पूर्व जन्म में किसी महत पुरुष के सङ्ग रूप भाग्य के उदित होने पर जीव में *श्रद्धा* उदित होती है, फिर उसे *साधुसंग* प्राप्त होता है। साधुसंग से श्रवण कीर्तनादी *भजनक्रिया* आरम्भ होती है, उस से *अनर्थ निवृति* दुर्वसनादि का नाश होता है। अनर्थनिवृति से भक्ति अंगों में अधिक *निष्ठा* उत्पन्न होती है। निष्ठा सहित भक्ति अंगों का अनुष्ठान करते करते श्रवण कीर्तनादी में *रुचि* उत्पन होती है, जिससे भक्ति अंगों में *आसक्ति* होती है। आसक्ति के गाढ़ होने पर *भाव* कृष्णरति का उदय होता है अर्थात चित की मलिनता दूर होंने पर चित्त जब शुद्धसत्व के आविर्भाव की योग्यता प्राप्त करता है तब श्री कृष्णा द्वारा सर्वदा निक्षिप्त ह्लादिनीशक्ति की वृत्ति विशेष का साधक के चित्त में आविर्भाव होता है। यही रति गाढ़ होकर *प्रेम* नाम को प्राप्त होती है, जो श्री कृष्ण सेवा प्राप्ति का मुख्य हेतु है
Monday, 15 October 2018
Monday, 8 October 2018
राधाकृष्णाष्टकम्
॥ राधाकृष्णाष्टकम् ॥
कृष्णप्रेममयी राधा राधाप्रेममयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (१)
भावार्थ : श्रीराधारानी, भगवान श्रीकृष्ण में रमण करती हैं और भगवान श्रीकृष्ण, श्रीराधारानी में रमण करते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (१)
कृष्णस्य द्रविणं राधा राधायाः द्रविणं हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (२)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण की पूर्ण-सम्पदा श्रीराधारानी हैं और श्रीराधारानी का पूर्ण-धन श्रीकृष्ण हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (२)
कृष्णप्राणमयी राधा राधाप्राणमयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (३)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण के प्राण श्रीराधारानी के हृदय में बसते हैं और श्रीराधारानी के प्राण भगवान श्री कृष्ण के हृदय में बसते हैं , इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (३)
कृष्णद्रवामयी राधा राधाद्रवामयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (४)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण के नाम से श्रीराधारानी प्रसन्न होती हैं और श्रीराधारानी के नाम से भगवान श्रीकृष्ण आनन्दित होते है, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (४)
कृष्ण गेहे स्थिता राधा राधा गेहे स्थितो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (५)
भावार्थ : श्रीराधारानी भगवान श्रीकृष्ण के शरीर में रहती हैं और भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधारानी के शरीर में रहते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (५)
कृष्णचित्तस्थिता राधा राधाचित्स्थितो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (६)
भावार्थ : श्रीराधारानी के मन में भगवान श्रीकृष्ण विराजते हैं और भगवान श्रीकृष्ण के मन में श्रीराधारानी विराजती हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (५)
नीलाम्बरा धरा राधा पीताम्बरो धरो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (७)
भावार्थ : श्रीराधारानी नीलवर्ण के वस्त्र धारण करती हैं और भगवान श्रीकृष्णपीतवर्ण के वस्त्र धारण करते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (७)
वृन्दावनेश्वरी राधा कृष्णो वृन्दावनेश्वरः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (८)
भावार्थ : श्रीराधारानी वृन्दावन की स्वामिनी हैं और भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन के स्वामी हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (८)
श्रीकुन्जबिहारी ! श्रीहरिदास !!
जय जय श्री राधे !
Wednesday, 3 October 2018
भक्त लक्षण
*भक्त लक्षण*
1. सर्व-भूतेषु यः पश्येत् भगवद्भावमात्मनः।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः॥
अर्थः
सब भूतों में परमेश्वर स्वरूप अपनी ही आत्मा को और परमेश्वरस्वरूप अपनी आत्मा में सब भूतों को जो देखता है, वह ‘भागवतोत्तम’ ( उत्तम कोटि का भगवद्भक्त ) है।
2. ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च।
प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥
अर्थः
जो भक्त ईश्वर में प्रेम, उनके भक्तों से मित्रता, मूढ़जनों पर कृपा और शत्रु की उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भक्त है।
3. अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः।।
अर्थः
जो श्रद्धा से केवल भगवान के विग्रह को पूजना चाहता है, लेकिन उनके भक्तों और दूसरे लोगों को जो श्रद्धा से पूजना नहीं चाहता, वह प्राकृत यानि कनिष्ठ भक्त हैं।
4. गृहीत्वाऽपींद्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति।
विष्णोर् मायां इदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः॥
अर्थः
यह समस्त विश्व सर्वव्यापी ईश्वर की माया है, यह ज्ञान होने के कारण, इंद्रियों से विषयों का ग्रहण करते हुए भी जिसे हर्ष या विषाद नहीं होता, वह उत्तम भक्त है।
5. देहेंद्रिय प्राण मनो धियां यो
जन्माप्यय-क्षुद्-भय-तर्ष-कृच्छैः।
संसारधर्मैर् अविमुह्यमानः
स्मृत्या हरेर् भागवतप्रधानः॥
अर्थः
देह इंद्रिय प्राण मन और बुद्धि के, जन्म मृत्यु क्षुधा भय तृषा के कारण दुःखदायी जो संसार-धर्म उनसे, हरि-स्मरण के कारण जो मोहग्रस्त नहीं होता, वह भागवतों में श्रेष्ठ है।
6. न काम-कर्म-बीजानां यस्य चेतसि संभवः।
वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः॥
अर्थः
जिसके चित्त में काम, कर्म और इन दोनों का बीज अविद्या उत्पन्न नहीं होती और वासुदेव ही जिसके एकमात्र घर हैं, आश्रय हैं, वह उत्तम भागवत है।
7. न यस्य जन्म-कर्मभ्यां न वर्णाश्रम-जातिभिः।
सज्जतेऽस्मिन् अहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः॥
अर्थः
जिसे जन्म-कर्म या वर्णाश्रम और जाति के कारण इस देह में अहंभाव नहीं चिपकता, सचमुच वही हरि का भक्त है।
8. न यस्य स्वः पर इति वित्तेषवात्मनि वा भिदा।
सर्वभूतसमः शांतः स वै भागवतोत्तमः॥
अर्थः
जो धन-संपत्ति या शरीरादि में ‘यह अपना है, यह पराया’ ऐसा भेद नहीं करता, जो सब प्राणियों के साथ समभाव से व्यवहार करता और सर्वदा शांत रहता है, सचमुच वह उत्तम भागवत है।
9. त्रिभुवन-विभव-हेतवेऽप्यकुंठ-
स्मृतिरजितात्म-सुरादिभिर् विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविंदात्
लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्यः॥
अर्थः
त्रिभुवन के वैभव के लिए भी जिसके हरि स्मरण में व्यवधान नहीं पड़ता और भगवन्मय बने देवादिकों को भी शोध्य उन भगवान के चरण-कमलों से जो आधा पल भी दूर नहीं होता, वह वैष्णवों में अग्रगण्य है।
10. भगवत उरु-विक्रमांघ्रिशाखा-
नख-मणि-चंद्रिकया निरस्त-तापे।
हृदि कथमुपसीदतां पुनः स
प्रभवति चंद्र इवोदितेऽर्कतापः॥
अर्थः
जैसे चंद्रोदय होने पर सूर्य का ताप नष्ट हो जाता है, वैसे ही भगवान के महापराक्रमी चरणों की उँगलियों के नखरूपी रत्नों की चंद्रिका से भक्तों के हृदय का ताप मिट जाता है। फिर वह पुनः उत्पन्न कैसे होगा?
11. विसृजति हृदयं न यस्य साक्षात्
हरिरवशाभिहितोऽप्यघौघ-नाशः।
प्रणय-रशनया घृतांघ्रि-पद्यः
स भवति भागवतप्रधान उक्तः॥
अर्थः
अवश होकर नाम लेने पर भी पाप-प्रवाह का नाशक करने वाले साक्षात हरि, प्रेम की डोरी से चरण-कमल बँध जाने के कारण, जिस भक्त के हृदय को नहीं छोड़ते, वह भागवतों में प्रमुख हैं, ऐसा कहते हैं।