Friday, 10 April 2020

क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? - 3

भाग 3
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
(धर्मसम्राट दिव्य सन्त श्रीकरपात्री जी महाराज श्री)

सदुपयोग से एक पैसे का भी दान लाभदायक होता है, दुरुपयोग से हानिकारक होता है।
एक पैसा दान देकर कोई रुई खरीदकर बत्ती-निर्माण कर ठाकुर जी की आरती करता है; कोई एक पैसा पाकर बंसी खरीदकर मत्स्य मारता है। कोई अरबपति अहंकार से प्रतिष्ठा मात्र के लिये लाखों का दान कर सकता है। बाह्य प्रयोजन उससे अधिक सम्पन्न हो सकते हैं। परन्तु भावना की विशेषता उस दान में नहीं है। एक वृद्धा गरीबनी श्रद्धा से अपने अर्ध सेटक अन्न से छटाँक अन्न का दान करती है। भावना की दृष्टि से अरबपति के लक्षदान से इस छटाँक दान का महत्त्व कहीं अधिक है। आज जहाँ साँप की चर्बी, मछली के तेल को घृतरूप में विक्रय करके करोड़ों रुपयों का लाभ प्राप्त कर लेने पर लाखों का दान किया भी गया तो वह कितने महत्त्व का हो सकता है? उस दान को लेने वालों, खाने वालों की क्या दशा होगी?

इसके अतिरिक्त आज दान के नाम पर पापमयी संस्थाएँ भी तो चल रही हैं। जहाँ से नास्तिकों का सृजन होता है, जहाँ से नास्तिकता तथा तन्मूलक धर्म का प्रचार होता है ऐसी भी संस्थाएँ दान और धर्म के ही नाम पर चल रही हैं। इस प्रकार के दान और धर्म से देश को सुख-शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? अर्थ-कामपरायण संसार अर्थकाम के सम्पादन में तो अपना सम्पूर्ण पुरुषार्थ लगा देता है, परन्तु धर्म और मोक्ष को दैव या प्रारब्ध पर छोड़ देता है।

जितनी सावधानी और चतुरता है, सब अर्थकाम में ही उपयुक्त की जा रही है। ‘एक राजा के दो मंत्री थे, एक व्यापार कार्य में दक्ष, दूसरा संग्राम में दक्ष था; परन्तु अनभिज्ञतावश राजा ने उनका विपरीत उपयोग किया। व्यापारनिपुण को संग्राम में, संग्रामनिपुण को व्यापार में लगा दिया, जिसका फल व्यापार में हानि और संग्राम में पराजय हुई।’ इसी तरह अर्थकाम-सम्पादन में चतुर प्रारब्ध को धर्म, मोक्ष में लगा दिया गया; धर्ममोक्ष-सम्पादन में चतुर पुरुषार्थ को अर्थकाम में नियुक्त कर दिया है। इसीलिये दोनों के विषय में गड़बड़ी हो रही है। वस्तु और अवसर का दुरुपयोग होने से हानियों का ठिकाना नहीं रहता। ज्ञान, विज्ञान, धर्म और ईश्वर बड़ी उत्तम चीज हैं, परन्तु इन्हीं का दुरुपयोग करने से अनर्थ हो सकता है। ईश्वर और धर्म के सहारे सामाजिक, लौकिक विचारणीय स्थिति की उपेक्षा बुरी है। समाज-राष्ट्र के हित का प्रश्न आने पर वैराग्य और विश्वमिथ्यात्व भावना का प्राधान्य खतरनाक है; जबकि भोजन-पानादि से वैसा उत्कट वैराग्य नहीं है।
आज कितने ही व्यक्ति तो साधुओं को धर्म-संस्कृति के रक्षण में अप्रवृत्त देखकर उन्हें कोसते हैं। कितने ऐसे भी हैं, जो दुनिया के अनर्थ करने में, प्रपंच रचने में किंचित भी संकोच नहीं करते; परन्तु धर्म-संस्कृति के रक्षणार्थ उद्योग को प्रपंच ही मानते हैं। राष्ट्र और विश्व की शान्ति को असम्भव और तदर्थ प्रयत्न करने वालों को सर्वथा स्वार्थपरायण ही सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। विशेषतः गृहस्थों और युवकों का कार्यकाल में वैराग्य, असमर्थों का कार्य में राग होना हानिकारक है। आज भी शास्त्र और धर्म को सरपंच मानकर, शास्त्र और धर्म का प्रसार करते हुए, उसी के आधार पर यदि संगठन किया जाय तो सम्पूर्ण अनर्थ दूर हो सकता है। परन्तु शास्त्र जानने वाले और धर्म में प्रेम रखने वाले इस ओर से अत्यन्त अपरिचित और विमुख हो रहे हैं।

शास्त्र और धर्म से अपरिचित ही उच्छृंखल मार्ग से संघटन करना और विश्व की समस्या हल करना चाहते हैं। दूसरे के गुणों को न देखकर दोषों का ही दर्शन करते हैं। अपने दोषों का बिल्कुल चिन्तन न करके गुण ही देखना चाहते हैं।

शास्त्रज्ञ धार्मिक जन शास्त्रोक्त-मार्ग के अनुसार चलकर राष्ट्र या संसार का पथ प्रदर्शन नहीं करना चाहते। शास्त्र और धर्म के रहस्य और महत्त्व को न समझने वाले लोग, धर्मों और शास्त्रों में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहते हैं। वे श्रौतस्मार्त्त्त वर्णाश्रम धर्म की बातों को आज अनावश्यक समझते हैं। भगवदाराधना में अपेक्षित परम मांगलिक घण्टाशंख निनाद का ‘टन-टन’, ‘पों-पों’ कहकर प्रहसन करते हैं। मठाधीश, मन्दिराधिपति, जागीरदार सन्त-महन्त अपने द्रव्यों को धर्मकार्य में, संस्कृत विद्यालय, पुस्तकालय तथा धर्म प्रचार कार्य में नहीं लगाना चाहते, तो दूसरे उन सबको छीनकर सत्कार, पूजा आदि को हटाकर या साधारण करके स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी बनाना चाहते हैं। विधवाश्रम, हरिजन फण्ड, अनाथालय तथा अस्पताल में सब कुछ लगाना चाहते हैं। यदि आस्तिक अपनी माता, बहिनों को सावित्री, सीता जैसी साध्वी बनाने का प्रयत्न नहीं करते, तो दूसरे लोग विलायती लेडी बनाने में सफल होना ही चाहते हैं।

हम इतना ही कहना चाहते हैं कि समय रहते लोगों को सावधान हो जाना चाहिये। लोग बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि ‘अब गत शताब्दियों के दिन लद गये। आज के वैज्ञानिक युग में पुराने जमाने के सड़े-गले नियमों की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को चाहिये कि दुनिया के परिवर्तन के साथ ही अपने आपको परिवर्तित करते चलें। देश काल की परिस्थिति के अनुसार धर्म, कर्म और शास्त्र का निर्माण होना चाहिये।’ इन लोगों की बातों पर ध्यान दिया जाय, तो प्रतीत होगा कि यह विचार भी अब पुराने होते जा रहे हैं; तथापि जैसे सावन के अन्धे को ग्रीष्म में भी हरियाली की ही प्रतीति हो, वैसे ही आज के लोगों की धारणा है।
जिन विचारों और आचारों को पाश्चात्य लोग भी छोड़ रहे हैं, भारत के नक्काल आज भी उन्हीं की नकल उतारने में तथा पाश्चात्यों की भद्दी नकल उतारने में परेशान हैं। धार्मिकता, आध्यात्मिकता से शून्य वैज्ञानिक-सभ्यता के दुष्परिणाम से पाश्चात्य विद्वान भी उद्विग्न हो रहे हैं, वे लोग भी धर्म और ईश्वर की आवश्यकता समझ रहे हैं। परन्तु भारतीयों को आज भी नवीन सभ्यता का ही स्वप्न दीखता है। संसार में कोई चीज पुरानी या नयी होने से ही आदरणीय नहीं होती, किन्तु उसके गुणागुण की ओर अच्छी तरह से ध्यान देना चाहिये-

“सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।”

पृथ्वी, आकाश, वायु, आत्मा और स्वास्थ्य पुराना ही है, परन्तु क्या इतने से ही यह सब हेय है? भोजन करके भूख मिटाने और पानी पीकर प्यास मिटाने की पद्धति पुरानी ही है, फिर भी क्या त्याज्य है? रोग, विपत्ति नवीन होने पर भी क्या आदरणी है?

यदि नहीं, तब तो अनादि अपौरुषेय वेदादि सच्छास्त्रों द्वारा प्रदर्शित मार्ग से लौकिक-पारलौकिक उन्नति के लिये प्रयत्न करना उचित है। जो मार्ग शास्त्रोक्त न भी हो फिर भी शास्त्र के अविरुद्ध हो, तो काम में लाया जा सकता है। वेद, इतिहास, पुराण, दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का प्रचार होने पर सब तरह की समस्याओं का समाधान हो जाता है।
कोई भी मार्ग, यदि वह परिणाम में हानिकारक न हो तभी स्वीकृत होना चाहिये। जिस विषसंयुक्त भोजन से अन्त में मौत के मुँह में पड़ना पड़े, फिर भले ही उससे तात्कालिक तुष्टि, पुष्टि, क्षुन्निवृत्ति भी हो तो क्या लाभ? जिस शास्त्र या धर्मविरुद्ध उपाय से तात्कालिक लाभ भी हो, परन्तु यदि अन्त में पतन हो तो उससे क्या लाभ? इसीलिये तो बुद्धिमानों ने अनर्थानुबन्ध, अकर्मानुबन्ध, अननुबन्ध अर्थ को छोड़कर अर्थानुबन्ध और धर्मानुबन्ध अर्थ को ही श्रेष्ठ समझा है। धर्मोल्लंघन करके प्राप्त किये गये अर्थ को अनादरणीय बतलाया है।

“अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलमन्दिरम्।
अनुल्लङ्घ्य सतां मार्ग यत्स्वल्पमपि तद्बहु।।”
‘दूसरों को सन्ताप न पहुँचाकर, खलों के घर न जाकर, सज्जनों का मार्गलङ्घन न करके जो थोड़ी भी चीज है, वही बहुत बड़ी समझनी चाहिये-

“अतिक्लेशेन येह्यर्थाः धर्मस्यातिक्रमेण च।
शत्रूणां प्रणिपातेन मा च तेषु मनः कृथाः।।”
‘अतिक्लेश से, धर्मोल्लंघन से, शत्रुप्रणिपात से जो अर्थ मिलता हो, उसमें कभी भी मन न लगाया चाहिये।’

आस्तिकों, शास्त्रज्ञों का यह आग्रह नहीं कि कोई नवीन मार्ग सामाजिक, नैतिक, राष्ट्रीय उत्थान के लिये न ग्रहण करना चाहिये। यदि कोई सरल-सुगम विर्विघ्न उपाय प्राप्त होता हो तो शास्त्रोक्त मार्ग की कठिनाई का अनुभव क्यों करें?

“अक्के चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत्।”

‘यदि गृहकोण में मधु मिल जाय तो मधु के लिये पर्वत पर क्यों जाया जाय?’ परन्तु यदि शास्त्र विरुद्ध मार्ग से परिणाम में पतन और नरकादि दुःख भोगना पड़े तब तो उसकी उपेक्षा उचित ही है। यदि अध्यात्मवादी आस्तिकों की भौतिकवादियों से विशेषता है। भौतिकवादी समाजिक या वैयक्तिक अभ्युत्थान के मार्ग को निर्धारण करते हुए धार्मिक-आध्यात्मिक के हानि-लाभ की चिन्ता नहीं रखते। अध्यात्मवादी, धर्मवादी लोग भी पूर्णरूप से राष्ट्रीय, सामाजिक अभ्युत्थान का प्रयत्न करते हैं, परन्तु सर्वदा यह ध्यान रखते हैं कि उसी उपाय का अवलम्बन किया जाय जिससे लाभ की अपेक्षा परिणाम में हानि न हो और परलोक न बिगड़े।

क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? - 2

भाग 2
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?


कोई भी अनुष्ठान, पूजन, भजन आदि तीव्र संवेग से युद्ध प्रयोक्ता द्वारा सुचारू रूप से किया जाय, तो वह अवश्य सफल होता है। जहाँ कहीं विफलता होती है, वहाँ उपर्युक्त त्रुटियों की ही कल्पना उचित है। अनुष्ठानादि में अविश्वास उचित नहीं है। नैयायिकों ने भी शास्त्रों के कुछ कर्मों की विफलता देखकर उनमें कर्तृ-क्रियादि वैगुण्य की ही कल्पना की है। जो कहा जाता है कि ‘सोमनाथ आदि के मन्दिर तोड़ने वालों को कुछ भी दण्ड न मिला’ सो ठीक ही है। एक बार काशी  के एक योग्य विद्वान ने मुझसे कहा कि ‘आज दुर्गा जी की चाँदी की आँखों को चोर चुरा ले गये। महाराज! यदि दुर्गा जी से अपने ही आँख की रक्षा न हुई, तब वे हम सबकी रक्षा कैसे कर सकेंगी?’ किसी एक और व्यक्ति ने शिव जी पर चढ़े हुए अक्षत या फलों को ले जाती हुई मूषिका को देखकर यह समझ लिया था कि ‘मूर्तिपूजा व्यर्थ है, मूर्ति में देवत्व नहीं है।’

ऐसी बातों पर विचार करने से विदित होता है कि यह कितनी मोटी दृष्टि की बात है। व्यापक परब्रह्म परमात्मा सर्वत्र ही रहता है, सम्पूर्ण विश्व उन्हीं में रहता है। सोना, उठना, बैठना सम्पूर्ण कर्म उन्हीं में होता है। जिस तरह गर्भस्थ बालक की सम्पूर्ण चेष्टाएँ माँ के गर्भ में ही होती हैं, फिर भी माता कुपित नहीं होती। वैसे ही जीवों की अनेकों हलचलें उसी परमात्मा में होती हैं, ‘क्षमाशील परमात्मा सबको ही सहन करता है।’

“उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः किं कल्पते मातुरधोक्षजाऽऽगसे।
किमस्तिनास्ति व्ययपदेशभूषितं तवास्ति कुक्षेः कियदप्यनन्तः।।”
ब्रह्मा जी कहते हैं- ‘हे अधोक्षज! गर्भगत बालक के पादोत्क्षेपण को जननी क्या अपराध मानती है? यदि नहीं, तो अस्तिनास्ति व्यपदेश से भूषित यह सम्पूर्ण विश्व क्या आपकी कुक्षि से बाहर है?’ भगवद्ध्यान के प्रभाव से एक ज्ञानी प्राणी भी देहाभिमानशून्य होता है। उसके एक बाहु में कोई कण्टक चुभाता है, दूसरे बाहु में कोई चन्दन-लिम्पन करता है। वह उतना उदार, सहनशील एवं देहाभिमानशून्य होता है कि न अनुकूलाचरण वालों पर प्रहृष्ट हो, न प्रतिकूलाचरण वालों पर कुपित हो। फिर भी अपने-अपने कर्तव्य के अनुसार ही उन सबको यथा समय फल मिलता है।
जब एक देह वाले भगवद्भक्त ज्ञानी की ऐसी स्थिति है, तब अननतकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान का तो कहना ही क्या है। उसके तो अपरिगणित देह हैं और वह महाज्ञानी सर्वत्र असंग और अभिमान शून्य है। वह किसी के सम्मान या अपमान में किस तरह क्षुब्ध हो सकता है? भावुक लोग शास्त्रों के आज्ञानुसार उसकी अनन्तानन्त प्रतिमाओं का निर्माण कर मन्त्रों से आवाहन, प्रतिष्ठापनादि द्वारा उसकी आराधना करते हैं और अपने कर्म के अनुसार ही यथाकाल फल पाते हैं। शास्त्र के अनुसार मन्त्रों एवं आराधनाओं के अनुसार पूजा-ग्रहण करने और फल देने के लिये ही भगवान का उन मूर्तियों में प्राकट्य होता है। कोई उन मूर्तियों का अपमान करके भगवान का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है।

जिस तरह सूर्य पर निष्ठीवन करने से वह सूर्य पर न जाकर अपने ही ऊपर पड़ेगा, आकाश पर मुष्टिप्रहार या तलवार का चलाना बेकार है, वैसे ही भगवान पर प्रहार या उनकी मूर्तियों का तोड़ना बेकार है। अनन्त मूर्तियों में रहने वाले भगवान विश्वमूर्ति एवं अमूर्ति भगवान इतने उदार और क्षमाशील तो हैं कि मूर्ति तोड़ने वालों के कर्म ही उन्हें फल देते हैं। साधारण व्यक्ति जैसे असहिष्णु कोई भी शासक नहीं होते, फिर परमेश्वर की तो बात ही दूसरी है। किन्हीं कर्मों के फल अवसर के अनुसार ही होते हैं। ‘ओडायर’ की हत्या करने वाला व्यकक्ति तत्काल ही पकड़ लिया गया था, परनतु तत्क्षण ही उसे फाँसी नहीं दी गयी, न गोली से उड़ा दिया गया। बाकायदे न्यायालय में न्याय हुआ। फिर दण्ड निश्चित हुआ। यथाकाल दण्ड दिया गया। जब प्राकृत शासकों में इतनी सहिष्णुता और काल-प्रतीक्षा होती है, तब फिर परमेश्वर ही सहिष्णु और काल प्रतीक्षक क्यों न हों?

सम्राट, स्वराट, विराट या गवर्नर, कमिश्नर आदि कोई भी अपने अपमान करने वाले व्यक्ति को, स्वयं पकड़ने या तत्क्षण दण्ड देने में नहीं प्रवृत्त होते, किन्तु उनके कर्मचारी लोग ही उसे पकड़ने में प्रवृत्त होते हैं। वे ही न्यायाध्यक्ष का न्याय पाकर यथाकाल दण्ड देते हैं। इसी तरह ईश्वर की मूर्तियों का अपमान करने वालों को तत्क्षण ही परमेश्वर दण्ड नहीं देता, किन्तु उसके कर्मचारी ही यथाकाल दण्ड देते हैं।
कितने ही अज्ञ कहा करते हैं कि ‘यदि परमेश्वर सर्वशक्तिमान हो, तो मैं उसे गाली देता हूँ, उसकी मूर्ति को तोड़ता हूँ, मेरे सामने आये या मेरा मुँह बन्द कर दे।’ परन्तु सोचना यह चाहिये कि यदि बड़े-बड़े तपस्वी युगयुगान्तरों, कल्प-कल्पान्तरों की तपस्या के पश्चात उसका दर्शन पाते हैं, अनन्त तपस्याओं से उसका अस्तित्व निर्णय कर पाते हैं फिर वह इन अज्ञों के कहने मात्र से कैसे प्रकट हो या उनके कथनानुसार उनका मुँह कैसे बन्द करे? क्या किसी सम्राट को ऐसा कहने पर वह प्रवृत्त होगा?

वस्तुतः जैसे सावधान पुरुष उन्मादी या बालक की बातों पर ध्यान न देकर उस पर कृपा ही करता है, वैसे परमेश्वर भी कृपा ही करते हैं, ‘जो करनी समुझें प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कल्प सतकोरी।’ द्वित, त्रित आदि महर्षियों ने किसी यज्ञ में भगवान को प्रकट करने की प्रतिज्ञा कर ली, परन्तु जब भगवान प्रकट हुए तब वे शाप देने को प्रस्तुत हुए, इस पर ऋषियों ने समझाया कि वे प्रभु भक्ति से ही प्रकट हो सकते हैं, अहंकार से नहीं। अतः ऐसा करना साहस है। हिरण्यकशिपु आदि को भी मारने के लिये भगवान का प्रह्लाद की भावना से प्राकट्य हुआ।

“सहे सुरन्ह बड़ काल विषादू। नरहरि प्रकट कीन्ह प्रह्लादू।।”

इसके अतिरिक्त वे भगवान के नित्यपार्षद हैं, भगवान की लीला के अंग होकर ही उनका जन्म था। इसलिये उनके लिये भगवान का प्राकट्य ठीक है, परन्तु साधारण जन्तुओं के लिये तो वैसा ही होगा, जैसे मच्छर को मारने के लिये तोप का दागना। जिन कीटों को भगवान की कोई भी शक्ति पूर्ण दण्ड दे सकती है, उनके कहने से भगवान का प्रकट होना अत्यन्त ही अनुपयुक्त है। इसलिये मूर्तितोड़कों को दण्ड देने के लिये भगवान का प्राकट्य नहीं हुआ और न कोई चमत्कारपूर्ण तात्कालिक घटना घटी।

चींटी, मूषिका आदि की प्रवृत्ति अज्ञानपूर्विका होती है, चौरादि में भी अज्ञान की ही बहुलता है। अतः उनकी स्थिति क्षम्य ही है; किन्तु विद्वेषाभिनिविष्टचेताओं को यथाकाल दण्ड भोगना पड़ा ही। सुना जाता है, औरंगजेब ने मरते समय अपने पुत्र को पत्र लिखकर अपना दुःख बड़े दैन्यपूर्ण शब्दों में निवेदन किया और सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ने वाला महमूद गजनवी मरने के समय अपने सामने सोने-चाँदी का ढेर लगवाकर (जिसे वह लूट लाया था) खूब रोया।
कहीं-कहीं लोगों को बहुत सन्देह हो जाता है, जब वे देखते हैं कि अत्याचारी प्रसन्न है और सदाचारी धर्मात्मा दुःख पा रहे हैं। परन्तु यह निश्चय रखना चाहिये कि जैसे विषवृक्ष में विष का ही फल लगता है, अमृत फल नहीं; वैसे ही पाप से दुःख ही होगा, सुख नहीं; पुण्य से सुख ही होगा, दुःख नहीं। हाँ, विलम्ब हो सकता है। कोई बीज अपना फल देने में कुछ काल ले सकता है, परन्तु यह कभी नहीं हो सकता कि विषवृक्ष में अमृत का फल लगे।

कोई प्राणी चैत्र में भले ही मटर या चना बोता हो, परन्तु यदि उसने कार्तिक में गेहूँ बोया है, तो उसे चैत्र में काटने को तो गेहूँ ही मिलेगा। इसी तरह कोई प्राणी भले ही अधर्म-अत्याचार कर रहा हो, मूर्ति तोड़कर, शास्त्र-धर्म तोड़कर ताप करता हो, परन्तु इस समय फल तो वही भोगने को मिलेगा जैसा कर्म पहले कर चुका है। हाँ, उग्र पापों और पुण्यों का फल जल्दी मिलता है, परन्तु वह भी कुछ तो अवसर की प्रतीक्षा करता ही है।

“त्रिभिर्वर्षैस्त्रिभिर्मासैस्त्रिभिःपक्षैस्त्रिभिर्दिनैः।
अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते।।”
इसीलिये नल, राम, युधिष्ठिरादि धर्मनिष्ट होते हुए भी दुःखी थे। रावण, दुर्योधनादि विपरीतगामी होने पर भी सुखी थे। परन्तु अन्त में उन्हें अपने पापों का भी फल भोगना पड़ा ही। राम, युधिष्ठिरादि सुखी हुए, रावणादि का सर्वनाश हो गया।

“सौ लख पूत सवा लख नाती। तेहि रावन के दिया न बाती।।”

ऐसे ही औरंगजेब आदि की भी पूर्वजन्म की तपस्या थी, उसी के प्रभाव से उन लोगों का उतना तेज और वैभव था। जब तक उसकी समाप्ति नहीं हुई, तब तक उनका पराभव असम्भव था। सामान्यतः यही होता है कि तपस्या से राज्य और राज्य से नरक होता है। जब प्राणी पीड़ित, पददलित, उच्छोषित, विताडित होता है, तब उसे न्याय, धर्म और ईश्वर सूझता है। ऐसा होते ही कुछ उन्नति और प्रभुता होती है; बस, उसी समय अपने आपको सम्हालना बुद्धिमानी है। अधिकार की कुर्सी मिलते ही न्याय, धर्म और ईश्वर को भूल जाते हैं।
“नहिं कोउ अस जन्मेउ जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।।”

बस, उसी समय रावण, औरंगजेब जैसी प्रवृत्ति होने लगती है। परमेश्वरीय दण्ड उन्हें मिलता है, परन्तु न्यायकारी को परमेश्वर काल की प्रतीक्षा करके ही उन्हें शुभ कर्मों का फल भोग लेने पर ही अशुभ कर्मों का फल प्रदान करते हैं। श्रीहनुमान ने रावण के विचित्र वैभव को देखकर यही निश्चय किया कि ‘अहो! यदि इसमें अधर्म बलवान न होता तो यह शक्र सहित समस्त लोकपालों का स्वामी ही होने योग्य था।’

“यद्यधर्मो न बलवान् स्यादयं राक्षसेश्वरः।
स्यादयं सुरलोकस्य सशक्रस्यापि रक्षिता।।”
लोकपाल भयभीत होकर इसके भ्रुकुटी का ही विलोकन करते रहते हैं।

“कर जोरे सुर दिसिप बिनीता। भ्रुकुटि बिलोकहिं परम सभीता।।”

हनुमान जी ने समझाया कि रावण! तुमने बहुत कुछ सत्कर्म किया है, उसका फल तुम्हें प्राप्त है-

“उत्तम कुल पुलस्त्य कर नाती। सिव बिरञ्चि पूजेउ बहुभाँती।।
बर पायहु कीन्हेंउ सब काजा। जीतेहु लोकपाल सुर राजा।।”
परन्तु अब अधर्म के फलभोग का समय आ रहा है, सावधान हो जाओ। तात्पर्य यही कि अत्याचारी को भी अपने सत्कर्मों का फलभोग मिलता है, अवसर पाकर सत्कर्मों का भी फल मिलता है। ऐसे ही धर्मात्मा को भी पिछले प्रारब्ध तीव्रतम अधर्म का भी फल भोगना पड़ता है।

जो कहा जाता है कि भारत  ‘धर्म-धर्म’ चिल्लाता है, तो भी उसका पतन ही पतन ही दृष्टिगोचर होता है। दूसरे देश धर्म का नाम भी नहीं लेते, फिर भी हम पर शासन कर रहे हैं। परन्तु यह भी अविचारित-रमणीय बात है। ‘दूर के ढोल सुहावने लगते हैं।’ यह हम कह चुके हैं कि जहाँ भी कहीं उन्नति देखो वहाँ उसके मूलभूत धर्म की कल्पना कर लेनी चाहिये। विषवृक्ष में अमृतफल कदापि नहीं लगता।
जहाँ धर्म की चर्चा नहीं वहाँ ऐसी-ऐसी भयानक विपत्तियाँ आती हैं कि नगर के नगर ज्वालामुखियों में जल जाते हैं। कभी-कभी बड़े-बड़े देश के देश अकस्मात् धरातल में विलीन हो जाते हैं। कभी समुद्र की गोद में दिखाई देते हैं। कभी भयानक संग्रामों से आपस में ही कट मरते हैं। शान्ति की दृष्टि से आज भी भारत में और देशों की अपेक्षा गनीमत है। आध्यात्मिकता और धार्मिकता का ही फल है कि आज भी यहाँ लूट-खसूट कर दूसरों की सम्पत्तियों को आत्मसात्‌ करने में संकोच है। यहाँ की सभ्यता-संस्कृति आज भी बची है।

संसार में हजारों संस्कृतियाँ उत्पन्न होकर मिट गयीं, परन्तु प्राचीनतम भारतीय संस्कृति आज भी सुरक्षित है। आज भी भौतिक दृष्टि में कितने ही बढ़े चढ़े देशों के समझदार विद्वान भारत से बहुत कुछ आशा कर रहे हैं। कितने ही पाश्चात्य विद्वान शान्ति-सुख के लिये बराबर भारत की शरण आ रहे हैं। इसके अतिरिक्त आज तो ऐसा कोई भी राष्ट्र और समूह नहीं है, जो धर्म या ईश्वर को किसी न किसी रूप में न स्वीकार करता हो। धर्मवादिनी, ईश्वरवादिनी संस्थाओं को गैरकानूनी करार देनेवालों, ईश्वर और धर्म को साम्य विरोधी समझकर अपने देश से निकल जाने का आदेश देने वालों ने भी आज परमेश्वर को पुकारना प्रारम्भ किया है। लाखों वैज्ञानिक, हजारों विज्ञानशालाएँ जिनकी आज्ञानुसार सफल प्रयोगों में तत्पर हैं, उन लोगों ने भी अस्त्र-शस्त्र संगठन-बल, बाहु-बल, बौद्ध-बल से सम्पन्न होकर भी, आज परमेश्वर को पुकारने में अपना और अपने राष्ट्र का कल्याण समझना आरम्भ कर दिया है। ऐसी स्थिति में भारत को आज धर्म और माला-जय की आवश्यकता न प्रतीत हो, यह आश्चर्य है।

जो कहा जाता है कि यहाँ आज भी धर्म के नाम पर सब देशों से अधिक धन और समय का व्यय होता है, सो अवश्य ठीक है। परन्तु सदुपयोग, दुरुपयोग नाम की भी तो कोई वस्तु है। यह स्पष्ट ही है कि अधिकतर धन और समय का धर्म के नाम पर अपव्यय होता है। अपरिगणित धर्मादे की सम्पत्तियों का दुरुपयोग हो ही रहा है। यदि धर्म के यथार्थ स्वरूप का प्राकट्य या सच्छास्त्रों के प्रचार से अविद्यानिरसन में उनका उपयोग हो तो सचमुच लाभ हो सकता है। इसी तरह छप्पन लाख साधुओं की गणना की भी बात है। तात्पर्य यह है कि शास्त्र के अनुसार शुद्ध भावना से ही किया गया जप, तप, धर्मानुष्ठान लाभदायक होता है। अन्यथा देखते ही हैं कि धुन्धु ने बहुत काल तक अनन्त तप किया था, परन्तु भावना वेदादि शास्त्रों और धर्म के विरोध की थी, इसीलिये उस तप का भी अन्तिम पर्यवसान उत्तम नहीं हुआ। सदुपयोग से एक पैसे का भी दान लाभदायक होता है, दुरुपयोग से हानिकारक होता है। क्रमशः ...
(धर्मसम्राट श्री करपात्री जी महाराज श्री)