Monday, 15 October 2018

प्रेम आदि अष्ट सीढ़ी

पूर्व जन्म में किसी महत पुरुष के सङ्ग रूप भाग्य के उदित होने पर जीव में *श्रद्धा* उदित होती है, फिर उसे *साधुसंग* प्राप्त होता है। साधुसंग से श्रवण कीर्तनादी *भजनक्रिया* आरम्भ होती है, उस से *अनर्थ निवृति* दुर्वसनादि का नाश होता है। अनर्थनिवृति से भक्ति अंगों में अधिक *निष्ठा* उत्पन्न होती है। निष्ठा सहित भक्ति अंगों का अनुष्ठान करते करते श्रवण कीर्तनादी में *रुचि* उत्पन होती है, जिससे भक्ति अंगों में *आसक्ति* होती है। आसक्ति के गाढ़ होने पर *भाव* कृष्णरति का उदय होता है अर्थात चित की मलिनता दूर होंने पर चित्त जब शुद्धसत्व के आविर्भाव की योग्यता प्राप्त करता है तब श्री कृष्णा द्वारा सर्वदा निक्षिप्त ह्लादिनीशक्ति की वृत्ति विशेष का साधक के चित्त में आविर्भाव होता है। यही रति गाढ़ होकर *प्रेम* नाम को प्राप्त होती है, जो श्री कृष्ण सेवा प्राप्ति का मुख्य हेतु है

Monday, 8 October 2018

राधाकृष्णाष्टकम्

॥ राधाकृष्णाष्टकम् ॥

कृष्णप्रेममयी राधा राधाप्रेममयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (१)
भावार्थ : श्रीराधारानी, भगवान श्रीकृष्ण में रमण करती हैं और भगवान श्रीकृष्ण, श्रीराधारानी में रमण करते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (१)

कृष्णस्य द्रविणं राधा राधायाः द्रविणं हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (२)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण की पूर्ण-सम्पदा श्रीराधारानी हैं और श्रीराधारानी का पूर्ण-धन श्रीकृष्ण हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (२)

कृष्णप्राणमयी राधा राधाप्राणमयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (३)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण के प्राण श्रीराधारानी के हृदय में बसते हैं और श्रीराधारानी के प्राण भगवान श्री कृष्ण के हृदय में बसते हैं , इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (३)

कृष्णद्रवामयी राधा राधाद्रवामयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (४)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण के नाम से श्रीराधारानी प्रसन्न होती हैं और श्रीराधारानी के नाम से भगवान श्रीकृष्ण आनन्दित होते है, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (४)

कृष्ण गेहे स्थिता राधा राधा गेहे स्थितो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (५)
भावार्थ : श्रीराधारानी भगवान श्रीकृष्ण के शरीर में रहती हैं और भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधारानी के शरीर में रहते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (५)

कृष्णचित्तस्थिता राधा राधाचित्स्थितो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (६)
भावार्थ : श्रीराधारानी के मन में भगवान श्रीकृष्ण विराजते हैं और भगवान श्रीकृष्ण के मन में श्रीराधारानी विराजती हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (५)

नीलाम्बरा धरा राधा पीताम्बरो धरो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (७)
भावार्थ : श्रीराधारानी नीलवर्ण के वस्त्र धारण करती हैं और भगवान श्रीकृष्णपीतवर्ण के वस्त्र धारण करते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (७)

वृन्दावनेश्वरी राधा कृष्णो वृन्दावनेश्वरः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (८)
भावार्थ : श्रीराधारानी वृन्दावन की स्वामिनी हैं और भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन के स्वामी हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (८)

श्रीकुन्जबिहारी ! श्रीहरिदास !!
जय जय श्री राधे !

Wednesday, 3 October 2018

भक्त लक्षण

*भक्त लक्षण*

1. सर्व-भूतेषु यः पश्येत् भगवद्भावमात्मनः।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः॥
अर्थः
सब भूतों में परमेश्वर स्वरूप अपनी ही आत्मा को और परमेश्वरस्वरूप अपनी आत्मा में सब भूतों को जो देखता है, वह ‘भागवतोत्तम’ ( उत्तम कोटि का भगवद्भक्त ) है।

2. ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च।
प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥
अर्थः
जो भक्त ईश्वर में प्रेम, उनके भक्तों से मित्रता, मूढ़जनों पर कृपा और शत्रु की उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भक्त है।

3. अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः।।
अर्थः
जो श्रद्धा से केवल भगवान के विग्रह को पूजना चाहता है, लेकिन उनके भक्तों और दूसरे लोगों को जो श्रद्धा से पूजना नहीं चाहता, वह प्राकृत यानि कनिष्ठ भक्त हैं।

4. गृहीत्वाऽपींद्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति।
विष्णोर् मायां इदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः॥
अर्थः
यह समस्त विश्व सर्वव्यापी ईश्वर की माया है, यह ज्ञान होने के कारण, इंद्रियों से विषयों का ग्रहण करते हुए भी जिसे हर्ष या विषाद नहीं होता, वह उत्तम भक्त है।

5. देहेंद्रिय प्राण मनो धियां यो
जन्माप्यय-क्षुद्-भय-तर्ष-कृच्छैः।
संसारधर्मैर् अविमुह्यमानः
स्मृत्या हरेर् भागवतप्रधानः॥
अर्थः
देह इंद्रिय प्राण मन और बुद्धि के, जन्म मृत्यु क्षुधा भय तृषा के कारण दुःखदायी जो संसार-धर्म उनसे, हरि-स्मरण के कारण जो मोहग्रस्त नहीं होता, वह भागवतों में श्रेष्ठ है।

6. न काम-कर्म-बीजानां यस्य चेतसि संभवः।
वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः॥
अर्थः
जिसके चित्त में काम, कर्म और इन दोनों का बीज अविद्या उत्पन्न नहीं होती और वासुदेव ही जिसके एकमात्र घर हैं, आश्रय हैं, वह उत्तम भागवत है।

7. न यस्य जन्म-कर्मभ्यां न वर्णाश्रम-जातिभिः।
सज्जतेऽस्मिन् अहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः॥
अर्थः
जिसे जन्म-कर्म या वर्णाश्रम और जाति के कारण इस देह में अहंभाव नहीं चिपकता, सचमुच वही हरि का भक्त है।

8. न यस्य स्वः पर इति वित्तेषवात्मनि वा भिदा।
सर्वभूतसमः शांतः स वै भागवतोत्तमः॥
अर्थः
जो धन-संपत्ति या शरीरादि में ‘यह अपना है, यह पराया’ ऐसा भेद नहीं करता, जो सब प्राणियों के साथ समभाव से व्यवहार करता और सर्वदा शांत रहता है, सचमुच वह उत्तम भागवत है।

9. त्रिभुवन-विभव-हेतवेऽप्यकुंठ-
स्मृतिरजितात्म-सुरादिभिर् विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविंदात्
लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्यः॥
अर्थः
त्रिभुवन के वैभव के लिए भी जिसके हरि स्मरण में व्यवधान नहीं पड़ता और भगवन्मय बने देवादिकों को भी शोध्य उन भगवान के चरण-कमलों से जो आधा पल भी दूर नहीं होता, वह वैष्णवों में अग्रगण्य है।

10. भगवत उरु-विक्रमांघ्रिशाखा-
नख-मणि-चंद्रिकया निरस्त-तापे।
हृदि कथमुपसीदतां पुनः स
प्रभवति चंद्र इवोदितेऽर्कतापः॥
अर्थः
जैसे चंद्रोदय होने पर सूर्य का ताप नष्ट हो जाता है, वैसे ही भगवान के महापराक्रमी चरणों की उँगलियों के नखरूपी रत्नों की चंद्रिका से भक्तों के हृदय का ताप मिट जाता है। फिर वह पुनः उत्पन्न कैसे होगा?

11. विसृजति हृदयं न यस्य साक्षात्
हरिरवशाभिहितोऽप्यघौघ-नाशः।
प्रणय-रशनया घृतांघ्रि-पद्यः
स भवति भागवतप्रधान उक्तः॥
अर्थः
अवश होकर नाम लेने पर भी पाप-प्रवाह का नाशक करने वाले साक्षात हरि, प्रेम की डोरी से चरण-कमल बँध जाने के कारण, जिस भक्त के हृदय को नहीं छोड़ते, वह भागवतों में प्रमुख हैं, ऐसा कहते हैं।

Saturday, 18 August 2018

प्रेमोन्माद - वियोगी हरि

*प्रेमोन्माद*

प्रेमोन्माद

प्रेम में एक प्रकार का पागलपन होता है। ऊँचे प्रेमी प्रायः पागल देखे गये हैं। इस पागलपन में एक विशेष प्रकार का शान्तिमय आनन्द आया करता है, जिसका अनुभव पागल प्रेमी को ही हो सकता है-

There is a pleasure sure in being mad,
Which none but mad men know.

निश्चय ही पागल हो जाने में एक प्रकार का आनन्द है, जिसे केवल पागल ही जानते हैं। प्रेम की दीवानगी में जो चूर हो गया, समझ लो, उसका बेड़ा पार है। प्रेम की हाट में पागल ही पैर रखता है, क्योंकि वहाँ मुफ्त ही अपना सर बेचा जाता है। पगला मीर कहता है-

सौदाई हो तो रक्खे बाजारे इश्क में पा,
सर मुफ्त बेचते हैं, यह कुछ चलन है वाँका।

कुछ भी हो, तिजारती दुनिया तो इस काम को बेवकूफी में ही शुमार करेगी। भला यह भी कोई रोजगार है? सर जैसी महँगी चीज बिना मोल बेच डालना कहाँ की समझदारी है? न हो समझदारी, उन नासमझ पागलों को अपनी इस नासमझी में ही मजा आया करता है। पागलपन से भरी मूर्खता ही उनकी सच्ची समझदारी है-

How wise they are, that are but fools in lose.
भाई, जहाँ इश्क का जूनूँ हुकूमत कर रहा हो, प्रेम का उऩ्माद जहाँ का राजा हो, वहाँ बुद्धि अनधिकार प्रवेश कैसे कर सकेगी? जरूर ही वहाँ अक्ल मदाखलत बेजा के जुर्म में फँस जायेगी-
शोर मेरे जुनूँ का जिस जा है,
दखले अक्ल उस मुकाम में क्या है। -मीर

अक्ल भी एक बला है। बुद्धि का रोग बड़ा बुरा होता है। यह रोग प्रेम की मस्ती से ही अच्छा हो सकता है-

मैं मरीजे अक्ल था, मस्ती ने अच्छा कर दिया!
पगली सहजो ने प्रेमोन्मादियों का एक बड़ा ही सुंदर और सच्चा चित्र अंकित किया है। नीचे के लक्षण जिसमें मिलते हों, समझ लो कि वह एक प्रेमी है, एक पागल है, या दुनियाँ की नजर में एक खासा बेवकूफ है-

प्रेम दिवाने जे मये, मन भे चकनाचूर।
छके रहैं, घूमत रहैं, ‘सहजो’ देखि हुजूर।।
प्रेम दिवाने जे भय, कहैं बहकते बैन।
‘सहजो’ मुख हाँसी छुटै, कबहूँ टपकैं नैन।।
प्रेम दिवाने जे भये, जातिबरन गइ छूट।
‘सहजो’ जग बौंरा कहै, लोग गये सब फुट।।
प्रेम दिवाने जे भये, ‘सहजो’ डगमग देह।
पाँव परै कितकौ कहूँ, हरि सँवारि तब लेइ।।
कबहूँ हकधक ह्वै रहैं, उठैं प्रेम हित गाय।
‘सहजो’ आँख मुँदी रहै, कबहूँ सुधि ह्वै जाय।।
मन में तो आनँद रहै, तन बौरा सब अंग।
न काहू के संग हैं, ‘सहजो’ ना कोई संग।।
ऐसे होते हैं प्रेमोन्मादी। वह पगला अपनी खुदमस्ती में उछल कूद करने वाले शैतान मन को कुचलकर चूर चूर कर देता है। मन मातंग को वह प्रेम जंजीर से जकड़कर बाँध देता है। उसकी मस्ती के आगे मनरूपी मस्त हाथी मुर्दा सा पड़ा रहता है-

मन मतंग महमंत था, फिर नागहिर गंभीर।
दोहरी तेहरी, चौहरी परि गई प्रेम जंजीर।। - कबीर

वह पागल बकती सी बातें करता है, बिल्कुल बेमतलब, बेमानी। कबी खिलखिलाकर हँस पड़ता है, तो कभी आँसुओं का तार बाँध देता है। कौन जाने, किसलिए रोता और किसलिए हँसता है? पर इतना तो हम अवश्यक जानते हैं, कि वह रहता मौज में है। उसके रोने में भी रहस्य है और हँसने में भी रहस्य है।

प्रेमोन्मत्त भक्तवर सुतीक्ष्ण की सी कोटि की प्रेम विह्वलता को गोसाई तुलसीदास जी ने जिस कौशल से चित्रित किया है, वह देखते ही बनता है। अहा!

निर्भर प्रेममगन मुनि ज्ञानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी।।
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। ‘को मैं, चलेउँ कहाँ’ नहीं बूझा।।
कबहुँक फिरि पाछे पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई।।

उस पगले प्रेमी का जात पाँत से कोई नाता नहीं रह जाता। एक झटके से ही सब तोड़ ताड़कर अलग जा खड़ा होता है। लोग उसे पागल कहते हैं, और सका साथ छोड़ देते हैं। वह मस्तराम अपनी देहत को नहीं सँभाल सकता। रखना चाहता है पैर कहीं और पड़ता है कहीं! पर कुशल है, उसका प्यारा सदा उसके साथ रहता है। वही उसे गिरने पड़ने से संभाल लेता है। कभी चुप हो जाता है, कभी प्रीति के गीत गाने लगता है और कभी फूट फूटकर रोने लगता है! न जाने, किसका ध्यान करता है। कुछ पता नहीं चलता। बेसुध ही देखने में आता है। पर कभी कभी वह बेहोश पगला होशयार की तरह काम करने लगता है। उसके हृदय सिन्धु में आनन्द की हिलोरें उठा करती हैं। वह दीवाना न तो खुद ही किसी का साथ पसंद करता है, और न उसे ही कोई अपना संगी साथी बनाना चाहता है।
प्रेम का पागल कैसा मौजी जीव होता है, वह पगला मलूक अपनी प्रेम मस्ती में, सुनो जरा, क्या गा रहा है-

प्यारे, तेरा मैं दीदार दीवाना।
घड़ी घड़ी तुझे देखा चाहूं, सुन साहिब रहमाना।।
हूँ अलमस्त, खबर नहिं तनकी, पीया प्रेम पियाला।
ठाढ़ होऊँ तो गिरि गिरि परता, तेरे रँग मतवाला।

उधर कबीर बाबा भी अपनी धुन में मस्त होकर, अनुराग राग अलाप रहे हैं। वाह!

हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहैं आजाद या जगसे, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर बदर फिरते।
हमारा यार है हममें, हमन को इन्तिजारी क्या?

एक प्रेमोन्मादिनी गोपिका की प्रेम दशा को महाकवि देव ने क्या ही सफल कौशल के साथ अंकित किया है। कुँवर कान्ह की कहानी सुनकर बेचारी को उन्माद सा हो गया है। देखें, उस निठुर कान्ह को भी अब इस पगली की नेह कहानी सुनकर उन्माद होता है या नहीं-
जबतें कुँवर कान्ह रावरी कला निधान,
कान परी वाके कहूँ सुजस कहानी सी;
तबही तें ‘देव’ देखी देवता सी हँसति सी,
खीझति सी, रीझति सी, रूसति रिसानी सी।
छोही सी, छली सो, छीनि लीनी सी, छकी सी, छीन,
जकी सी, टकी सी, लगी, थकी, थहरानी सी;
बीधी सी, बधी सी, विष बूड़ी सी, विमोहित सी,
बैठी वह बकति बिलोकति बिकानी सी।।

उस साँवलिया के दरस की दीवानी, उस बांसुरी वाले के प्रेम की पगली आज इस हालत को पहुँच गयी है। प्रेम क्या से क्या कर देता है। वह अपने घर की रानी आज, बैठी, वह बकति बिलोकति बिकानी सी!
सहजो की सहोदरा दया ने भी प्रेम प्रीति के दीवाने पर कुछ साखियाँ कही हैं। कहती हैं-

‘दया’ प्रेम उन्मत्त जे तनकी तनि सुधि नाहिं।
झुकै रहैं हरि रस छके, थके नेम ब्रत नाहिं।।
प्रेम मगन गे साधुजन, तिन गति कही न जात।
रोय रोय गावत हँसत, ‘दया’ अटपटी बात।।
प्रेम मगन गद्गद बचन, पुलक रोम सब अंग।
पुलकि रह्यौ मनरूप में, ‘दया’ न ह्वै चित भंग।।

उस्ताद जौक का एक प्रसिद्ध शेर है। उसमें एक पागल कहता है कि मैं प्रेमोन्माद के महोदधि की लहर का वह केश पाश हूँ सारा संसार ही मेरे पेंचोखम में घिरा हुआ है। मेरी भावनाएँ जिन्होंने इस दुनिया को परेशान कर रक्खा है, चक्कर में डाल रखा है, उलझी हुई अलकावली के समान है। शेर यह है-

वह हूँ मैं गेसुए मौजे मुहीते आज़मे वहशत,
कि है घरे हुए रूये जिमीं को पेंचोखम मेरा।

कैसा ऊँचा रहस्यवाद है! कौन उलझने जायेगा प्रेम के दीवाने की इस उलझन में। पागल का यह पेंचोखम गूँगे का सा ख्वाब है, जिसका बयान नहीं हो सकता-

गूँगे का सा है ख्वाब बयाँ हो नहीं सकता।
जो प्रेम में दीवाने हैं, बेहोश हैं, वे ही तो असल में होशियार हैं। ऐसे सोते हुए दिलवाले ही तो जाग रहे हैं-

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जगर्ति संयमी। - गीता
मौलाना रूम ने क्या अच्छा कहा है कि ऐसे बेहोश दिलों पर तो भाई! जान तक निसार करने को जी चाहता है। पर यह दीवानगी, यह बेहोशी मिलती कैसे है? सुनो, अगर एक बार भी उस प्यारे राम की झलक पा जाओ, तो मैं दावे के साथ कहता हूँ कि तुम इतने मस्त या पागल हो जाओगे कि अपने दुनियाबी दिल और जिस्म में आग लगा दोगे। यह दावा किसी ऐसे वैसे आदमी का नहीं है, सूफी प्रेम के सूर्य मौलाना जलाल उद्दीन रूमी का है।
स्वामी रामतीर्थ के प्रेमोन्माद से तो आपलोग थोड़े बहुत परिचित होंगे ही। वह भी एक गजब का मस्त था, सच्चा प्रेमी था, पूरा पागल था। वह राम बादशाह सुनिये, क्या गा रहा है। वाह! आनन्द ही आनन्द है! क्या खूब मेरे प्यारे राम!

डटकर खड़ा हूँ, खौफ से खाली जाहान में।
तसकीने दिल भरी है मेरे दिल में जान में।।
गाह बगह दुनियाँ की छत पर हूँ तमाशा देखता।
गह बगह देता लगा हूँ बहिशियों की सी सदा।।
बादशाह दुनियाँ के हैं मुहरे मेरी शतरंज के।
दिल्लगी की चाल है, सब रंग सुलहो जंग के।।
रक्शे आदी से मेरे जब कपि उठती है जमीं।
देखकर मैं खिलखिलाता, कहकहाता हूँ वहीं।।

यही अवस्था तो है गीता की ‘ब्राह्मी स्थिति’। प्रेमोन्मत्त ही इस स्थिति का एकमात्र अधिकारी है। पगली दयाबाई ने बिल्कुल सच कहा है-

प्रेम मगन से साधूजन, बिन गति कही न जात।
रोय रोय गावत हँसत, ‘दया’ अटपटी बात।।
---- *वियोगी हरि*

Thursday, 14 June 2018

श्री कनकधारा स्तोत्र

     

 

  🌷श्री कनकधारा स्तोत्र 🌷

 

ज्योतिष में धन प्राप्ति के अनेकों उपाय बताए गए है पर उनमें जो सबसे अधिक प्रभावशाली व शीघ्र फलदायी है, वो है कनकधारा स्त्रोत का विधि – विधान से नियमित पाठ। इसकी रचनाकार आदि शंकराचार्य है जिन्होंने इसकी सहायता से सोने की बारिश करवाई थी। एक बार आदिशंकराचार्य भिक्षा मांगने किसी गरीब ब्राह्मण के घर गए। उसके पास उन्हें देने के लिए कुछ नहीं था। उसने भिक्षा के रूप में उन्हें एक सूखा आंवला दे दिया। उसकी दरिद्रता दूर करने के लिए उन्होंने मां लक्ष्मी से प्रार्थना की। प्रार्थना पूरी होते ही उसके घर सोने के आंवलों की वर्षा होने लगी। उनकी ये प्रार्थना कनकधारा स्रोत के नाम से प्रसिद्ध है।


विधि – आप तंत्र-मंत्र सम्बंधित सामग्री की दूकान से एक कनकधारा यंत्र व कनकधारा स्त्रोत ले आए। नियमित कनकधारा यंत्र के सामने धुप-बत्ती करके कनकधारा स्त्रोत का पाठ करें। अगर किसी दिन यह भी भूल जाएं तो बाधा नहीं आती क्योंकि यह सिद्ध मंत्र होने के कारण चैतन्य माना जाता है। यहां प्रस्तुत है कनकधारा स्तोत्र का संस्कृत पाठ एवं हिन्दी अनुवाद।

💐 कनकधारा स्तोत्र 💐

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अङ्गीकृताऽखिल-विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गळदेवतायाः ॥१॥

जैसे भ्रमरी अधखिले पुष्पों से अलंकृत तमाल-वृक्ष का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो दृष्टि श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का वह कृपादृष्टि मेरे लिए मंगलदायी हो।।1।।

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपा-प्रणहितानि गताऽऽगतानि।
मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥२॥

जैसे भ्रमरी कमल दल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर दृष्टिमुझे धन संपत्ति प्रदान करें ।।2।।

विश्वामरेन्द्रपद-वीभ्रमदानदक्ष आनन्द-हेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणर्द्ध मिन्दीवरोदर-सहोदरमिन्दिरायाः ॥३॥

जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, उन मुरारी श्रीहरि को भी आनंदित करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर भी अवश्य पड़े।।3।।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।
आकेकरस्थित-कनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥४॥

शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पु‍तली तथा बरौनियां अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।।

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रित कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला, कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥५॥

जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कृपादृष्टि मेरा कल्याण करें।।5।।

कालाम्बुदाळि-ललितोरसि कैटभारे-धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति-भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥६॥

जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के समान श्याम वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण करें ।।6।

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत् प्रभावान् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थर-मीक्षणार्धं मन्दाऽलसञ्च मकरालय-कन्यकायाः ॥७॥

समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, वही दृष्टि मुझ पर भी पड़े।।7।।

दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ॥८॥

भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें।।8।।

इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।
दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥९॥

विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्‍मासना पद्‍मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करें।।9।।

गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति।
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥१०॥

जो सृष्टि रचना के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में स्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।10।।

श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्र​यायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै ॥११॥

हे देवी । शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।11।।

नमोऽस्तु नालीक-निभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधि-जन्मभूत्यै।
नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै ॥१२॥

कमल के समान कमला देवी को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सहोदरी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है। ।।12।।

नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।
नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥१३॥

कमल के समान नेत्रों वाली हे मातेश्वरी ! आप सम्पतिव सम्पुर्ण इंद्रियों को आनंद प्रदान देने वाली हो, , साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा हर लेती होमुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे।।13।।

नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै।
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥१४॥

जिनकी कृपा दृष्टि के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूं।।14।।

नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै।
नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥१५॥

हे विष्णु प्रिये! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झांकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।।15।।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय-नन्दनानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरुहाक्षि।
त्वद्-वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यत् ॥१६॥

दिशाओं द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराए गए आकाश गंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक (स्नान) संपादित होता है, संपूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूं ।।16।।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरङ्गितैरपाङ्गैः।
अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥१७॥

कमल के समान नेत्र वाले भगवन केशव की कामिनी पत्नि हे कमले! मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूं, तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूं। आप मुझ पर कृपा दृष्टि करें ।।१७।।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुविबुधभाविताशयाः ॥१८॥

जो लोग इस प्रकार प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस लोकमें महान गुणवान और अत्यंत भाग्यवान. होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।18।।

॥श्रीमदाध्यशङ्कराचार्यविरचितं श्री कनकधारा स्तोत्रम् समाप्तम्।।