Friday, 12 January 2018

काया से, मन से, वाणी से उनका संग करना श्रीराधाबाबा

_*काया से, मन से, वाणी से उनका संग करना।*_
_*जहां तक हो, जब तक मौका भगवान् की दया से मिलता रहे, तब तक अधिक-से-अधिक उनके पास रहा जाय।*_
_*मन के द्वारा उनके विषय में जो कुछ बातें मालूम हो उसका चिंतन करना चाहिए। वाणी के द्वारा सच्चे श्रद्धालुओं के बीच में उनकी चर्चा करनी चाहिए।*_
*ये तीन बातें जितनी अधिक तथा जितनी तत्परता एवं लगन से होगी, उतनी ही शीघ्रता से महापुरुषों की कृपा प्रकाशित होकर उनका असलीरूप दीखने लग जाता है,* जहां वह दीखा कि फिर तो मन उसी में रम जाएगा, वाणी बंद हो जाएगी और शरीर उनके चरणों में न्योछावर हो जाएगा।
*मन में लालसा तो पास में रहकर उनकी सेवा करने की अर्थात उनके कहने के अनुसार यंत्र की तरह नाचने की रखनी चाहिए। पर यह मन की बात है। उन से खुलकर कुछ नहीं कहे, फिर वे जैसी आज्ञा दें, जहां रहने को कहे, वहीं रहें।* अर्थात पास में रहना चाहता हूं,  यह खोलकर उनसे कभी मत कहें, सच्चे संत सब कुछ जानते हैं, उनसे आपके मन की कोई बात छिपी नहीं है, ऐसी *लालसा होने पर भी वो अलग रखना चाहे तो उसी में आपका मंगल है,*अलग रहने से आपकी श्रद्धा बढ़ेगी इसीलिए अलग रखेंगे। बहुत से कारण होते हैं, पर उनके सामने तो सब प्रत्यक्ष हैं, वे वही करेंगे, जिससे आपकी श्रद्धा बढ़े।

आपका मन जिसकी और अधिक आकर्षित हो, उन्ही के पास रहना ठीक है। *दोनों ही विलक्षण महापुरुष है। अर्थात जिसकी और मन ज्यादा करें उसी के पास रहने की मन-ही-मन लालसा रखनी चाहिए* पर खोलकर कर न इनसे कहना न उनसे कहना। *दोनों जो आज्ञा करें, उसीको हृदय की सारी तत्परतासे करना। फिर आपके लिए जो भी ठीक होगा, वह अपने आप हो जाएगा।*

भजन ऐसी चीज है कि बिना किसी के पास गए, बिना किसी से पूछे, अपने आप सब मालूम हो जायेगी। स्वयं हृदय में प्रकाशित हो जायेगी। बिना कहे बतानेवाले गले पड़कर बता जाएंगे। न चाहने पर भी बता ही जाएंगे। बिल्कुल अनुभव में बहुत दूर तक यह बात मेरे जीवन में आ चुकी है। *किसी के पास नहीं जाना, किसी से मुंह खोलकर कुछ नहीं पूछना, केवल जीभ से नाम लेना और मन से स्मरण करना, बस दो ही काम सर्वोत्तम है जो कर रहे हैं।* फिर कुछ भी नहीं चाहिए।

पर मन में *भजन का अहंकार नहीं करना चाहिए।* अर्थात मैं ठीक कर रहा हूं यह लोग नीचे दर्जे के पुरुष है, फालतू समय खोते हैं।

_*तेरे भावे जो करो भलो बुरो संसार।*_
_*नारायण तू बैठ कर अपनों भवन बुहार।।*_

सियाराम मय सब जग जानी। करऊँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।

*आप भी पूज्य, वे भी पूज्य--पर हमें तो भजन ही करना है।*
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*मेरे प्रियतम*
गीतावाटिका प्रकाशन