भाग 3
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
(धर्मसम्राट दिव्य सन्त श्रीकरपात्री जी महाराज श्री)
सदुपयोग से एक पैसे का भी दान लाभदायक होता है, दुरुपयोग से हानिकारक होता है।
एक पैसा दान देकर कोई रुई खरीदकर बत्ती-निर्माण कर ठाकुर जी की आरती करता है; कोई एक पैसा पाकर बंसी खरीदकर मत्स्य मारता है। कोई अरबपति अहंकार से प्रतिष्ठा मात्र के लिये लाखों का दान कर सकता है। बाह्य प्रयोजन उससे अधिक सम्पन्न हो सकते हैं। परन्तु भावना की विशेषता उस दान में नहीं है। एक वृद्धा गरीबनी श्रद्धा से अपने अर्ध सेटक अन्न से छटाँक अन्न का दान करती है। भावना की दृष्टि से अरबपति के लक्षदान से इस छटाँक दान का महत्त्व कहीं अधिक है। आज जहाँ साँप की चर्बी, मछली के तेल को घृतरूप में विक्रय करके करोड़ों रुपयों का लाभ प्राप्त कर लेने पर लाखों का दान किया भी गया तो वह कितने महत्त्व का हो सकता है? उस दान को लेने वालों, खाने वालों की क्या दशा होगी?
इसके अतिरिक्त आज दान के नाम पर पापमयी संस्थाएँ भी तो चल रही हैं। जहाँ से नास्तिकों का सृजन होता है, जहाँ से नास्तिकता तथा तन्मूलक धर्म का प्रचार होता है ऐसी भी संस्थाएँ दान और धर्म के ही नाम पर चल रही हैं। इस प्रकार के दान और धर्म से देश को सुख-शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? अर्थ-कामपरायण संसार अर्थकाम के सम्पादन में तो अपना सम्पूर्ण पुरुषार्थ लगा देता है, परन्तु धर्म और मोक्ष को दैव या प्रारब्ध पर छोड़ देता है।
जितनी सावधानी और चतुरता है, सब अर्थकाम में ही उपयुक्त की जा रही है। ‘एक राजा के दो मंत्री थे, एक व्यापार कार्य में दक्ष, दूसरा संग्राम में दक्ष था; परन्तु अनभिज्ञतावश राजा ने उनका विपरीत उपयोग किया। व्यापारनिपुण को संग्राम में, संग्रामनिपुण को व्यापार में लगा दिया, जिसका फल व्यापार में हानि और संग्राम में पराजय हुई।’ इसी तरह अर्थकाम-सम्पादन में चतुर प्रारब्ध को धर्म, मोक्ष में लगा दिया गया; धर्ममोक्ष-सम्पादन में चतुर पुरुषार्थ को अर्थकाम में नियुक्त कर दिया है। इसीलिये दोनों के विषय में गड़बड़ी हो रही है। वस्तु और अवसर का दुरुपयोग होने से हानियों का ठिकाना नहीं रहता। ज्ञान, विज्ञान, धर्म और ईश्वर बड़ी उत्तम चीज हैं, परन्तु इन्हीं का दुरुपयोग करने से अनर्थ हो सकता है। ईश्वर और धर्म के सहारे सामाजिक, लौकिक विचारणीय स्थिति की उपेक्षा बुरी है। समाज-राष्ट्र के हित का प्रश्न आने पर वैराग्य और विश्वमिथ्यात्व भावना का प्राधान्य खतरनाक है; जबकि भोजन-पानादि से वैसा उत्कट वैराग्य नहीं है।
आज कितने ही व्यक्ति तो साधुओं को धर्म-संस्कृति के रक्षण में अप्रवृत्त देखकर उन्हें कोसते हैं। कितने ऐसे भी हैं, जो दुनिया के अनर्थ करने में, प्रपंच रचने में किंचित भी संकोच नहीं करते; परन्तु धर्म-संस्कृति के रक्षणार्थ उद्योग को प्रपंच ही मानते हैं। राष्ट्र और विश्व की शान्ति को असम्भव और तदर्थ प्रयत्न करने वालों को सर्वथा स्वार्थपरायण ही सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। विशेषतः गृहस्थों और युवकों का कार्यकाल में वैराग्य, असमर्थों का कार्य में राग होना हानिकारक है। आज भी शास्त्र और धर्म को सरपंच मानकर, शास्त्र और धर्म का प्रसार करते हुए, उसी के आधार पर यदि संगठन किया जाय तो सम्पूर्ण अनर्थ दूर हो सकता है। परन्तु शास्त्र जानने वाले और धर्म में प्रेम रखने वाले इस ओर से अत्यन्त अपरिचित और विमुख हो रहे हैं।
शास्त्र और धर्म से अपरिचित ही उच्छृंखल मार्ग से संघटन करना और विश्व की समस्या हल करना चाहते हैं। दूसरे के गुणों को न देखकर दोषों का ही दर्शन करते हैं। अपने दोषों का बिल्कुल चिन्तन न करके गुण ही देखना चाहते हैं।
शास्त्रज्ञ धार्मिक जन शास्त्रोक्त-मार्ग के अनुसार चलकर राष्ट्र या संसार का पथ प्रदर्शन नहीं करना चाहते। शास्त्र और धर्म के रहस्य और महत्त्व को न समझने वाले लोग, धर्मों और शास्त्रों में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहते हैं। वे श्रौतस्मार्त्त्त वर्णाश्रम धर्म की बातों को आज अनावश्यक समझते हैं। भगवदाराधना में अपेक्षित परम मांगलिक घण्टाशंख निनाद का ‘टन-टन’, ‘पों-पों’ कहकर प्रहसन करते हैं। मठाधीश, मन्दिराधिपति, जागीरदार सन्त-महन्त अपने द्रव्यों को धर्मकार्य में, संस्कृत विद्यालय, पुस्तकालय तथा धर्म प्रचार कार्य में नहीं लगाना चाहते, तो दूसरे उन सबको छीनकर सत्कार, पूजा आदि को हटाकर या साधारण करके स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी बनाना चाहते हैं। विधवाश्रम, हरिजन फण्ड, अनाथालय तथा अस्पताल में सब कुछ लगाना चाहते हैं। यदि आस्तिक अपनी माता, बहिनों को सावित्री, सीता जैसी साध्वी बनाने का प्रयत्न नहीं करते, तो दूसरे लोग विलायती लेडी बनाने में सफल होना ही चाहते हैं।
हम इतना ही कहना चाहते हैं कि समय रहते लोगों को सावधान हो जाना चाहिये। लोग बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि ‘अब गत शताब्दियों के दिन लद गये। आज के वैज्ञानिक युग में पुराने जमाने के सड़े-गले नियमों की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को चाहिये कि दुनिया के परिवर्तन के साथ ही अपने आपको परिवर्तित करते चलें। देश काल की परिस्थिति के अनुसार धर्म, कर्म और शास्त्र का निर्माण होना चाहिये।’ इन लोगों की बातों पर ध्यान दिया जाय, तो प्रतीत होगा कि यह विचार भी अब पुराने होते जा रहे हैं; तथापि जैसे सावन के अन्धे को ग्रीष्म में भी हरियाली की ही प्रतीति हो, वैसे ही आज के लोगों की धारणा है।
जिन विचारों और आचारों को पाश्चात्य लोग भी छोड़ रहे हैं, भारत के नक्काल आज भी उन्हीं की नकल उतारने में तथा पाश्चात्यों की भद्दी नकल उतारने में परेशान हैं। धार्मिकता, आध्यात्मिकता से शून्य वैज्ञानिक-सभ्यता के दुष्परिणाम से पाश्चात्य विद्वान भी उद्विग्न हो रहे हैं, वे लोग भी धर्म और ईश्वर की आवश्यकता समझ रहे हैं। परन्तु भारतीयों को आज भी नवीन सभ्यता का ही स्वप्न दीखता है। संसार में कोई चीज पुरानी या नयी होने से ही आदरणीय नहीं होती, किन्तु उसके गुणागुण की ओर अच्छी तरह से ध्यान देना चाहिये-
“सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।”
पृथ्वी, आकाश, वायु, आत्मा और स्वास्थ्य पुराना ही है, परन्तु क्या इतने से ही यह सब हेय है? भोजन करके भूख मिटाने और पानी पीकर प्यास मिटाने की पद्धति पुरानी ही है, फिर भी क्या त्याज्य है? रोग, विपत्ति नवीन होने पर भी क्या आदरणी है?
यदि नहीं, तब तो अनादि अपौरुषेय वेदादि सच्छास्त्रों द्वारा प्रदर्शित मार्ग से लौकिक-पारलौकिक उन्नति के लिये प्रयत्न करना उचित है। जो मार्ग शास्त्रोक्त न भी हो फिर भी शास्त्र के अविरुद्ध हो, तो काम में लाया जा सकता है। वेद, इतिहास, पुराण, दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का प्रचार होने पर सब तरह की समस्याओं का समाधान हो जाता है।
कोई भी मार्ग, यदि वह परिणाम में हानिकारक न हो तभी स्वीकृत होना चाहिये। जिस विषसंयुक्त भोजन से अन्त में मौत के मुँह में पड़ना पड़े, फिर भले ही उससे तात्कालिक तुष्टि, पुष्टि, क्षुन्निवृत्ति भी हो तो क्या लाभ? जिस शास्त्र या धर्मविरुद्ध उपाय से तात्कालिक लाभ भी हो, परन्तु यदि अन्त में पतन हो तो उससे क्या लाभ? इसीलिये तो बुद्धिमानों ने अनर्थानुबन्ध, अकर्मानुबन्ध, अननुबन्ध अर्थ को छोड़कर अर्थानुबन्ध और धर्मानुबन्ध अर्थ को ही श्रेष्ठ समझा है। धर्मोल्लंघन करके प्राप्त किये गये अर्थ को अनादरणीय बतलाया है।
“अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलमन्दिरम्।
अनुल्लङ्घ्य सतां मार्ग यत्स्वल्पमपि तद्बहु।।”
‘दूसरों को सन्ताप न पहुँचाकर, खलों के घर न जाकर, सज्जनों का मार्गलङ्घन न करके जो थोड़ी भी चीज है, वही बहुत बड़ी समझनी चाहिये-
“अतिक्लेशेन येह्यर्थाः धर्मस्यातिक्रमेण च।
शत्रूणां प्रणिपातेन मा च तेषु मनः कृथाः।।”
‘अतिक्लेश से, धर्मोल्लंघन से, शत्रुप्रणिपात से जो अर्थ मिलता हो, उसमें कभी भी मन न लगाया चाहिये।’
आस्तिकों, शास्त्रज्ञों का यह आग्रह नहीं कि कोई नवीन मार्ग सामाजिक, नैतिक, राष्ट्रीय उत्थान के लिये न ग्रहण करना चाहिये। यदि कोई सरल-सुगम विर्विघ्न उपाय प्राप्त होता हो तो शास्त्रोक्त मार्ग की कठिनाई का अनुभव क्यों करें?
“अक्के चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत्।”
‘यदि गृहकोण में मधु मिल जाय तो मधु के लिये पर्वत पर क्यों जाया जाय?’ परन्तु यदि शास्त्र विरुद्ध मार्ग से परिणाम में पतन और नरकादि दुःख भोगना पड़े तब तो उसकी उपेक्षा उचित ही है। यदि अध्यात्मवादी आस्तिकों की भौतिकवादियों से विशेषता है। भौतिकवादी समाजिक या वैयक्तिक अभ्युत्थान के मार्ग को निर्धारण करते हुए धार्मिक-आध्यात्मिक के हानि-लाभ की चिन्ता नहीं रखते। अध्यात्मवादी, धर्मवादी लोग भी पूर्णरूप से राष्ट्रीय, सामाजिक अभ्युत्थान का प्रयत्न करते हैं, परन्तु सर्वदा यह ध्यान रखते हैं कि उसी उपाय का अवलम्बन किया जाय जिससे लाभ की अपेक्षा परिणाम में हानि न हो और परलोक न बिगड़े।