Friday, 21 July 2017

ज्ञान-वैराग्य-भक्ति - 2 , विनोबा भावे

भाग - 2 
ज्ञान-वैराग्य-भक्ति


(19.3) दष्टं जनं संपतितं बिलेऽस्मिन्
कालाहिना क्षुद्र-सुखोरु-तर्षम्।
समुद्‍धरैनं कृपयाऽऽपवर्ग्यैर्
वचोभिरासिंच महानुभाव ॥

आगे उद्धव कहते हैं कि कालरूपी सर्प ने मुझे काटा है –दष्टम्। जिस बिल में साँप है, उसी बिल में आपका भक्त रहता है। अपना वर्णन कर रहे हैं कि इस संसार रूपी बिल में पड़ा हुआ और साँप से काटा हुआ मैं हूँ। मुझे क्षुद्र सुख यानि विषय-सुख की बड़ी प्यास लगी है। यह एक रूपक है। कहा जाता है कि जिस मनुष्य को साँप काटता है, उसे बहुत प्यास लगती है। वही मिसाल यहाँ दी गई है। उरु-तर्षा यानि बहुत प्यास। इसलिए हे भगवान्! समुद्धर –मेरा आप उद्धार करो। हे मन्त्र जानने वाले, मन्त्रज्ञ महानुभाव! अपने अपवर्ग्यैः वचोभिः –मुक्तिदायी वचनों से मुझ पर सिंचन करो। ‘अपवर्ग’ यानि मुक्ति। हे महानुभाव! मुझे बचाओ। साँप के काटे हुए मनुष्य को मान्त्रिक मन्त्र से ठीक करते हैं और उस समय उस पर जल छिड़कते हैं। वही मिसाल यहाँ दी गयी है और भगवान् से कहा है कि आप अपने मुक्तिदायी वचनों से मुझ पर सिंचन करें।

इन तीनों श्लोकों में अपने को बचाने के लिए भगवान से प्रार्थना की गयी है और वैराग्य-ज्ञान-भक्ति की माँग भी की है। आगे के श्लोकों में भगवान उद्धव के प्रश्नों के उत्तर देंगे।

(19.4) नवैकादश पंच त्रीन् भावान् भूतेषु येन वै।
ईक्षेताथैकमप्येषु तत् ज्ञानं मम निश्चितम् ॥

भगवान ज्ञान-वैराग्य समझा रहे हैं: येन ज्ञानेन ईक्षेत –जिस ज्ञान से हम देख सकेंगे। क्या देख सकेंगे? नवैकादश पंच त्रीन् भावान् भूतेषु –नौ अधिक ग्यारह, अधिक पाँच, अधिक तीन, यानि 28 मूलतत्त्व सब भूतों में भरे हुए हैं। ‘भाव’ यानि मूलतत्त्व। और ईक्षेत अथ एकमपि एषु –इन 28 मूलतत्त्वों में एक तत्त्व देखो। सारांश, अनन्त भूतों में 28 भाव हैं, यह ज्ञान जिससे होता है, उस ज्ञान को प्रथम जान लें। फिर उन 28 भावों में एव तत्त्व जान लें। तत् ज्ञानं मम निश्चितम् –इसी को मैं ज्ञान मानता हूँ।

यह एक प्रक्रिया है। पहले अनन्त भावों को उबाल-उबालकर यानि ओटकर 28 भाव निकाले। फिर 28 भावों को ओटकर उसका एक तत्त्व बनाया। ये 28 भाव कौन-से हैं? सांख्यशास्त्रकारों ने 25 पदार्थ माने हैं। उनमें तीन गुण जोड़ दिये तो 28 हो जाते हैं। सांख्यों ने तीन गुणों को प्रकृति में माना है, यहाँ उन्हें अलग गिना गया है।

यह विषय मुझे शुष्क लगता है। मैंने पंचीकरण-प्रक्रिया भी पढ़ी है।[4] वह नीरस लगी। उसका आत्मज्ञान से कोई ताल्लुक नहीं। सृष्टि कैसे बनी, यह विज्ञान का विषय है। विज्ञान ने इस विषय में काफी खोज की है। लेकिन जिन्होंने खोज की, उन्हें आत्मज्ञान तो नहीं हुआ था। रामदास स्वामी ने कहा है :

प्रपंची पाहिजे सुवर्ण। परमार्थी पंचीकरण ॥

अर्थात प्रपंच में सुवर्ण चाहिए, पैसा चाहिए और परमार्थ में पंचीकरण विद्या चाहिए। पाँच महाभूत, पाँच विषय, चित्त के तत्त्व आदि का शास्त्र इस पंचीकरण-विद्या में आता है। मैंने अपने लिए इसमें यह परिवर्तन कर लिया है :

प्रपंची पाहिजे अन्न। परमार्थी आत्मज्ञान ॥

उपनिषद में भी ‘अनाज बढ़ाओ’ कहा है: अन्नं बहु कुर्वीत । लेकिन भगवान ने भागवत के इस श्लोक में बड़ी कुशलतापूर्वक साधकों को निर्देश देते हुए कहा है कि ‘अनन्त का 28 करो और 28 का 1-’रिड्यूस टु वन –एक तक आओ। अनन्त भेदों से 28 भेदों तक आये, तो काम कुछ आसान बना। फिर भी ये 28 बाकी रहने पर झमेला नहीं मिटेगा, क्योंकि ‘वन वर्ल्ड’ (एक जगत) बनाना है। इसलिए भगवान ने ज्ञानमार्ग निकाला और कहा कि ’28 का 1 बनाओ।’ जिस ज्ञान से उन 28 में ‘एक’ दीखे, तत् ज्ञानं मम निश्त्तिम् –उसे मैं निश्चित ज्ञान मानता हूँ। दूध की रबड़ी बनायी, फिर रबड़ी का मावा! मतलब मावा बनाने से है।

फिर विज्ञान क्या है? भगवान कहते हैं :

(19.5) ऐतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत् ।
स्थित्युत्पत्त्यप्ययान् पश्येद् भावानां त्रिगुणात्मनाम् ॥

एकेन येन न तथा –एक ज्ञान ऐसा हो, जिससे सृष्टि के त्रिगुणात्मक भावों को हम देख सकें और यह भी देखें कि सारा मामला मिथ्या है। न तथा –वास्तविक नहीं है। यह जानना ही विज्ञान होता है। ज्ञान होता है, लेकिन उसमें तथ्य नहीं, यह मालूम होना ही विशेष ज्ञान या विज्ञान है अर्थात अनुभव-ज्ञान। साइन्स को भी ‘विज्ञान’ कहते हैं। उसका अर्थ है, विविध ज्ञान।

स्थिति-उत्पत्ति-अप्ययान् –सचमुच यह जन्मा और मरा, बीच में कुछ काम भी किया – यह जानते हुए भी ‘यह सही नहीं है’ ऐसा जानना विज्ञान है। इसी ज्ञान को, इसी समझ को ‘विज्ञान’ कहते हैं। यह है आत्म-साक्षात्कार!

बड़ों-बड़ों के चरित्र होते हैं –‘इसने यह काम किया, उसने वह।’ लेकिन एक दिन पृथ्वी कम्पायमान हुई, तो सब खतम! तब वह क्या काम आयेगा? इतिहास, भूगोल या ग्रामदान-कार्य भी इसी तरह का है। यह कोई काल्पनिक चीज नहीं, होने वाली, वास्तविक है।

ऐसी अनेक पृथ्वियाँ सृष्टि में हैं, करोड़ों की तायदाद में हैं। नये-नये ग्रह-तारे बन रहे हैं, तो कुछ खतम हो रहे हैं। उनमें कौन बड़ा और कौन छोटा? इसलिए समझना चाहिए कि परमात्मा की लीला चल रही है। इसमें जो काम हमें मिला है, उसे हम करते हैं। पर उसकी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।

जयपुर में मैंने एक प्रदर्शिनी देखी थी। उसमें गोबर के बहुत सुन्दर केले बनाये थे। वहाँ मतलब केला खाने से नहीं, उसे देखने से था। गोबर का केला कौन खायेगा? वैसे ही हम जो काम करते हैं, उसमें खाने से मतलब नहीं – यह ज्ञान हो जाए तो वह आत्मानुभव है, जिसे ‘विज्ञान’ कहा है। स्थिति, उत्पत्ति और अप्यय यानि लय – ये त्रिगुणात्मक भाव बदलते रहें, लेकिन इनमें तथ्य नहीं है। न तथारूपेण पश्येत् एकेन ज्ञानेन –एक ही ज्ञान होता है, तो ‘न तथा’ दृष्टि से हम देखते हैं। मृगजल का समुद्र लहरें मार रहा है। लेकिन हम जानते हैं कि यह मृगजल ही है, वास्तव में समुद्र ही।

यह बात हिन्दुस्तान के बहुतों के कानों तक पहुँच गयी है, फिर भी लोग आसक्ति में पड़े रहते हैं। विदेश के एक भाई मुझसे मिलने आये थे। वे कह रहे थे : ‘मेरी समझ में नहीं आता था कि भारत में जो साधु-सन्त हो गये, उन्होंने संसार को मिथ्या क्यों कहा। पर हिन्दुस्तान में आने के बाद यह चीज मेरे ध्यान में आयी। यहाँ के लोग अपने भाई-बहन, माता-पिता आदि परिवार में अत्यन्त आसक्त हैं। सन्तों को उन्हें उनसे छुड़ाना पड़ा। हमारे यहाँ तो माता-पिता का एक लड़का अमेरिका में, एक इंग्लैंड में, तो एक जापान में, इस तरह चलता है। बारह-बारह साल तक पिता-पुत्र का मिलन नहीं होता।’

उस भाई के इस कहने में तथ्य है। यहाँ तो यह हालत है कि 80 साल की बूढ़ी माँ अपने 50 साल के लड़के की चिन्ता करती है। चाहती है कि मैं अपने बेटे का दर्शन करूँ। ऐसी स्थिति होने के कारण ही सन्तों ने संसार को मिथ्या कहा। यह आसक्ति तोड़ने के लिए सन्तों ने जोर-जोर से कहा। लेकिन इतना कहने पर भी क्या आसक्ति टूटी? इसलिए हमें समझना चाहिए कि संसार की किसी भी चीज में तथ्य नहीं। यह जानना ही ज्ञान यानि ‘विज्ञान’ है।
क्रमशः ...

Thursday, 20 July 2017

गोपी प्रेम का वैशिष्ट्य , शरनानन्द जी

गोपी-प्रेम का वैशिष्ट्य

                   ( ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज )

     एक भाई गोपी-प्रेम की बात पूछ रहा था । इसलिये कहना है कि जबतक प्राणी का शरीर और संसार से सम्बन्ध नहीं छूटता, जबतक वह शरीर को मैं और संसार को अपना मानता है, तबतक गोपी-प्रेम की बात समझ में नहीं आती । प्रेमी में चाह नहीं रहती इसलिये प्रेमी अपने लिये कुछ नहीं करता, जो कुछ करता है वह अपने प्रियतम को रस देने के लिये ही करता है । यहाँ तर्कशील मनुष्य यह प्रश्न कर सकता है कि भगवान् तो सब प्रकार से पूर्ण और रसमय आनन्दस्वरूप हैं । उनमें किसी प्रकार का अभाव ही नहीं है । उनको रस देने की बात कैसी ? उसको समझना चाहिये कि यही तो प्रेम की महिमा है, जो आप्तकाम में भी कामना उत्पन्न कर देता है, सर्वथा पूर्ण में भी अभाव का अनुभव करा देता है । प्रेमियों का भगवान् सर्वथा निर्विशेष नहीं होता । उनका भगवान् तो अनन्त दिव्य गुणों से सम्पन्न होता है और उनका अपना प्रियतम होता है । उनकी दृष्टि में भगवान् के ऐश्वर्य का भी महत्त्व नहीं है । उनका भगवान् तो एकमात्र प्रेममय और प्रेम का ग्राहक है ।

     प्रेमी भगवान् को रस देने के लिये ही अपना जीवन सुन्दर बनाते हैं, जैसे सुन्दर पुष्प को खिला हुआ देखकर वाटिका का स्वामी उस फूल से प्रेम करता है, उसको हाथ में लेता है, सूँघता है, उसकी शोभा को देखकर प्रसन्न होता है; वैसे ही भगवान् भी अपने प्रेमी को चाहरहित सुन्दर जीवन्मुक्त देखकर प्रसन्न होते हैं, उनको उससे रस मिलता है ।

     पुष्प तो जड होता है, इस कारण स्वयं माली से प्रेम नहीं करता । जैसे धन से मनुष्य प्रेम करता है, परंतु धन जड होने के कारण मनुष्य से प्रेम नहीं करता । जीव जड नहीं है, चेतन है; इसलिये यह भी अपने प्रियतम से प्रेम करता है अर्थात् भक्त भगवान् से प्रेम करता है और भगवान् भक्त से प्रेम करते हैं । भगवान् भक्त के प्रियतम और भक्त भगवान् का प्रियतम हो जाता है ।

    भगवान् श्रीकृष्ण और किशोरीजी की प्रेमलीला से यह बात स्पष्ट समझ में आ जाती है । उनकी लीला अपने भक्तों को प्रेम का तत्त्व समझाने और रस प्रदान करने के लिये ही हुआ करती है । एक समय श्यामसुन्दर के मनमें किशोरीजी को प्रेमरस प्रदान करने के लिये उनकी परीक्षा की लीला करने का संकल्प हुआ, तो आपने एक देवांगना का रूप धारण किया और किशोरीजी के पास गये । बातचीत के प्रसंग में श्यामसुन्दर ने कहा-'किशोरीजी ! आप श्याम-सुन्दर से इतना प्रेम क्यों करती हैं ? वे तो आपसे प्रेम नहीं करते ।' तब किशोरीजी ने कहा-'तुम इस बात को क्या समझो ! प्रेम करना तो श्यामसुन्दर ही जानते हैं । वे ही प्रेम करते हैं । मुझमें प्रेम कहाँ है ?' देवांगना बोली-'नहीं-नहीं, वे तो प्रेम नहीं करते, तुम्हीं प्रेम करती हो ।' तब किशोरीजी ने कहा-'देवी ! प्रेम करना जैसा श्यामसुन्दर जानते हैं, वे जितना और जैसा प्रेम करते हैं, वैसा कोई नहीं कर सकता ।' तब देवांगना बोली-'मैं तो यह नहीं मान सकती ।' किशोरीजी ने कहा-'तुमको कैसे विश्वास हो ?' देवांगना बोली-'यदि वे आपके बुलाने से आ जायँ तो मैं समझूँ कि सचमुच वे भी आपसे प्रेम करते हैं ।' किशोरीजी ने कहा-'यह तो तब हो सकता है जबकि कुछ समयतक तुम मेरी सखी बनकर यहाँ रहो ।' देवांगना ने किशोरीजी की बात स्वीकार की और उनकी सखी बनकर रहने लगी । तब किशोरीजी ने भाव में प्रविष्ट होकर भगवान् से कहा-'प्यारे ! तुम कहाँ हो ?' इतना कहते ही देवांगना से भगवान् श्यामसुन्दर हो गये । उनको देखकर किशोरीजी ने कहा-'ललिते ! वह देवांगना कहाँ है ? उसे बुलाकर प्यारे का दर्शन कराओ ।' तब ललिता बोली-'प्यारी ! उसीमें से यह देव प्रकट हुए हैं, वह अब कहाँ है ।' ललिता विवेक-शक्ति का अवतार है, यह भक्त और भगवान् को मिलाती रहती है । इस लीला से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भक्त भगवान् से प्रेम करता है और भगवान् भक्त से प्रेम करते हैं ।

'कल्याण', फरवरी २०१६ ई○, विषय- गोपी-प्रेम का वैशिष्ट्य ( ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज ), पृष्ठ-संख्या- ४२, गीताप्रेस, गोरखपुर

Sunday, 16 July 2017

ज्ञान वैराग्य भक्ति 1 , विनोबा भावे जी

भाग 1 -- ज्ञान-वैराग्य-भक्ति


पहले तीन श्लोकों में उद्धव भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं :
(19.1) ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथैतद्
वैराग्य-विज्ञान-युतं पुराणम् ॥
आख्याहि विश्वेश्वर! विश्वमूर्ते!
त्वद्‍भक्ति-योगं च महद्-विमृग्यम् ।।

ज्ञानम् आख्याहि –मुझे ज्ञान बताओ।
यथैतद् –यह ज्ञान कैसा है?
विशुद्धं विपुलं ज्ञानम् –ज्ञान विशुद्ध और विपुल दोनों है। यहाँ विशुद्ध और विपुल का विरोध नहीं। हम सोचते हैं कि ग्रामदान व्यापक चाहेंगे तो उसमें अशुद्धियाँ आएँगी। हज़ारों ग्रामदान हों और अच्छे भी हों, क्या यह संभव है? यानि विपुलता और विशुद्धता में हम भेद करते हैं। लेकिन यहाँ कहा है कि आत्मज्ञान शुद्ध होता है और व्यापक भी। फिर कहा: वैराग्य-विज्ञान-युतम् –ज्ञान बताइये वैराग्य-विज्ञानयुक्त। फिर पुराणम् –कहा। नया नहीं, पुराना ज्ञान। पुराण यानि कैसा? मुरब्बे जैसा। मुरब्बा कल बनाया और आज खाया, ऐसा प्रायः नहीं होता। पुराण यानि भीना हुआ। मराठी में इसे ‘मुरणें’ कहते हैं। यानि अनुभव की कसौटी पर कसा हुआ ज्ञान। कोई नयी बात निकली तो वह ठीक है या बे-ठीक, कह नहीं सकते। इसलिए कहा: पुराणं ज्ञानम् –अनुभव की कसौटी पर कसा हुआ ज्ञान।

विश्वेश्वर! विश्वमूर्ते! ये दो सम्बोधन है। हे विश्वचालक और हे विश्वरूपमूर्ति! ‘विश्वचालक’ कहने पर भगवान विश्व के ऊपर हो जाते हैं, पर ‘विश्वमूर्ति’ कहने से विश्वमय हो गये। भगवान विश्व में ओतप्रोत हैं। भगवान अपने चालक बनते हैं, यानि चलाने वाले वे हैं और चलने वाले भी वे ही हैं।

और कौन-सी आवश्यक बात सिखाने के लिए उद्धव ने भगवान् से कहा: त्वद्‍भक्ति-योगम् –अपना भक्तियोग सिखाओ। वह भक्तियोग कैसा है? महद्-विमृग्यम् –महान पुरुषों द्वारा शोधनीय। विमृग्य यानि शोधनीय। भक्तियोग का शोधन अभी तक पूरा नहीं हुआ है। आज भी महापुरुष उसका शोधन करते ही जा रहे हैं, खोज जारी ही है।

यहाँ भक्तियोग का विशेषण ‘महद्-विमृग्यम्’ है और ज्ञान के विशेषण ‘विशुद्धं, विपुलं, वैराग्य-विज्ञान-युतम्’ और ‘पुराणम्’। इसमें एक बात कही है कि भक्तियोग आख़िरी यानि नवीनतम चाहिए। परमात्मा की प्राप्ति के लिए सबसे अच्छी उपासना कौन-सी? आज जो चल सकती है, वही उपासना अच्छी है। पुरानी उपसना काम की नहीं। आज अलग-अलग देवताओं की उपासना चलती है, शालग्राम की उपासना चलती है, शिव की उपासना चलती है या परिश्रम – खेती की उपासना चलती है – पर जो आज के लिए अनुकूल उपासना होगी, वही उपासना अच्छी मानी जायेगी। लेकिन ज्ञान तो पुराना ही चाहिए, वह नया नहीं चलेगा। आज का आज, ताजा ज्ञान नहीं चलेगा।

अब उद्धव अपना वर्णन कर रहे हैं

(19.2) ताप-त्रयेणाभिहतस्य घोरे
संतप्यमानस्य भवाध्वनीश!
पश्यामि नान्यच्छरणं तवांघ्रि-
द्वंद्वातपत्रादमृताभिवर्षात् ॥

हम ताप-त्रयेणाभिहत –तीनों तापों से संतप्त हैं। भवाध्वनि – अध्वा यानि मार्ग, संसाररूपी मार्ग में थके हुए हैं। संसार-मार्ग कैसा है?घोर है। तुलसीदास जी ने भी कहा है: संसार-कांतार अति घोर गंभीर। कान्तार यानि जंगल। घोर यानि घना। संसार अत्यन्त घना जंगल है। उसमें शेर रहते होंगे, और दूसरे हिंसक पशु भी होंगे। तुलसीदास जी तो कवि हैं। उन्होंने संसार का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। जमशेदपुर जैसे शहर में रहने वाले लोग कबूल नहीं करेंगे कि संसार-मार्ग घोर है। यहाँ तो सुन्दर रास्ते हैं, अच्छे मकान हैं, बड़ी-बड़ी नौकरियाँ मिलती हैं, तो कौन कहेगा कि संसार घोर है? लेकिन तुलसीदास जी कहते हैं कि संसार घोर और गम्भीर है। हम तीनों तापों से तपे हुए हैं, संतप्त हैं। हमें आपके सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं दीखता। आपका चरण-युगल रूपी छाता ही हमारा आधार है। तभी हम उस धूप से बच पायेंगे। ‘आतप’ यानि धूप और ‘आतपत्र’ यानि छाता। वह भी सामान्य छाता नहीं। ऐसा सुन्दर कि उसमें से अमृत की बूँदें टपक रही हैं। अद्‍भुत छाता है! धूप से बचाता है और अमृत की वर्षा भी करता है! नान्यत् शरणम् –आपके सिवा और कोई आधार नहीं। क्रमशः