Tuesday, 2 July 2019

श्रीजी भागवत सुधा से ।

श्रीमद्भागवत सुधा से
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श्री जी
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श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पाश्र्वे
नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्।
इष्णन्निषाणामुं म इषाण
सर्वलोकं म इषाण।।

श्रीमहीधर ने "श्री" का अर्थ किया है ....."सम्पत्ति-"

यथा सर्वजनाश्रयणीयी भवति सा श्रीः।
श्रीयतेअनया श्रीः सम्पतिरित्ययर्थः।

उन्होंने लक्ष्मी का अर्थ किया है सौन्दर्य, वह वस्तु जिसके द्वारा कोई वस्तु मनुष्यों के द्वारा लक्षित की जाती है-

लक्ष्यते दृश्यते जनैः सा लक्ष्मीः। सौन्दर्यमित्यर्थः

हे पुरुषोत्तम! श्री और लक्ष्मी तुम्हारी पत्नी हैं। दिन और रात्रि तुम्हारे पाश्र्व भाग हैं। आकाश में छिटके हुए सारे तुम्हारे रूप की रश्मियाँ हैं। द्युलोक और पृथ्वी लोक तुम्हारे मुख के विकास हैं। हम जानते हैं कि तुम हमें चाहते हो। इसलिये अवश्य हमारा अभ्युदय और निःश्रेयस चाहो। हमारा लोक, परलोक और सर्वलोक तुम श्रेष्ठ बना दो। सर्वलोक में मेरा आत्मभाव हो जाय।)

श्रयते हरिम् या सा श्रीः

जो भगवान की सेवा करे वह श्री। सेवा क्या है?

भक्ति।
‘भज सेवायां’ सेवा भक्ति भी कई तरह की होती है। पंखा चलाना भी सेवा है और पैर दबाना भी सेवा है, पर मुख्य सेवा क्या है-

कृष्णसेवा सदा कार्या मानसी सा परा मता।
चेतस्तत्प्रवणं सेवा तत्सिद्धयै तनुवित्तजा।।

अर्थात प्राणी को सदा श्रीकृष्ण सेवा करनी चाहिये। सेवा में भी मानसी सेवा ही सर्वोत्कृष्ट है। चित्त की कृष्णोन्मुखता या कृष्ण में तन्मयता ही सेवा है। मानसी सेवा की सिद्धि के लिये तनुजा और वित्तजा सेवा करनी चाहिये।

कायिकी वाचिकी आदि सेवा करते-करते अन्त में मानसी सेवा की योग्यता प्राप्त होती है।

‘विजातीयप्रत्ययनिारासपूर्वकसेव्याकाराकारित मानसीवृत्तिप्रवाह’ ही मानसी सेवा है।

जिस प्रकार समुद्रोन्मुखी गंगा का अखण्ड प्रवाह चलता है। उसी प्रकार भगवन्मुखी मानसी वृत्तियों का प्रवाह चलना ही मानसी सेवा है। संसार से विमुख होकर मन श्रीभगवान के सम्मुख होकर उन्हीं में रम जाय, यह मानसी सेवा है।

मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये।
मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गंगाम्भसोअम्बुधौ।।

अर्थात भगवच्चरित्र के श्रवणमात्र से सर्वान्तरनिवासी प्रभु की ओर समुद्र की ओर अभिमुख होने वाले अखण्ड, निर्मल, गंगा प्रवाह की तरह निर्मल अन्तःकरण का भक्तिरूप अविच्छिन्न प्रवाह होता है।
द्रवीर्भूत निर्मल, निष्कलंक परम पवित्र मनोवृत्ति का भगवदाकाराकारित अखण्ड प्रवाह, भक्ति है। 

जैसे गंगाजल का निर्मल, निष्कलंक द्रवीभूत प्रवाह समुद्राभिमुख प्रवाहित होता है, वैसे ही जिसका निर्मल-निष्कलंक द्रवीभूत अन्तःकरण भगवदाकारित होकर अखण्ड प्रवाहित हो वही भक्ति है, वही श्री है।

'समुद्र मंथन के बाद श्री का प्रादुर्भाव हुआ।"

बहुतों ने उनको चाहा।

भगवती ने सोचा- ‘क्या करूँ’, बहुत से लोग मुझे चाहते हैं, पर मुझे जो चाहते हैं, मैं उन्हें चाहती ही नहीं।

मैं जिसको चाहती वह मुझको चाहता ही नहीं। श्रीमन्नारायण विष्णु मुझको अच्छे लगते हैं, पर वे मुझको चाहते ही नहीं, आप्तकाम-पूर्णकाम-आत्माराम भगवान मेरी ओर दृष्टि ही नहीं डालते।

पर वे चाहें- न-चाहें, हमारे तो ध्येय, ज्ञेय, परमाराध्य सर्वस्व वही हैं----

असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा,
गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।
द्वेषी मयि स्यात्करुणाम्बुधिर्वा,
कृष्णः स एवाद्यगतिर्ममायम्।।

अर्थात प्रियतम श्रीकृष्ण  सौन्दर्य-माधुर्य-सुधाजलनिधि हों या सौन्दर्य-माधुर्यविहीन, सर्वगुण सम्पन्न हों या सर्वगुण रहित, मुझसे अनुकूल हों या प्रतिकूल, सब प्रकार से हमारे ध्येय, ज्ञेय, गति वही हैं।

लक्ष्मी जी  ने श्रीभगवान विष्णु के गले में जयमाला डाल दी। श्री प्रभु ने उन्हें अपने वक्षः स्थल में स्थान दिया। सर्वात्मा-सर्वाधिष्ठान परात्पर परब्रह्म परमात्मा  प्रभु की हृदयेश्वरी बन गयीं।

जो मुँह बाये घूमता है लक्ष्मी के लिये- आओ, आओ, आओ लक्ष्मी, लक्ष्मी उधर नहीं जाती।

‘श्रयते हरिं या सा श्रीः’ यह कर्ता में प्रयत्य है।

इसी दृष्टि से श्री का अर्थ सेवा या भक्ति किया जाता है।

‘श्रीयते सर्वैगुणैर्या सा श्रीः’

अनन्त कल्याण-गुण-गण जिनकी आराधना करत हैं, उनका नाम है श्री।

यस्तास्ति भक्तिर्भगवत्यकिंचना
सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुरः।
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणाः
मनोरथेनासति धावतो बहिः।।

जिस पुरुष की भगवान् में निष्काम भक्ति है, उसके हृदय में समस्त देवता धर्म-ज्ञानादि सम्पूर्ण सद्गुणों के सहित सदा निवास करते हैं।

किन्तु जो भगवान का भक्त नहीं है, उसमें महापुरुषों के वे गुण आ ही कहाँ से सकते हैं?

वह तो तरह-तरह के संकल्प करके निरंतर तुच्छ बाहरी विषयों की ओर ही दोड़ता रहता है।

जिसकी भगवान में प्रीति होती है, सब गुण सिमिट-सिमिट कर उसमें रमते हैं।
शोभा-आभा-प्रभा-कान्ति शान्ति की अधिष्ठात्री महाशक्तियाँ मूर्तिमती होकर भगवती श्री की सेवा में संलग्न रहती हैं।

जैसे सुन्दरता, मधुरता है ऐसे ही मृदुता=कोमलता की अधिष्ठात्री विग्रहवती शक्ति बड़ी कोमलागीं है, उसके चरणों के कमल के कोमल सुकोमल पंखुड़ियों के गड़ने का डर लगता है, नहीं-नहीं पंकज का पराग भी चुभता है। पंकज का पराग कितना कोमल है, वह भी उसके चरण में चुभता है।
जिस मृदुता के पादारबिन्द इतने कोमल हैं, उसके हस्तारविन्द कितने कोमल होंगे?
अपने ऐसे सुकोमल हस्तारविन्द से वह श्री राधारानी के चरणों का स्पर्श करने में सकुचाती है- ..
‘हमारे हाथ कठोर हैं, श्री जी के चरणारविन्द बड़े सुकोमल हैं, कहीं कोई आघात न हो जाय।’

इस तरह सुन्दरता की अधिष्ठात्री देवी, मधुरता की अधिष्ठात्री देवी, मृदुता की अधिष्ठात्री देवी, सौन्दर्या-मृत-सौगंध्यामृत की अधिष्ठात्री महाशक्तियाँ मूर्तिमति होकर जिनके मंगलमय चरणाविन्द की आराधना करती हैं------ उनका नाम है श्री।

‘श्रीयते सर्वैजर्गद्भिः स्थावरेः जगमैश्च या सा श्रीः’

सारे स्थावर-जंगल जिसका सहारा पकड़ते हैं, वह है श्री।

बुद्धिमानों ने तो कहा-

‘भगवती की अनुग्रह भरी दृष्टि जिस पर ज्यादा पड़ जाय वही परमेश्वर होता है, जिस पर दृष्टि जरा कम हो वही जीव होता है।
जीव ईश्वर का और कोई भेद नहीं।’ इसलिये सब उनका आश्रय लेते हैं।

ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपाड़ुमोक्षकामास्तपः समचरन् भगवत्प्रपन्नाः।
सा श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय यत्पादसौभगमलं भजतेअनुरक्ता।।

जिनका कृपा-कटाक्ष प्राप्त करने के लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान के शरणागत होकर बहुत दिनों तक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मी जी अपने निवास-स्थान कमलवन का परित्याग करके बड़े प्रेम से जिनके चरण कमलों की सुभग छत्रछाया का सेवन करती हैं।)

ब्रह्म, रुद्र, इन्द्र देवाधिदेव  अनन्त-अनन्त काल तक तपस्या करते हैं, इस दृष्टि से कि श्री जी अनुग्रह भरी दृष्टि से निहार दें, क्यों कि उनकी दृष्टि में ही चमत्कार हैं। जिधर दृष्टि चली गयी वही निहाल हो गया, जिधर दृष्टि नहीं गयी वही बेहाल हो गया।

. ‘श्रीयते श्रीकृष्णेनाअपि या सा श्रीः’
श्री हरि स्वयं ही जिसकी आराधना। करते हैं। वंशी में और क्या गाते हैं?

राधारानी का मधुर मनोहर मंगलमय नाम। उन्हीं का परम पवित्र चरत्रि वंशी में गाते हैं।

रसखान कहता है-

"ब्रह्म में ढूड्यो पुरानन-कानन वेद रिचा सुनि चौगुने चायन,
देख्यो सुन्यो कबहूँ न कितै वह कैसे सरूप ओ कैसे लुभायन।
टेरत हेरत हारि परयो रसखानि बतायो न लोग लुगायन,
देख्यो दुरयो वह कुन्ज कुटीर में बैठयो पलोटत राधिका पाँयन।।"

वेद में पुरान में ब्रह्म को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गया। लोग-लुगाइयों ने कुछ बताया नहीं, आकर देखा तो कुन्ज-कुटीर में राधारानी के मंगलमय पादारविन्द का संवाहन कर रहा था।

इस तरह श्रीहरि भगवान भी जिनकी आराधना करते हैं, वे हैं श्री जी।
रामलीला की कथा में है- बन्दर-भालुओं ने राक्षसों को मार कर कहा कि अब हमारी वीर पूजा हो। हमने रावण  का वध कर दिया। जनक नन्दिनी हंस पड़ी।

बन्दर-भालुओं ने कहा- ‘‘माँ क्यों हंसती हो?’’

माँ ने कहा- ‘‘कुछ नहीं, यों ही, तुम्हारी वीर-पूजा अवश्य होनी चाहिये, अवश्य होनी चाहिये।’’

भालुओं ने कहा- ‘‘नहीं, हंसी का कारण बताओ।’’

माँ ने कहा- तुमने तो बीस भुजा वाले रावण को मारा है, अभी सहस्रभुज रावण है, उसे जीतो तो वीर-पूजा की बात करो। बन्दर-भालुओं ने कहा ठीक है। तैयारी हुई।

किष्किन्धा के शूर-वीर, लंका और अयोध्या के शूर-वीर सज-धजकर लड़ाई करने गये। लोगों ने सहस्र भुज रावण को खबर दी।

एक बाण उसने ऐसा मारा कि लंका के शूर-वीर लंका पहुँच गये। किष्किन्धा के शूर-वीर किष्किन्धा पहुँच गये, अयोध्या के शूर-वीर अयोध्या पहुँच गये।

फिर सभी इकट्ठे हुए, फिर उसने बाण मारा तो जो जहाँ से शूर-वीर आये थे वहीं पहुँच गये। न लड़ाई न झगड़ा।

सभी बडे़ परेशान हुए। राम भगवान भी चिन्तित हुए, ‘यह तो बड़ा भयंकर है।’

नारद जी आये। बोले- ‘‘क्यों चिन्तित हो महाराज! उसका वध ये जनक नन्दिनी जानकी जी करेंगी।’’

राम जी ने कहा- ‘ये लड़ेगी, हैं, ये तो बहुत कोमलागीं हें, भला कैसे लडे़ंगी। तो नारद जी! आप ही इनसे कहो।’’

नारद जी ने कहा- ‘‘हमारे कहने से काम नहीं चलेगा। आप हमसे मंत्र दीक्षा लो महाराज और इनकी प्रार्थना करो।’’

श्रीराम को नारद जी ने मंत्र-दीक्षा दी।

श्रीराम ने स्तुति की ‘वन्दे विदेह- तनयापदपुण्डरीकं’  इत्यादि।
तब श्री जी का दिव्य स्वरूप प्रकट हुआ। उस दिव्य रूप से उन्होंने सहस्रभुज रावण का वध किया।

इस तरह ‘श्रीयते  हरिणाअपि या सा श्रीः’ हरि भी जिनकी आराधना कहते हैं, वे हैं श्री जी।

. ‘श्रु श्रवणे’ धातुओं से श्री शब्द बनता है।

"‘श्रृणोति भक्तानां दुःख गाथाः श्रुत्वा च भगवन्तं श्रावयति इति श्रीः’'"
जो भक्तों की दुःख गाथा को सुनती हैं ओर फिर भगवान को सुनाती है, वे हैं श्री।

भक्तों की दुःख गाथा को सुनने का किसको अवकाश है?

श्री जी ही धैर्य पूर्वक सुनती हैं। तुलसी दास जी महाराज यही तो प्रार्थना करते हैं-

कबहुक अंब अवसर पाइ।
मेरिऔ सुधि द्याइवी, कछु करुण कथा चलाय।।1।।
दीन, सव अँग हीन, छीन, मलीन, अधी अघाइ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी दास कहाइ।।2।।
बूझि हैं ‘सो है कौन’ कहिबी नाम दसा जनाइ।
सुनत राम कुपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाई।।3।।
जानकी जग जननि जन की किये बचन सहाय।
तरै तुलसीदास भव तब नाथ-गुन गन गाइ।।4।।

अनन्त ब्रह्माण्ड नायक भगवान सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान प्रभु के दरबार तक अपनी बात को पहुँचाना हो, अपना सुख-दुःख, हर्ज-गर्ज सब कुछ कहना हो तो श्री जी ही सुनने के लिये तैयार हैं।

‘शं हिंसायाम् श्रणाति भक्तानां दोषान् हिनस्ति इति श्रीः।

भगवत्पद प्राप्ति में जो बाधक दोष हैं, उनका जो समूल उन्मूलन कर देती हैं, उनका नाम है श्री।

‘श्रीअ् पाके’- श्रीणाति परिपषवान् करोति शुभगुणान् इति श्रीः।
अर्थात् विवेक-वैराग्यादि- गुण-गणों को परिपक्व कर देती हैं।

इस तरह श्री जी परम दयामयी, करुणामयी और कल्याणमयी हैं।
लंका  विजय के पश्चात हनुमान जी को श्रीरामचन्द्र ने कहा-‘‘जरा जानकी को शुभ समाचार सुना दो- मेघनाद, कुम्भकर्ण मारा गया, रावण  वध हो गया। जनक नन्दिनी जानकी निश्चिन्त रहें। विभीषण भक्त हैं अब उनकी लंका में हैं।’’
श्री हनुमान जी ने सब समाचार सुना दिया। माँ बहुत प्रसन्न हुई।

नहि पश्यामि सदृशं चिन्तयन्ती प्लवंगम।
आख्यानकस्य भवतो दातुं प्रत्यभिनन्दनम्।।
न हि पश्चामि तत् सौम्य! पृथिव्यामपि वानर!।
सदृशं यत्प्रियाख्याने तब दत्वा भवेत् सुखम्।।
हिरण्यं वा सुवर्ण वा रत्नानि विविधानि च।
राज्यं वा त्रिषु लोकेषु एतन्नाहँति भाषितम्।।

(वानर वीर! ऐसा प्रिय समाचार सुनाने के कारण मैं तुम्हें कुछ पुरस्कार देना चाहती हूँ, किन्तु बहुत सोचने पर भी मुझे इसके योग्य कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। सौम्य वानर वीर! इस भूमण्डल में मैं कोई ऐसी वस्तु नहीं देखती, जो इस प्रिय संवाद के अनुरूप हो और जिसे तुम्हें देकर मैं सन्तुष्ट हो सकूँ। सोना, चाँदी, नाना प्रकार के रत्न अथवा तीनों लोकों का राज्य भी इस प्रिय समाचार की बराबरी नहीं कर सकता।)

हुनमान जी ने कहा- ‘‘माँ हम आज एक वरदान  माँगेगे। हम जब आपका दर्शन करने आये थे तो राक्षसियाँ आपको मुँह दिखा रहीं थी। डरा धमका रही थीं। हमें आप आज्ञा दें। हम इनमें किसी की नाक काट दें। किसी का हाथ तोड़ दें, किसी का पैर तोड़ दें। चित्रवध इनका करें।’’

माँ ने कहा- ‘वत्स! तुम तो राघवेन्द्र के दरबार में रहते हो। वहाँ तो

"‘आनृशंस्यं परो धर्मः’"

राघवेन्द्र के दरबार में आनृशंस्य- अक्रूरता परम धर्म है।

बेटा तुम यह क्या सोचते हो?’

हनुमान ने कहा- ‘ये अपराधिनी हैं, बड़ी दुष्टा हैं।’

शिव जी महाराज ने कहा है-

जौं नहिं दंड करौं खल तोरा।
भ्रष्ट होइ श्रुति मारग मोरा।।

राक्षस्यो दारुणकथा वरमेतत् प्रयच्छ मे।
मुष्टिभिः पार्ष्णिघातैश्च विशालैश्चैव बाहुभिः।।
जघंजानुप्रहारैश्च दन्तानां चैव पीडनैः।
कर्तनैः कर्णनासानां केशानां लुंचनैस्तथा।।
निपात्य हन्तुमिच्छामि तब विप्रियकारिणीः।
एवं प्रहारैर्बहुभिः सम्प्रहार्य यशस्विनि।
घातये तीव्ररूपाभिर्याभिस्त्वं तर्जिता पुरा

( मेरी इच्छा है कि मुक्कों, लातों, विशाल भुजाओं-थप्पड़ों, पिण्डलियों और घुटनों की मार से इन्हें घायल करके इनके दाँत तोड़ दूँ, इनके नाक और कान काट लूँ, तथा इनके सिर के बाल नोचूँ।

यशस्विनि! इस तरह बहुत से प्रहारों द्वारा इन सबको पीटकर क्रूरतापूर्ण बातें करने वाली इन अप्रिकारिणी राक्षसियों को पटक-पटक कर मार डालूँ। जिन-जिन भयानक रूपवाली राक्षसियों ने पहले आपको डाँट बतायी है, उन सबको मैं अभी मौत के घट उतार दूँगा। इसके लिये आप केवल वर दें ।

माँ ने कहा- ‘वत्स! ये रावण की नौकरानी थी, परवश होकर वैसा करती थीं-

आज्ञप्ता राक्षसेनेह राक्षस्यस्तर्जयन्ति माम्।
हते तस्मिन् न कुर्वन्ति तर्जनं मारुतात्मज।

(पवनकुमार! उस राक्षस रावण की आज्ञा से ही ये मुझे धमकाया करती थीं। जब से वह मारा गया है, तब से ये बेचारी मुझे कुछ नहीं कहतीं। इन्होंने डराना धमकाना छोड़ दिया है।)

पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि वा।
कार्य कारुण्यमार्येण न कश्चिन्नापराध्यति।।

(श्रेष्ठ पुरुष चाहिये कि कोई पापी हो या पुण्यात्मा अथवा वे वध के योग्य अपराध करने वाले ही क्यों न हों, उन सब पर दया करें; क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जिससे कभी अपराध होता ही न हो।)

अर्थात पाप हो, अशुभ हो, बधार्ह  हो तो भी आर्य-पुरुष को उन पर करुणा करनी चाहिये।

दुनियाँ में कोई ऐसा है जिससे अपराध न बना हो?
दुनियाँ में कोई ऐसा पौधा है, जिसे वायु का स्पर्श नहीं हुआ!
कोई प्राणी ऐसा है जिससे कोई अपराध नहीं बना?

इस तरह माँ ने उन राक्षसियों को बचा लिया।

रामानुजसम्प्रदाय के एक बड़े भक्त कवि महापुरुष कहते हैं-

मातर्मैथिलि राक्षसीस्त्वयि तदैवार्द्रापराधास्त्वयि
रक्षन्त्या पवनात्मजाल्लघुतरा रामस्य गोष्ठी कृता।
काकं तंज विभीषणं शरणमित्युक्तिक्षमौ रक्षतः
सा नः सान्द्रमहागसः सुखयतु क्षान्तिस्ववाकस्मिकी।

(हे मातः! आपने ताजा अपराध करने वाली राक्षसियों की हनुमान से रक्षा करके श्रीराम- गोष्ठी छोटी कर दी, क्योंकि उन्होंने तो जयन्त और विभीषण की रक्षा शरणागत होने पर की थी, परन्तु आपने तो शरण होने की अपेक्षा बिना ही उनका रक्षण किया।)

मातर्मैथिलि! सौ-दो-सौ वर्ष का नहीं, जिनका अपराध बिल्कुल ताजा था उन आर्द्रापराधा राक्षसियों की पवनात्मज से रक्षा करती हुई आपने राम की गोष्ठी को लघु बना दिया।

प्रश्न है- ‘क्यों, राम भी तो रक्षा करते हैं शरणागत की?’

उत्तर है- ‘हाँ करते तो हैं, पर शरणागत हो तब। कौवा जयन्त भगवान की शरण हुआ तब उसकी रक्षा हुई। नहीं तो भागता-भागता लोक-लोकान्तर में भटका पर कहीं विश्राम नहीं-

नारद देखा बिकल जयन्ता।
लागि दया कोमल चित संता।।
पठवा तुरत राम पहिं ताही।
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही।।
आतुर सभय गहेसि पद जाई।
त्राहि त्राहि दयालु रघुराई।।
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ।
अब प्रभु पाहि शरण तकि आयउँ।।

नारद ने कहा- ‘‘अरे! जा, तू राम की शरण में ही जा। समय का अपव्यय मत कर, इधर-उधर मत भटक।’’

जयन्त ने कहा- ‘‘महाराज, क्या मुँह लेके जाऊँ?’’

नारद  ने कहा-‘‘ अरे बेवकूफ! कहना-पहले हम आपका प्रभाव देखने आये थे, अब हम आप का स्वभाव देखने आये हैं। प्रभाव तो देख लिया, बड़ा प्रभाव! अब जरा स्वभाव देखना चाहते हैं’’-

‘दीनबन्धु अति मृदुल स्वभाऊ’।

जयन्त नारद की प्रेरणा से श्रीराम की शरण में गया तब रक्षा हुई।

राक्षसियाँ कहाँ शरण हुई?

यह त्रिजटा और राक्षसियों का संवाद है- ‘‘आपकी जो आकस्मिकी क्षान्ति है कि शरण हुए बिना भी हम सान्द्रमहापापियों को आपसे आश्वासन मिलता है, बड़ा आनन्द मिलता है, विश्वास होता है कि हमारी रक्षा होगी, अभय होगा’’।

तो कहने का मतलब यह है कि सर्वेश्वरत्व, सर्वकारणत्व जैसा राम में है, वैसा ही सीता में, लेकिन सौलभ्य सर्वातिशायी माँ में ही है, अन्यत्र नहीं।

इसलिये सर्वतोभावेन वे अनन्तब्रह्माण्डजननी कल्याणमयी करुणामयी है। भक्तों ने कहा है-

राधादास्यमपास्य यः प्रयतते गोविन्दसंगशया
सायं पूर्णसुधारुचेः परिचयं राकां विना कांक्षति।
किंच श्यामरतिप्रवाहलहरीबीजं न ये तां विदु-
स्ते प्राप्यापि महामृताम्बुधिमहो बिन्दुं परं प्राप्नुयुः।।

जो व्यक्ति श्रीराधा- कैंकर्य को त्यागकर श्री लाल जी के प्रेम की आशा से प्रयत्न करता है, वह मानो पूर्णिमा की रात्रि के बिना ही पूर्णचन्द्र का दर्शन चाहता है तथा ऐसे जो व्यक्ति श्यामसुन्दर की रति के प्रवाह रूप तरंग के मूल बीज उन श्रीराधा को नहीं जानते वे विशाल अमृत-  सागर को पार कर भी खेद है कि केवल एक बूँद ही प्राप्त कर पाये।
अर्थात जो गौर तेज का आश्रयण बिना किये- श्रीराधारानी वृषभानुनन्दिनी के मंगलमय चरणारविन्द की आराधना बिना किये, श्याम तेज को पाना चाहता है, गोविन्द संग की इच्छा करता है, वह मानो पूर्णिमा के बिना पूर्ण सुधारुचि निर्मल-निष्कलंक-पूर्ण-चन्द्र का दर्शन चाहता है।

बिना पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र का दर्शन कहीं होता है?

बिना राधारानी वृषभानु-नन्दिनी का दर्शन किये कदाचित श्याम तेज का दर्शन मिल भी जाय तो भी बिन्दु ही हाथ लगता है, इसलिए गौर-तेज की आराधना बहुत आवश्यक है। भगवान शिव ने स्पष्ट ही कहा है-

गौर तेजो विना यस्तु श्यामतेजः समर्चयेत्।
जपेद् वा ध्यायते वापि स भवेत्पातकी शिवे।।

‘आद्र पुष्करिणों’

करुणा से भगवती का हृदय सदा आर्द्र ही रहता है। उन भवगती के मंगलम चरणारविन्द का आश्रय ग्रहण करो।।

    (धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी )