Saturday, 25 February 2017

श्री राधा जी को माता की सीख

श्री राधा जी को माता की सीख
श्री बृषभानु दुलारी और माता कीर्ती जी की लाडिली श्री राधा यद्यपि अभी बालिका ही है,किंतु माता कीर्ती जी के दृष्टिकोण से उनकी वय-संधि अवस्था आ गई है। बिटिया के लिये एक माँ के हृदय के डूबते-उतरते, सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का अद्भुत व मर्मस्पर्शी चित्रण किया है कवि ने इस प्रसँग में।
बालिका श्री राधा नित्यप्रति श्री कृष्ण के साथ खेलि-क्रीड़ा के लिये अपनी सखियों के साथ नंदगाँव की ओर जातीं है। माता कीर्ती जी को अब यह तनिक भी नहीं सुहाता। अत: वह बिटिया को रोकने का प्रयास करतीं हैं-
"काहै कौ पर-घर छिनु-छिनु जावति"
कितना स्वाभाविक चित्रण है जैसे कि एक साधारण माँ अपनी बेटी से कहती है-"क्यों दूसरों के यहाँ बार-बार खेलने चली जाती है।"
माता कीर्ती जी अपनी बेटी को समाज की ऊँच-नीच से अवगत कराना चाहती है-
"राधा-कान्ह,कान्ह-राधा है
ह्वै रहो अतहिं लजाति
अब गोकुल को जैबौ छाँडौ
अपजस हूँ न अघाति"
इतनी बात फैल रही और तू तब भी जाना बंद नहीं करती?
किंतु श्री राधा जी को माता कीर्ती की सीख तनिक भी नहीं सुहाई-
"खेलन को मैं जाऊँ नहीं?" क्यों नहीं जाँऊ मैं खेलने?
और आगे अपनी माँ से पूछतीं हैं-
"और लरिकिनी घर-घर खेलति,
मोहि को कहत तुहि।
उनके मात-पिता नहीं कोई?
खेलति डोलति जहीं-तहीं"
मेरी सारी सहेलियाँ इधर-उधर खेलती फिरतीं हैं, क्या उनके माता-पिता नहीं हैं? उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता, तो फिर मुझे ही क्यों?
खीझी हुई बेटी को माता कीर्ती पुनः प्यार से समझातीं हैं-
"जातै निंदा होय आपनी,जातै कुल को गारौ आवति" जिस कार्य से निंदा हो,कुल को कलंक लगे उसे छोड़ देना ही उचित है
और साथ-साथ बिटिया को सुझाव भी देतीं हैं-
"बिटनिअनि के संग खेलौ"- बस अपनी सखियों के साथ ही खेलों श्याम के साथ नहीं।
श्री राधा जी श्याम की निंदा नहीं सुन पाती, चाहे वह उनकी माँ द्वारा ही क्यों न की गई हो-
"कबहुँ मौकौ कछु लगावति,कबहुँ कहति जनि जाई कहि"
कभी मुझसे कुछ कहती हो, कभी कहती हो उसने 'ये' कहा, उसने 'वो'कहा।
और राधा जी श्री कृष्ण का पक्ष रखती हुई बृज में फैली हुई बातों को "बातें अनखौहीं" व्यर्थ की बातें कह कर उन्हें टालने का प्रयास करतीं हैं, इसके साथ-साथ माँ को तनिक सा रोष भी दिखातीं हैं- "नाहिं न मेरे जाति सही"- ये व्यर्थ की बातें अब मुझसे नहीं सही जातीं।
माता कीर्ती खीझ के साथ-साथ रीझ भी जाती है अपनी बिटिया की बातों पर-
" मनहिं मन रीझति महतारी" वह समझ रहीं हैं श्यामसुन्दर के प्रति अपनी पुत्री का अनुराग-भाव।
इसके उपरांत भी पूर्ण ममत्व और वात्सल्य को साथ रोकने की चेष्टा में है माता अपनी पुत्री को, उनके विराट जगजननी, अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी श्री कृष्ण की प्राणवल्लभा स्वरूप से अनभिज्ञ। इस समय तो वह केवल उनकी अत्यधिक लाडिली पुत्री हैं और वह हैं उनका सर्वाधिक हित चाहने वाली माँ। उनकी पुत्री का तनिक सा भी अपयश फैले,यह उन्हें स्वीकार नहीं। जिनके क्षण मात्र के स्मरण से ही कोटि-कोटि पातकों का अपयश मिट जाता है, उन्हीं को अपयश से बचाने के लिये प्रयत्नशील है माँ।
श्री राधा जी में इससे अधिक साहस नहीं है अपनी माता का प्रतिवाद करने का। इस समय वह अपनी माता की एक विनम्र आज्ञाकारी पुत्री हैं- अपने भगवतस्वरूप से सर्वथा भिन्न।
लाडिली बिटिया के हृदय को कष्ट न पहुँचे, अत: माता कीर्ती जी भी फैली हुई बातों को व्यर्थ की- "झुठै यह बात उड़ावति" कह कर बिटिया के अशांत मन को ढाढ़स बधांती है, किन्तु राधा जी को कौन श्री कृष्ण से विमुख कर सकता है?
श्री राधा जी माता कीर्ती की बात शिरोधार्य कर उदास मन से अपने कक्ष में आ जातीं हैं और मन ही मन हृदय से विनती कर श्री कृष्ण से यही मनाती हैं कि वही कोई राह निकालें-
"राधा विनय करहिं मनहिं मन
सुनहुँ स्याम अंतर के जामी
माता-पिता कुल-कनिहि मानत
तुमहिं न जानत है जग-स्वामी"
वह जानतीं हैं कि श्री कृष्ण के हाथों डोर सौंप देने से ऐसा कौन सा काम है जो न सधेगा?
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Friday, 24 February 2017

प्रेमी वह है जो भगवान के लिये सोता है , तृषित

प्रेमी वह नहीँ जो भगवान के लिये जगता हो । प्रेमी वह है जो भगवान के लिये सोता हो ।
जिसका विश्राम श्री प्रभु का सुख हो । जिसकी निद्रा से प्रभु को सुख हो । जिसके स्वप्न में प्रभु ही हो । स्वप्न में संसार अर्थात मन अब भी एक का नहीँ हुआ । अब भी भीतर कुछ अवांछित पक रहा है जो चेतना में देह विश्राम में प्रकट होगा । हृदय - प्राण अनन्य रूप से पुकारें तो स्वप्न श्री प्रभु हो सकेंगे । श्री प्रभु ही स्वप्न हो , हमारा जीवन - संघर्ष आदि ही नहीँ , हमारा विश्राम उन्हें समर्पित हो जाएं । निद्रा वैराग्य अवस्था है , यह वैराग्य अवस्था आती है संसार में अति व्यक्त होने से थकावट रूप । अपने दुःख - पीड़ा में सब समर्पित है । परन्तु अपने प्रभु को निद्रा कौन अर्पण करता है । जीवन के पुष्पों से , रस से , प्रेम से प्रभु की श्रृंगार सेवा हो । ना कि जीवन के कष्ट-विषाद से । और हाँ सूकोमल पुष्प आता है काँटो बाद । दुःख के प्रभाव का फल आनन्द है , वह आनन्द अर्पण हो । हम जीवन की स्पर्धा , जद्दोजहद , हार , थकान , प्रतिकूलता के परिणाम में प्रभु तक पहुँचते है । फिर आनन्द - यश - कीर्ति - सुख - अनुकूलता लेकर लौट जाते है । हाँड़ी का भोजन चूल्हे पर कितना ही व्याकुल हो प्रभु को पुकारे , पर वह पक कर , कुछ पाने योग्य होने तक वह प्रभु के सन्मुख नहीँ ले जाया जाता । *आनन्द को आनन्द अर्पण हो* । विषाद - अग्नि - विपत्ति तो आनन्द रस को पकने के लिये है ।
तृषित ।

प्रेमी वह है जो भगवान के लिये सोता है , तृषित

प्रेमी वह नहीँ जो भगवान के लिये जगता हो । प्रेमी वह है जो भगवान के लिये सोता हो ।
जिसका विश्राम श्री प्रभु का सुख हो । जिसकी निद्रा से प्रभु को सुख हो । जिसके स्वप्न में प्रभु ही हो । स्वप्न में संसार अर्थात मन अब भी एक का नहीँ हुआ । अब भी भीतर कुछ अवांछित पक रहा है जो चेतना में देह विश्राम में प्रकट होगा । हृदय - प्राण अनन्य रूप से पुकारें तो स्वप्न श्री प्रभु हो सकेंगे । श्री प्रभु ही स्वप्न हो , हमारा जीवन - संघर्ष आदि ही नहीँ , हमारा विश्राम उन्हें समर्पित हो जाएं । निद्रा वैराग्य अवस्था है , यह वैराग्य अवस्था आती है संसार में अति व्यक्त होने से थकावट रूप । अपने दुःख - पीड़ा में सब समर्पित है । परन्तु अपने प्रभु को निद्रा कौन अर्पण करता है । जीवन के पुष्पों से , रस से , प्रेम से प्रभु की श्रृंगार सेवा हो । ना कि जीवन के कष्ट-विषाद से । और हाँ सूकोमल पुष्प आता है काँटो बाद । दुःख के प्रभाव का फल आनन्द है , वह आनन्द अर्पण हो । हम जीवन की स्पर्धा , जद्दोजहद , हार , थकान , प्रतिकूलता के परिणाम में प्रभु तक पहुँचते है । फिर आनन्द - यश - कीर्ति - सुख - अनुकूलता लेकर लौट जाते है । हाँड़ी का भोजन चूल्हे पर कितना ही व्याकुल हो प्रभु को पुकारे , पर वह पक कर , कुछ पाने योग्य होने तक वह प्रभु के सन्मुख नहीँ ले जाया जाता । *आनन्द को आनन्द अर्पण हो* । विषाद - अग्नि - विपत्ति तो आनन्द रस को पकने के लिये है ।
तृषित ।

Sunday, 12 February 2017

अप्राप्त का त्याग कीजिये , तृषित

अप्राप्त का त्याग कीजिये

सर्वस्व प्राप्त का ही नहीँ , सर्वस्व अप्राप्त ऐश्वर्य का भी प्रेमी स्वतः त्याग कर देता है । कौनसा त्रिभुवन प्रेमी का साम्राज्य है ?  परन्तु प्रेम में सर्वता का त्याग है ... अप्राप्त सुख ऐश्वर्य का त्याग है । प्रेमी कहता है स्वर्ग त्याग दूँ ... प्राप्त हुआ कहां ... स्वर्ग तक की इच्छा का त्याग है । अर्थात मनुष्य को यहाँ वहाँ भटकाती इच्छा में वैकुंठ तक का त्याग करने का सामर्थ्य हो वह प्रेम पथिक है । अप्राप्त को आज हम क्या वारेगें , हम प्राप्त से सम्बन्ध नहीँ हटा पाते । मंदिर के पँखे पर भी नाम चिपका देते है , क्यों दान कर भी उस वस्तु में ममत्व का त्याग नहीँ हुआ ।
कैसे हम सर्वता का त्याग कर सकते है... जैसे श्यामसुंदर ने किया । जिसका सब है उसने ब्रज मेँ प्रेम रस हेतु सब छोड़ दिया , यह कठिन था , हमारा तो कुछ नही , बस भूल हो गई अपना मानने की वस्तु आदि को , पर है नहीँ । है शयमसुन्दर की , जब वह त्याग दिए तो हमारी तो है ही नहीँ ।
हमारा कोई सुख स्थिर नहीँ रहा और फिर भी स्वर्गीय भोग सुख हम नहीँ त्याग सकते । इस जीवन में विलास ही तो सब जुटा रहे ... मर्सिडीज में रहूँ ... विदेशी प्रोडक्ट्स काम में लूँ और बात करूँ धाम वास की । लोहे की कार मुझे छल गई तो क्या दिव्य स्वर्ग के भोग , छलेगे नहीं । मर्सिडीज तो स्वर्ग के यानों का अणु मात्र नहीँ । यहाँ के प्रोडक्ट्स बेकार है स्वर्ग के उस दिव्य अंगराग आदि पर जिनसे देव आदि का सौन्दर्य नित्य रह जाता है ।
कैसे हम प्राप्त का त्याग ना करने पर , अप्राप्त स्वर्गीय सुख का त्याग का जोर शोर से कहते है , प्राप्त भोग स्वाद सब जड़ है यहाँ , विलास की दिव्य स्थिति ही तो स्वर्ग है । विलासिता का ही त्यागी सन्त है । जिसके हृदय में विलास ना हो प्रेम हो ... प्रियतम का स्वरूप हो ।
धरा पर जीवन रहते भोग मुक्त होते ही प्रेम मय सागर में डूबा जीव स्वयं को सहज रस सरकार के सन्मुख उनके दिव्य स्वरूप का दर्शन करते पाता है , ईश्वर के दर्शन का बाधक है भोग । भोग नहीँ है तो प्रेम चित्त नित्य ईश्वर का दृष्टा है । सन्त हृदय ईश्वर का नित्य दर्शन प्राप्त करते है । अप्राप्त भगवत पद तक का त्याग हो , आज तो कथित वेषधारी m.l.a. के टिकट को नही त्याग सकते । तो भीतर अप्राप्त भगवत्ता का त्याग कैसे होगा ? जीव भगवान नही है , पर भगवान का है सो उसमें ईश्वरत्व का अणु है जो सर्वऐश्वर्य को प्राप्त करना चाहता है । इसलिये ही लक्ष्मी के प्रति उसके भीतर सँग्रह भावना है , जबकि यही विस्मृति उसे भक्त रूप त्यागनी है । भक्त ईश्वर नही है , लक्ष्मी नारायण की संगिनी है और भक्त हरि का दास है ।
जीव सभी लोकों में सब सुख बटोर भी भीतर के ईश्वर को तृप्त नहीँ कर सकता । क्योंकि प्राप्त और अप्राप्त सर्व जगत का हृदय से भगवत अर्पण कर ही वह भगवान का दर्शन कर सकता है ... ईश्वर प्रेम हेतु सर्वता का त्याग कर सकते है । क्या जीव जीवन रहते यह सर्वता जो उसकी है ही नहीँ इस भूल का त्याग नहीँ कर सकता । भूल सुधारना ही साधना है । भक्ति के लिये भोग मुक्ति आवश्यक है , मायाबद्ध स्वयं को नारायण बनाने निकला हुआ है जो वह होगा नही । नारायण दास हो जाना ही विज्ञान है , प्रेम है , विरक्ति गहन हुई तो सहज अनुराग गहन होगा ही । विरक्ति हृदय की दशा हो । स्वांग ना हो । तृषित । जयजय श्यामाश्याम । हृदय से कहिये कुछ नही चाहिये प्रभु आपकी चरण रज सेवा - दर्शना स्पृहा के अतिरिक्त । कोई पद ब्रह्मा तक का मुझे हृदय से त्याग है । सृष्टि क्रम में मै ब्रहा होने तक की यात्रा का आज ही त्याग करता हूँ । प्राप्त ही नहीँ , अप्राप्त सुख विलास का त्याग कर दीजिये । फिर मनहर ही रहेंगे सदा । लीलामय ।

या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहुँ परु को तजि डारौं।
आठहु सिद्ध निवौ निधि को सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
ए रसखानि जबैं इन नैनन ते ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर बारौं।।
रसखान जु ।

Friday, 10 February 2017

आँसू एक सहज प्रार्थना है , most , ओशो

♡आँसु एक सहज प्रार्थना है♡
तुम्हें अगर प्रभु का नाम सुनकर आँसु आते हैं, अगर तुम्हें उसके नाम को लेकर आँसु आते हैं तो जिन्दगी के यही पल सार्थक हैं, मंगलदायी हैं । ये पल प्रभु की कृपा हैं, ये पल उसकी करुणा का प्रसाद हैं ।

आँसुओं को रोकना मत, उनको बहने देना, उन आँसुओं में बहुत कुछ कूडा़ कर्कट तुम्हारा बह जाएगा । तुम पीछे तरोताजा अनुभव करोगे । जैसे कि कोई स्नान हो गया हो । आँखों से कंजूसी मत करना, बहने दो इन आँसुओं को, ये आँसु भीतर उठती किसी रसधार की खबर हैं । बस, इतना ख्याल रहे कि इन आँसुओं को अपनी मस्ती जरुर बना लेना । इन आँसुओं को अपना रस, अपना आनन्द बनाना है ।

उस प्रभु के लिए यही तुम्हारी सरल, सहज और निर्मल प्रार्थना है । अगर तुम खुलकर हृदय से उसके लिए रोना सीख लेते हो तो समझो इससे आगे कुछ और नहीं चाहिए, उसको रिझाने के लिए । क्योंकि रोते-रोते ही हँसना आ जाता है । उसके लिए रोना ही सबसे सरल और सबसे सहज साधन है, इसलिए उसको रिझाने के लिए रोओ ।

दरअसल आँसुओं से बड़ी और कोई प्रार्थना नहीं है । इसलिए हृदय पूर्वक रोओ । आँसु निखारेंगे तुम्हें, बुहारेंगे तुम्हें, जो व्यर्थ है वह बाहर निकल जाएगा । जो सार्थक है, निर्मल है, वह स्फटिक मणि की भांति स्वच्छ होकर भीतर जगमगाने लगेगा । *रे मन ! अब तू भी प्रभु नाम में डूब जा ।*

हरि बोल.........😭😭

विरह क्या है , most , ओशो

विरह क्या है
     पूछते हो तो   समझ न पाओगे
  समझते तो पूछते नहीं
समझ सकते, तो भी पूछते नहीं। क्योंकि विरह कोई सिद्धात तो नहीं है, दर्शनशास्त्र की कोई धारणा तो नहीं है—प्रीति की अनुभूति है।
जैसे किसी ने प्रेम नहीं ‘किया और पूछे कि प्रेम क्या है? अब कैसे समझाएं उसे, कैसे जतलाएं उसे? ऐसे जैसे अंधे ने पूछा, प्रकाश क्या है? अब क्या है उपाय बतलाने का? और जो भी हम बताने चलेंगे, अंधे को और उलझन में डाल जायेगा। अंधा समझेगा तो नहीं, और चक्कर में, और बिबूचन में पड़ जायेगा।

विरह अनुभूति है; प्रेम किया हो तो जान सकते हो। और जिसने प्रेम किया है, वह विरह जान ही लेगा। प्रेम के द।ए. पहलू हैं। पहली मुलाकात जिससे होती है वह विरह और दूसरी मुलाकात जिससे होती है वह मिलन। प्रेम के दो अंग हैं—विरह और मिलन। विरह में पकता है भक्त और मिलन में परीक्षा पूरी हो गयी, पुरस्कार मिला। विरह तैयारी है, मिलन उपलब्धि है। आंसुओ से रास्ते को पाटना पड़ता है मंदिर के, तभी कोई मंदिर के देवता तक पहुंचता है। रो—रो कर काटनी पड़ती है यह लंबी रात, तभी सुबह होती है। और जितनी ही आंखें रोती हैं, उतनी ही ताजी सुबह होती है! और जितने ही आंसू बहे होते हैं, उतने ही सुंदर सूरज का जन्म होता है।

तुम्हारे विरह पर निर्भर है कि तुम्हारा मिलन कितना प्रीतिकर होगा, कितना गहन होगा, कितना गंभीर होगा। सस्ते में जो हो जाये, वह बात भी सस्ती ही रहती है। इसलिए परमात्मा मुफ्त में नहीं मिलता, रो—रो कर मिलना होता है। और आंसू भी साधारण आंसू नहीं, हृदय ही जैसे पिघल—पिघल कर आंसुओ से बहता है! जैसे रक्त आंसू बन जाता है। जैसे प्राण ही आंसू बन जाते हैं।

विरह है अवस्था पुकार की, कि लगता तो है कि तुम हो, मगर दिखाई नहीं पड़ते। लगता तो है कि तुम जरूर ही हो, क्योंकि तुम्हारे बिना कैसे यह विराट होगा? कैसे चलेंगे ये चांद—तारे? कैसे वृक्षों में बाढ़ होगी? कैसे वृक्षों में हरे पत्ते ऊगेंगे? कैसे फूल खिलेंगे? कैसे पक्षी गीत गायेंगे? कैसे जीवन का यह रहस्य जन्मेगा? तुम हो तो जरूर; छिपे हो, अवगुंठन में हो, किसी आवरण में हो।

विरह का अर्थ है : हम तुम्हारा घूंघट उठाएंगे, तलाशेंगे, कितनी ही हो कठिन यात्रा और कितनी ही दुर्गम, हम सब दांव पर लगायेंगे; मगर घूंघट उठायेंगे। हम तुम्हें जानकर रहेंगे, क्योंकि तुम्हें न जाना तो कुछ भी न जाना। अपने मालिक को न जाना, तो कुछ भी न जाना। जिससे आये उसे न जाना, तो कुछ भी न जाना। स्रोत को न जाना तो गंतव्य को कैसे जानेंगे? इसलिए तुमसे पहचान करनी ही होगी। तुम जो अदृश्य हो तुम्हें दृश्य बनाना ही होगा। तुम जो दूर हो, स्पर्श के पार, तुमसे आलिंगन करना ही होगा।

अदृश्य से आलिंगन की आकांक्षा विरह है। अदृश्य को आंखों में भर लेने की आकांक्षा विरह है। जो पकड़ में नहीं आता उसे पकड़ लेने की अदम्य आकांक्षा विरह है। और स्वभावत: बात आसान नहीं, बात अति दुर्गम है। खूब कसौटी होगी, बड़ी अग्नि—परीक्षा होगी। बहुत रोओगे, बहुत तड़फोगे। तुम्हारी तडूफ ही तुम्हारी परीक्षा होगी। विरह में गलोगे, जलोगे, मिटोगे। और जिस दिन राख—राख हो जाओगे, उस दिन राख से मिलन का प्रारंभ होता !
मरो है जोगी मरो

Thursday, 9 February 2017

भटक गया हूँ मैं प्रभु , तृषित

भटक गया हूँ मैं प्रभु , सच भटक गया हूँ !!
प्रभु , एक बार की भूल स्वीकार हो सकती है , अनन्त भूलें नहीँ । और मानव तन से पहले की भूलें भी आपने भुला दी , पर मानव होकर पशु वत मेरा आचरण यह आप क्यों भुलाना चाहते है ।
चलिये करुणासागर आप यह भी भुला दीजिये , परन्तु मानव हो कर आपके जीवन में आ जाने पर हुई भूलें ... आपके सन्मुख हुई भूलें ... !!कब तक मेरे उपकार के लिये आप दण्ड की अपेक्षा वेणुरव से खेंचते ही रहोगें गिरधर ।
दण्ड पात्री हूँ , कैसे मेरे हृदय से आप से भिन्न चिंतन हो सकता है , क्या यह हृदय अब भी आपकी वस्तु नहीँ । अगर है तो क्यों अनन्य आप ही स्मरण रहते । क्यों मेरे भाव में शुद्रता का प्रवेश होता भाव में क्यों आपका ही रस स्पर्श क्यों नहीँ रह पाता । क्या मेरे हृदय में आपके अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प है , अगर है तो प्रभु क्यों मुझे अन्य अभिलाषाओं से हटा कर आपके वेणुरव श्रवण से आपकी अव्यक्त पुकार सुनाई आती है । अगर मेरे हृदय में आपके अतिरिक्त कोई विकल्प है तो प्रभु दया करके आप मुझे हृदय से विस्मृत क्यों नहीँ कर देते । आपका अनन्त रूप से मेरे प्रति जो स्मरण है , उसके लिये पात्रता तो जब हो प्रभु जब मेरे हृदय में अन्य कोई अभिलाषा हो ही ना आप श्री युगल पद रज में लौटने के अतिरिक्त । परन्तु प्रभु विषयी जीव पर दया कर उसके असुरत्व की रक्षा मत कीजिये । एक बार प्रभु पूर्णता से मुझे एक क्षण वैसा विस्मरण कीजिये जैसा मैंने युगों से किया है , जानता हूँ यह सम्भव नहीँ आप हेतु । आप नहीँ भुला सकते । तो मैंने कैसे आपको भुलाया , क्या इसका दण्ड नहीँ मिलना चाहिये मुझे । सत्य में नेत्र आपके समक्ष जब खुल सकेंगे जब अनन्य रूप यह आपके ही कभी अभिलाषी तो हो । विषयी को क्या दर्शन देते हो प्रभु । इतने करूण मत बनो , प्रियतम ।। आप प्रभु हो , भगवान , यह मत भूलों , आपकी विस्मृति से बड़ा कोई अपराध ही नहीँ , दण्ड दीजिये प्रभु । आपका अनन्त प्रेम क्यों वेणुरव से मेरे विषयी चित्त में प्रेम राग रूप प्रवेश करता है । हम अखंड प्रेमास्पद है ना आपके , और आप हमारे एक मात्र प्रेमी है । प्रेमी हम नहीँ है , आप प्रेमी है ,आपके ही अनन्त प्रेम रस सागर की लहरें हमारे विषयी चित्त का कल्याण कर उसे आपके सन्मुख कर पाती है । आपके इतने सुहार्द सुधा के उपरान्त भी अगर मेरे चित्त में अन्य विकल्प कोई शेष है तो क्यों आप त्याग नहीँ कर पाते । एक बार आप त्याग कर दीजिये देह का त्याग भी मेरी आत्मा के अहम को तिरोहित नहीँ कर पाता । एक क्षण को आपका सत्य मेरे प्रति विस्मरण...  मेरे सारे अपराध के दण्ड को सिद्ध कर देगा ।
दीनबन्धु , मैं दीन कदापि रहा ही नहीँ । नाथ , मैंने स्वयं को आपके आश्रय में सनाथ पाया ही नहीँ । बड़ा कष्ट दिया आपकी इस वस्तु ने आपको । आप कल्याण करोगें यह विश्वास मुझे संकल्प-विकल्पों से शुन्य नहीँ होने देता , चित्त व्यर्थ विषयी अभिलाषी होता है । क्या सत्य में कोई आपका होकर अन्य विषय-वस्तु का संग कर सकता है ।  चेतन है आप ... आपके संग से अगर जड़ता का मुझसे त्याग नही हो पाता तो भी आप , कभी मंगलमय विधान से मुझे बाहर नहीँ फेंकते ।
... क्या आपके पास कोई दण्ड नहीँ मेरे लिए ... आपकी अनन्त बार विस्मृति का , तो मेरे हृदय में अनन्त प्रेम सुधा कब विकास होगा जो मेरे सत्य प्रियतम में ही समाई रहें । दुसरो न कोय ... कब हृदय कह सकेगा । तृषित ।।। जयजय श्यामाश्याम ।

Tuesday, 7 February 2017

प्रीति प्रियतम , तृषित

प्रीति-प्रियतम

उन्हें ऐसे सौन्दर्य लावण्य माधुर्य की पिपासा है ...जिसकी स्मृति से ही उनके ही दिव्य देह चराचर जगत प्रेमासक्त हो उनके प्रति आकर्षित होते है ।
जो खेंचता है ...वह कृष्ण है । (माधुर्यता से)
परन्तु कृष्ण जो खेंचते वह खेंचने की शक्ति उनमें राधा है । राधा का स्मरण ही चराचर जगत में व्याप्त प्रीति तत्व को खेंचता है । जीव नहीँ , पदार्थ नहीँ , उसका मूल प्रीति तत्व उनके प्रति खींचा चला जाता है । जिसकी (प्रीति की) बाधा का नाम ही जीव तत्व है । मूलतः किसी भी प्रमाण से जगत का कारण ...प्रीति का विस्तरण-अवतरण ...विलास विवर्त ही तो है । वह ही रसचेतन है और उनमें  झरता-भरता रस श्रीप्रिया । कही भी प्रीति न हो तो चित (रसार्थ) उस तरफ कभी गमन नहीँ करता । वस्तुतः वही मूल प्रीति (राधा) मूल मधुरतम-प्रियतम से मिल कर तृप्त हो सकती है ...शेष श्री मधुरेश से लेना ही चाह रहे है , उनकी तृषा का अनुभव ही तो श्रीकिशोरी का भावराज्य-विलास सूत्र है।
इच्छा के त्याग को शास्त्र और सिद्ध क्यों कहते है , क्योंकि जीव की बाह्य इच्छा रुकें तब वह उस प्रीति को जीवन कर सकेगा और वह तो पदार्थ , वस्तु आदि सर्वत्र एक ही प्रियतम को खोज रही है । प्रीति का प्रकट यह जीवन ही भक्ति है, इच्छा रहित होते ही ... प्रीति ही व्याकुल हो वास्तविक पथ की और भागती और प्रियतम भी प्राकृत इच्छा के अप्राकृत होने पर त्रिगुणात्म से परे निर्गुणात्म नित्यहित स्वरूपा श्री निज-आह्लादिनी श्रीराधा की और ही गमन करते है , ऐसा होते ही जीव के हृदय पर उसकी  हृदयभावना (भावदेह) के सहचरत्व  सँग प्रियतम अपनी ही निजप्रीति संग प्रकट होते है । यह मिलन जीव का मिलन नहीँ है ,वह यहाँ सेवक है , यह उसके मूल बीज (रस) और मूल प्रकृति (महाभाव) का यानी रूप और प्रेम का ...श्रीकृष्ण और श्रीराधा का मिलन है ।
लौकिक इच्छा से जीव ईश्वर के प्रीति तत्व का गहन अनादर करता है । क्योंकि सहज इच्छा-शक्ति स्वभाविक रूप से कृष्ण अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीँ कर सकती । जीव के हृदय  में श्रीकृष्ण की इच्छा (कृष्णेच्छा) या सुख रूपी श्यामा अर्थात प्रीति का प्रकट होना ही भक्ति है और यह अति न्यूनतम हो पाता है क्योंकि जीव न इच्छा को त्याग पाता है न ही अहंकार को । ईश्वर की व्यवहारिक लीला में भी उनके रस की बाधा ईश्वर सुख के अतिरिक्त इच्छा और अहंकार ही है जिसके कारण बाह्य विरह हुआ है । ऐसा ही जीव करता है , उसके जीवन का क्षण-क्षण अहंकार है । भोगी जीव सेवार्थ पथिक नहीं है ...कामनाओं की सिद्धि का ही याचक भर है ।उसका वास्तविक आत्म तत्व जिसके लिये आत्मा ने युगों की यात्रा की वह प्रियतम प्यारे श्रीमोहन है , परन्तु हृदय में नित्य प्रकट प्रभु अप्रकट अनुभूत है तो इसलिय कि वह हृदय पर प्रीति हेतु ही प्रकट होंगे । जीव राधा नहीँ ... निकुंज (सुखविलास) हो सकता है । जिसमें प्रीति अपने प्रेमास्पद से मिलती है , और युगल लीला प्रकट रहती है। ईश्वर के सुख की यह प्रीति क्यों जीव में उतरी ..मात्र उन्हें (प्यारे जू को) नवीनसुख देने को ।
मान लीजिये श्रीप्रिया हिरनी के खिलौने में प्रवेश कर गई ... उन्हें रिझाने को पर , वह खिलौना प्रिया की भावना और प्रियतम सुख को समझ न सकी और उसे प्राकृत हिरनी रूप को सत्य समझ भागी ... हिरण के पीछे । जब वह वहाँ भागी तो प्रीति ने अपना लक्ष्य शयमसुन्दर नहीँ छोड़ा ,  बाह्य रूप से हिरण हिरणी का मिलन आंतरिक प्रीति और प्रियतम का ही मिलन है ... परन्तु हिरणी जब देह को खिलौना समझे तब वास्तविक इच्छा यानी श्यामा प्रकट होगी और वह यहाँ वहाँ नहीँ श्यामसुन्दर के लिये खेल खेलेंगी ...
मूल में हम प्रेम से खिल रहे है ... चेतन प्राकृत नहीँ ... हमारी आत्मा के मूल में प्रेम है ।
वह स्वभाविक उनकी और ही जाएगा अगर जीव बाह्य सम्बन्ध को भूल , वास्तविक श्री हरि को सम्बन्ध स्वीकार कर लें । वह उनके अनुरूप उनके सुख हेतु प्रकट हुई है ... और वास्तविक प्रीति को कृष्ण का माधुर्य स्वभाविक खेंचता है यहाँ कृष्ण बहु जीवों के भोगी हो कर भी श्रीप्रिया रस से ही श्रीप्रिया के लिये स्मरण अवस्था में है ... वास्तव में द्वितीय पदार्थ का उन्हें स्पर्श ही नहीँ ... प्रीति के अतिरिक्त ...और वह प्रीति जीव की निज नहीँ है , वह तो नित्य और दिव्यतम अतिसहज है । जीव तो वस्त्र है प्रीति का ... वह ...श्रृंगार है , लीला है ...कुँज है... जहाँ प्रीति उनसे मिल सकें ... वह प्रीति उनकी राधा है और हम श्रीराधा सेवा-सेवक । प्रेम हेतु वह प्रकट होते है मूलतः वह प्रेम बहु हृदयों में मूल में विद्यमान प्रियतम का सुख रूप प्रीति यानि राधा है ।
प्रियाप्रियतम् अर्थात आत्मा के मूल बीज और उसकी मूल प्रकृति का मिलन किंचित मात्र हृदयों पर होता है ... जीव का बाह्य स्वरूप भंग ही नहीँ हो पाता । इससे व्याकुलित कृष्ण खेंचते है अपनी प्रीत को ... अब भोगी ... वासना में डूबा क्या जाने कि वास्तविक इच्छा अचाह से प्रकट होगी और अचाह ही उनके निज स्वरूप की मिलन भूमि श्रीवृन्दावन (ललितश्रीप्रिया हितविलास प्रकट जहाँ) है । श्यामसुंदर से मिलन उनकी ही प्रिया का सम्भव है ... हाँ कृपा से दोनों ही नित्यप्रकट है परन्तु भोग जगत में आसक्त जीव के खिलौने को सच मानने से मिलकर भी मिलन अनुभव नहीँ कर पाते (अनुभव की सेवा चाहिये , अनुभव ही देय है इस हेतु जो की भाव को श्रीयुगल अर्पण करने से होता है , भाव-अर्पण होने पर ही महाभाव विलास स्फुरित होता है) मंदिर में आंतरिक तृप्ति इसलिये होती है क्योंकि श्रीकृष्ण तृप्त होते है प्रीति के अति निकट आने पर , जीव की इच्छा शक्ति श्रीराधा है यह वह जब जाने जब वह अन्य इच्छा न करें और वह हमारी हर इच्छा को प्रीति जानते है क्योंकि मूल में वही तो है और वह प्रीति भी हर वस्तु पदार्थ में व्याप्त कृष्ण तत्व का स्पर्श करती है इसलिये नई वस्तु जीव को कुछ आनन्द देती है , वास्तव में जीव के हृदय की इच्छा प्रीति है और वह श्रीकृष्ण की वह सुख भावना है जिसे श्रीकृष्ण खेंचते है और जो श्रीकृष्णाकर्षणी है । बिना हरि इच्छा और प्रबल भगवत रस की प्यास के यह विषय जीव जीव रहते नहीँ समझ सकता । इच्छाओं से परे कोई अवस्था इसे जानती है । केवल सेवार्थ सम्बन्ध ही प्रेम का विलास प्रकट कर सकता है , तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।