भाग - 2
ज्ञान-वैराग्य-भक्ति
(19.3) दष्टं जनं संपतितं बिलेऽस्मिन्
कालाहिना क्षुद्र-सुखोरु-तर्षम्।
समुद्धरैनं कृपयाऽऽपवर्ग्यैर्
वचोभिरासिंच महानुभाव ॥
आगे उद्धव कहते हैं कि कालरूपी सर्प ने मुझे काटा है –दष्टम्। जिस बिल में साँप है, उसी बिल में आपका भक्त रहता है। अपना वर्णन कर रहे हैं कि इस संसार रूपी बिल में पड़ा हुआ और साँप से काटा हुआ मैं हूँ। मुझे क्षुद्र सुख यानि विषय-सुख की बड़ी प्यास लगी है। यह एक रूपक है। कहा जाता है कि जिस मनुष्य को साँप काटता है, उसे बहुत प्यास लगती है। वही मिसाल यहाँ दी गई है। उरु-तर्षा यानि बहुत प्यास। इसलिए हे भगवान्! समुद्धर –मेरा आप उद्धार करो। हे मन्त्र जानने वाले, मन्त्रज्ञ महानुभाव! अपने अपवर्ग्यैः वचोभिः –मुक्तिदायी वचनों से मुझ पर सिंचन करो। ‘अपवर्ग’ यानि मुक्ति। हे महानुभाव! मुझे बचाओ। साँप के काटे हुए मनुष्य को मान्त्रिक मन्त्र से ठीक करते हैं और उस समय उस पर जल छिड़कते हैं। वही मिसाल यहाँ दी गयी है और भगवान् से कहा है कि आप अपने मुक्तिदायी वचनों से मुझ पर सिंचन करें।
इन तीनों श्लोकों में अपने को बचाने के लिए भगवान से प्रार्थना की गयी है और वैराग्य-ज्ञान-भक्ति की माँग भी की है। आगे के श्लोकों में भगवान उद्धव के प्रश्नों के उत्तर देंगे।
(19.4) नवैकादश पंच त्रीन् भावान् भूतेषु येन वै।
ईक्षेताथैकमप्येषु तत् ज्ञानं मम निश्चितम् ॥
भगवान ज्ञान-वैराग्य समझा रहे हैं: येन ज्ञानेन ईक्षेत –जिस ज्ञान से हम देख सकेंगे। क्या देख सकेंगे? नवैकादश पंच त्रीन् भावान् भूतेषु –नौ अधिक ग्यारह, अधिक पाँच, अधिक तीन, यानि 28 मूलतत्त्व सब भूतों में भरे हुए हैं। ‘भाव’ यानि मूलतत्त्व। और ईक्षेत अथ एकमपि एषु –इन 28 मूलतत्त्वों में एक तत्त्व देखो। सारांश, अनन्त भूतों में 28 भाव हैं, यह ज्ञान जिससे होता है, उस ज्ञान को प्रथम जान लें। फिर उन 28 भावों में एव तत्त्व जान लें। तत् ज्ञानं मम निश्चितम् –इसी को मैं ज्ञान मानता हूँ।
यह एक प्रक्रिया है। पहले अनन्त भावों को उबाल-उबालकर यानि ओटकर 28 भाव निकाले। फिर 28 भावों को ओटकर उसका एक तत्त्व बनाया। ये 28 भाव कौन-से हैं? सांख्यशास्त्रकारों ने 25 पदार्थ माने हैं। उनमें तीन गुण जोड़ दिये तो 28 हो जाते हैं। सांख्यों ने तीन गुणों को प्रकृति में माना है, यहाँ उन्हें अलग गिना गया है।
यह विषय मुझे शुष्क लगता है। मैंने पंचीकरण-प्रक्रिया भी पढ़ी है।[4] वह नीरस लगी। उसका आत्मज्ञान से कोई ताल्लुक नहीं। सृष्टि कैसे बनी, यह विज्ञान का विषय है। विज्ञान ने इस विषय में काफी खोज की है। लेकिन जिन्होंने खोज की, उन्हें आत्मज्ञान तो नहीं हुआ था। रामदास स्वामी ने कहा है :
प्रपंची पाहिजे सुवर्ण। परमार्थी पंचीकरण ॥
अर्थात प्रपंच में सुवर्ण चाहिए, पैसा चाहिए और परमार्थ में पंचीकरण विद्या चाहिए। पाँच महाभूत, पाँच विषय, चित्त के तत्त्व आदि का शास्त्र इस पंचीकरण-विद्या में आता है। मैंने अपने लिए इसमें यह परिवर्तन कर लिया है :
प्रपंची पाहिजे अन्न। परमार्थी आत्मज्ञान ॥
उपनिषद में भी ‘अनाज बढ़ाओ’ कहा है: अन्नं बहु कुर्वीत । लेकिन भगवान ने भागवत के इस श्लोक में बड़ी कुशलतापूर्वक साधकों को निर्देश देते हुए कहा है कि ‘अनन्त का 28 करो और 28 का 1-’रिड्यूस टु वन –एक तक आओ। अनन्त भेदों से 28 भेदों तक आये, तो काम कुछ आसान बना। फिर भी ये 28 बाकी रहने पर झमेला नहीं मिटेगा, क्योंकि ‘वन वर्ल्ड’ (एक जगत) बनाना है। इसलिए भगवान ने ज्ञानमार्ग निकाला और कहा कि ’28 का 1 बनाओ।’ जिस ज्ञान से उन 28 में ‘एक’ दीखे, तत् ज्ञानं मम निश्त्तिम् –उसे मैं निश्चित ज्ञान मानता हूँ। दूध की रबड़ी बनायी, फिर रबड़ी का मावा! मतलब मावा बनाने से है।
फिर विज्ञान क्या है? भगवान कहते हैं :
(19.5) ऐतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत् ।
स्थित्युत्पत्त्यप्ययान् पश्येद् भावानां त्रिगुणात्मनाम् ॥
एकेन येन न तथा –एक ज्ञान ऐसा हो, जिससे सृष्टि के त्रिगुणात्मक भावों को हम देख सकें और यह भी देखें कि सारा मामला मिथ्या है। न तथा –वास्तविक नहीं है। यह जानना ही विज्ञान होता है। ज्ञान होता है, लेकिन उसमें तथ्य नहीं, यह मालूम होना ही विशेष ज्ञान या विज्ञान है अर्थात अनुभव-ज्ञान। साइन्स को भी ‘विज्ञान’ कहते हैं। उसका अर्थ है, विविध ज्ञान।
स्थिति-उत्पत्ति-अप्ययान् –सचमुच यह जन्मा और मरा, बीच में कुछ काम भी किया – यह जानते हुए भी ‘यह सही नहीं है’ ऐसा जानना विज्ञान है। इसी ज्ञान को, इसी समझ को ‘विज्ञान’ कहते हैं। यह है आत्म-साक्षात्कार!
बड़ों-बड़ों के चरित्र होते हैं –‘इसने यह काम किया, उसने वह।’ लेकिन एक दिन पृथ्वी कम्पायमान हुई, तो सब खतम! तब वह क्या काम आयेगा? इतिहास, भूगोल या ग्रामदान-कार्य भी इसी तरह का है। यह कोई काल्पनिक चीज नहीं, होने वाली, वास्तविक है।
ऐसी अनेक पृथ्वियाँ सृष्टि में हैं, करोड़ों की तायदाद में हैं। नये-नये ग्रह-तारे बन रहे हैं, तो कुछ खतम हो रहे हैं। उनमें कौन बड़ा और कौन छोटा? इसलिए समझना चाहिए कि परमात्मा की लीला चल रही है। इसमें जो काम हमें मिला है, उसे हम करते हैं। पर उसकी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
जयपुर में मैंने एक प्रदर्शिनी देखी थी। उसमें गोबर के बहुत सुन्दर केले बनाये थे। वहाँ मतलब केला खाने से नहीं, उसे देखने से था। गोबर का केला कौन खायेगा? वैसे ही हम जो काम करते हैं, उसमें खाने से मतलब नहीं – यह ज्ञान हो जाए तो वह आत्मानुभव है, जिसे ‘विज्ञान’ कहा है। स्थिति, उत्पत्ति और अप्यय यानि लय – ये त्रिगुणात्मक भाव बदलते रहें, लेकिन इनमें तथ्य नहीं है। न तथारूपेण पश्येत् एकेन ज्ञानेन –एक ही ज्ञान होता है, तो ‘न तथा’ दृष्टि से हम देखते हैं। मृगजल का समुद्र लहरें मार रहा है। लेकिन हम जानते हैं कि यह मृगजल ही है, वास्तव में समुद्र ही।
यह बात हिन्दुस्तान के बहुतों के कानों तक पहुँच गयी है, फिर भी लोग आसक्ति में पड़े रहते हैं। विदेश के एक भाई मुझसे मिलने आये थे। वे कह रहे थे : ‘मेरी समझ में नहीं आता था कि भारत में जो साधु-सन्त हो गये, उन्होंने संसार को मिथ्या क्यों कहा। पर हिन्दुस्तान में आने के बाद यह चीज मेरे ध्यान में आयी। यहाँ के लोग अपने भाई-बहन, माता-पिता आदि परिवार में अत्यन्त आसक्त हैं। सन्तों को उन्हें उनसे छुड़ाना पड़ा। हमारे यहाँ तो माता-पिता का एक लड़का अमेरिका में, एक इंग्लैंड में, तो एक जापान में, इस तरह चलता है। बारह-बारह साल तक पिता-पुत्र का मिलन नहीं होता।’
उस भाई के इस कहने में तथ्य है। यहाँ तो यह हालत है कि 80 साल की बूढ़ी माँ अपने 50 साल के लड़के की चिन्ता करती है। चाहती है कि मैं अपने बेटे का दर्शन करूँ। ऐसी स्थिति होने के कारण ही सन्तों ने संसार को मिथ्या कहा। यह आसक्ति तोड़ने के लिए सन्तों ने जोर-जोर से कहा। लेकिन इतना कहने पर भी क्या आसक्ति टूटी? इसलिए हमें समझना चाहिए कि संसार की किसी भी चीज में तथ्य नहीं। यह जानना ही ज्ञान यानि ‘विज्ञान’ है।
क्रमशः ...
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