Monday, 14 May 2018

*प्रेम में अधीरता* वियोगी हरि जी

*प्रेम में अधीरता*
वियोगी हरि जी

प्रेमी को धैर्य कहाँ? अरे भाई! उसकी अधीरता ही उसकी धीरता है। आत्यन्तिक विरहासक्ति में, मिलन की परमोत्कण्ठा में प्रेम की जो गहरी अधीरता होती है, उसका आनन्द विरले ही भाग्यवान् जानते हैं। उस अकथनीय अवस्था में एक क्षण एक कल्प के समान बीतता है। दिल में एक अजीब छटपटाहट पैदा हो जाती हैं, आँखें एक दर्द भरे मीठे से नशे में मस्त हो झूमने लगती हैं, मन पर अपना काबू नहीं रहता, ऐसा लगता है, मानों कहीं उड़ा सा जा रहा है। कब आयेगी वह घड़ी, कब मिलेगा वह प्रियतम, कब बुझेगी इन आँखों की तड़प भरी प्यास, कब मौज की लहर लहरायगी दिल के दरिया में आदि भावनाओं में जिस किसी का मन आतुर और अधीर हो गया उसकी प्रेम साधना सफल है, उसका जीवन धन्य है। प्रेमाधीरता में बस कब ही कब दिखायी देता है। यहाँ तक कि ‘अब’ भी उस ‘कब’ के गहरे रंग में रंग जाता है। ऊंचे प्रेमी कबीर ने प्रियतम की दर्शनोत्कण्ठा में प्रेमाधीरता का कैसा सजीव चित्र खींचकर रख दिया है। कहते हैं-

यहि तनका दिवला करौ, बाती मेलौं जीव।
लोहू सींचौं तेल ज्यों, कब मुख देखौं पीव।।

वह मिले तो मैं यह सब भी करने को तैयार हूँ। इस देह का दीपक बनाकर उसमें जीव की बत्ती रखूँगी और अपने हृदय रक्त से उस प्रेम ज्योति को सदा सींचती रहूंगी! देखूँ, इस दिये के उजेले में अपने प्रेमास्पद का मुख कब देखने को मिलता है। हा! कब तक उसकी प्रतीक्षा करूँ!
देखत देखत दिन गया, निसि भी देखत जाय।
बिरहिन पिय पावै नहीं, केवल जिय घबराय।। - कबीर

क्या करूँ, क्या न करूं! कैसे पाऊँ अपने उस प्यारे को-

जो धन आनँद ऐसी रुची तौ कहा बस है, अहा प्राननि पीरौं।
पाऊँ कहाँ हरि, हाय! तुम्हें, धरनी में धँसौं कैं अकासहिं चीरौं।। - आनन्दघन

एक व्रजांगना की प्रेमाधीरता देखते ही बनती है। एक दिन, वन में बलराम और कृष्ण को गायें चराते चराते भूख लग आयी। उस दिन मैया यशोदा ने समय पर छाक तक न भेजी। थोड़ी दूर पर कुछ ब्राह्मण यज्ञानुष्ठान कर रहे थे। सो ग्वालबालों ने श्रीकृष्ण के कहने पर उन याजकों से कुछ भोजन माँगा। पर वे कोरे कर्मठ ब्राह्मण ग्वालों के लड़कों को यज्ञ की रसोई भला देने चले? क्रोधित हो बोले- हट जाओ सामने से। क्यों अपवित्र दृष्टि डालते हो? यह रसोई हमने तुम ग्वालों के छोकरों के लिए ही तो राँधी है!

यज्ञ हेतु हम करीं रसोई। ग्वाल पहले देहि न सोई।।
बेचारे बालक निराश होकर लौट आये। श्रीकृष्ण ने कहा, भैया! तुम तो उनकी स्त्रियों से जाकर माँगों। वे अवश्य देंगी, क्योंकि-

उनके मन दृढ़भक्ति हमारी। मानि लैहिं बै बात तुम्हारी।।
हुआ भी वही। बड़े ही प्रेम से अनेक प्रकार के पकवान् ले लेकर द्विज पत्नियाँ स्वयंही राम कृष्ण को अपने हाथ से भोजन कराने चलीं।
कठोर कर्मठों ने बहुत रोका, पर उन प्रेम मूर्ति व्रजांगनाओं ने उनकी एक न सुनी। और तो सब सविनय अवज्ञा करके चली गयीं, केवल एक ब्राह्मणी अपने पतिदेव के धर्मपाश में फँस गयी। बेचारी पति के पैरों पर नाक रगड़ रगड़कर कहने लगी-

देखन दै वृन्दावन चंद।
हा हा कन्त, मानि बिनती यह, कुल अभिमान छाँड़ि मतिमंद।।
कहि, क्यों भूलि धरत जिय औरै, जानत नहिं पावन नँदनंद!
दरसन पाय आयहौं अबहीं, हरन सकल तेरे दुखद्वंद।। - सूर

वृन्दावन चंद्र श्यामसुंदर की झलक नेक देख आने दो। उस प्यारे गोपाललाल को यह कटोरा भर केशरिया दूध पिला आने दो। सभी सहेलियाँ तो गयी हैं। इस मिथ्या कुलाभिमान में क्या रखा है। छोड़ क्यों नहीं देते यह दम्भाचार? अरे, तुम इतने बड़े विद्वान होकर भी एक मूर्ख की भाँति बात कर रहे हो! मन में पाप विचारते हो! बालकृष्ण में मेरी पवित्र प्रीति को तुम शायद किसी और दृष्टि से देखते हो। क्या कहूँ तुम्हारी बुद्धि को! छोड़ो, जाने दो मुझे, आर्य पुत्र! उस प्राण प्यारे गोपाल का मुखचंद्र मुझे देख आने दो। हा! मैं कैसे जाऊँ। नन्द नन्दन को कैसै देख आऊँ!

रति बाढ़ी गोपाल सों।
हा हा! हरि लों जान देहु प्रभु, पद परसति हौं माल सों।।
सँग की सखी स्याम सनमुख भई, मैं हिं परी पसु पाल सों।
परबस देह, नेह अंतर्गत, क्यों मिलौं नयन बिसाल सों।। - सूर

वहाँ संग की सब सखियाँ अपने अपने हाथ से प्यारे कृष्ण और बलराम को प्रेम से भोजन करा रही होंगी, हाय! मैं ही अकेलो यहाँ इस पशुपाल के पाले पड़ी छटपटा रही हूँ। भले ही यहाँ यह पराधीन देह तड़पा करे, हृदय के भीतर तो कृष्ण प्रेम की आग जलती ही रहेगी। उस आग को कौन बुझा सकता है!
पिय, जनि रोकहि अब जान दै।।
हौं, हरि बिरह जरी जाचति हौं, इतनी बात मोहि दान दै।।
बेनु सुनौं, बिहरत बन देखौं, यह सुख हृदय सिरान दै।
पुनि जो रुचै सोई तू कीजै, साँच कहति हौं आन दै।।
जो कछु कपट किये जाचति हौं, सुनहि कथा हित कान दै।
मन क्रम वचन ‘सूर’ अपनो प्रन राखौंगी तन मन प्रान दै।।

नाथ! अब मत रोको. अब तो मुझे तुम जाने ही दो। मैं कृष्ण के विरह में हाय! कब से जल रही हूँ। तुमसे बस, एक ही दान माँगती हूँ, न दोगे क्या? वन में उस वृन्दावन विहारी गोपाल को देख और उसकी बाँसुरी सुनकर मुझे अपना हृदय ठंडा कर लेने दो। इतना ही तुमसे चाहती हूँ। फिर जो तुम्हारे मन में आवे सो करना। यह मैं निष्कपट भाव से सौगंध खाकर कहती हूँ। न जाने दोगे, तो भी अपना प्रण तो पूरी करूँगी ही। तन, मन और प्राण भी देकर मैं प्यारे मदन मोहन से तो मिलूँगी ही। हा! कब तक तुम्हें समझाऊँ। मिलन की अवधि ही टली जाती है। लो, यह देह ले लो। तुम्हारा दावा सिर्फ इसी पर है न? सो, इस चाम की देह को सँभालकर रख लो। प्राण तो मेरे उस प्राण प्रिय व्रजचंद के ही चरणों में जाकर बसेंगे-

कहँ लगि समुझाऊँ ‘सूरज’ सुनि, जाति मिलन की औधि टरी।
लेहु सँभारि देह पिय, अपनी, बिन प्राननि सब सौज धरी।।
प्रेमाधीरता रही भी यही करके-

चितवन हुती झरोखे ठाढ़ी, किये मिलन कौ साजु।
'सूरदास' तनु त्यागि छिनके में तज्यौ कंत कौ राजु॥

धन्य प्रेमसूति व्रजाड्ड़्ने |

आत्यंतिक विरहासक्ति में धैर्यका भी धैर्य छूट जाता है । यह अवस्था ही कुछ ऐसी होती है। शरत्पूर्णिमाको, जब कालिंदी-कूलपर श्रीकृष्ण ने बासुरी बजायी थीं, ऐसी कौन ब्रजवनिता थीं जो स्वजन-परिजनों के लाख रोकने पर भी वहाँ जाने से रूकी हो? अहो! वह प्रेमाधीरता |

श्रीब्रज-रत्न प्राणघान हरिका,चल सखी ! चल देखें सत्वर ।
है कदम्बके तले नाचते,बेणु बजाते राधावर्॥
घनश्याम की ध्वनि सुन क्योंकर मै चातकी धैर्य धारूं?
क्यों न प्राण-प्यारेके ऊपर अपना तन-मन, धन वारूँ ?॥ -मधुप
कैसी खिंची जा रही हैं ब्रजबालाएँ उस ओर्।
सुनत चली ब्रज-वधु गीत-धुनि कौ मारग गहि।
भवन-भीत, द्रुम-कुंज-पुंज कितहुँ अटकी नहीं॥
ते पुनि तेहि मग चलीं रँगीली तजि गृह-संग्रम।
जनु पिंजरन तै उडे, छुड़े नव-प्रेम विहंगम्॥
साधन सरित न रुकै करो जो जतन कोउ अति।
कृष्ण हरे जिनके मन, ते क्यों रुकैं अगम गति?- नन्ददास

और निर्दय निठुर स्वजन संबंधियों ने जिन व्रजबालाओं को किसी तरह काल कोठरियों में बंदकर रोक रखा था, उनकी दशा यह हुई-

जे रुकि गई घर अति अधीर गुनमय सरीर बस।
पुन्य पाप प्रारब्ध रच्यो तन नाहिं पच्यो रस।।
परम दुसह श्रीकृष्ण विरह दुख व्याप्यौ जिनमें।
कोटि बरस लगि नरक भोगि अघ भुगते छिनमें।।
पुनि रंचक धरि ध्यान पीय परिरंभन दिय जब।
कोटि स्वर्ग सुख बोगि छिनहिं मंगल कीनों सब।। - नन्ददास

उस एक क्षण की विरह व्याकुलता का तनिक ध्यान तो करो। करोड़ों वर्षों के दुखों का लय हो जाता है उस मिलन उत्कण्ठा में, उस अतुलनीय प्रेमाधीरता में। आह कैसी होती होगी वह आतुरता! कितने प्रेमियों के प्राण पक्षी न उड़ा दिये होंगे उस दयाहीना अधीरता ने। पर प्रेमी तो बलि होने के अर्थ ही जीवन धारण करते हैं। ऐसे अधीर प्रेमातुर प्राण कब तक जीवित रह सकते हैं? व्यर्थ ही प्रेमातुरों को दोष देते हो। कहाँ तक बेचारे धैर्य धारण किये रहें। धैर्य की भी कोई हद होती है। बेचारे विरही अपने प्राण विहंगमों को कब तक बाँधकर रखे रहें। क्यों न उनके हाथों से छूट कर उड़ जायँ उनके छटपटाते हुए प्राण पक्षी-
बहुत दिनान की अवधि आस पास परे
खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कों;
कहि कहि आवन छबीले मन भावन कौ,
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान कों।
झूठी बतियान की पत्यानी तें उदास ह्वैकैं,
अब ना घिरत ‘घनआनंद’ निदान कों;
अधर लगे हैं आनि करिकैं पयान प्रान,
चाहते चलन ए संदेशो लै सुजान कों।।

इतना धीरज क्या कुछ कम है, जो इस बेचारी कृष्णानुरागिणी गोपिका ने वहाँ तक संदेसा ले जाने के लिए अपने आतुर प्राणों को ओठों पर कुछ देर तो ठहरा लिया? अरे भाई! प्रेमातुरों को इतना ही बहुत है। अब भी प्रियतम चाहें तो उस अभागिनों को इतना ही बहुत है। अब भी प्रियतम चाहें तो उस अभागिनी के प्राणों को अधरों से लौटाकर उसके हृदय में पुनः बसा सकते हैं! प्यारे कृष्ण! तनिक सुनो तो, वह क्या कह रही है। हाय री, प्रीति!

एक विसास की टेक गहैं लगि आस रहे बसि प्रान बटोही।
हौ घनआनँद जीवन भूरि दई कित प्यासन मारत मोही।।
बस, अब और क्या कहूँ!
हरीचन्द एक व्रत नेम प्रेम ही कौ लीनों,
रूप की तिहारे, व्रज भूप! हौं उपासी हौं।
ज्याय लै रे प्राननि बचाय लै लगाय अंक,
एरे नन्दलाल! तेरी मोल लई दासी हौं।।
---   वियोगी हरि

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