शास्त्र कहता है कि ...
विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्।
अमित्रादपि सद्वृत्तं अमेध्यादपि कांचनम्॥
विष से भी मिले तो अमृत को स्वीकार करना चाहिए, छोटे बच्चे से भी मिले तो सुभाषित (अच्छी सीख) को स्वीकार करना चाहिए, शत्रु से भी मिले तो अच्छे गुण को स्वीकार करना चाहिए और गंदगी से भी मिले तो सोने को स्वीकार करना चाहिए।
मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचारा नवा वाणी मुखे मुखे॥
भिन्न-भिन्न मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न मति (विचार) होती है, भिन्न-भिन्न सरोवर में भिन्न-भिन्न प्रकार का पानी होता है, भिन्न-भिन्न जाति के लोगों के भिन्न-भिन्न जीवनशैलियाँ (परम्परा, रीति-रिवाज) होती हैं और भिन्न-भिन्न मुखों से भिन्न-भिन्न वाणी निकलती है।
अहो पद्मस्थित: कीट: लब्धुं शक्तो न तं रसम्।
आयात्याघ्राय यं लब्धुं भ्रमरो दूरदेशत:।
कमल में स्थित कीडा उस रस को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता; भौंरा जिसे पाने के लिये सूंघकर दूरदेश से आता है।
त्यज दुर्जनसंसर्ग भज साधुसमागमम् ।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः।।
कुसंग का त्याग करे और संतजनों से मेलजोल बढाए। दिन और रात गुणों का संपादन करे। जो शाश्वत है और जो अनित्य है उस पर हमेशा चिंतन करें।।
न च विद्यासमो बन्धुर्न च व्याधिसमो रिपुः।
न चापत्यसमः स्नेहो न च दैवात्परं बलम्।।
विद्या के समान दुसरा कोई बंधु नही है, रोगके समान दुसरा कोई शत्रु नही है, संतानके समान दुसरा कोई स्नेह नही है और दैव ( नसीब ) से अधिक कोई बल नही है।
अर्धं भार्या मनुष्यस्य,भार्या श्रेष्ठतमः सखा।
भार्या मूलं त्रिवर्गस्य,भार्या मूलं तरिष्यतः।।
पत्नी मनुष्य का अर्धांग है,पत्नी ही सर्वश्रेष्ठ मित्र है,पत्नी ही धर्म,अर्थ,काम इसका मूल है,पत्नी ही संसार सागर पार करनेका साधन है।
राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्य पापं गुरुस्था॥
राष्ट्र के अहित का जिम्मेदार राजा का पाप होता है, राजा के पाप का जिम्मेदार उसका पुरोहित (मन्त्रीगण) होता है, स्त्री के गलत कार्य का जिम्मेदार उसका पति होता है और शिष्य के पाप का जिम्मेदार गुरु होता है।
एक एव खगो मानी वने वसति चातक: ।
पिपासितो हि म्रियते याचते वा पुरन्दरम् ॥
वन मे रहनेवाला चातक, ही एक ऐसा स्वाभिमानी पक्षी है, जो प्यासा रहे वा मरनेवाला हो, वह इन्द्रसे ही याचना करता है किसी अन्य से नहीं।
कान्तिः कीर्ति र्मतिः क्षान्तिः शान्ति र्नीति र्गती रतिःउक्तिः शक्तिः द्युतिः प्रीतिः प्रतीतिः श्री र्व्यव स्थितिः ।
न पश्यति न जानाति न श्रुणोति न जिघ्रति
न स्पृशति न वा वक्ति भोजने न विना जनः ॥
कांति, कीर्ति, मति, क्षमा, शांति, नीति, गति, रति, उक्ति, शक्ति, प्रकाश, प्रीति, विश्वास, श्री, व्यवस्था (ये सब भोजन बिना व्यर्थ है) !! लोग भोजन के बिना, देखने, जानने, सुनने, सूंघने, स्पर्श करने या बोलने भी शक्तिमान नहीं होता ।
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