पूर्व जन्म में किसी महत पुरुष के सङ्ग रूप भाग्य के उदित होने पर जीव में *श्रद्धा* उदित होती है, फिर उसे *साधुसंग* प्राप्त होता है। साधुसंग से श्रवण कीर्तनादी *भजनक्रिया* आरम्भ होती है, उस से *अनर्थ निवृति* दुर्वसनादि का नाश होता है। अनर्थनिवृति से भक्ति अंगों में अधिक *निष्ठा* उत्पन्न होती है। निष्ठा सहित भक्ति अंगों का अनुष्ठान करते करते श्रवण कीर्तनादी में *रुचि* उत्पन होती है, जिससे भक्ति अंगों में *आसक्ति* होती है। आसक्ति के गाढ़ होने पर *भाव* कृष्णरति का उदय होता है अर्थात चित की मलिनता दूर होंने पर चित्त जब शुद्धसत्व के आविर्भाव की योग्यता प्राप्त करता है तब श्री कृष्णा द्वारा सर्वदा निक्षिप्त ह्लादिनीशक्ति की वृत्ति विशेष का साधक के चित्त में आविर्भाव होता है। यही रति गाढ़ होकर *प्रेम* नाम को प्राप्त होती है, जो श्री कृष्ण सेवा प्राप्ति का मुख्य हेतु है
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