ससन-परस रबसु अस्बर रे देखल धनि देह।
नव जलधर तर चमकय रे जनि बिजुरी-रेह।।
आजु देखलि धनि जाइत रे मोहि उपजल रंग।
कनकलता जनि संचर रे महि निर अवलम्ब।।
ता पुन अपरुब देखल रे कुच-जुग अरविन्द।
विकसित नहि किछुकारन रे सोझा मुख चन्द।।
विद्यापति कवि गाओल रे रस बुझ रसमन्त।
देवसिंह नृप नागर रे, हासिनि देइ कन्त।।
अर्थ
हवा के स्पर्श से वस्र नीचे गिर गया, इसीलिए धनि (नायिका) के शरीर (देह) को देख पाया। ऐसा लगा जैसे मेघ के अन्दर से बिजली चमक उठा हो। आज मैंने नायिका के जाते देखा जिसे देखकर मेरे अन्दर अनुराग उमड़ आया। उसको देखकर मुझे ऐसा लगा कि पृथ्वी पर कोई कनकलता भ्रमण कर रही हो। पुन: एक आश्चर्य देखा कि उस कनकलता में स्तन-युगल रुपी कमल विद्यमान था, परन्तु वह खिला हुआ नहीं था। नहीं खलने का कारण था- सामने में मुख रुपी चान्द। अर्थात् कमल सूर्य के समक्ष खिलता है परन्तु चन्देरोरयय होते ही बव्द हो जाता है। महाकवि विद्यापति इक पद को गाते हुए कहते हैं कि इसका रस-मर्म कोई रसिक ही समझ सकता है। हामिनीदेवी के पतिदेव राजा देवसिंह बहुत बड़े रसिक हैं।
२
जाइत पेखलि नहायलि गोरी।
कल सएँ रुप धनि आनल चोरी।।
केस निगारहत बह जल धारा।
चमर गरय जनि मोतिम-हारा।।
तीतल अलक-बदन अति शोभा।
अलि कुल कमल बेढल मधुलोभा।।
नीर निरंजन लोचन राता।
सिंदुर मंडित जनि पंकज-पाता।।
सजल चीर रह पयोधर-सीमा।
कनक-बेल जनि पडि गेल हीमा।।
ओ नुकि करतहिं जाहि किय देहा।
अबहि छोडब मोहि तेजब नेहा।।
एसन रस नहि होसब आरा।
इहे लागि रोइ गरम जलधारा।।
विद्यापति कह सुनहु मुरारि।
वसन लागल भाव रुप निहारि।।
अर्थ
रास्ते में चलते-चलते एक सद्य: स्नाता सुन्दरि को देखा। न जाने इस नायिका ने कहाँ से यह रुप (विलक्षण) चुराकर लाई है? गीले केस (बाल) को निचोड़ते ही जल का धार टपकने लगा। चँवर से मानो मोती का हार चू रहा हो। भीगे हुए अलक के कारण मुखमण्डल अति सुन्दर (भव्य) लग रहा था, जैसे रस का लोभी भ्रमर मानो कमल को चारों ओर से घेर लिया है। काजल सही ढ़ंग से साफ हो गया था। आंखें एकदम लाल थी। ऐसा लग रहा था जैसे कमल के पत्ते पर किसी ने मिन्दुर घोल दिया है। भीगा वस्र स्तन के किनारे में था। लग रहा था कि जैसे सोने के बेल को पाल
(सर्दी) मार दिया हो। वह (वस्र) छिपा-छिपा कर अपने शरीर को देख रही थी, जैसे अभी-अभी यह स्तन मुझे अलग कर देगा, मेरा स्नेह छोड़ देगा। अब मुझे ऐसा रस नहीं मिलेगा, इसीलिए शायद शरीर पर के बहते जल के धार रो रहा था। महाकवि विद्यापति कहते हैं कि हे कृष्ण, सौन्दर्य को देखकर वस्र को नायिका से स्नेह हो गया था।
३
जाइत देखलि पथ नागरि सजनि गे, आगरि सुबुधि सेगानि।
कनकलता सनि सुनदरि सजनि में, विहि निरमाओलि आनि।।
हस्ति-गमन जकां चलइत सजनिगे, देखइत राजकुमारि।
जनिकर एहनि सोहागिनि सजनि में, पाओल पदरथ वारि।।
नील वसन तन घरेल सजनिगे, सिरलेल चिकुर सम्हारि।
तापर भमरा पिबय रस सजनिगे, बइसल आंखि पसारि।।
केहरि सम कटि गुन अछि सजनि में, लोचन अम्बुज धारि।।
विद्यापति कवि गाओलसजनि में, गुन पाओल अवधारि।।
अर्थ
आज सुन्दरि को राह चलते देखा। वो बुद्धिमती थी, चालाक थी, साथ ही साथ कलकलता के समान सुन्दर भी। विधाता ने काफी सोच-विचार करने के बाद उसका निर्माण (सृजन) किया है। हथिली के चाल में चलती ह किसी वैभवपूर्ण राजकुमारी जैसी लगती है। जिसे इस तरह की सुहागिन (पत्नी) मिलेगी उसे तो मानो चारों पदार्थ मिल जाएगा। वह अपने शरीर को नीले रंग के परिधान से ढ़क रखी थी। माथ के केस का भव्य एवं कलात्मक विन्यास बनाई थी। परन्तु उस पर भी भँवर निश्चिन्त होकर अपने पंख फैलाकर बैठकर उसका रसपान कर रहा था। शेरनी के समान पतलू कमर, कमल के समान नेत्र, आह! महाकवि विद्यापति उस सुन्दरि को गुण का सागर के रुप में देखे, अत: उन्होंने इस गीत का निर्माण किया।
४
जखन लेल हरि कंचुअ अचोडि
कत परि जुगुति कयलि अंग मोहि।।
तखनुक कहिनी कहल न जाय।
लाजे सुमुखि धनि रसलि लजाय।।
कर न मिझाय दूर दीप।
लाजे न मरय नारि कठजीव।।
अंकम कठिन सहय के पार।
कोमल हृदय उखडि गेल हार।।
भनह विद्यापति तखनुक झन।
कओन कहय सखि होयत बिहान।।
अर्थ
जब भगवान कृष्ण (हरि) ने कंचुकी (वस्र) बाहर कर दिया तब मैंने अपने शरीर की लाज बचाने के लिए क्या-क्या यत्न नहीं किए। उस समय की बात का क्या जिक्र कर्रूँ, मैं तो लाज (शर्म) से सिकुड़ गई अर्थात् लाज से पाठ (लकड़ी) के समान कठोर हो गई। जलता दिपक कुछ दूरी पर था, जिसे मैं हाथ से बुझा नहीं सकी। नारी कठ जीव (लकड़ी के समान) होती है, वह लाज से कदापि मर नही सकती। कठोर आलिंगन को कौन बर्दाश्त करे, इसलिए कोमल हृदय पर हार का दाग पड़ गया। महाकवि विद्यापति उस समय का रहस्य बताते है कि कोई भी यह नहीं कह रहा था कि आज भोर (प्रात:) होगी अर्थात् रात में तो सखी, ऐसा लग रहा था, जैसे सुबह होगी ही नहीं।
५
कि कहब हे सखि आजुक रंग।
सपनहिं सूतल कुपुरुप संग।।
बड सुपुक्ख बलि आयल घाइ।
सूति रहल मोर आंचर झंपाइ।।
कांचुलि खोलि आंलिगल देल।
मोहि जगाय आपु जिंद गेल।
हे बिहि हे बिहि बड दुम देल।।
से दुख हे सखि अबहु न गेल।।
भनई विद्यापति एस रश इंद।
भेक कि जान कुसुम मकरंद।।
अर्थ
हे सखि, आज के रंग-ढ़ंग (प्रीति और अभिसार) के बारे में क्या बताऊँ! एक अनाड़ी, नासमझ और अनुभवहीन पुरुष मेरे सपने में मेरे पास आया और सो गया। वह पुरुष वैसे तो मेरे पास ठीक-ठाक ही आया था और मेरे आँचल (साड़ी) से मूँह ढ़ककर सो गया। कर्वप्रथम तो वह मेरे अंगिया (ब्लाउज) खोल दिया और फिर अपने बाहुपास में समेह लिया। इसके बाद क्या बताऊँ सखी.......वह मुर्ख (!) मुझे तो जगा दिया परन्तु स्वयं शान्त हो गया। हे भगवान, बाप रे बाप, मुझे कितना भयंकर दुख दे दिया। सखी! सच कहूँ तो वह दुख मैं अभी तक नहीं भूली हूँ। महाकवि विद्यापति कहते है कि यह रस नहीं रस का आभास है। फूल और पराग का मर्म मेढ़क भला क्या समझ सकता है।
६
मानिनि आब उचित नहि मान।
एखनुक रंग एहन सन लागय जागल पए पंचबान।।
जूडि रयनि चकमक करन चांदनि एहन समय नहि आन।
एहि अवसर पिय मिलन जेहन सुख जकाहि होय से जान।।
रभसि रभसि अलि बिलसि बिलसि कलि करय मधु पान।
अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल भूखल तुऊ जजमान।।
त्रिबलि तरंग सितासित संगम उरज सम्भु निरमान।
आरति पति मंगइछ परति ग्रह करु धनि सरबस दान।।
दीप-बाति सम भिर न रहम मन दिढ करु अपन गेयान।
संचित मदन बेदन अति दारुन विद्यापति कवि भान।।
हे नायिका! अब अर्थ इतना भी रुसना-फुलना उचित नहीं है। इन बातों को अब छोड़ भी दो। देखो तो, ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कामदेव अपने पांच बाणों के साथ जग चुके हों। रात कितना आकर्षक लग रहा है। चारों तरफ स्पष्ट दिखाई दे रहा है (शुक्ल पक्ष अपनी चढ़ाव में जो है)। इससे अच्छा (उपयुक्त) पला भला और क्या हो सकता (अभिसार के लिए) है। इस मनोनुकूल क्षण में प्रियतम से मिलन का जो आनन्द मिलता है उसका अनुभव (अनुमान) वही कर सकता है, जिसने ऐसे पल को कभी भोगा है। भँवर रस से हुए मदमत होकर कली को तोर रहा है, मधुपान कर रहा है। दोनों तरफ से कहीं कोई अवरोध नहीं है। अर्थात् सभी अपने-अपने प्रियतम की भूख मिटा चुके हैं, केवल तुम्हारा प्रियतम अभी तक भूखा है। तुम्हारे नाभि के ऊपर में लहर तरंगित है। संगम पर अवस्थित दोनों स्तन (छाती) शिव-शम्भु के समान लग रहे हैं। इस तरह के अवसर पर तुम्हारा प्रियतम आर्त होकर खड़े हैं। तुमसे कुछ मांग रहा है- याचक मुद्रा में। हे मानिनि (नायिका), तुम ऐसे पल में अपना सर्व दान कर दो। अब भी अपने मन को दृढ़ करो। इस चंचल मन का क्या भरोसा! यह तो दीपक के बाती जैसे हमेशा काँपता रहेगा। महाकवि विद्यापति ऐसी स्थिति का बोध कराते हुए कहते हैं कि कामेच्छा अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाने पर बहुत कष्ट देता है।
७
कुच-जुग अंकुर उतपत् भेल।
चरन-चपल गति लोचन लेल।।
अब सब अन रह आँचर हाथ
लाजे सखीजन न पूछय बात।।
कि कहब माधव वयसक संधि।
हेरइत मानसिज मन रहु बंधि।।
तइअओ काम हृदय अनुपाम।
रोपल कलस ऊँच कम ठाम।।
सुनइत रस-कथा थापय चीत।
जइसे कुरंगिनि सुय संगीत।।
सैसव जीवन उपजल बाद।
केओ नहि मानय जय अवसाद।।
विद्यापति कौतुक बलिहारि।
सैसव से तनु छोडनहि पारि।।
८
सैसव जीवन दुहु सिलि गेल।
श्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।।
वचनक चातुरि नहुनहु हास।
धरनिये चान कयल परकास।।
मुकुर हाथ लय करम सिंगार।
सखइ पूछय कइसे सुरत-विहार।।
निरंजन अपन पयेचर हेरि।।
पहिले बदरि सम पुन नवरंग।
दिन-दिन अनंग अगोरल अंग।।
माधव पेखल अपरुब बाला।
सैसव जौवन दुहु एक भेला।।
विद्यापति कह तुहु अगेआनि।
दुहु एक जोग इह के कह सयानि।।
९
कान्ह हेरल छल मन बड़ साध।
कान्ह हेरइत भेलएत परमाद।।
तबधरि अबुधि सुगुधि हो नारि।
कि कहि कि सुनि किछु बुझय न पारि।।
साओन घन सभ झर दु नयान।
अविरल धक-धक करय परान।।
की लागि सजनी दरसन भेल।
रभसें अपन जिब पर हाथ देल।।
न जानिअ किए करु मोहन चारे।
हेरइत जिब हरि लय गेल मारे।।
एत सब आदर गेल दरसाय।
जत बिसरिअ तत बिसरि न जाय।।
विद्यापति कह सुनु बर नारि।
धैरज धरु चित मिलब मुरारि।।
१०
कंटक माझ कुसुम परगास।
भमर बिकल नहि पाबय पास।।
भमरा भेल कुरय सब ठाम।
तोहि बिनु मालति नहिं बिसराम।।
रसमति मालति पुनु पुनु देखि।
पिबय चाह मधु जीव उपेंखि।।
ओ मधुजीवि तोहें मधुरासि।
सांधि धरसि मधु मने न लजासि।।
अपने मने धनि बुझ अबगाही।
तोहर दूषन बध लागत काहि।।
भनहि विद्यापति तओं पए जीव।
अधर सुधारस जओं परपीब।।
११
कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।
एकहि नगर बसु माधव हे जनि करु बटमारी।।
छोड कान्ह मोर आंचर रे फाटत नब सारी।
अपजस होएत जगत भरि हे जानि करिअ उधारी।।
संगक सखि अगुआइलि रे हम एकसरि नारी।
दामिनि आय तुलायति हे एक राति अन्हारी।।
भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी।
हरिक संग कछु डर नहि हे तोंहे परम गमारी।।
१२
आहे सधि आहे सखि लय जनि जाह।
हम अति बालिक आकुल नाह।।
गोट-गोट सखि सब गेलि बहराय।
ब केबाड पहु देलन्हि लगाय।।
ताहि अवसर कर धयलनि कंत।
चीर सम्हारइत जिब भेल अंत।।
नहि नहि करिअ नयन ढर नीर।
कांच कमल भमरा झिकझोर।।
जइसे डगमग नलिनिक नीर।
तइसे डगमग धनिक सरीर।।
भन विद्यापति सुनु कविराज।
आगि जारि पुनि आमिक लाज।।
१३
सामरि हे झामरि तोर दहे।
कह कह कासँए लायलि नहे।।
निन्दे भरल अछि लोचन तोर।
कोमल बदन कमल रुचि चारे।।
निरस धुसर करु अधर पँवार।
कोन कुबुधि लुतु मदन-भंडार।।
कोन कुमति कुच नख-खतदेल।
हा-हा सम्भु भागन भेय गेल।।
दमन-लता सम तनु सुकुमार।
फूटल बलय टुटल गुमहार।।
केस कुसुम तोर सिरक सिन्दूर।
अलक तिलक हे सेहो गेल दूर।।
भनइ विद्यापति रति अवसान।
राजा सिंवसिंह ईरस जान।।
१४
कि कहब हे सखि रातुक बात।
मानक पइल कुबानिक हाथ।।
काच कंचन नहि जानय मूल।
गुंजा रतन करय समतूल।।
जे किछु कभु नहि कला रस जान।
नीर खीर दुहु करय समान।।
तन्हि सएँ कइसन पिरिति रसाल।
बानर-कंठ कि सोतिय माल।।
भनइ विद्यापति एह रस जान।
बानर-मुह कि सोभय पान।।
१५
आजु दोखिअ सखि बड़ अनमन सन, बदन मलिन भेल तारो।
मन्द वचन तोहि कओन कहल अछि, से न कहिअ किअ मारो।
आजुक रयनि सखि कठि बितल अछि, कान्ह रभस कर मंदा।
गुण अवगुण पहु एकओ न बुझलनि, राहु गरासल चंदा।।
अधर सुखायल केस असझासल, धामे तिलक बहि गेला।
बारि विलासिनि केलि न जानथि, भाल अकण उड़ि गेला।।
भनइ विद्यापति सुनु बर यौवति, ताहि कहब किअ बाधे।
जे किछु पहुँ देल आंचर बान्हि लेल, सखि सभ कर उपहासे।।
१६
कामिनि करम सनाने
हेरितहि हृदय हनम पंचनाने।
चिकुर गरम जलधारा
मुख ससि डरे जनि रोअम अन्हारा।
कुच-जुग चारु चकेबा
निअ कुल मिलत आनि कोने देवा।
ते संकाएँ भुज-पासे
बांधि धयल उडि जायत अकासे।
तितल वसन तनु लागू
मुनिहुक विद्यापति गाबे
गुनमति धनि पुनमत जन पाबे।
१७
नन्दनक नन्दन कदम्बक तरु तर, धिरे-धिरे मुरलि बजाब।
समय संकेत निकेतन बइसल, बेरि-बेरि बोलि पठाव।।
साभरि, तोहरा लागि अनुखन विकल मुरारि।
जमुनाक तिर उपवन उदवेगल, फिरि फिरि ततहि निहारि।।
गोरस बेचरा अबइत जाइत, जनि-जनि पुछ बनमारि।
तोंहे मतिमान, सुमति मधुसूदन, वचन सुनह किछु मोरा।
भनइ विद्यापति सुन बरजौवति, बन्दह नन्द किसोरा।।
१८
अम्बर बदन झपाबह गोरि।
राज सुनइ छिअ चांदक चोरि।।
घरे घरे पहरु गेल अछ जोहि।
अब ही दूखन लागत तोहि।।
कतय
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