ब्रह्माण्ड के स्वामी को भस्म सर्वाधिक प्रिय क्यों ? हमें भस्म क्यों धारण करनी चाहिए ? ........
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(यह लेख थोड़ा लंबा है जो पूरा पढ़कर ही समझ में आयेगा)
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एक बार जब भगवान शिव समाधिस्थ थे तब मनोभव (मन में उत्पन्न होने वाला) मतिहीन कंदर्प (कामदेव) ने अन्य देवताओं के उकसाने पर सर्वव्यापी भगवान शिव पर कामवाण चलाया | भगवान शिव ने जब उस मनोज (कामदेव) पर दृष्टिपात किया तब कामदेव भगवान शिव की योगाग्नि से भस्म हो गया | कामदेव के बिना तो सृष्टि का विस्तार हो नहीं सकता अतः उसकी पत्नी रति बहुत विलाप करने लगी जिससे द्रवित होकर आशुतोष भगवान शिव ने मनोमय (कामदेव) की भस्म का अपनी देह पर लेप कर लिया, जिस से कामदेव जीवित हो उठा |
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भगवती माँ छिन्नमस्ता, कामदेव और उसकी पत्नी रति को भूमि पर पटक कर उनकी देह पर पर नृत्य करती हैं | फिर वे अपने ही हाथों से अपनी स्वयं की गर्दन काट लेती हैं | उनके धड़ से रक्त की तीन धाराएँ निकलती हैं जिनमें से मध्य की रक्तधारा का पान वे स्वयं करती हैं, और अन्य दो धाराओं का पान उनके दोनों ओर खड़ी वर्णिनी और डाकिनी करती हैं |
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(उपरोक्त दोनों का आध्यात्मिक अर्थ बहुत गहन है जिसे किसी सुपात्र को समझाने के लिए समय व बहुत धैर्य चाहिए | यहाँ फेसबुक पर यह बताना संभव नहीं है|)
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तपस्वी साधू लोग ठंडी और गर्मी से बचाव के लिए भस्म लेपन करते हैं | त्याग तपस्या और वैराग्य का प्रतीक यह भस्म स्नान रुद्रयामल तंत्र के अनुसार अग्नि-स्नान है जो भगवन शिव को सर्वाधिक प्रिय है | शैवागम के वर्णोद्धार तंत्र के अनुसार भस्म का "भ"कार स्वयं परमकुण्डलिनी है जो महामोक्षदायक और सर्व शक्तियों से युक्त है | स्म क्रियास्वरूप भूतकाल है |
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आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य की नाड़ी "उत्तरा सुषुम्ना" है जिस में प्रवेश कर कुंडलिनी, परमकुंडलिनी हो जाती है | योगमार्ग के साधक को अपनी चेतना निरंतर इसी उत्तरा सुषुम्ना में रखनी चाहिए और सहस्त्रार जो गुरुचरणों का प्रतीक है, पर ध्यान करना चाहिए| योगी के लिए आज्ञाचक्र ही उसका ह्रदय है | सहस्त्रार में स्थिति के पश्चात ही अन्य लोक भी दिखाई देने लगते हैं और अनेक सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं |
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ब्रह्माण्ड के स्वामी को भस्म सर्वाधिक प्रिय क्यों है ? यह योगाग्नि में जलकर भस्म हो कर परम पवित्र होने का सन्देश है | मृत्यु के पश्चात् देह को जलाने से सब कुछ नष्ट नहीं होता, भस्म शेष रह जाती है, जो हमारी नश्वर शाश्वत आत्मा की प्रतीक है | यह भस्म प्रदर्शित करती है कि संसार में सब कुछ नश्वर है, केवल भस्म अर्थात् आत्मा ही अमर, अजर और अविनाशी है | अतएव, भस्म (आत्मा) ही सत्य है और शेष सब मिथ्या | भगवान शिव देह पर भस्म धारण करते हैं क्योंकि उन के लिए एक आत्मा को छोड़कर संसार के अन्य सब पदार्थ निरर्थक हैं | यह भस्म ही हमें यह याद दिलाती है कि हमारा जीवन क्षणिक है | भगवान शिव पर भस्म चढ़ाना एवं भस्म का त्रिपुंड लगाना कोटि महायज्ञ करने के सामान होता है | भगवन शिव अपनी भक्त-वत्सलता प्रकट करते हैं अपने भक्तों के चिताभस्म को अपने श्रीअंग का भूषण बनाकर |
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कुछ शैव सम्प्रदायों के साधुओं के अखाड़ों में विभूति-नारायण की पूजा होती है | विभूति-नारायण ..... अखाड़े के गुरुओं की देह से उतरी हुई भस्म का गोला ही होता है, जिसे वेदी पर रखकर पूजा जाता है| कुछ वैष्णव सम्प्रदायों के वैरागी साधू भी देह पर भस्म ही लगा कर रखते हैं |
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"सोइ जानइ जेहि देहु जनाइ" भगवान जिसको कृपा कर के अपना ज्ञान देते है वो ही उन्हें जान सकता है | बाकी तो .... धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां .... वाली बात है | समस्त सृष्टि भगवान शिव का एक संकल्प मात्र यानि उनके मन का एक विचार ही है | भौतिक पदार्थों के अस्तित्व के पीछे एक ऊर्जा है, उस ऊर्जा के पीछे एक चैतन्य है, और वह परम चैतन्य ही भगवन शिव हैं | उनका न कोई आदि है और ना कोई अंत | सब कुछ उन्हीं में घटित हो रहा है और सब कुछ वे ही हैं | जीव की अंतिम परिणिति शिव है | प्रत्येक जीव का अंततः शिव बनना निश्चित है | उन्हें समझने के लिए जीव को स्वयं शिव होना पड़ता है | वे हम सब को ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दें !
शिवमस्तु ! ॐ शिव ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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कृपा शंकर
३१ मई २०१३
Thursday, 28 December 2017
ब्रह्माण्ड के स्वामी को भस्म सर्वाधिक प्रिय क्यों ? हमें भस्म क्यों धारण करनी चाहिए ?
Monday, 18 December 2017
भगवदीय नयन
जो भगवदीय होते है, केवल उनके कंठ मे ही अमृत होता है। जब वे भगवदीय भगवद् लीला का वर्णन करते है तब वह कथामृत उनके मुख से निकलता है। और जो इस कथामृत को आदर पूर्वक पान करते है केवल वे ही भगवान को प्राप्त करते है।"
इस तरह श्री हरिरायजी आज्ञा करते है की भगवदीय वही है जो (१) श्री आचार्यजी के श्री चरणों का दृड़ आश्रय रखता हो, (२) श्री ठाकोरजी की सेवा द्वारा संतुष्ट रहता हो और अन्य किसी देव का भजन स्वप्न मे भी न जानता हो, (३) अन्य किसी की अपेक्षा न करता हो, (४) काम लोभ मोह मत्सर आदि से रहित हो और द्रव्य का भी लोभ न हो, (५) निरपेक्ष भाव से प्रभु के सेवा करता हो, (६) मन से विरकत रहे - वैराग्य पूर्वक रहे, (७) प्राणी मात्र पे दया भाव रखता हो, (८) किसी की इर्षा न करता हो, और (९) भगवद् कथा आदर पूर्वक श्रवण करता हो।
जिसमे यह सारे गुण - यह नव प्रकार के लक्षण देखने मिले उनका संग करना, शुद्ध मन से सन्मान करना और उनके वचनो पर दृड़ विश्वास रखना। इस प्रकार श्री महाप्रभुजी प्रसन्न हो कर वैष्णवो को आनंद का दान करते है।
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श्री ठाकुरजी की अतिशय कृपा से हमें यह मनुष्य शरीर मिला है। उसमे सभी अंग का अपना महत्व है। लेकिन आँखो का अपना अलग महत्व है। इसके बिना जग अँधेरा है। हम ठाकुरजी के दर्शन भी नहीं कर सकते है।आँखों के चार अंग है ।पलके, पुतली, आँसू और बरौनी।जब हम प्रभु के दर्शन करते है उस समय यह चारौ अपने भाव व्यक्त करते है।"पलकें कहे मूँद ले मोहन को अँखियाँमें, कहे मोहे निहारन दे।''पुतली कहे हट जा सामने से,निज जीवन मोहे सँवारन दे।,आँसू कहे, नंदलाल निहार लिए तुमने, अब पायँ पखारन दे।धर धीरज बोल उठी बरनी, पग नीरजकी रज झारन दे मोहे।वाह,,,,क्या भाव है चारोंका,?
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।।श्री मदन मोहन प्रभु प्यारे की जय।।
।।श्रीमथुराधीश प्रभु प्यारे की जय।।
।।श्री नवनीत प्रिय प्रभु प्यारे की जय।।
।।श्रीगोवर्धननाथ प्रभु प्यारे की जय।।
।।जय गोकुल के चंद की।।
।।श्यामसुंदर श्री यमुना महाराणी की जय।।
।।श्री वल्लभाधीश की जय।।
।।श्री गुंसाईजीपरमदयाल की जय।।
।।श्री वल्लभकुल परिवार की जय।।
।।वल्लभना व्हाला सर्वे वैष्णवने भगवद्स्मरण।।
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Saturday, 9 December 2017
सन्ध 10 अध्याय 2 श्लोक 30 से 32
परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन! आपके भक्तजन सारे जगत के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं। वे स्वयं तो इस भयंकर और कष्ट से पार करने योग्य संसार सागर को पार कर ही जाते हैं, किन्तु औरों के कल्याण के लिए भी वे यहाँ आपके चरण-कमलों की नौका स्थापित कर जाते हैं। वास्तव में सत्पुरुषों पर आपकी महान कृपा है। उनके लिये आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं। कमलनयन! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभाव से रहित होने के कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपने को झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं। वास्तव में तो वे बद्ध ही हैं। वे यदि बड़ी तपस्या और साधना का कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पद पर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। परन्तु भगवन! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणों में अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियों की भाँति अपने साधन मार्ग से गिरते नहीं। प्रभो! वे बड़े-बड़े विघ्न डालने वालों की सेना के सरदारों के सर पर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं।
Tuesday, 5 December 2017
देवकी के मृतवत्सा होने का कारण
> जय श्रीकृष्ण<<<
.,.... देवकी के मृतवत्सा होने का कारण ....
1,. एक बार महर्षि कश्यप यज्ञ कार्य हेतु वरुणदेव की गाय ले आये । यज्ञ कार्य की समाप्ति के बाद वरुणदेव के बहुत याचना करने पर भी उन्होँने उत्तम धेनु वापस नहीँ दी ।
तब उदास मन वाले वरुणदेव ने कश्यप को शाप दे दिया कि
..,...... मानव योनि मेँ जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोँनो भार्याएँ भी मानव योनि मे उत्पन्न होकर अत्यन्त दुःखी रहेँ । मेरी गाय के बछडे माता से वियुक्त होकर अति दुःखित हैँ और रो रहेँ है , अतएव पृथ्वीलोक मेँ जन्म लेने पर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी तथा कारागर मे रहकर कष्ट भोगना पडेगा ।
2,,.. दक्षप्रजापति की दो पुत्रियाँ दिति एवं अदिति कश्यप मुनि की पत्नियाँ थी ।
अदिति के तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए । तब दिति ने भी महर्षि से तेजस्वी पुत्र की याचना की ..
.,.. तब महर्षि की आज्ञानुसार पयोव्रत नामक उत्तम व्रत करते हुए भूमि शयनादि नियमोँ का पालन करते हुए दुर्बल एवं कृशकाय हो गयी तब इन्द्र अपनी माता के कहने पर दिति की सेवा करते हुए छलपूर्वक उनके गर्भ को सात टुकडो मे काट दिया जब वे गर्भस्थ शिशु रोने लगे तो इन्द्र ने कहा "मा रुद" और पुनः सातो के सात सात टुकडे कर दिये जो 49 मरुत् कहलाए .,...
........ इससे दुःखी होकर दिति ने भी अदिति को शाप दे दिया ..... इन्द्र का राज्य शीघ्र नष्ट हो जाय ....
..... जिस प्रकार पापिनि अदिति ने गुप्त पाप द्वारा मेरा गर्भ गिराया है उसी प्रकार इसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँ ...,
अट्ठाईसवेँ द्वापरयुग मेँ उन्ही शापो के कारण कश्यप वसुदेव ,अदिति देवकी एवं दिति रोहिणी हुईँ ..