध करने वाले ही क्यों न हों, उन सब पर दया करें; क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जिससे कभी अपराध होता ही न हो।)
अर्थात पाप हो, अशुभ हो, बधार्ह हो तो भी आर्य-पुरुष को उन पर करुणा करनी चाहिये।
दुनियाँ में कोई ऐसा है जिससे अपराध न बना हो?
दुनियाँ में कोई ऐसा पौधा है, जिसे वायु का स्पर्श नहीं हुआ!
कोई प्राणी ऐसा है जिससे कोई अपराध नहीं बना?
इस तरह माँ ने उन राक्षसियों को बचा लिया।
रामानुजसम्प्रदाय के एक बड़े भक्त कवि महापुरुष कहते हैं-
मातर्मैथिलि राक्षसीस्त्वयि तदैवार्द्रापराधास्त्वयि
रक्षन्त्या पवनात्मजाल्लघुतरा रामस्य गोष्ठी कृता।
काकं तंज विभीषणं शरणमित्युक्तिक्षमौ रक्षतः
सा नः सान्द्रमहागसः सुखयतु क्षान्तिस्ववाकस्मिकी।
(हे मातः! आपने ताजा अपराध करने वाली राक्षसियों की हनुमान से रक्षा करके श्रीराम- गोष्ठी छोटी कर दी, क्योंकि उन्होंने तो जयन्त और विभीषण की रक्षा शरणागत होने पर की थी, परन्तु आपने तो शरण होने की अपेक्षा बिना ही उनका रक्षण किया।)
मातर्मैथिलि! सौ-दो-सौ वर्ष का नहीं, जिनका अपराध बिल्कुल ताजा था उन आर्द्रापराधा राक्षसियों की पवनात्मज से रक्षा करती हुई आपने राम की गोष्ठी को लघु बना दिया।
प्रश्न है- ‘क्यों, राम भी तो रक्षा करते हैं शरणागत की?’
उत्तर है- ‘हाँ करते तो हैं, पर शरणागत हो तब। कौवा जयन्त भगवान की शरण हुआ तब उसकी रक्षा हुई। नहीं तो भागता-भागता लोक-लोकान्तर में भटका पर कहीं विश्राम नहीं-
नारद देखा बिकल जयन्ता।
लागि दया कोमल चित संता।।
पठवा तुरत राम पहिं ताही।
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही।।
आतुर सभय गहेसि पद जाई।
त्राहि त्राहि दयालु रघुराई।।
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ।
अब प्रभु पाहि शरण तकि आयउँ।।
नारद ने कहा- ‘‘अरे! जा, तू राम की शरण में ही जा। समय का अपव्यय मत कर, इधर-उधर मत भटक।’’
जयन्त ने कहा- ‘‘महाराज, क्या मुँह लेके जाऊँ?’’
नारद ने कहा-‘‘ अरे बेवकूफ! कहना-पहले हम आपका प्रभाव देखने आये थे, अब हम आप का स्वभाव देखने आये हैं। प्रभाव तो देख लिया, बड़ा प्रभाव! अब जरा स्वभाव देखना चाहते हैं’’-
‘दीनबन्धु अति मृदुल स्वभाऊ’।
जयन्त नारद की प्रेरणा से श्रीराम की शरण में गया तब रक्षा हुई।
राक्षसियाँ कहाँ शरण हुई?
यह त्रिजटा और राक्षसियों का संवाद है- ‘‘आपकी जो आकस्मिकी क्षान्ति है कि शरण हुए बिना भी हम सान्द्रमहापापियों को आपसे आश्वासन मिलता है, बड़ा आनन्द मिलता है, विश्वास होता है कि हमारी रक्षा होगी, अभय होगा’’।
तो कहने का मतलब यह है कि सर्वेश्वरत्व, सर्वकारणत्व जैसा राम में है, वैसा ही सीता में, लेकिन सौलभ्य सर्वातिशायी माँ में ही है, अन्यत्र नहीं।
इसलिये सर्वतोभावेन वे अनन्तब्रह्माण्डजननी कल्याणमयी करुणामयी है। भक्तों ने कहा है-
राधादास्यमपास्य यः प्रयतते गोविन्दसंगशया
सायं पूर्णसुधारुचेः परिचयं राकां विना कांक्षति।
किंच श्यामरतिप्रवाहलहरीबीजं न ये तां विदु-
स्ते प्राप्यापि महामृताम्बुधिमहो बिन्दुं परं प्राप्नुयुः।।
जो व्यक्ति श्रीराधा- कैंकर्य को त्यागकर श्री लाल जी के प्रेम की आशा से प्रयत्न करता है, वह मानो पूर्णिमा की रात्रि के बिना ही पूर्णचन्द्र का दर्शन चाहता है तथा ऐसे जो व्यक्ति श्यामसुन्दर की रति के प्रवाह रूप तरंग के मूल बीज उन श्रीराधा को नहीं जानते वे विशाल अमृत- सागर को पार कर भी खेद है कि केवल एक बूँद ही प्राप्त कर पाये।
अर्थात जो गौर तेज का आश्रयण बिना किये- श्रीराधारानी वृषभानुनन्दिनी के मंगलमय चरणारविन्द की आराधना बिना किये, श्याम तेज को पाना चाहता है, गोविन्द संग की इच्छा करता है, वह मानो पूर्णिमा के बिना पूर्ण सुधारुचि निर्मल-निष्कलंक-पूर्ण-चन्द्र का दर्शन चाहता है।
बिना पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र का दर्शन कहीं होता है?
बिना राधारानी वृषभानु-नन्दिनी का दर्शन किये कदाचित श्याम तेज का दर्शन मिल भी जाय तो भी बिन्दु ही हाथ लगता है, इसलिए गौर-तेज की आराधना बहुत आवश्यक है। भगवान शिव ने स्पष्ट ही कहा है-
गौर तेजो विना यस्तु श्यामतेजः समर्चयेत्।
जपेद् वा ध्यायते वापि स भवेत्पातकी शिवे।।
‘आद्र पुष्करिणों’
करुणा से भगवती का हृदय सदा आर्द्र ही रहता है। उन भवगती के मंगलम चरणारविन्द का आश्रय ग्रहण करो।।
(धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी )